चेतावनी
१-मनुष्य-जीवनका चरम लक्ष्य आत्यन्तिक आनन्दकी प्राप्ति है, आत्यन्तिक आनन्द परमात्मामें है, अतएव परमात्माकी प्राप्ति ही मनुष्य-जीवनका एकमात्र उद्देश्य है।
२-आलस्यमें अबतक बहुत समय नष्ट हो चुका। अब तो सचेत होना चाहिये। मनुष्य-जीवनके एक भी अमूल्य क्षणको व्यर्थमें गँवाना उचित नहीं। गया हुआ समय किसी भी उपायसे वापिस नहीं मिल सकता। अतएव यथासाध्य शीघ्र ही सत्संगके द्वारा अपने कल्याणका मार्ग समझकर उसपर आरूढ हो जाना चाहिये।
३-मनुष्य-जन्मकी प्राप्तिसे कोई अत्यन्त ही उत्तम लाभ होना चाहिये। खाना, पीना, सोना, मैथुन करना आदि सांसारिक भोगजनित सुख तो पशु-कीटादितक नीच योनियोंमें भी मिल सकते हैं। यदि मनुष्य-जीवनकी आयु भी इसी सुखकी प्राप्तिमें चली गयी तो मनुष्य-जन्म पाकर हमने क्या किया?
४-सच्चे सुखका जब साधकको जरा-सा भी अनुभव मिल जाता है तब उसे उस सुखके सामने त्रिलोकीके राज्यका सुख भी अत्यन्त तुच्छ और नगण्य प्रतीत होने लगता है।
५-मनुष्य-जीवनका परम कर्तव्य सच्चिदानन्दघन पूर्णब्रह्म सर्वशक्तिमान् आनन्दकन्द भगवान्का साक्षात् करना ही है। यह इस लोक और परलोकमें सबसे महान्, नित्य और सत्य सुख है। इसको छोड़कर अन्यान्य जितने भी सांसारिक सुख प्रतीत होते हैं, वे वास्तवमें सुख नहीं हैं केवल मोहसे उनमें सुखकी मिथ्या प्रतीति होती है। वास्तवमें वे सब दु:ख ही हैं।
६-प्रथम तो जीवन है ही अल्प और जितना है वह भी अनिश्चित है। न मालूम मृत्यु कब आकर हमें मार दे। यदि आज ही मृत्यु आ जाय तो हमारे पास क्या साधन है जिससे हम उसका प्रतीकार कर सकें। यदि नहीं कर सकते तो हम तो अनाथकी तरह मारे जायँगे। इसलिये जबतक देहमें प्राण हैं और मृत्यु दूर है तबतक हमलोगोंको अपना समय ऊँचे-से-ऊँचे काममें लगाना चाहिये।
७-शरीर और कुटुम्बका पोषण एवं धनका संग्रह भी यदि सबके मंगलके कार्यमें लगे तभी करना चाहिये, यदि ये सब चीज हमें सच्चे सुखकी प्राप्तिमें सहायता नहीं पहुँचातीं तो इनका संग्रह करना मूर्खता नहीं तो और क्या है? देहपातके बाद धन, सम्पत्ति, कुटुम्बकी तो बात ही क्या, हमारी इस सुन्दर देहसे भी हमारा कोई सम्बन्ध नहीं रह जायगा और हम अपनी देह और सम्पत्ति आदिको अपने उद्देश्यके अनुसार अपने और संसारके कल्याणके काममें नहीं लगा सकेंगे। सम्पत्ति तो यहाँ ही रह जायगी और देह राख हो जायगी, अत: वह किसी भी काममें नहीं आवेगी।
८-क्लेश, कर्म और सारे दु:खोंसे मुक्ति, अपार, अक्षय और सच्चे सुखकी प्राप्ति एवं पूर्ण ज्ञानका हेतु होनेके कारण यह मनुष्य-शरीर चौरासी लाख योनियोंमें सबसे बढ़कर है। भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, सदाचार, मुक्ति और शिक्षाकी प्रणाली सदासे बतलानेवाली होनेके कारण यह भारतभूमि सर्वोत्तम है। सारे मत-मतान्तरोंका उद्गमस्थान, विद्या, शिक्षा और सभ्यताका जन्मदाता तथा स्वार्थत्याग, ईश्वरभक्ति, ज्ञान, क्षमा, दया आदि गुणोंका भण्डार, सत्य, तप, दान और परोपकार आदि सदाचारका सागर और सारे मत-मतान्तरोंका आदि और नित्य होनेके कारण वैदिक सनातनधर्म सर्वोत्तम धर्म है। केवल भगवान्के भजन और कीर्तनसे ही अल्पकालमें सहज ही कल्याण करनेवाला होनेके कारण कलियुग सर्वयुगोंमें उत्तम युग है। ऐसे कलिकालमें सर्व वर्ण, आश्रम और जीवोंका पालन-पोषण करनेवाला होनेके कारण सर्व-आश्रमोंमें गृहस्थाश्रम उत्तम है। यह सब कुछ प्राप्त होनेपर भी जिसने अपना आत्मोद्धार नहीं किया वह महान् पामर एवं मनुष्यरूपमें पशुके समान ही है।
