भक्ति
१-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—चारों पदार्थोंके मिलनेका सरल उपाय एक हरिकी सेवा ही है।
२-भक्ति ही एक ऐसा साधन है जिसे सभी सुगमतासे कर सकते हैं और जिसमें सभी मनुष्योंका अधिकार है।
३-इस कलिकालमें तो भक्तिके समान आत्मोद्धारके लिये दूसरा कोई सुगम उपाय है ही नहीं; क्योंकि ज्ञान, योग, तप, यज्ञ आदि इस समय सिद्ध होने बहुत ही कठिन हैं।
४-अनिर्वचनीय ब्रह्मानन्दकी प्राप्तिके लिये भगवद्भक्तिके सदृश किसी भी युगमें अन्य कोई भी सुगम उपाय नहीं है। कलियुगमें तो है ही नहीं।
५-भगवद्भक्तिमें मनुष्यमात्रका समान अधिकार है। कोई किसी वर्णाश्रमका, किसी जातिका, किसी समाजका और किसी अवस्थाका क्यों न हो, भगवान्की भक्ति करनेमें उसके लिये कोई रुकावट नहीं है।
६-भक्तिमें न विद्याकी आवश्यकता है, न बुद्धिकी। मूर्ख-से-मूर्ख और पापी-से-पापी भी भगवान्की भक्ति करनेसे परम पवित्र होकर उनकी कृपा प्राप्त कर सकता है और उस कृपाके बलसे उसे बहुत जल्दी परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है।
७-ईश्वरकी भक्तिमें आयु और रूपका तो कुछ भी मूल्य नहीं है। विद्या, धन, जाति और बल—ये भी मुख्य नहीं हैं एवं सदाचार और सद्गुणकी तरफ भी भगवान् इतना खयाल नहीं करते, वे केवल प्रेमको ही देखते हैं।
८-वर्तमान समयके लिये कल्याणकी प्राप्तिका सबसे सुगम और उत्तम उपाय भक्तिसहित निष्काम कर्मयोग है। इसका बड़ा सुन्दर उपदेश श्रीगीताजीके अष्टादश अध्यायके ५६ से ६६ तक ११ श्लोकोंमें है।
९-भगवान्की भक्ति ही उनका तत्त्वज्ञान करानेमें सर्वोपरि साधन है। अत: मनुष्यको चाहिये कि वह श्रद्धा एवं प्रेमपूर्वक भगवद्भक्तिका ही अभ्यास करे।
१०-भगवान्के स्वरूपका यथार्थ ज्ञान तो उनकी भक्ति करनेसे ही होता है।
११-भक्तितत्त्वका समझना बड़ा कठिन है।
१२-भक्तिका परम तत्त्व भगवान्की शरण होनेसे ही जाना जा सकता है।
१३-परमात्मामें परम अनन्य विशुद्ध प्रेमका होना ही भक्ति कहलाता है।
१४-भक्तिके प्रधान दो भेद हैं। एक साधनरूप, जिसको वैध और नवधाके नामसे भी कहा है और दूसरा साध्यरूप, जिसको प्रेमा-प्रेमलक्षणा आदि नामोंसे कहा है। इनमें नवधा साधनरूप है और प्रेम साध्य है।
१५-स्वामी जिससे सन्तुष्ट हो उस प्रकारके भावसे भावित होकर उसकी आज्ञाके अनुसार आचरण करनेका नाम वैध भक्ति है।
श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥
(श्रीमद्भागवत ७। ५। २३)
१६-भगवान् विष्णुके नाम, रूप, गुण, प्रभावादिका श्रवण, कीर्तन और स्मरण तथा भगवान्की चरणसेवा, पूजन और वन्दन एवं भगवान्में दासभाव, सखाभाव और अपनेको समर्पण कर देना—यह नव प्रकारकी भक्ति है।
१७-भगवान्के प्रेमी भक्तोंद्वारा कथित भगवान्के नाम, रूप, गुण, प्रभाव, लीला, तत्त्व और रहस्यकी अमृतमयी कथाओंका श्रद्धा और प्रेमपूर्वक श्रवण करना एवं उन अमृतमयी कथाओंका श्रवण करके वीणाके सुननेसे जैसे हरिण मुग्ध हो जाता है, वैसे ही प्रेममें मुग्ध हो जाना श्रवणभक्तिका स्वरूप है।
१८-केवल श्रवणभक्तिसे भगवान्की प्राप्ति हो जाती है।
१९-धुन्धुकारी-जैसा पापी भी केवल भगवान्के गुणानुवादोंके सुननेके प्रभावसे तर गया।
२०-सत्संग ही श्रवणभक्तिका हेतु है।
२१-भगवान्के नाम, रूप, गुण, प्रभाव, चरित्र और रहस्यका श्रद्धा और प्रेमपूर्वक उच्चारण करते-करते शरीरमें रोमांच, कण्ठावरोध, अश्रुपात, हृदयकी प्रफुल्लता, मुग्धता आदिका होना कीर्तनभक्तिका स्वरूप है।
२२-केवल कीर्तनभक्तिसे भी मनुष्य परमात्माकी दयासे उसमें अनन्यप्रेम करके उसे प्राप्त कर सकता है।
२३-प्रभुके नाम, रूप, गुण, प्रभाव, लीला, तत्त्व और रहस्यकी अमृतमयी कथाओंका जो श्रद्धा और प्रेमपूर्वक श्रवण तथा पठन किया गया है, उनका मनन करना एवं इस प्रकार मनन करते-करते देहकी सुधि भुलाकर भगवान्के स्वरूपमें ध्रुवकी भाँति तल्लीन हो जाना, स्मरणभक्तिका स्वरूप है।
२४-एकान्त एवं पवित्र स्थानमें सुखपूर्वक स्थिर, सरल आसनसे बैठकर इन्द्रियोंको विषयोंसे रहित करके कामना और संकल्पको त्यागकर प्रशान्त और वैराग्ययुक्त चित्तसे अथवा चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते, सभी काम करते हुए भी स्वाभाविक, शुद्ध और सरलभावसे भगवान्के सगुण, निर्गुण, साकार, निराकारके तत्त्वको जानकर गुण और प्रभावसहित भगवान्के स्वरूपका चिन्तन करना, भगवान्के नामका मनसे स्मरण करना, भगवान्की लीलाओंको स्मरण करके मुग्ध होना, भगवान्के तत्त्व और रहस्यको जाननेके लिये उनके गुण, प्रभावका चिन्तन करना तथा दिव्य स्तोत्र और पदोंसे मनके द्वारा स्तुति और प्रार्थना करना, इस तरह स्मरणके बहुत-से प्रकार शास्त्रोंमें बतलाये गये हैं।
२५-प्रेमी भक्तोंके द्वारा नाम, रूप, गुण, प्रभाव आदिकी अमृतमयी कथाओंका श्रद्धा और प्रेमपूर्वक श्रवण करना, भगवद्विषयक धार्मिक पुस्तकोंका पठन-पाठन करना, भगवान्के नामका जप और कीर्तन करना, भगवान्के पद एवं स्तोत्रोंके द्वारा अथवा किसी भी प्रकारसे ध्यानके लिये करुणाभावसे स्तुति-प्रार्थना करना तथा भगवान् और महापुरुषोंकी आज्ञाका पालन करना आदि उपर्युक्त स्मरणभक्तिको प्राप्त करनेके उपाय हैं।
