ज्ञानयोग
१-सारे संसारको एक सत्-चित्-आनन्दके द्वारा व्याप्त—परिपूर्ण समझना चाहिये, जैसे बर्फका ढेला जलसे व्याप्त है इसी प्रकार आनन्दघनसे सारा संसार व्याप्त है। इस प्रकार समझता रहे तो फिर संसारका चाहे जितना संग हो, कोई हानि नहीं।
२-चलते समय सब जगह परमात्माको देखना चाहिये। इस प्रकार साधन करनेसे बहुत लाभ होता है। नेत्रोंसे जो चीज देखनेमें आती है वह चीज है नहीं, न वह पदार्थ ही है न शरीर ही है, वास्तवमें एक परमात्मा ही परिपूर्ण है। जो दीखता है सो है नहीं, जैसे स्वप्नका संसार और मृगतृष्णाका जल और तिरमिरा, वास्तवमें यह दृष्टान्त भी घटता नहीं। एक बोध-आनन्दघन ही है, आनन्द है, बोध है, ज्ञानस्वरूप है इस माफिक करनेसे पहले तो आनन्दकी लहर उठती हुई भान होती है, पीछे और साधन बढ़नेसे एक ज्ञानस्वरूप ही रह जाता है।
३-एक सच्चिदानन्द सर्वव्यापक परमात्माके होनेपनेका भाव और उसके बिना और सबका अभाव देखनेसे तथा संसारको मिथ्या, स्वप्नवत् कल्पित देखनेका अभ्यास करनेसे भी संसारकी सत्ता और शरीरमें अहंभावका अभाव हो सकता है।
४-ध्यान जिसका किया जाता है सो अमृतरूप है। उस समय ध्यान ही साक्षात् अमृतमय हो जाता है तथा केवल अर्थमात्र ही रह जाता है और ध्याता, ध्यान, ध्येयरूप त्रिपुटी है ऐसा कहना नहीं बनता; अमृतका ज्ञान अमृतस्वरूप परमात्माको ही है, फिर अमृतमयकी इच्छा किसको हो!
५-संसारके कामोंको मिथ्या जानकर प्रसन्नचित्तसे हँसते हुए और भगवान्को याद रखते हुए खेलकी तरह करना चाहिये या सच्चिदानन्द भगवान्के सर्वव्यापी स्वरूपमें स्थित होकर शरीरसे अलग द्रष्टा बने हुए सांसारिक कामोंको करना चाहिये।
६-भजन, ध्यान, सेवा, सत्संग आदिसे पवित्र अन्त:करण होनेके साथ-ही-साथ उपर्युक्त प्रकारके ज्ञानरूपी सूर्यका प्रकाश मनुष्यके हृदयाकाशमें चमकने लगता है।
७-हर समय शरीर, प्राण, मन, बुद्धि और इन्द्रियोंमेंसे ‘मैं’ को हटानेकी चेष्टा करते रहना चाहिये। बराबर खयाल रखना चाहिये कि शरीरादि मैं नहीं हूँ, मैं इनसे पृथक् हूँ, मैं इनका द्रष्टा हूँ।
८-श्रीसच्चिदानन्दघन परमात्मा ही तेरा स्वरूप है, उसीमें ‘मैं’ भाव करना चाहिये।
९-व्यवहार-कालमें तथा बोलनेके समय भी शरीर में ‘मैं’ भाव नहीं होने देना चाहिये।
१०-यह मिथ्या संसार बहुत समयके अभ्याससे सत्य प्रतीत होता है। वास्तवमें संसार कोई भी वस्तु नहीं है। सब जगह केवल एक सच्चिदानन्द ही परिपूर्ण है ऐसा विश्वास होना चाहिये।
११-परमात्माको प्राप्त हुए पुरुषका वास्तवमें अन्त:करणसे कोई सम्बन्ध नहीं रहता। केवल लोकदृष्टिमें उसके अन्त:करण और इन्द्रियोंद्वारा सब कार्य होते हुए प्रतीत होते हैं।
१२-जिन पुरुषोंकी अज्ञाननिद्रा नष्ट हो गयी है या संसारका स्वप्ननाशके सदृश अभाव हो गया है उनके अन्तरमें काम-क्रोधादि दुर्गुण कैसे रह सकते हैं? जिस पुरुषकी नींद टूट जाती है उसका स्वप्नसे कोई सम्बन्ध रहता है?