९-सारे संयोग ईश्वरकी अहैतुकी और अपार दयासे ही प्राप्त होते हैं; क्योंकि जीवोंकी संख्याके अनुसार यदि बारीका हिसाब लगाकर देखा जाय तो इस जीवको पुन: मनुष्य-शरीर लाखों, करोड़ों वर्षोंके बाद भी शायद ही मिले। वर्तमानमें मनुष्योंके आचरणोंकी ओर ध्यान देकर देखा जाय तो भी ऐसी ही बात प्रतीत होती है।
१०-ऐसे क्षणिक, अल्पायु, अनित्य और दुर्लभ शरीरको पाकर जो अपने अमूल्य समयका एक क्षण भी व्यर्थ नहीं बिताते, जिनका तन, मन, धन, जन और सारा समय केवल सब लोगोंके कल्याणके लिये ही व्यतीत होता है वे ही जन धन्य हैं। वे देवताओंके लिये भी पूजनीय हैं। उन्हीं बुद्धिमानोंका जन्म सफल और धन्य है।
११-प्रथम तो मनुष्यका शरीर ही मिलना कठिन है और यदि वह मिल भी जाय तो भी भारतभूमिमें जन्म होना, कलियुगमें होना तथा वैदिक सनातनधर्म प्राप्त होना दुर्लभ है। इससे भी दुर्लभतर शास्त्रोंके तत्त्व और रहस्यके बतलानेवाले पुरुषोंका संग है। इसलिये जिन पुरुषोंको उपर्युक्त संयोग प्राप्त हो गये हैं, वे यदि परम शान्ति और परम आनन्ददायक परमात्माकी प्राप्तिसे वंचित रहें तो इससे बढ़कर उनकी मूढ़ता क्या होगी।
१२-क्षण-क्षणमें आयु नष्ट हो रही है, फिर ऐसा मौका मिलना असम्भव है। गया हुआ समय वापस नहीं मिल सकता, अत: ऐसे अमूल्य मनुष्य-जीवनको विषयभोगोंके भोगनेमें, मोह-मायामें, आलस्य और प्रमादमें व्यर्थ नहीं खोना चाहिये।
१३-दुनियामें ऐसी कोई भी योनि नहीं होगी जो हमलोगोंको न मिली हो।
१४-‘जबतक यह शरीररूपी घर स्वस्थ है, वृद्धावस्था दूर है, इन्द्रियोंकी शक्ति क्षीण नहीं हुई है और आयुका भी विशेष क्षय नहीं हुआ है, तभीतक विद्वान् पुरुषको अपने कल्याणके लिये महान् प्रयत्न कर लेना चाहिये, नहीं तो घरमें आग लग जानेपर कुँआ खोदनेका प्रयत्न करनेसे क्या होगा?’
१५-यह जीवन अल्प है और मृत्यु हमारी बाट देख रही है, बिना खबर दिये ही अचानक पहुँचनेवाली है। अतएव जबतक इस देहमें प्राण है, वृद्धावस्था दूर है, आपका इसपर अधिकार है तबतक ही जिस कामके लिये आये हैं उस अपने कर्तव्यका शीघ्रातिशीघ्र पालन कर लेना चाहिये।
१६-‘महान् ऐश्वर्यशाली मान्धाता और युधिष्ठिर-सरीखे धर्मात्मा चक्रवर्ती राजा, हिरण्यकशिपु-जैसे दीर्घ आयुवाले, रावण और कुम्भकर्ण-जैसे बली और प्रतापी दैत्य, वरुण, कुबेर और यमराज-जैसे लोकपाल और इन्द्र-जैसे देवताओंके भी राजा संसारमें उत्पन्न हो-होकर इस शरीर और ऐश्वर्यको यहीं त्यागकर चले गये, किसीके साथ कुछ भी नहीं गया। फिर इस तन, धन, कुटुम्ब और ऐश्वर्य आदिके साथ अल्प आयुवाले हमलोगोंका तो सम्बन्ध ही कितना है।’
१७-हजारों-लाखों ब्रह्मा हो-होकर चले गये और करोड़ों इन्द्र होकर चले गये तथा हमलोगोंके इतने अनन्त जन्म हो चुके कि पृथ्वीके कणोंकी संख्या गिनी जा सकती है किन्तु जन्मोंकी संख्या नहीं गिनी जा सकती। और भी चाहे लाखों-करोड़ों कल्प बीत जायँ, बिना साधनके परमात्माकी प्राप्ति नहीं हो सकती और बिना परमात्माकी प्राप्तिके भटकना मिट नहीं सकता।