२६-केवल स्मरणभक्तिसे भी सारे पाप, विघ्न, अवगुण और दु:खोंका अत्यन्त अभाव हो जाता है। भगवत्-स्मरणके द्वारा मनुष्य जो कुछ भी चाहे प्राप्त कर सकता है। भगवत्प्राप्तिरूप परमशान्तिकी प्राप्ति भी इससे अति शीघ्र एवं सुगमतासे हो जाती है।
२७-श्रुति-स्मृति, इतिहास-पुराण, संत-महात्मा सबने एक स्वरसे भगवत्-स्मरण (ध्यान)-की बड़ी महिमा गायी है।
२८-भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र महाराजके चरणकमलोंकी स्मृति सब पापोंका नाश करती है तथा अन्त:करणकी शुद्धि, परमात्मामें भक्ति, विज्ञान-वैराग्यसहित ज्ञान एवं शान्तिका विस्तार करती है।
२९-भगवत्-प्राप्तिकी इच्छावाले साधक पुरुषको उचित है कि सब कार्य करते हुए भी जैसे कछुआ अण्डोंका, गऊ बछड़ेका, कामी स्त्रीका, लोभी धनका, नटी अपने चरणोंका, ड्राइवर सड़कका ध्यान रखता है, वैसे ही परमात्माका ध्यान रखे।
३०-बार-बार अतृप्त नयनोंसे भगवान्के चरणारविन्दका दर्शन करना, हाथोंसे भगवच्चरणोंका पूजन और सेवन करना तथा चरणोदक लेना, मनसे भगवच्चरणोंका चिन्तन, पूजन, सेवन करना, भगवान्की चरणपादुकाओंका हाथोंसे पूजन और मनसे चिन्तन, सेवन तथा पूजन करना, भगवान्की चरणरजको मनसे मस्तकपर धारण करना, हृदयसे लगाना, भगवान्के चरणोंसे स्पर्श किये हुए शय्यासन आदिको तीर्थसे बढ़कर उनका समादर करना; अयोध्या, चित्रकूट, वृन्दावन, मथुरा आदि स्थानोंको जहाँ-जहाँ भगवान्का अवतार या प्राकटॺ हुआ है या जहाँ-जहाँ भगवान्के चरण टिके हैं, परम तीर्थ समझकर वहाँकी धूलिको भगवान्की चरणधूलि मानकर मस्तकपर धारण करना, जिस वस्तुको भगवान्का चरणस्पर्श प्राप्त हुआ है, उस वस्तुका हृदयसे आदर करना और उसे मस्तकपर धारण करना तथा श्रीगंगाजीके जलको भगवान्का चरणोदक समझकर प्रणाम, पूजन, स्नान-पानादिके द्वारा उसका सेवन करना आदि सभी ‘पादसेवन’- भक्तिके ही विभिन्न प्रकार हैं।
३१-ममता, अहंकार और अभिमान आदिका नाश होकर प्रभुके चरणोंमें अनन्यप्रेमकी प्राप्ति होनेके उद्देश्यसे पाद-सेवन-भक्ति की जाती है।
३२-भगवान्के अनन्य भक्तोंका संग करनेसे भगवान्की चरण-सेवाका तत्त्व-रहस्य और प्रभाव सुननेको मिलता है, उससे श्रद्धा होकर तब यह भक्ति प्राप्त होती है।
३३-केवल पादसेवन-भक्तिसे भी मनुष्यके सम्पूर्ण दुर्गुण-दुराचार और दु:ख सर्वथा नष्ट हो जाते हैं और भगवान्में सहज ही अतिशय श्रद्धा और प्रेम होकर उसे आत्यन्तिकी परमा शान्तिकी प्राप्ति होती है। उसके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं रह जाता।
३४-भगवान् विश्वेश्वरका चरणकमलरूप जहाज ही एकमात्र सहारा है।
३५-नित्य-निरन्तर प्रभुके चरणोंका दर्शन और सेवन करके पल-पलमें किस प्रकार आनन्दित होना चाहिये, इसका आदर्श श्रीसीताजी हैं।
३६-भगवान्के चरणोदकका पान करनेसे और उसे मस्तकपर धारण करनेसे भी कल्याण होता है।
३७-भगवान्के चरणोंका आश्रय लेनेसे मनुष्यके सब दोषोंका नाश हो जाता है, उसकी सारी विपत्तियाँ टल जाती हैं और वह गोपदके समान संसार-सागरसे तर जाता है।
३८-भगवान्के पवित्र चरणोंमें श्रद्धापूर्वक मन लगाकर उनका नित्य सेवन करना चाहिये।
३९-भगवान्के भक्तोंसे सुने हुए, शास्त्रोंमें पढ़े हुए, धातु आदिसे बनी मूर्ति या चित्रपटके रूपमें देखे हुए अपने मनको रुचनेवाले किसी भी भगवान्के स्वरूपका बाह्य सामग्रियोंसे, भगवान्के किसी भी अपनी अभिलषित स्वरूपकी मानसिक मूर्ति बनाकर मानसिक सामग्रियोंसे अथवा सम्पूर्ण भूतोंमें परमात्माको स्थित समझकर सबका आदर-सत्कार करते हुए यथायोग्य नानाविध उपचारोंसे श्रद्धा-भक्तिपूर्वक उनका सेवन-पूजन करना और उनके तत्त्व, रहस्य तथा प्रभावको समझ-समझकर प्रेममें मुग्ध होना अर्चन-भक्ति है।
४०-पत्र, पुष्प, चन्दन आदि सात्त्विक, पवित्र और न्यायोपार्जित द्रव्योंसे भगवान्की प्रतिमाका श्रद्धापूर्वक पूजन करना, भगवान्की प्रीतिके लिये शास्त्रोक्त यज्ञादि करना, सबको भगवान्का स्वरूप समझकर अपने वर्णाश्रमके अनुसार उनकी यथायोग्य सेवा करना तथा सत्कार, मान, पूजा आदिसे सन्तुष्ट करना और दु:खी, अनाथ, अपंग, पीड़ित प्राणियोंमें—भूखोंकी अन्नसे, प्यासोंकी जलसे, वस्त्रहीनोंकी वस्त्रादिसे, रोगियोंकी औषधादिसे, अनाथोंकी आश्रयदानसे यथावश्यक, यथाशक्ति श्रद्धा और सत्कारपूर्वक सबको भगवत्स्वरूप समझकर भगवत्प्रीतिके लिये सेवा करना आदि सभी भगवान्की बाह्य पूजाके प्रकार हैं।
४१-अपने चित्तको अनायास ही आकर्षित करनेवाले भगवान्के किसी भी अलौकिक रूप-लावण्ययुक्त, अनन्त सौन्दर्य-माधुर्यमय परम तेजोमण्डित स्वरूपका प्रत्येक अवयव, वस्त्राभूषण, आयुधादिसे युक्त और हस्त-पादादिके मंगलचिह्नोंसहित मनके द्वारा चिन्तन करके अह्लादपूर्वक मनमें उसका आवाहन, स्थापन और नानाविध मानसिक सामग्रियोंके द्वारा अत्यन्त श्रद्धा और प्रेमके साथ पूजन करना मानस-पूजाका प्रकार है।