१३-सारे संसारको एक आनन्दघनमें कल्पित समझकर सबको आनन्दसे परिपूर्ण समझना चाहिये। जिस प्रकार जलमें स्थित बर्फका पिण्ड केवल जलसे पूर्ण है, उसी प्रकार सबको आनन्दघन परमात्मामें और परमात्मासे परिपूर्ण समझना चाहिये।
१४-शरीरसे पृथक् रहकर और शरीरके कर्मोंका साक्षी बनकर जो कर्म करता है, उसके हृदयमें विकार नहीं हो सकता।
१५-जीव जो परमात्माका सनातन अंश है, अपनी शक्तिको भूल रहा है, इसीलिये उसको माया प्रबल प्रतीत होती है। यदि अपनी शक्ति जाग्रत् कर ली जाय तो मायाकी शक्ति सहजहीमें परास्त हो जाय। मायामें अज्ञान हेतु है और अज्ञानके नाशसे ही मायाका नाश है।
१६-जो मनुष्य स्वामीके कामको झंझट समझकर उससे जी चुराता है वह अकर्मण्य समझा जाता है। जो लीलामात्र कामको सच्चा समझता है, स्वामी उसे मूर्ख मानता है और जो कामको वास्तवमें ही स्वप्नवत् (लीलामात्र) समझता है, मालिक उसीको अपना ज्ञानी भक्त समझता है।
१७-सच्चिदानन्दघन परमात्मासे भिन्न जो कुछ भी भासता है, वह है नहीं। इस प्रकार समझकर, जो कुछ भी चिन्तनमें आता है उसका खयाल छोड़कर जो बच रहे उसको अचिन्त्य सच्चिदानन्द समझकर उसीमें स्थित होना चाहिये। इस प्रकार अधिक अभ्यास करनेपर अचिन्त्यके ध्यानकी स्थिति हो सकती है।
१८-जलमें बर्फकी तरह अपने शरीरको आनन्दमें डुबोकर शरीरको ढहा दे। फिर आनन्द-ही-आनन्द रह जाता है। इस प्रकार ध्यान करनेसे सच्चिदानन्दके स्वरूपमें स्थिति हो सकती है।
१९-परम आनन्दमय एक सच्चिदानन्दघन ही सर्वत्र अभिन्नरूपसे है, वही परमपद है, वही परब्रह्म है और वही अमृत है।
२०-संसारमें दो ही पदार्थ हैं—जड और चेतन। पुरुष चेतन है, प्रकृति जड है। पुरुष द्रष्टा है, प्रकृति दृश्य है। पुरुष निर्विकार है, प्रकृति विकारशीला है।
२१-ज्ञानमार्गपर चलनेवाला पुरुष समस्त चराचर विश्वको अपने चिन्मय आत्मरूपसे ही अनुभव करता है।
२२-ज्ञानयोगका साधन देहाभिमानसे रहित होकर करना चाहिये।
२३-अद्वैत-सिद्धान्तके अनुसार ‘आत्मा’ और ‘परमात्मा’ में कोई वास्तविक भेद नहीं है, केवल नामका ही भेद है।
२४-आत्मा सुखस्वरूप है।
२५-वह विज्ञानानन्दघन परमात्मा नित्य है, शाश्वत है, सनातन है, अव्यय है। उसी एकसे सब सत्ता, सब स्फूर्ति है। सारी चेतना और स्फुरणा उसीकी है। वही नित्य-सत्यस्वरूप है।
२६-संसारकी सत्ताके मूलमें परमात्माका निवास है। यह सारी दमकती हुई चेतनता परमात्माकी स्फूर्ति है। यह सब परमात्माका स्वरूप है। सबके नाश होनेपर भी उसका नाश नहीं होता। वह सर्वदा, सर्वत्र प्रत्यक्ष विद्यमान है।
२७-देह नाशवान् है, पर देही (आत्मा) अविनाशी है। देह असत् है, देही सत् है। देहके सभी पदार्थ अनित्य और क्षणभंगुर हैं। संसारमें जो कुछ भी सत्ता-स्फूर्ति हम देख रहे हैं वह सब परमात्माकी ही है।
२८-हमारा यह शरीर असत् है, क्षणभंगुर है, नाशवान् है, आदि और अन्तवाला है। जो असत् है उसका भाव नहीं होता, जो सत् है उसका कभी अभाव नहीं होता।
२९-जो सच्चिदानन्दघन ब्रह्ममें अभेदरूपसे स्थिति है, यानी ब्रह्ममें स्थित रहकर प्रकृतिद्वारा होनेवाले समस्त कर्मोंको प्रकृतिका विस्तार और मायामात्र मानकर वास्तवमें एक सच्चिदानन्दघन ब्रह्मके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, यों निश्चय करके जो अभेद-स्थिति होती है उसे सांख्यनिष्ठा कहते हैं।