१८-चींटीसे लेकर देवराज इन्द्रकी योनितकको हमलोग भोग चुके हैं, किन्तु साधन न करनेके कारण हमलोग भटक रहे हैं और जबतक तत्पर होकर कल्याणके लिये साधन नहीं करेंगे तबतक भटकते ही रहेंगे।
१९-दु:ख और विघ्नरूप समझते हुए नाशवान्, क्षणभंगुर, तुच्छ भौतिक सुखको लात मारकर परमात्माकी प्राप्तिरूप सच्चे सुखके लिये ही कटिबद्ध होकर प्राणपर्यन्त चेष्टा करनी चाहिये। इस प्रकार चेष्टा करनेवाले पुरुषको परमेश्वरकी दयासे उसकी प्राप्ति होनी सहज है।
२०-स्वप्नके राज्यको कोई बेचना चाहे तो एक पैसा भी उसका मूल्य नहीं मिलता, क्योंकि जागनेके बाद उस स्वप्नके राज्यका कोई नाम-निशान ही नहीं है, वैसे ही परमात्माकी प्राप्ति होनेके बाद इस संसार और सांसारिक सुखका नाम-निशान भी नहीं रहता। अतएव ऐसे अनन्त सुखको छोड़कर जो क्षणभंगुर, नाशवान् मिथ्या सुखके लिये चेष्टा करता है, उससे बढ़कर मूर्ख कौन है?
२१-जो मनुष्य अपने-आप दु:खका कारण बनता है वही मूर्ख है।
२२-विचारके द्वारा विषयोंमें जो केवल दु:ख-ही-दु:ख देखता है वही बुद्धिमान् है।
२३-सब बातें सोचकर हमको अपनी सब वस्तुएँ ऐसे काममें लगानी चाहिये जिससे हमें पश्चात्ताप न करना पड़े।
२४-मनुष्य-जन्म सबसे उत्तम एवं अत्यन्त दुर्लभ और भगवान्की विशेष कृपाका फल है। ऐसे अमूल्य जीवनको पाकर जो मनुष्य आलस्य, भोग, प्रमाद और दुराचारमें अपना समय बिता देता है वह महान् मूढ़ है। उसको घोर पश्चात्ताप करना पड़ेगा।
२५-समय बड़ा मूल्यवान् है। मनुष्यका शरीर मिल गया, यह भगवान्की बड़ी दया है। अब भी यदि भगवत्प्राप्तिसे वंचित रह गये तो हमारे समान मूर्ख कौन होगा। हमें अपने अमूल्य समयको अमूल्य कार्यमें ही लगाना चाहिये। भगवान्की स्मृति अमूल्य है। इस प्रकार नित्य विचार करना चाहिये।
२६-मृत्यु न मालूम कब आ जाय, वह प्रतिक्षण हमारे सामने मुँह बाये खड़ी है। अत: जबतक निरन्तर भजन न होने लगे तबतक बड़ा खतरा है।
२७-नाना प्रकारकी योनियोंमें भटकता हुआ यह जीव जब अत्यन्त थक जाता है, तब भगवान् इसपर दया करके इसे मनुष्य-शरीर देते हैं और इस प्रकार उसे जन्म-मृत्युसे छूटनेका सुन्दर अवसर प्रदान करते हैं। परन्तु यह जीव कृतघ्नकी भाँति इस अवसरको हाथसे खो देता है और अन्तमें पछताता है। परन्तु फिर पछतानेसे क्या होता है?
२८-शाश्वत एवं निरतिशय सुखकी प्राप्ति तथा दु:खोंसे सदाके लिये छुटकारा पा जाना ही जीवमात्रका ध्येय है और उसीके लिये मनुष्यको यत्नवान् होना चाहिये।
२९-यह मनुष्य-जन्म हमें ईश्वरोपासनाके लिये ही मिला है। संसारके भोग तो हम अन्य योनियोंमें भी भोग सकते हैं, परन्तु ईश्वरका ज्ञान प्राप्त करने तथा उनकी आराधना करनेका अधिकार तो हमें मनुष्ययोनिमें ही मिलता है।
३०-मनुष्योंमें भी जिनका द्विजाति-संस्कार हो चुका है अर्थात् जिन्हें वेदाध्ययन यानी वेदरूप ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त करनेका अधिकार प्राप्त हो चुका है, वे लोग भी यदि नित्य नियमित-रूपसे ईश्वरोपासना न करें तो वे अपने अधिकारका दुरुपयोग करते हैं, उन्हें द्विजाति कहलानेका क्या अधिकार है?