४२-जो लोग इस संसारमें श्रीभगवान्की अर्चा-पूजा करते हैं, वे श्रीभगवान्के अविनाशी आनन्दस्वरूप परमपदको प्राप्त होते हैं।
४३-भगवान्की पूजा करनेसे मनुष्य जो कुछ चाहता है, वही उसे मिल जाता है और सहज ही उसे भगवान्की प्राप्ति हो जाती है।
४४-भगवान्के प्रेममें विह्वल होकर श्रद्धापूर्वक अपनी-अपनी रुचि और भावनाके अनुसार भगवान्की पूजा करनी चाहिये।
४५-भगवान्के शास्त्रवर्णित स्वरूप, भगवान्के नाम, भगवान्की धातु आदिकी मूर्ति, चित्र अथवा मानसिक मूर्तिको शरीर अथवा मनसे श्रद्धासहित साष्टांग प्रणाम करना या समस्त चराचर भूतोंको परमात्माका स्वरूप समझकर श्रद्धापूर्वक शरीर या मनसे प्रणाम करना और ऐसा करते हुए भगवत्प्रेममें मुग्ध होना वन्दन-भक्ति है।
४६-भगवान्का अनन्यभक्त यावन्मात्र जगत्को भगवद्-भावसे प्रणाम करे।
४७-भगवान्के मन्दिरोंमें जाकर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक भगवान्की मूर्तिको साष्टांग प्रणाम करना, अपने-अपने घरोंमें भगवान्की प्रतिमा या चित्रपटको, भगवान्के नामको, भगवान्के चरण और चरणपादुकाओंको, भगवान्के तत्त्व, रहस्य, प्रेम, प्रभाव और भगवान्की मधुर लीलाओंका जिनमें वर्णन हो, ऐसे सत्-शास्त्रोंको और सम्पूर्ण चराचर जीवोंको भगवान्का स्वरूप समझकर या उनके हृदयमें भगवान्को स्थित समझकर नियमपूर्वक श्रद्धा-भक्तिसहित गद्गदभावसे प्रणाम करना वन्दन-भक्तिके प्रकार हैं।
४८-भगवान्में अनन्यप्रेम होकर भगवान्को प्राप्त करना इस भक्तिका उद्देश्य है।
४९-भगवान्के प्यारे प्रेमी भक्तोंका संग और सेवन करके उनके द्वारा भगवान्की वन्दन-भक्तिका रहस्य, प्रभाव और तत्त्व समझनेसे इस वन्दन-भक्तिकी प्राप्ति होती है।
५०-भगवान्के रहस्यको समझकर उन्हें प्रणाम करनेवाला सब दु:खोंसे छूट जाता है।
५१-श्रद्धापूर्वक भगवान्को प्रणाम करनेवालेकी तो बात ही क्या है, किसी भी अवस्थामें भगवान्को प्रणाम करनेसे भी सब पापोंका नाश हो जाता है।
५२-भगवान्के गुण, तत्त्व, रहस्य और प्रभावको जानकर श्रद्धा-प्रेमपूर्वक उनकी सेवा करना और उनकी आज्ञाका पालन करना दास्य-भक्ति है।
५३-मन्दिरोंमें भगवान्के विग्रहोंकी सेवा करना, मन्दिर-मार्जनादि करना, मनसे प्रभुके स्वरूपका ध्यान करके उनकी सेवा करना, सम्पूर्ण चराचरको प्रभुका स्वरूप समझकर सबकी यथाशक्ति, यथायोग्य सेवा करना, गीता आदि शास्त्रोंको भगवान्की आज्ञा मानकर उसके अनुसार आचरण करना और जो कर्म भगवान्की रुचि, प्रसन्नता और इच्छाके अनुकूल हों उन्हीं कर्मोंको करना—ये सभी दास्य-भक्तिके प्रकार हैं।
५४-केवल दास्य-भक्तिसे भी मनुष्यको सहज ही भगवान्की प्राप्ति हो जाती है।
५५-भगवान्के रहस्यको जाननेवाले प्रेमी भक्तोंके संग और सेवनसे दास्य-भक्तिकी प्राप्ति होती है।
५६-भगवान्के प्रभाव, तत्त्व, रहस्य और महिमाको समझकर परम विश्वासपूर्वक मित्रभावसे उनकी रुचिके अनुसार बन जाना, उनमें अनन्यप्रेम करना और उनके गुण, रूप और लीलापर मुग्ध होकर नित्य-निरन्तर प्रसन्न रहना सख्य-भक्ति है।
५७-प्यारे प्रेमीको परम सुख हो, उसमें अपना सख्य-प्रेम पूर्णरूपसे बढ़ जाय और उससे अपना कभी वियोग न हो इसी उद्देश्यसे सख्य-भक्ति की जाती है।
५८-अपने आवश्यक-से-आवश्यक कामको छोड़कर प्यारे प्रेमीके कामको आदरपूर्वक करना, प्यारे प्रेमीके कामके सामने अपने कामको तुच्छ समझकर उससे लापरवाह हो जाना, प्यारे प्रेमीके लिये महान् परिश्रम करनेपर भी उसे अल्प ही समझना, प्यारा जिस बातसे प्रसन्न होता हो उसी बातको लक्ष्यमें रखकर हर समय उसीके लिये प्राणपर्यन्त चेष्टा करना, वह जो कुछ भी करे उसीमें सदा सन्तुष्ट रहना, अपनी कोई भी वस्तु किसी भी प्रकारसे प्रेमीके काम आ जाय तो परम प्रसन्न होना, अपने शरीरपर और अपनी वस्तुपर जैसी अपनी आत्मीयता और अधिकार है वैसा ही अपने प्यारे प्रेमीका समझे और इसी प्रकार उसकी वस्तु और शरीरपर अपना अधिकार और आत्मीयता माने, अपने धन, जीवन और देहादि प्यारे प्रेमीके काममें लग सकें तो उनको सफल समझना, उसके साथ रहनेकी निरन्तर इच्छा रखना, उसके दर्शन, भाषण, चिन्तन और स्पर्शसे प्रेममें निमग्न हो जाना, उसके नाम, रूप, गुण और चरित्रोंको सुनकर, कहकर, पढ़कर और यादकर अत्यन्त प्रसन्न होना, किसीके द्वारा मित्रका संदेश पाकर परम प्रसन्न होना और उसके वियोगमें व्याकुल होना तथा प्रतिक्षण उससे मिलनेकी आशा और प्रतीक्षा करते रहना आदि सखाभावके प्रकार हैं।
५९-सख्य-भक्तिकी प्राप्तिके लिये भगवान्के प्रेमी सखाओंका संग, सेवन, उनके जीवन-चरित्रोंका अध्ययन और उनके तथा भगवान्के गुण, लीला और प्रभावका उनके प्रेमी भक्तोंद्वारा श्रवण करना चाहिये।
६०-केवल सख्य-भक्तिसे भी मनुष्यके दु:ख और दोषोंका अत्यन्त अभाव होकर भगवान्की प्राप्ति और भगवान्में परम प्रेम हो जाता है। यहाँतक कि भगवान् उस प्रेमी भक्तके अधीन हो जाते हैं और फिर उसके आनन्द और शान्तिका पार नहीं रहता।
