ईश्वर
१-ईश्वर स्वत: प्रमाण है। इसके लिये अन्य प्रमाणोंकी आवश्यकता ही नहीं है। सम्पूर्ण प्रमाणोंकी सिद्धि भी ईश्वरकी सत्ता-स्फूर्तिसे होती है।
२-ईश्वर है या नहीं—यह प्रश्न भी ईश्वरको सिद्ध करता है, क्योंकि मिथ्या वस्तुके विषयमें तो प्रश्न ही नहीं बनता, जैसे ‘वन्ध्यापुत्र है या नहीं’—यह प्रश्न नहीं बनता।
३-आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्रादि पदार्थोंकी उत्पत्ति और नाना प्रकारकी योनियोंके यन्त्रोंकी भिन्न-भिन्न अद्भुत रचना और नियमित संचालन-क्रियाको देखनेसे यह सिद्ध होता है कि बिना कर्ताके उत्पत्ति और बिना संचालकके नियमित संचालन होना असम्भव है। जो उनकी उत्पत्ति और संचालन करनेवाला है, वही ईश्वर है।
४-जीवोंके सुख, दु:ख, जाति, आयु, स्वभावकी भिन्नताका गुण-कर्मानुसार यथायोग्य विभाग करना ज्ञानस्वरूप ईश्वरके बिना जड प्रकृतिसे होना सम्भव नहीं है; क्योंकि सृष्टिके प्रत्येक कार्यमें सर्वत्र प्रयोजन देखा जाता है। ऐसी प्रयोजनवती सृष्टिकी रचना एवं विभाग किसी परम चेतन कर्ताके बिना होना सम्भव नहीं है।
५-ईश्वर शेखचिल्लीके घरकी कल्पनाकी भाँति मनमोदक नहीं है।
६-परमात्मा कल्पित नहीं, ध्रुव सत्य है।
७-जिस दयामयी शक्तिका सभी चराचर जीव आसरा लेकर दु:ख मिटानेके लिये करुणाभावसे आर्तनाद करते हैं और जिस दयामयी शक्तिसे दु:खियोंका दु:ख मिटता है, उस शक्तिशालीको हम परमात्मा मानते हैं।
८-इस सम्पूर्ण संसारका जो आधार और मूल कारण है, वह परमात्मा है।
९-ईश्वर बिना ही कारण सबपर दया करता है, प्रत्युपकारके बिना कृपा करता है और सबको समान समझकर सबसे प्रेम करता है। इसलिये उसको मानना कर्तव्य है और कर्तव्यपालन करना ही मनुष्यका मनुष्यत्व है।
१०-ईश्वरको माननेसे उसकी प्राप्तिके लिये उसके गुण, प्रेम, प्रभावको जाननेकी खोज होती है और उसके नामका जप, स्वरूपका ध्यान, गुणोंके श्रवण-मननकी चेष्टा होती है, जिससे मनुष्यके पापों, अवगुणों एवं दु:खोंका नाश होकर उसे परमानन्दकी प्राप्ति हो जाती है।
११-अच्छी प्रकारसे समझकर ईश्वरको माननेसे मनुष्यके द्वारा किसी प्रकारका दुराचार नहीं हो सकता। जिन पुरुषोंमें दुराचार देखनेमें आते हैं, वे वास्तवमें ईश्वरको मानते ही नहीं हैं, व्यर्थ ही ईश्वरवादी बने हुए हैं।
१२-सच्चे हृदयसे ईश्वरको माननेवालोंकी सदासे जय होती आयी है। ध्रुव, प्रह्लाद-जैसे अनेकों ज्वलन्त उदाहरण शास्त्रोंमें भरे हैं। वर्तमानमें भी सच्चे हृदयसे ईश्वरको मानकर उसकी शरण लेनेवालोंकी प्रत्यक्ष उन्नति देखी जाती है। सम्पूर्ण श्रुति, स्मृति आदि शास्त्रोंकी सार्थकता भी ईश्वरको माननेसे ही सिद्ध होती है। क्योंकि सम्पूर्ण शास्त्रोंका ध्येय ईश्वरके प्रतिपादनमें ही है।
वेदे रामायणे चैव पुराणे भारते तथा।
आदौ मध्ये तथा चान्ते हरि: सर्वत्र गीयते॥
(महा०,.स्वर्ग०.अ०.६)
१३-ईश्वरको न माननेसे मनुष्यकी आध्यात्मिक स्थिति नष्ट हो जाती है और उसमें पशुपन आ जाता है। संसारमें जो लोग ईश्वरको नहीं माननेवाले हैं, गौर करके देखनेसे उनमें यह बात प्रत्यक्ष देखनेमें आती है।
१४-जो परमात्मा स्वत: प्रमाण है और जिस परमात्मासे ही सब प्रमाणोंकी सिद्धि होती है उसके विषयमें प्रमाण पूछना वैसा ही है, जैसा किसी मनुष्यका अपने ही सम्बन्धमें शंका करना कि मैं हूँ या नहीं।
१५-जो सूक्ष्मदर्शी हैं वे ही सूक्ष्मबुद्धिके द्वारा परमात्माका प्रत्यक्ष साक्षात्कार करते हैं।
१६-जिनको स्वयं साक्षात् करनेकी इच्छा हो वे श्रुति, स्मृति तथा महात्मा पुरुषोंके बताये हुए मार्गके अनुसार साधनके लिये प्रयत्न करनेसे परमात्माको प्रत्यक्ष कर सकते हैं।
१७-अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश (मरणभय)—इन पाँच क्लेशोंसे, पाप-पुण्य आदि कर्मोंसे, सुख-दु:खादि भोगोंसे और सम्पूर्ण वासनाओंसे रहित पुरुष-विशेष (पुरुषोत्तम) ईश्वर है।
१८-कुरानमें लिखा है—पूर्व और पश्चिम सब तरफ खुदा ही है, तुम जिधर भी अपना मुँह घुमाओगे, उधर ही खुदाका मुख रहेगा। खुदा वास्तवमें अत्यन्त ही उदार है। सर्वशक्तिमान् है।
१९-ईसाने कहा है—जिसका ईश्वरमें विश्वास है तथा जो भगवान्की शक्तिके आश्रित है, वह संसारसे तर जायगा, पर अविश्वासियोंकी बड़ी दुर्गति होगी।
२०-मनुष्य यदि विचार-दृष्टिसे देखे तो उसे न्यायकारी और परम दयालु ईश्वरकी सत्ता और दयाका पद-पदपर परिचय मिलता है।
२१-सर्वशक्तिमान् विज्ञानानन्दघन परमात्माकी सत्ता और दयापर तथा उससे होनेवाली महात्माओंकी जीवन-घटनाओंपर विश्वास करनेसे अवश्य लाभ होता है।
२२-भगवान् हैं अवश्य, उनके होनेमें रत्तीभर भी शंका नहीं है यह दृढ़ निश्चय है।
२३-ईश्वरकी सत्ता मान लेनेसे ही पापका नाश हो जाता है।