३१-जो मनुष्य-जन्म पाकर भी भगवदुपासनासे विमुख रहते हैं, वे मरनेके बाद मनुष्ययोनिसे नीचे गिरा दिये जाते हैं और इस प्रकार भगवान्की दयासे जन्म-मरणके चक्करसे छूटनेका जो सुलभ साधन उन्हें प्राप्त हुआ था उसे अपनी मूर्खतासे खो बैठते हैं।
३२-यह मनुष्य-शरीर समस्त शुभ फलोंकी प्राप्तिका आदि कारण तथा अत्यन्त दुर्लभ होनेपर भी ईश्वरकी कृपासे हमारे लिये सुलभ हो गया है, वह इस संसाररूपी समुद्रसे पार होनेके लिये सुदृढ़ नौका है, जिसे गुरुरूप नाविक चलाता है और मैं (श्रीकृष्ण) वायुरूप होकर उसे आगे बढ़ानेमें सहायता देता हूँ, ऐसी सुन्दर नौकाको पाकर भी जो मनुष्य इस भवसागरको नहीं तरता, वह निश्चय ही आत्माका हनन करनेवाला अर्थात् पतन करनेवाला है।
३३-अपने हिताहितका विचार करके संसारमें कौन-सी वस्तु मेरे लिये ग्राह्य है और कौन-सी अग्राह्य है, इसका निर्णय कर ले और फिर दृढ़तापूर्वक उस निश्चयपर स्थित हो जाय। जो मार्ग उसे ठीक मालूम हो, उसपर दृढ़तापूर्वक आरूढ हो जाय और जो आचरण उसे निषिद्ध जँचे उन्हें छोड़नेकी प्राणपणसे चेष्टा करे, भूलकर भी उस ओर न जाय।
३४-हर एक मनुष्यको यह विचार करना चाहिये कि मैं कौन हूँ? यह संसार क्या है? इसके साथ मेरा क्या सम्बन्ध है? मैं क्या कर रहा हूँ। मुझे क्या करना चाहिये।
३५-कोई भी पदार्थ हो जो सत् होगा, उसका किसी भी प्रकार कभी विनाश नहीं होगा। उसपर कितनी ही चोटें लगें, वह सदा-सर्वदा अटल ही रहेगा। जो असत् पदार्थ है, उसके लिये आप कितना ही प्रयत्न करें, वह कभी रहनेका नहीं।
३६-एक परमेश्वर और उसके आज्ञापालनरूप धर्मके सिवा आपका इस लोक और परलोकमें कभी भी कोई साथी तथा सहायक नहीं है।
३७-भगवान्की प्राप्ति अपनी ख्यातिके लिये नहीं करनी है, वह तो हमारा परम ध्येय और आश्रय होना चाहिये; क्योंकि उस पदको प्राप्त होनेपर और कुछ भी पाना बाकी नहीं रहता। इसीको मुक्ति, परमपद और सच्चे सुखकी प्राप्ति कहते हैं।
३८-तुच्छ लौकिक ख्यातिकी इच्छा करना और उसके लिये अपना तन, मन, धन नष्ट करना कितनी मूर्खता है।
३९-यदि हमारा जीवन लौकिक दृष्टिसे कष्टोंमें बीता, हमें मान प्राप्त नहीं हुआ, बल्कि जगह-जगह हम दुरदुराये गये, हमारा किसीने आदर नहीं किया, किसीने हमारी बात नहीं पूछी, किन्तु हमने अपने जीवनका सदुपयोग किया, जिस कार्यके लिये हम आये थे उस कार्यको बना लिया तो हम कृतकार्य हो गये, हमारा जीवन धन्य हो गया।
४०-यदि जीवनमें हमने बहुत-सी भोगसामग्री एकत्र कर ली, बहुत-सा मान-सम्मान प्राप्त किया, बहुत नाम कमाया, हजारों-लाखों रुपये, विपुल सम्पत्ति, हाथी-घोड़े, नौकर-चाकर तथा बहुत बड़े परिवारका संग्रह किया, किन्तु यदि जीवनका वास्तविक उद्देश्य सिद्ध नहीं किया तो हमारा किया-कराया सब व्यर्थ ही गया।
४१-यह मनुष्य-शरीर हमें बार-बार नहीं मिलनेका। ऐसे दुर्लभ अवसरको यदि हमने हाथसे खो दिया तो फिर सिवा पछतानेके और कुछ हाथ नहीं लगेगा।