६१-परमात्माके तत्त्व, रहस्य, प्रभाव और महिमाको समझकर, ममता और अहंकाररहित होकर अपने तन-मन-धन-जनसहित अपने-आपको और सम्पूर्ण कर्मोंको श्रद्धा और परम प्रेमपूर्वक परमात्माको समर्पण कर देना आत्मनिवेदन-भक्ति है।
६२-भगवान्के शरणागत प्रेमी भक्तोंका संग-सेवन करनेसे और उनके द्वारा भगवान्के नाम, रूप, गुण, प्रभाव, तत्त्व, महिमा आदिका श्रवण और मनन करनेसे आत्मनिवेदन-भक्ति प्राप्त होती है।
६३-लाभ-हानि, जय-पराजय, यश-अपयश, मान-अपमान, सुख-दु:ख आदिकी प्राप्तिमें, उन्हें भगवान्का भेजा हुआ पुरस्कार मानकर प्रसन्न रहना, तन-धन, स्त्री-पुत्र आदि सभीमें ममता और अहंकारका अभाव हो जाना, भगवान् यन्त्री हैं और मैं उनके हाथका यन्त्र हूँ ऐसा निश्चय करके कठपुतलीकी भाँति भगवान्के इच्छानुकूल ही सब कुछ करना, भगवान्के रहस्य और प्रभावको जाननेके लिये उनके नाम, रूप, गुण, लीलाके श्रवण, मनन, कथन, अध्ययन और चिन्तनादिमें श्रद्धा-भक्तिपूर्वक तन-मन आदिको लगा देना, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि सभीपर एकमात्र भगवान्का ही अधिकार समझना, भगवान्की ही वस्तु भगवान्के अर्पण की गयी है ऐसा भाव होना, जिस किसी भी प्रकारसे भगवान्की सेवा बनती रहे इसीमें आनन्द मानना, सब कुछ प्रभुके अर्पण करके स्वाद, शौक, विलास, आराम, भोग आदिकी इच्छाका सर्वथा अभाव हो जाना, सर्वत्र, सर्वदा और सर्वथा एक भगवान्का ही अनुभव करना, भगवान्की इच्छाके अतिरिक्त स्वतन्त्र कोई इच्छा न करना, भगवान्के भरोसेपर सदा निर्भय, निश्चिन्त और प्रसन्न रहना और भगवान्की भक्तिको छोड़कर मुक्तिकी भी इच्छा न होना आदि सभी इस आत्मनिवेदन-भक्तिके प्रकार हैं।
६४-जो पुरुष भगवान्के प्रति आत्मनिवेदन कर देता है उसके सम्पूर्ण अवगुण, पाप और दु:खोंका अत्यन्त नाश हो जाता है और उसमें श्रवण-कीर्तनादि सभी भक्तियोंका विकास हो जाता है। उसके आनन्द और शान्तिका पार नहीं रहता।
६५-भगवान् शरणागत भक्तसे कभी अलग नहीं हो सकते। भगवान्का सर्वस्व उसका हो जाता है। वह परम पवित्र हो जाता है, उसके दर्शन, भाषण और चिन्तनसे भी पापात्मालोग पवित्र हो जाते हैं। वह तीर्थोंके लिये तीर्थरूप बन जाता है।
६६-नवधा भक्तिका तत्त्व-रहस्य महापुरुषोंसे समझकर श्रद्धा और प्रेमपूर्वक तत्परताके साथ भक्तिका साधन करना चाहिये।
६७-बिना नवधा भक्तिका अभ्यास किये वह साधक प्रेमलक्षणा-भक्तिका सच्चा पात्र नहीं बन सकता।
६८-प्रेमलक्षणा-भक्तिका रहस्य भगवत्प्राप्त पुरुष ही बतला सकते हैं।
६९-प्रेमलक्षणा-भक्तिके जिज्ञासुओंको उन महापुरुषोंके संग और सेवा द्वारा उसका तत्त्व और रहस्य समझकर उसका साधन करना चाहिये।
७०-भगवान्के रासका विषय तो अत्यन्त ही गहन है। भगवान् और भगवान्की क्रीड़ा दिव्य, अलौकिक, पवित्र, प्रेममय और मधुर है। जो माधुर्यरसके रहस्यको जानता है वही उससे लाभ उठा सकता है।
७१-मनको वशमें करके मनसे हरिका चिन्तन करना, शान्त स्वभावसे रहना, वनके फल-मूल आदिका थोड़ा आहार करना, भगवान्के चरित्रोंका हृदयमें ध्यान करते रहना और इन्द्रियोंको विषयभोगोंसे निवृत्त करके भक्तियोगद्वारा अनन्यभावसे भगवान् वासुदेवका भजन करना चाहिये।
७२-परमेश्वरकी सब प्रकारसे शरण होकर इन्द्रिय और शरीरसे उसकी सेवा करना, मनसे उसे स्मरण करना, श्वाससे उसका नामोच्चारण करना, कानोंसे उसका प्रभाव सुनना और शरीरसे उसके इच्छानुसार चलना—यही उसकी सेवा है, यही असली भक्ति है और इसीसे आत्माका शीघ्र कल्याण हो सकता है।
७३-ईश्वरकी स्मृति निरन्तर रहनी चाहिये।
७४-कोई कैसा ही पापी, कैसा ही मूर्ख क्यों न हो, भगवान्के स्मरणके अभ्याससे उसका एक क्षणमें उद्धार हो सकता है।
७५-प्यारे मनमोहनको कभी बिसारना नहीं चाहिये, हृदयसे सदा-सर्वदा उनका स्मरण करते रहना चाहिये। प्राण चाहे छूट जायँ पर प्राणप्यारेकी स्मृति एक क्षणके लिये भी हृदयसे न हटे। नेत्र उन्हींको देखें, कान उन्हींकी चर्चा सुनें, वाणीसे उन्हींके गुणोंका कीर्तन और नामका जप हो, शरीरके द्वारा उन्हींको प्रणाम किया जाय और हाथ उन्हींकी सेवा-पूजामें लगे रहें। अर्थात् शरीर एवं मनसहित सारी इन्द्रियाँ भगवान्में लग जायँ, ऐसी चेष्टा करनी चाहिये। यही सच्चा पौरुष है।
७६-मरणकालमें भी जिस-जिसका चिन्तन करता हुआ मनुष्य मरता है, आगे जाकर वह उसीको प्राप्त होता है अर्थात् जो भगवान्का चिन्तन करता हुआ जाता है, वह भगवान्को प्राप्त होता है और जो संसारका चिन्तन करता हुआ जाता है, वह संसारको प्राप्त होता है।
७७-भोग, आराम, पाप, आलस्य तथा प्रमाद आदिको मृत्युके समान समझकर अपने जीवनके क्षणोंका उपयोग उत्तम-से-उत्तम कार्योंमें ही करना चाहिये। भगवान्के नामका जप और गुण तथा प्रभावके सहित उनके स्वरूपका ध्यान करते हुए ही उनकी आज्ञाके अनुसार तत्परताके साथ काम करना चाहिये।
७८-जब भगवत्स्मृतिके रहते हुए युद्ध-जैसी क्रिया भी हो सकती है तो फिर हमलोगोंके साधारण कार्योंके होनेमें तो कठिनाई ही क्या है!