३०-सम्पूर्ण पदार्थ मृगतृष्णाके जलकी भाँति अथवा स्वप्नकी सृष्टिके सदृश मायामय होनेसे मायाके कार्यरूप सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरतते हैं—इस प्रकार समझकर मन-इन्द्रिय और शरीरके द्वारा होनेवाले समस्त कर्मोंमें कर्तापनके अभिमानसे रहित होना (५। ८-९) तथा सर्वव्यापी सच्चिदानन्दघन परमात्माके स्वरूपमें एकीभावसे नित्य स्थित रहते हुए एक सच्चिदानन्दघन वासुदेवके सिवा अन्य किसीके भी अस्तित्वका भाव न रहना (१३। ३०) यह तो ‘सांख्यनिष्ठा’ है। ‘ज्ञानयोग’ अथवा ‘कर्मसंन्यास’ भी इसीके नाम हैं।
३१-ज्ञानयोगके अवान्तर भेद कई होते हुए भी उन्हें मुख्य चार विभागोंमें बाँटा जा सकता है—
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जो कुछ है, वह ब्रह्म ही है।
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जो कुछ दृश्यवर्ग प्रतीत होता है वह मायामय है, वास्तवमें एक सच्चिदानन्दघन ब्रह्मके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
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जो कुछ प्रतीत होता है, वह सब मेरा ही स्वरूप है—मैं ही हूँ।
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जो कुछ प्रतीत होता है, वह मायामय है, अनित्य है, वास्तवमें है ही नहीं, केवल एक चेतन आत्मा मैं ही हूँ।
इनमेंसे पहले दो साधन ‘तत्त्वमसि’ महावाक्यके ‘तत्’ पदकी दृष्टिसे हैं और पिछले दो साधन ‘त्वम्’ पदकी दृष्टिसे हैं। इन्हींका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया जा सकता है—
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इस चराचर जगत्में जो कुछ प्रतीत होता है, सब ब्रह्म ही है, एक सच्चिदानन्दघन परमात्माके अतिरिक्त और कोई वस्तु है ही नहीं। जो कुछ कर्म हम करते हैं वह कर्म, उस कर्मके साधन एवं उपकरण तथा स्वयं कर्ता—सब कुछ ब्रह्म है (४। २४)। जिस प्रकार समुद्रमें पड़े हुए बरफके ढेलोंके बाहर और भीतर सब जगह जल-ही-जल व्याप्त है तथा वे ढेले स्वयं भी जलरूप ही हैं, उसी प्रकार समस्त चराचर भूतोंके बाहर-भीतर एकमात्र परमात्मा ही परिपूर्ण हैं तथा उन समस्त भूतोंके रूपमें भी वे ही हैं (१३। १५)।
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जो कुछ यह दृश्यवर्ग है, उसे मायामय, क्षणिक एवं नाशवान् समझकर—उसका अभाव करके केवल एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा ही है और कुछ भी नहीं है—ऐसा समझते हुए मन-बुद्धिको भी ब्रह्ममें तद्रूप कर देना एवं परमात्मामें एकीभावसे स्थित होकर उनके अपरोक्ष ज्ञानद्वारा उनमें एकता प्राप्त कर लेना (४। २५ का उत्तरार्द्ध ५। १७)।
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चर, अचर सब ब्रह्म है और वह ब्रह्म मैं हूँ, इसलिये सब मेरा ही स्वरूप है—इस प्रकार विचार कर सम्पूर्ण चराचर प्राणियोंको अपना आत्मा ही समझना यानी समस्त भूतोंमें अपने आत्माको देखना और आत्माके अन्तर्गत समस्त भूतोंको देखना (६।२९)। इस प्रकार साधन करनेवालेकी दृष्टिमें एक ब्रह्मके सिवा अन्य कुछ भी नहीं रहता, वह फिर अपने उस विज्ञानानन्दघन स्वरूपमें ही आनन्दका अनुभव करता है (१८। ५४)।