४२-ऐसे देवदुर्लभ मनुष्य-शरीरको पाकर भी यदि हमने अपना असली काम नहीं बनाया, जिसके लिये हम इस संसारमें आये हैं तो हमसे बढ़कर मूर्ख कौन होगा? शास्त्रोंने तो ऐसे मनुष्यको कृतघ्नी और आत्महत्यारा बतलाया है।
४३-यह देवदुर्लभ देह हमें भगवान्की कृपासे ही प्राप्त हुई है। जब यह जीव चौरासी लाख योनियोंमें भटककर हैरान हो जाता है, तब भगवान् करुणा करके उसे मनुष्य-शरीर देते हैं।
४४-देवतालोग भी मनुष्य-योनिमें जन्म लेनेके लिये तरसते रहते हैं और इसीलिये इस मनुष्य-देहको क्षणभंगुर होनेपर भी देवदुर्लभ कहा गया है।
४५-लाख प्रयत्न करनेपर भी इनमेंसे एक भी पदार्थ हमारे साथ नहीं जा सकेगा और मृत्यु हमारी एक-न-एक दिन निश्चित है। उसे हम एक क्षणके लिये भी नहीं टाल सकते। ऐसी दशामें यहाँके पदार्थोंसे सम्बन्ध जोड़ना, उन्हें अपना मानना और उनके बटोरनेमें आयु बिता देना कहाँतक बुद्धिमानी है, इसे हम स्वयं सोच सकते हैं।
४६-पूर्वजन्ममें हमारा जिन पदार्थोंसे अथवा व्यक्तियोंसे सम्बन्ध था, आज सम्बन्धकी बात तो अलग रही, उनकी हमें स्मृति भी नहीं है। उसी प्रकार इस जन्मके पदार्थोंसे हमारा मृत्यु हो जानेपर कोई सम्बन्ध नहीं रह जायगा, बल्कि हमें इनकी स्मृतितक नहीं रह जायगी।
४७-इस शरीरके साथ हमारा सम्बन्ध कब छूट जाय, पता नहीं। शरीर छूट जानेपर उन समस्त पदार्थोंसे, जिन्हें हम अपना माने हुए हैं, हमारा सम्बन्ध अपने-आप छूट जायगा।
४८-जिस मनुष्य-जीवनको शास्त्रोंने देवदुर्लभ बताया है, क्या उसकी चरितार्थता भोग भोगनेमें ही है?
४९-यह जीवन हमें सांसारिक भोग भोगनेके लिये नहीं मिला है।
५०-भगवान् कहते हैं—जल्दी चेतो, कालका भरोसा करके विषयभोगोंमें जरा भी मत फँसो। यह मत समझो कि शरीर सदा रहेगा, यह भी मत समझो कि मुझे भूलकर तुम इसमें कहीं भी सुखकी तनिक छाया भी पा सकोगे। यह मनुष्य-शरीर तो मैंने तुम्हें विशेष दया करके दिया है अपनी ओर खींचकर परमानन्दरूप परमधाममें ले जानेके लिये। यह बड़ा ही दुर्लभ है। परन्तु यह है अनित्य, क्षणभंगुर और जो मुझको भूल जाता है, उसके लिये नितान्त सुखरहित भी। इसको प्राप्त होकर तो बस, निरन्तर प्रेमपूर्वक मेरा भजन ही करो। तभी तुम जीवनके परम लक्ष्यरूप मुझको प्राप्त करके धन्य हो सकोगे।
‘अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्॥’
(गीता ९। ३३)
वस्तुत: यह हमारे लिये बड़े ही परिताप और लज्जाकी बात है कि इस प्रकार हम दयालु भगवान्की दयाका तिरस्कार कर अपने मानव-जीवनको व्यर्थ खो रहे हैं। यही मानव-जीवनकी सबसे बड़ी विफलता है और यही मनुष्यकी सबसे बड़ी भूल है।
५१-मनुष्यको परमात्माकी प्राप्तिका जन्मसिद्ध अधिकार है तथापि अपनी अयोग्यता और विपरीताचरणके कारण उसे अपने अधिकारसे वंचित रहकर उलटा दण्डभोग करना पड़ता है। इससे अधिक उसका दुर्भाग्य और क्या होगा?