७९-काम करते समय भी हमें भजनका अभ्यास डालना चाहिये।
८०-नटनी बाँसपर चढ़ते समय ढोल भी बजाती रहती है और गायन भी करती रहती है, किन्तु इन सब क्रियाओंको करते हुए भी उसका ध्यान निरन्तर अपने पैरोंपर ही रहता है। इसी प्रकार गाने-बजानेकी भाँति हमें सब काम करने चाहिये और उसके पैरोंके ध्यानकी तरह हमें परमात्मामें अपना मन रखना चाहिये।
८१-जब हमलोग कोई भी काम करें, उस समय हमें श्वास या वाणीके द्वारा भगवान्के नामका जप तथा गुण-प्रभावके सहित उनके स्वरूपका ध्यान करते हुए ही काम करनेका अभ्यास डालना चाहिये।
८२-काम करते समय यह भाव रहना चाहिये कि यह काम भगवान्का है और उन्हींके आज्ञानुसार, उन्हींकी प्रसन्नताके लिये मैं कर रहा हूँ। प्रभु मेरे पास खड़े हुए मेरे कामको देख रहे हैं—ऐसा समझकर सदा प्रसन्न रहना चाहिये।
८३-भगवान्में चित्त लगाकर भगवान्के लिये ही कर्म करनेवालेको भगवान्की कृपासे भगवान् शीघ्र मिल जाते हैं, यह बात जगह-जगह गीतामें भगवान्ने कही है (८। ७, ११। ५५, १२। ६ से ८, १८। ५६ से ५८, ६२)।
८४-चलते-फिरते, उठते-बैठते, काम-काज करते, सब समय भगवान्को याद रखनेका अभ्यास करना चाहिये। पहले आधे घंटेपर, फिर पन्द्रह मिनटके अन्तरसे, फिर दस मिनटपर, फिर पाँच मिनटपर, इस प्रकार करते-करते निरन्तर भगवत्स्मरण करनेकी चेष्टा करनी चाहिये।
८५-परमात्माके चिन्तनका वियोग साधकसे क्षणमात्रके लिये भी सहा नहीं जाता ‘तदर्पिताखिलाचारिता तद्विस्मरणे परमव्याकुलता’ (नारदभक्ति-सूत्र १९)।
८६-स्मृतिको तैलधाराकी तरह अखण्ड बनाये रखनेके लिये हमें चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते तथा प्रत्येक कार्य करते हुए भगवान्को अपने साथ समझना चाहिये।
८७-संसारमें तमोगुण अधिक छाया हुआ है। तमोगुणके कारण लोग भगवत्तत्त्वसे अनभिज्ञ रहकर एकान्तवासमें भजन-ध्यानके बहाने नींद, आलस्य और अकर्मण्यताके शिकार हो जाते हैं।
८८-कुछ लोग ‘अब तो हम निरन्तर एकान्तमें रहकर भजन-ध्यान ही किया करेंगे’ कहकर कर्म छोड़ देते हैं, परन्तु थोड़े ही दिनोंमें उनका मन एकान्तसे हट जाता है। कुछ लोग सोनेमें समय बिताते हैं, कोई कहने लगते हैं ‘क्या करें, ध्यानमें मन नहीं लगता।’ फलत: कुछ तो निकम्मे हो जाते हैं और कुछ प्रमादवश इन्द्रियोंको आराम देनेवाले भोगोंमें प्रवृत्त हो जाते हैं।
८९-सच्चे भजन-ध्यानमें लगनेवाले विरले ही निकलते हैं।
९०-एकान्तमें निवासकर भजन-ध्यान करना बुरा नहीं है, परन्तु यह साधारण बात नहीं है। इसके लिये बहुत अभ्यासकी आवश्यकता है और यह अभ्यास कर्म करते हुए ही क्रमश: बढ़ाया और गाढ़ किया जा सकता है।
९१-कर्ममें भक्तिका और भक्तिमें कर्मका अन्योन्याश्रित सम्बन्ध प्रच्छन्न है।
९२-उपासनारहित कर्म जड होनेसे कदापि मुक्तिदायक नहीं होते और न उपासनारहित ज्ञान ही प्रशंसनीय है।
९३-समत्वरूप योगमें स्थित होकर फलका अधिकार ईश्वरके जिम्मे समझकर जो कर्म करता है वह भी प्रकारान्तरसे ईश्वर-स्मरणरूप भक्ति करता है।
९४-प्रीति और श्रद्धा होनेपर कर्म उसमें बाधक नहीं होते, बल्कि उसका प्रत्येक कर्म भगवत्-प्रीतिके लिये ही अनुष्ठित होकर शुद्ध भक्तिके रूपमें परिणत हो जाता है।
९५-मनमें सदा-सर्वदा यह निश्चय रखना चाहिये कि हम जो कुछ करते हैं उसे भगवान् ही करवाते हैं।
९६-गुरु जिस प्रकार बच्चेका हाथ पकड़कर उससे अक्षर लिखवाते हैं, उसी प्रकार परमात्मा हमें प्रेरित करके समस्त कार्योंका आचरण हमसे करवाते हैं।
९७-कठपुतली जिस प्रकार सूत्रधारके इशारेपर नाचती है, उसी प्रकार हमें भगवान्के हाथमें अपनी बागडोर सम्हलाकर उनके इशारेपर काम करना चाहिये।
९८-भगवान्की प्रसन्नता प्राप्त करनेकी इच्छावाले प्रत्येक व्यक्तिको भगवान्की दयापर निर्भर रहना चाहिये, उसे देख-देखकर प्रसन्न रहना चाहिये और उनकी प्रसन्नताके अनुसार ही कार्य करते रहना चाहिये एवं निरन्तर उनका स्मरण करते रहना चाहिये।
९९-भगवान्के किये हुए प्रत्येक विधानमें निरन्तर उनका स्मरण करता हुआ परम सन्तोष मानकर हर समय प्रसन्न रहे।
१००-ईश्वरकी दया, रुचि और उसके स्वरूपका स्मरण करके प्रसन्न होता रहे।
१०१-हमें अपने मस्तकपर प्रभुका हाथ समझकर सदा आनन्दित रहना चाहिये।
१०२-सबसे मुख्य बात है अनन्यमनसे युक्त होकर भगवान्को निरन्तर भजना।
१०३-भगवान्के लिये ही भगवान्को प्रेमपूर्वक निरन्तर भजना उन्हें अनन्यमनसे भजना है।
१०४-अनन्य भजनका स्वरूप भगवान्ने श्रीगीताजीके नवें अध्यायके १४वें श्लोकमें बतलाया है। भगवान्का अनन्य-प्रेमपूर्वक नित्य-निरन्तर चिन्तन ही इसका मुख्य अंग है।
१०५-भगवान्का नाम-गुण-कीर्तन अनन्य चिन्तनमें विशेष सहायक है।
१०६-भगवान्का प्रत्यक्ष दर्शन अनन्यभक्तिसे हो सकता है।
१०७-यदि कोई भगवत्परायण होकर निष्काम प्रेमभावसे भगवान्की भक्ति करे तो उसे साक्षात् दर्शन देनेके लिये भगवान् निश्चय ही बाध्य हैं।
१०८-साक्षात् दर्शन तो अनन्यभक्तिके अतिरिक्त अन्य किसी उपायसे नहीं हो सकता। (गीता ११। ५४)
१०९-अनन्य शरणागत भक्तको भक्तिका तत्त्व परमेश्वर स्वयं समझा देते हैं।
११०-अनन्यभक्तियुक्त पुरुष स्वयं पवित्र होता है, इसमें तो कहना ही क्या है, परन्तु वह अपने भक्तिके भावोंसे जगत्को पवित्र कर सकता है।