४.जो कुछ भी वह मायामय, तीनों गुणोंका कार्यरूप दृश्यवर्ग है इसको और इसके द्वारा होनेवाली सारी क्रियाओंको अपनेसे पृथक्, नाशवान् एवं अनित्य समझना तथा इन सबका अत्यन्त अभाव करके केवल भावरूप आत्माका ही अनुभव करना (१३।३०)।
उपर्युक्त ज्ञानयोगके चारों साधनोंमें पहले दो साधन तो ब्रह्मकी उपासनासे युक्त हैं एवं तीसरा और चौथा साधन अहंग्रह-उपासनासे युक्त है।
३२-सांख्ययोगी मायासे उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बर्तते हैं ऐसे समझकर मन, इन्द्रिय और शरीरद्वारा होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाओंमें कर्तापनके अभिमानसे रहित होकर केवल सर्वव्यापी सच्चिदानन्दघन परमात्माके स्वरूपमें अनन्यभावसे निरन्तर स्थित रहता है (गीता ३। २८; ५। ८-९, १३; ६। ३१; १३। २९-३०; १४। १९-२०; १८। १७, ४९—५५)।
३३-सच्चिदानन्द परमात्मामें अभेदरूपसे स्थित होकर व्यवहारकालमें तो सम्पूर्ण दृश्यवर्गको ‘गुण ही गुणोंमें बर्त रहे हैं’ अर्थात् इन्द्रियाँ अपने अर्थोंमें बर्त रही हैं—ऐसा मानकर उन सारे पदार्थोंको मृगतृष्णाके जल या स्वप्नके सदृश अनित्य समझना चाहिये।
३४-यह निश्चय करो कि यह संसार स्वप्न है। चाहे वह सत्य ही क्यों न दिखायी दे उसे स्वप्नवत् माने रहो। मानते-मानते एक दिन स्वप्नका नाश हो जायगा और सत्य वस्तु प्राप्त हो जायगी।
३५-सबको प्राण ही सबसे बढ़कर प्यारे हैं। प्राणके समान प्यारा कुछ भी नहीं है, प्रिय-से-प्रिय वस्तु तो याद रहेगी ही। इसलिये प्राणोंमें ब्रह्मकी भावना करे। प्राण ही ब्रह्म है ऐसा निश्चय करनेसे परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है।
३६-सब पदार्थोंमें समबुद्धि कर ले। उनमेंसे भेदभाव उठा दे। किसी भी वस्तुमें भेद न रखे। जैसे शरीरमें अपनापन है भेद नहीं, अंगोंमें अन्तर नहीं, इसी तरह एक-दूसरेसे भेद न रखे। सबमें समता कर ले, भेद-बुद्धि उठा दे। इस भेद-बुद्धिके उठानेसे भी कल्याण हो जायगा।
३७-केवल नित्यप्राप्त ब्रह्ममें जो अप्राप्तिका भ्रम हो रहा है उस भ्रमको मिटा देना ही कर्तव्य है।
३८-गीताका संन्यास संन्यास-आश्रम नहीं है, परन्तु सम्पूर्ण कर्मोंमें कर्तापनके अभिमानसे रहित होकर एक सर्वव्यापी सच्चिदानन्दघन परमात्मामें ऐक्यभावसे नित्य स्थित रहना ही है और इसलिये उसका उपयोग सभी वर्ण और आश्रमोंमें किया जा सकता है। इसीका नाम ज्ञानयोग है। इसीको सांख्ययोग कहते हैं और यही गीतोक्त संन्यास है।
३९-सम्यक् ज्ञानपूर्वक संन्यास-आश्रमसे सुगमताके साथ मुक्ति होती है इसमें कोई सन्देह नहीं, परन्तु मेरी समझमें उस मुक्तिमें संन्यास-आश्रम हेतु नहीं, उसमें हेतु है सम्यक् ज्ञान जो सभी वर्ण और आश्रमोंमें उपलब्ध हो सकता है (गीता ६। १-२)।
४०-वैराग्य-उपरामतारहित ज्ञान वास्तविक ज्ञान नहीं, वह केवल वाचिक और शास्त्रीय ज्ञान है, जिसका फल मुक्ति नहीं प्रत्युत और भी कठिन बन्धन है।
४१-वाचिक ज्ञानी निर्भय होकर विषय-भोगोंमें प्रवृत्त हो जाता है, वह पापको भी पाप नहीं समझता, इसीसे वह विषयरूपी दलदलमें फँसकर पतित हो जाता है।
४२-जबतक अन्त:करण मलिन है तबतक देहाभिमान है और देहाभिमानीसे ज्ञानयोगका साधन बनना अत्यन्त दुष्कर है।