५२-भगवान्ने मनुष्य-शरीर देकर हमें मुक्तिका अधिकारी बना दिया, हम यदि अब प्रमाद और पाप करें तो हमारी बड़ी भारी मूर्खता है।
५३-भगवान्ने हमें मुक्तिका पासपोर्ट दे दिया है। अब जो कुछ कमी है वह केवल हमारी ही ओरसे है।
५४-यह कलिकाल पापोंका खजाना होनेपर भी आत्मोद्धारके लिये परम सहायक है।
५५-ऐसे उत्तम देश, जाति और धर्मको पाकर भी जो लोग नहीं चेतते हैं, उनको बहुत ही पश्चात्ताप करना पड़ेगा।
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ॥
मनुष्यका शरीर सम्पूर्ण शरीरोंसे उत्तम और मुक्तिदायक होनेके कारण अमूल्य माना गया है।
५६-परम दयालु ईश्वरकी कितनी भारी दया है, ईश्वरने यह मनुष्यका शरीर देकर हमें बहुत विलक्षण मौका दिया है। ऐसे अवसरको पाकर हमलोगोंको नहीं चूकना चाहिये।
५७-केवल भगवान्के पवित्र गुणगान करनेसे ही मनुष्य परमपदको प्राप्त हो जाता है। आत्मोद्धारके लिये साधन करनेमें प्रारब्ध भी बाधक नहीं है। इसलिये प्रारब्धको दोष देना व्यर्थ है और ईश्वरकी दयाका तो पार ही नहीं है।
५८-परम लक्ष्यकी प्राप्तिके लिये सतत प्रयत्न करना ही मनुष्य-जीवनके कर्तव्यका पालन करना है। इस कर्तव्य-पालनमें जो कुछ भी त्याग करना पड़े वही थोड़ा है।
५९-हमारा लक्ष्य होना चाहिये परमात्माकी प्राप्ति, क्योंकि परमात्मा ही एकमात्र परमसुख और शाश्वती शान्तिके केन्द्र हैं, वे ही सर्वश्रेष्ठ और सबसे बढ़कर प्राप्त करनेयोग्य परम वस्तु हैं, उनकी प्राप्तिमें ही जीवनकी पूर्ण और यथार्थ सफलता है।
६०-कौन जानता है, मृत्यु कब आ जायगी। दीर्घजीवनका पट्टा थोड़े ही है। इधर विष तो लगातार चढ़ ही रहा है। रातको ही मौत आ गयी तो फिर क्या होगा? अतएव इसी क्षणसे जग जाना चाहिये और लग जाना चाहिये पूरी लगनसे।
६१-बुद्धिमान् मनुष्यको चाहिये कि वह शास्त्रोंसे, शास्त्रोंके वाक्य न समझमें आवें तो किन्हीं भगवत्प्राप्त पुरुषसे, वैसे पुरुष न मिलें तो धर्मको जानकर धर्मका आचरण करनेवाले किसी पुरुषसे, वह भी न मिले तो अपनी समझसे जो धर्मको जाननेवाला जान पड़े, उसीसे पूछकर अपने कर्तव्यको जान ले।
६२-दु:ख एवं शोकसे छूटनेके लिये मनुष्यको चाहिये कि वह अपना सारा समय परमात्माके तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिके साधनमें ही लगावे और उसे प्राप्त करके ही विश्राम ले।
६३-अर्जुन बहुत दृढ़ भक्त था। इतनी तेज भक्ति होकर भी थोड़ी कसर रहनेसे अर्जुनको इतना मोह हो गया। इस वास्ते मनुष्यको उचित है कि जबतक भगवत्प्राप्ति नहीं होवे तबतक साधन खूब तेजीसे करता जाय। जैसे जडभरत तथा अर्जुन-सरीखे पुरुषमें भी ऐसी बात बीत गयी तब अपनेको सोचना चाहिये कि उनके सामने हम क्या चीज हैं?
६४-जबतक परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती तबतक मनुष्य संसारमें अटक जावे तो कोई बड़ी बात नहीं है।
६५-भगवान् अपने भक्तोंपर मायाका जो प्रयोग करते हैं वह उनको चेतानेके लिये करते हैं। अर्जुनको भगवान्ने कहा कि मेरे सामने तुझे यह मोह कैसे प्राप्त हुआ; क्योंकि सूर्यके सामने अन्धकार नहीं आ सकता। तू मुझे नहीं जानता, इसीलिये मेरे सामने भी तुझे माया दबा रही है फिर मेरे बिना तेरी क्या दशा होगी?