१११-यदि सब समय भगवान्के नामका जप और हृदयमें उनका स्मरण करते हुए संसारके समस्त व्यवहार उसीके अर्थ किये जायँ तो परमात्मामें अनन्यभक्ति हो जाती है।
११२-यदि घरमें एक भी पुरुषको अनन्यभक्तिसे परमात्माका साक्षात्कार हो जाय तो उसका समस्त कुल पवित्र समझा जाता है।
११३-जो लोग किसी सांसारिक कामना—स्त्री, पुत्र, धन, कीर्ति, स्वर्गसुख आदिके लिये भगवान्को भजते हैं, वे अनन्यमनसे युक्त नहीं कहे जा सकते; क्योंकि उनका मन तो भोगोंमें फँसा रहता है, भगवान्को तो वे उन भोगोंकी प्राप्तिका साधनमात्र समझते हैं।
११४-किसी प्रकारकी कामना नहीं रखनी चाहिये। प्रह्लादजी कहते हैं कि वरदानकी इच्छासे जो भक्ति करता है वह तो वणिक् है।
११५-भारी-से-भारी संकट पड़नेपर भी विशुद्ध प्रेम, भक्ति और भगवत्-साक्षात्कारके सिवा अन्य किसी भी सांसारिक वस्तुकी कामना, याचना या इच्छा कभी नहीं करनी चाहिये।
११६-भक्तिके द्वारा सब कुछ हो सकता है। साकार भगवान् नेत्रोंसे देखे जाते हैं, सगुण-निराकार बुद्धिद्वारा समझे जाते हैं और निर्गुण-निराकार अनुभवसे प्राप्त किये जाते हैं। ज्ञानरूप नेत्रोंवाले ज्ञानीजन ही भगवान्को तत्त्वसे जान सकते हैं।
११७-जो रोगी वैद्य, औषध और पथ्यपर श्रद्धा करके कुपथ्यसे बचकर औषधका सेवन और पथ्यका पालन करता है वह आरोग्य हो जाता है। ऐसे ही जो मनुष्य शास्त्र और महापुरुषोंद्वारा बतलाये हुए दुर्गुण और दुराचाररूप कुपथ्यको त्यागकर श्रद्धापूर्वक ईश्वर-भक्तिरूप औषधका सेवन और सदाचार-सद्गुणरूपी पथ्यका पालन करता है, वह जन्म-मरणरूप महान् भवरोगसे मुक्त हो जाता है। लौकिक औषधका सेवन करनेवाला तो अदृष्ट प्रतिकूल होनेसे शायद आरोग्य नहीं भी होता, परन्तु इस औषध तथा पथ्यका सेवन करनेवाला तो निश्चय ही जन्म-मरणरूप दु:खोंसे मुक्त हो जाता है; क्योंकि इसमें अदृष्ट बाधक नहीं हो सकता।
११८-केवल भगवान्के नामका जप, उनके स्वरूपका पूजन और ध्यान करनेसे भी अति उत्तम गतिकी प्राप्ति हो सकती है।
११९-भक्ति करनेवालेको भगवान् स्वयं ज्ञान प्रदानकर उसके अज्ञानरूपी अन्धकारका सर्वथा नाश कर देते हैं।
१२०-भक्त जिस रूपसे उन्हें देखना चाहता है वह उसी रूपमें प्रत्यक्ष प्रकट होकर दर्शन देते हैं। भगवान्का साकाररूप धारण करना भगवान्के अधीन नहीं, पर प्रेमी भक्तोंके अधीन है।
१२१-मान-प्रतिष्ठाको त्यागकर श्रीअक्रूरजीकी तरह भगवान्के चरणकमलोंसे चिह्नित रजमें लोटनेसे भगवान् प्रत्यक्ष मिल सकते हैं।
१२२-श्रीनरसी मेहताकी तरह लज्जा, मान, बड़ाई और भयको छोड़कर भगवान्के गुणगानमें मग्न होकर विचरनेसे भगवान् प्रत्यक्ष मिल सकते हैं।
१२३-दयामय भगवान् केवल भावके भूखे हैं। भावरहितके लिये उनका द्वार सदा बंद है।
१२४-भगवान्में सच्चा प्रेम होने तथा भगवान्की मनोमोहिनी मूर्तिके प्रत्यक्ष दर्शन मिलनेमें विश्वास ही मूल कारण है।
१२५-मुक्ति अथवा भगवत्साक्षात्कार करनेके लिये निष्कामभावसे की हुई भगवान्की भक्तिसे बढ़कर अन्य कोई साधन नहीं है। हमारा लक्ष्य यही रहे कि भगवान्में हमारा अनन्यप्रेम हो।
१२६-भगवान् कहते हैं जो मुझको जैसे भजते हैं उनको मैं भी वैसे ही भजता हूँ।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
(गीता ४।११)
१२७-भगवान्के अनन्त गुणों और चरित्रोंका जरा-सा भी स्मरण-मनन महान् कल्याणकारी और परम पावन है।
१२८-मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके नाम, रूप, गुण, लीला, प्रेम और प्रभावकी अमृतमयी कथाओंका श्रवण, पठन और मनन परम कल्याण करनेवाला है।
१२९-घरमें भगवान्की मूर्ति रखकर भक्तिभावसे उसकी पूजा, आरती, स्तुति एवं प्रार्थना करनेसे भी कल्याण हो जाता है।
१३०-यदि प्रत्येक घरमें एक-एक भगवान्की मूर्ति या चित्र रहे—मूर्ति या चित्र वही हो जो अपने मनको रुचता हो और नित्य नियमपूर्वक उसकी पूजा की जाय तो समय और मन दोनोंको ही परमात्मामें लगानेका अभ्यास अनायास हो सकता है।
१३१-घरमें नित्य भगवान्की पूजा होनेसे उसके लिये पूजाकी सामग्री जुटाने, पुष्पकी माला गूँथने आदिमें बहुत-सा समय एक तरहसे भगवत्-चिन्तनमें लग जाता है। बालकोंको भी इसमें बड़ा आनन्द मिलता है, वे भी इसको सीख जाते हैं। लड़कपनसे ही उनके हृदयमें भगवत्सम्बन्धी संस्कार जमने लगते हैं।
१३२-जो लोग कर सकें वे बाह्य पूजाके साथ ही अपने-अपने सिद्धान्तके अनुसार या श्रीप्रेमभक्तिप्रकाशके अनुसार भगवान्की मानसिक पूजा भी करें; क्योंकि आन्तरिक पूजाका महत्त्व और भी अधिक है।
१३३-जिस साधककी परमात्माके जिस रूपमें अधिक प्रीति और श्रद्धा हो, वह निरन्तर उसीका चिन्तन किया करे। परिणाम सबका एक ही है, परिणामके सम्बन्धमें किंचित् भी संशय रखनेकी कोई आवश्यकता नहीं है।
१३४-उपासना या भक्तिमार्ग बड़ा ही सुगम और महत्त्वपूर्ण है। इसमें ईश्वरका सहारा रहता है और उसका बल प्राप्त होता रहता है।
१३५-मन्दिरमें जाकर भगवान्के स्वरूप और गुणोंका स्मरण करना चाहिये और भगवान्से प्रार्थना करनी चाहिये, जिससे उनके मधुर स्वरूपका चिन्तन सदा बना रहे और उनकी आदर्श लीला तथा आज्ञाके अनुसार आचरण होता रहे।
१३६-सात्त्विक आचरण और भगवान्की विशुद्ध भक्तिसे अन्त:करणकी शुद्धि होनेपर जिस समय भ्रम मिट जाता है, उस समय साधक कृतकृत्य हो जाता है। यही परमात्माकी प्राप्ति है।