६६-मनुष्यको विचार करना चाहिये कि भजन, ध्यान और सत्संगरूपी अमृतको छोड़कर एक क्षण भी व्यर्थ क्यों बिताया जाय। आनन्दमय भगवान्के स्मरण बिना जो समय व्यतीत होता है वही व्यर्थ है।
६७-बारम्बार विचार करना चाहिये कि आप किस लिये आये थे, यहाँ क्या करना चाहिये और आप क्या कर रहे हैं।
६८-एक भगवान्के बिना तुम्हारा और कोई भी नहीं है।
६९-संसारका चिन्तन भगवान्की प्राप्तिमें बहुत बड़ा बाधक एवं अपने लिये घातक है।
७०-अपने लोग कितने भाग्यवान् हैं कि सनातनधर्ममें अपना जन्म हुआ। संसारमें कितने ही मत पुनर्जन्मको नहीं मानते हैं। पृथ्वीपर लगभग तीन अरब मनुष्य हैं, जिनमें कितनोंको तो मोक्षका विषय मालूम ही नहीं है। ऐसे लोगोंकी तो पशुओंकी माफिक योनि समझनी चाहिये, क्योंकि जैसे पशुओंके मुक्तिका साधन नहीं है, वैसे ही उनके लिये भी नहीं है। इसलिये हमें चेतना चाहिये तथा इसी जन्ममें अपना कल्याण कर लेना चाहिये, क्योंकि अगला जन्म यदि किसी अन्य मतमें हुआ तो बड़ी कठिनता होगी।
७१-भजन-ध्यान होनेमें साधन करनेवालोंके पास रुपया होनेकी अपेक्षा ऋण होना ज्यादा बाधक है।
७२-मनुष्य-जन्मके समयकी कीमतके समान देवताओंके समयकी कीमत नहीं है। ऐसा मनुष्य-जन्म पाकर जो कल्याणको प्राप्त न करे उसे धिक्कार है।
७३-एक झूठ बोलनेसे सैकड़ों जन्म नरकमें पड़ना पड़ता है।
७४-जितना आराम है उससे लाख गुना ही दु:ख है। दृष्टान्त—मनुष्यको एक जन्मका किया हुआ पाप चौरासी लाख योनियोंमें भोगना पड़ता है तथा स्त्रीके साथ भोग करनेमें एक मिनटका आराम मालूम होता है, किंतु लाखों वर्ष नरकमें दु:ख भोगना पड़ता है।
७५-श्रीराम, श्रीकृष्ण आदिके समय भी अपने लोग कुछ-न-कुछ थे ही। उस समय नहीं चेतनेके कारण अभीतक जन्म-मृत्युके चक्करमें पड़े हुए हैं। अभी चेतना चाहिये, जिससे भविष्यमें जन्म-मरणसे छुटकारा मिल जावे।
७६-प्रारब्धकी बात यह है कि जितना शब्द बोलना है उतना ही बोल सकता है, जितना श्वास आना है उतना आ सकता है। इस बातको विचारकर मनुष्यको कामकी बात ही बोलनी चाहिये।
७७-यह सारा संसार एक दिन भस्म हो जानेवाला है।
७८-फुरसत न मिलनेका बहाना न करो। यहाँ किसीको फुरसत नहीं मिलती, परन्तु मरते समय सबको फुरसत मिल जाती है।
७९-समय बहुत तेजीसे बीतता चला जा रहा है मृत्यु नजदीक है, उसे कोई एक पलके लिये भी नहीं टाल सकता। केवल भजन ही सार है। इसलिये तन-मनसे भजन करनेमें लग जाओ।
८०-शरीर तो छोड़ना ही पड़ेगा। इसलिये पहले ही इसमें अभिमान छोड़ देना अच्छा है।
८१-जबतक शरीर है उतने समयतक इससे काम ले लेना चाहिये। एक दिन तो अवश्य ही इसे खाली करना पड़ेगा।
८२-जबतक आपका शरीरपर अधिकार है अच्छी तरह शीघ्रतासे इससे काम ले लेना चाहिये। इसमेंसे भजन, ध्यान, सत्संगरूपी अमृत तो निकाल लेना चाहिये। जिससे बादमें पछताना न पड़े।
८३-भगवान्के भजन, ध्यान तथा सत्संगके बिना ‘मैं और मेरा’ यह भाव नाश होना कठिन है। भगवान्का भजन बहुत कीमती है, यही तुम्हारे काम आवेगा।
८४-समयकी कीमत शीघ्र जान लेनी चाहिये। दिन बीते जा रहे हैं। गया समय फिर हाथ आता नहीं, ऐसा जानकर बड़ी शीघ्रतासे बहुत ऊँचे काममें लग जाना चाहिये और उसीमें समयको बिताना चाहिये। दिन बीत जायँगे, मृत्युका समय समीप आ जायगा, फिर कोई उपाय नहीं चलेगा। ऐसा जानकर असली काम बनानेके लिये जल्दी तैयार हो जाना चाहिये, फिर आनन्द-ही-आनन्द है।
८५-विचारकर देखनेसे मालूम होगा कि हमारा जन्म लेना व्यर्थ ही हुआ, केवल दस महीने माताको बोझ ही ढोना पड़ा। अब भी चेत जायँ, नहीं तो पीछे पछतानेसे कुछ भी नहीं बनेगा। अन्तमें भगवान्के भजन बिना कोई भी काम नहीं आवेगा। सब यहीं रह जायगा, शरीर भी साथ नहीं जायगा, फिर औरकी तो बात ही क्या है?