१३७-जिस प्रकार सूर्यकी सन्निधिमें रहनेवालेके पास शीत और अन्धकार नहीं फटक सकते, उसी प्रकार जिसके हृदयमें श्रीभगवान् विराजमान हैं उसके पास दुर्गुण नहीं आ सकते।
१३८-प्रेम सादृश्यता और समानतामें होता है, इसीसे जिस भक्तमें दैवी सम्पत्तिके गुण होते हैं वही भगवान्के दर्शनका उपयुक्त पात्र समझा जाता है।
१३९-भक्तिके लिये भगवान्ने पहली शर्त यह बतलायी है कि भक्तिके साधन करनेवालोंको दैवी सम्पत्तिका आश्रय लेना चाहिये।
१४०-भक्तिप्रिय माधव तो केवल भक्तिसे ही सन्तुष्ट होते हैं, गुणोंसे नहीं।
१४१-सदाचार और सद्गुण तो भक्तमें भक्तिके प्रभावसे अनायास ही आ जाते हैं, इसलिये ईश्वरकी भक्तिमें सदाचार और सद्गुणोंकी भी इतनी प्रधानता नहीं है।
१४२-जैसे बीमार आदमीके लिये रोगकी निवृत्तिमें औषधका सेवन प्रधान है और साथ-ही-साथ पथ्यकी भी आवश्यकता रहती है, इसी प्रकार जन्म-मरणरूपी भवरोगकी निवृत्तिके लिये ईश्वरकी भक्ति परमौषध है और सद्गुण तथा सदाचारका सेवन पथ्य है।
१४३-सदाचार और सद्गुणरूपी पथ्यकी कमी रहनेपर भी भक्तिरूपी औषधके सेवनसे भवरोगकी निवृत्ति हो जाती है, क्योंकि भक्तिरूपी औषध पथ्यका काम भी कर लेती है।
१४४-केवल बाह्य आडम्बरका नाम भक्ति नहीं है।
१४५-भक्ति कहनेमें जितनी सहज है, करनेमें उतनी ही कठिन है।
१४६-भक्ति दिखानेकी चीज नहीं, वह तो हृदयका परम गुप्त धन है।
१४७-भक्तिका स्वरूप जितना गुप्त रहता है उतना ही वह अधिक मूल्यवान् समझा जाता है।
१४८-बनावटी देवी-देवताओंकी रचना धूर्तोंने की है। उनकी मान्यता छोड़कर शास्त्रीय देवी-देवताओंकी उपासना करनी चाहिये।
१४९-गीताका ऐसा कोई भी अध्याय नहीं है, जिसमें कहीं-न-कहीं भक्तिका प्रसंग न आया हो।
१५०-एक दृष्टिसे यह भी कहा जा सकता है कि गीता एक भक्तिप्रधान ग्रन्थ है, इसमें ऐसा कोई अध्याय नहीं जिसमें भक्तिका कुछ प्रसंग न हो।
१५१-गीताकी भक्ति अविवेकपूर्वक की हुई अन्धभक्ति या अज्ञानप्रेरित आलस्यमय कर्मत्यागरूप जडता नहीं है, गीताकी भक्ति क्रियात्मक और विवेकपूर्ण है।
१५२-गीताकी भक्तिमें पापको स्थान नहीं है।
१५३-गीताकी भक्ति पूर्णपुरुष परमात्माकी पूर्णताके समीप पहुँचे हुए साधकद्वारा की जाती है।
१५४-गीताके अनुसार प्रधानत: अनन्यभावसे भगवान्के स्वरूपमें स्थित होकर भगवान्की आज्ञा मानकर भगवान्के लिये मन, वाणी, शरीरसे स्ववर्णानुसार समस्त कर्मोंका आचरण करना ही भगवान्की भक्ति है और इसीसे परम सिद्धिरूप मोक्षकी प्राप्ति हो सकती है।
१५५-गीताका प्रारम्भ और पर्यवसान भक्तिमें ही है।
१५६-जैसे वृक्षकी पूर्णता और गौरव फल आनेपर ही है, इसी प्रकार भक्तिकी पूर्णता और गौरव भगवान्में परम प्रेम होनेमें ही है। प्रेम ही उसकी पराकाष्ठा है और प्रेमके ही लिये सेवा की जाती है। इसलिये वास्तवमें भगवान्में अनन्यप्रेमका होना ही भक्ति है।
१५७-मनुष्यको कटिबद्ध होकर केवल ईश्वरकी भक्तिका ही साधन करनेके लिये तत्पर होना चाहिये।
१५८-भक्तको चाहिये वह अपने इष्टदेवकी उपासना करता हुआ सदा यह समझता रहे कि मैं जिस परमात्माकी उपासना करता हूँ वही परमेश्वर निराकाररूपसे चराचरमें व्यापक है, सर्वज्ञ है, सब कुछ उसीकी दृष्टिमें हो रहा है। वह सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, सर्वगुणसम्पन्न, सर्वसमर्थ, सर्वसाक्षी, सत्-चित्-आनन्दघन मेरा इष्टदेव परमात्मा ही अपनी लीलासे भक्तोंके उद्धारके लिये उनके इच्छानुसार भिन्न-भिन्न स्वरूप धारणकर अनेक लीला करता है। इस प्रकार तत्त्वसे जाननेवाले पुरुषके लिये परमात्मा कभी अदृश्य नहीं होते और न वह कभी परमात्मासे अदृश्य होता है।
१५९-भगवान्का जो भक्त सबके रूपमें अखिल जगत्के परम पूज्य, देवाधिदेव, सर्वशक्तिमान्, परम गौरव तथा अचिन्त्य प्रभावके नित्य धाम अपने परम प्रियतम भगवान्को पहचानकर अपनी विशुद्ध सेवावृत्तिको हृदयके सच्चे विश्वास और अविरल प्रेमकी निरन्तर उन्हींकी ओर बहनेवाली पवित्र और सुधामयी मधुर धारामें पूर्णतया डुबा-डुबाकर उनकी पूजा करता है, तब उसे कितना और कैसा अलौकिक आनन्द तथा कितनी और कैसी अपूर्व दिव्य शान्ति मिलती होगी, इस बातको कोई नहीं बतला सकता।
१६०-श्रद्धा और प्रेमके साथ महापुरुषोंका संग, सत्-शास्त्रोंका श्रवण, मनन और भगवान्की शरण होकर अत्यन्त उत्सुकताके साथ उनसे प्रार्थना करनेपर उनकी दयासे मनुष्य भगवान्के इन प्रभाव और गुणोंको समझकर उनका अनन्य भक्त हो सकता है।
१६१-अतिशय समता, शान्ति, दया, प्रेम, क्षमा, माधुर्य, वात्सल्य, गम्भीरता, उदारता, सुहृदता आदि भगवान्के गुण हैं।
१६२-सम्पूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्य, तेज, शक्ति, सामर्थ्य और असम्भवको भी सम्भव कर देना आदि भगवान्का प्रभाव है।
१६३-जैसे परमाणु, भाप, बादल, बूँदें और ओले आदि सब जल ही हैं, वैसे ही सगुण, निर्गुण, साकार, निराकार, व्यक्त, अव्यक्त, जड, चेतन, स्थावर, जंगम, सत्, असत् आदि जो कुछ भी है तथा जो इससे भी परे है वह सब भगवान् ही है। यह भगवान्का तत्त्व है।
१६४-भगवान्के दर्शन, भाषण, स्पर्श, चिन्तन, कीर्तन, अर्चन, वन्दन, स्तवन आदिसे पापी भी परम पवित्र हो जाता है, यह विश्वास करना तथा सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् सर्वत्र समभावसे स्थित मनुष्यादि शरीरोंमें प्रकट होनेवाले और अवतार लेनेवाले परमात्माको पहचानना यह रहस्य है।
१६५-भगवान्के गुणोंकी महिमा कैसे गायी जाय! वे सभी गुणोंके समुद्र हैं। प्रभु प्रेममय हैं। प्रेमकी मूर्ति हैं। प्रेम ही उनका स्वभाव है। प्रभु दयामय हैं, दयाकी मूर्ति हैं, दया ही उनका स्वभाव है। उनके एक-एक गुणकी ओर ध्यान जाता है तो ऐसा दीखता है कि मानो वे उस गुणकी मूर्ति ही हैं। सारे गुण प्रभुमें अतिशय हैं। इसी प्रकार उनका प्रभाव भी अमित है।
१६६-संसारमें जो कुछ भी किसीका प्रभाव देखनेमें आता है वह सब प्रभुका ही है। अग्निमें जो दाहिका शक्ति है, सूर्यमें जो प्रकाश है, चन्द्रमामें जो शीतलता तथा पोषणशक्ति है वह सभी यदि इकट्ठी कर लें तो प्रभुके प्रभावके एक अंशके समान भी शायद ही हो।
१६७-जिसके संकल्प करनेसे तथा नेत्रोंके खोलने और मूँदनेसे क्षणमें संसारकी उत्पत्ति और विनाश हो जाता है, जिसके प्रभावसे क्षणमें मच्छरके तुल्य जीव भी इन्द्रके समान और इन्द्रके तुल्य जीव मच्छरके समान हो जाते हैं, इतना ही क्यों वह असम्भवको सम्भव और सम्भवको भी असम्भव कर सकता है। ऐसी कोई भी बात नहीं है, जो उसके प्रभावसे न हो सके। ऐसा प्रभावशाली होनेपर भी वह भजनेवालेकी कभी उपेक्षा नहीं करता, बल्कि भजनेवालेको स्वयं भी वैसे ही भजता है, इस रहस्यको किंचित् भी जाननेवाला पुरुष एक क्षणके लिये भी ऐसे प्रभुका वियोग कैसे सह सकता है।
१६८-जो प्रेमका तत्त्व जानता है, साक्षात् प्रेमस्वरूप है, जो महान् होकर भी अपने प्रेमी भक्त और सखाओंके साथ उनका अनुगमन करता है, ऐसे उस निरभिमानी, प्रेमी, दयालु भगवान्के तत्त्वको जाननेवाला पुरुष उसकी किसी भी आज्ञाका उल्लंघन कैसे कर सकता है।
१६९-उस परमात्मामें धैर्य, क्षमा, दया, त्याग, शान्ति, प्रेम,ज्ञान, समता, निर्भयता, वत्सलता, सरलता, कोमलता, मधुरता, सुहृदता आदि गुणोंका पार नहीं है और परमात्माके ये सब गुण उसको भजनेवालेमें स्वाभाविक ही आ जाते हैं। इस बातके मर्मको जाननेवाला पुरुष उसको छोड़कर एक क्षण भी दूसरेको नहीं भज सकता।
१७०-भला, भगवान्के तत्त्व, रहस्य, प्रभाव और गुणोंको जाननेवाला भगवान्का भक्त भजन-ध्यानादि बहुमूल्य रत्नोंको छोड़कर संसारके विषयरूप कंकड़-पत्थरोंमें अपना एक क्षण भी क्यों नष्ट करेगा?
१७१-जिनका भगवान्में प्रेम और श्रद्धा है, वे भगवान्की प्रत्येक लीलामय क्रियाओंसे शिक्षा ग्रहण किया करते हैं और प्रेममें मुग्ध हुआ करते हैं।
१७२-भगवान्के लीलामय कर्मोंसे शिक्षा ग्रहण करके जो उनका अनुकरण करते हैं, वे भी कर्मोंसे लिपायमान न होकर परमेश्वरको प्राप्त हो जाते हैं और उनके कर्म भी दिव्य हो जाते हैं।
१७३-जो पुरुष भगवान्के जन्मकी दिव्यताको तत्त्वसे समझ लेता है, उसके लिये भगवान्का एक क्षणका भी वियोग असह्य हो जाता है। भगवान्में परम श्रद्धा और अनन्यप्रेम होनेके कारण उसके द्वारा भगवान्का अनन्यचिन्तन होता रहता है।
१७४-उस परमेश्वरके समान सुहृद्, प्रेमी और पतितपावन दूसरा कोई नहीं है, यों समझकर जो पुरुष उनका अनन्यप्रेमसे निरन्तर चिन्तन करता हुआ आसक्तिरहित होकर संसारमें बर्तता है, वही वास्तवमें उनको तत्त्वसे जानता है। ऐसे तत्त्वज्ञ पुरुषको इस दु:खरूप संसारमें फिर कभी लौटकर नहीं आना पड़ता।
१७५-संसारमें श्रीनारायणकी भक्तिको बड़े जोरसे बढ़ाना चाहिये। समय बीता जा रहा है। भक्तिका प्रवाह प्रबल हुए बिना कैसे काम चलेगा?
१७६-मनुष्य धीरे-धीरे संसारके सब विषयोंसे प्रेम करना छोड़कर एकमात्र आनन्दस्वरूप भगवान्की भक्तिमें लग जाय तो बेड़ा पार हो सकता है।
१७७-भक्तिसे ज्ञान-वैराग्य आप ही हो सकते हैं; क्योंकि भक्ति माता है और ज्ञान-वैराग्य दोनों भक्तिके पुत्र हैं। अत: भक्तिमें ही सुख है।
१७८-भक्तिसे भगवान् मिलते हैं जिससे सदाके लिये पूर्ण आनन्द हो जाता है।
१७९-नवीन नवधा भक्ति—
[१].(सत्संग) भगवद्भक्तोंके दर्शन, चिन्तन, स्पर्शसे तथा उनके वचन सुननेसे अति हर्षित होना।
[२].(कीर्तन) प्रेममें मग्न होकर हर समय भगवन्नामका स्मरण तथा प्रेम और प्रभावके सहित भगवान्के गुणोंका कथन।
[३].(स्मरण) सारे संसारमें भगवान्के स्वरूपका चिन्तन।
[४].(शुभेच्छा) भगवान्के दर्शनकी और उनमें प्रेम होनेकी उत्कट इच्छा।
[५]. (संतोष) जो कुछ आकर प्राप्त हो उसको भगवत्-आज्ञासे हुआ मानकर आनन्दसे पतिव्रता स्त्रीकी भाँति स्वीकार करना।
[६].(सेवा) सब जीवोंको परमेश्वरका स्वरूप समझकर निष्कामभावसे उनकी सेवा और सत्कार करना।
[७].(निष्काम कर्म) शास्त्रोक्त निष्कामभावसे सब कर्मोंमें ईश्वरके अनुकूल बर्तना अर्थात् जिससे परमेश्वर प्रसन्न होवें वही कर्म करना।
[८].(उपरामता) संसारके भोगोंसे चित्तको हटाना।
[९].(सदाचार) ईश्वरमें प्रेम होनेके लिये अहिंसा, सत्यादिका पालन करना।
१८०-धन, यौवन अस्थिर हैं, केवल भगवत्-प्रेम और भक्ति ही स्थिर हैं—उन्हें प्राप्त करना चाहिये।
१८१-कभी निराश नहीं होना चाहिये और परमात्माकी निष्काम प्रेमाभक्तिमें मग्न रहना चाहिये।
१८२-नीच पुरुष भी भगवान्की भक्ति करनेसे उत्तम ही समझा जानेयोग्य है। जैसे—अजामिल।