८६-सभी लोग स्वार्थमें डूबे पड़े हैं। चेतना चाहिये। मनुष्यके शरीरका असली फल प्राप्त करना चाहिये।
८७-समय बीता जा रहा है, गया हुआ समय किसी प्रकार भी लौटकर नहीं आता। ऐसा जानकर समयको अमूल्य काममें ही बिताना चाहिये। ऊँचे-से-ऊँचे काममें ही समय लगाना चाहिये। आप जिस कामके लिये संसारमें आये थे, उस कामको पहले पूरा करके ही फिर दूसरे कामको देखना चाहिये। एक भगवान्के बिना आपका सच्चा सुहृद् और कोई नहीं है, ऐसा जानकर निरन्तर भजन-ध्यान करना चाहिये।
८८-एक श्रीभगवान्को छोड़कर और कोई भी तुम्हारा नहीं है। माता-पिता, भाई, स्त्री, पुत्र, मकान, धन सभी नाशवान् हैं। इनका संग बहुत ही थोड़े दिनोंका है। इनमेंसे कुछ भी तुम्हारे साथ नहीं जायगा। और तो क्या, तुम्हारा यह शरीर भी यहीं रह जायगा।
८९-समय बीता जा रहा है। गया हुआ समय फिर हाथ नहीं आता। इसलिये जबतक स्वास्थ्य ठीक है, मृत्यु दूर है, तभीतक जो कुछ करना है सो कर लेना चाहिये। जिससे पीछे पश्चात्ताप न करना पड़े।
९०-एक भगवान्को छोड़कर तुम्हारा और कोई भी नहीं है, अतएव उस परम प्रेमी भगवान्को एक क्षणके लिये भी नहीं भूलना चाहिये।
९१-तन, धन आदि कोई भी वस्तु साथ नहीं जायगी, इन सबको देकर बदलेमें साथ जानेवाली वस्तुको खरीद लेना चाहिये।
९२-बड़े आश्चर्यकी बात है कि तप्तकुण्डमें पड़े हुए मनुष्यकी तरह लोग निरन्तर चिन्तारूपी अग्निमें जल रहे हैं, परन्तु इस दु:खको दूर करनेकी चेष्टा नहीं करते, इससे बढ़कर मूर्खता और क्या हो सकती है?
९३-संसारके किसी काममें चित्त अटका रह जानेसे फिरसे जन्म लेना पड़ता है, यों समझकर काम जल्दी ही निपटा लेना चाहिये कि जिससे फिर सदाके लिये आनन्द हो जाय।
९४-आप मालिकको किस लिये भूल रहे हैं? स्त्री, पुत्र और धन किस काम आवेंगे!
९५-प्राणोंके निकलनेके समय कोई सहायता नहीं कर सकेगा। साथ तो शरीर भी नहीं जायगा। जो कुछ किया जाता है वही साथ जाता है।
९६-भगवान्ने दया करके भजन, ध्यान, भगवत्प्राप्तिके लिये मनुष्य-शरीर दिया है। सांसारिक भोग-विलासमें इसे नहीं खोना चाहिये।
९७-संसारके तुच्छ भोगोंकी ओर भूलकर भी मन न लगाना चाहिये। संसारके भोगोंमें जो समय जाता है सो व्यर्थ जाता है।
९८-समय बहुत थोड़ा है, बहुत विचार-विचारकर इसे बिताना चाहिये। एक पलके साधनकी भी त्रुटि रह जायगी तो पुन: जन्म लेना पड़ेगा, अतएव ऐसी ही चेष्टा करनी चाहिये कि जिससे शीघ्र ही भगवत्प्राप्ति हो जाय।
९९-शरीर मिथ्या और नाशवान् है एवं अपने साथ इसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है।
१००-संसार, भोग और शरीरको सदा मृत्युके मुखमें देखना चाहिये।
१०१-समय बीता जा रहा है जो कुछ करना हो सो जल्दी कर लेना चाहिये। तुम किसलिये विलम्ब कर रहे हो? तुम्हें क्या जरूरत है? तुमको किसका दबाव है? तुम्हें नारायणको एक पलके लिये भी बिसारना नहीं चाहिये। अन्तमें एक नारायणको छोड़कर और कोई भी तुम्हारा नहीं होगा। इस असार संसारमें कुछ भी सार नहीं है। सब मायाकी टटिया है। इस प्रकार समझकर बुद्धिमान् तो इसके जालमें नहीं फँसता परन्तु जो नहीं समझता सो इस मायारूपी ठगनीके मोहजालमें भोगरूपी दानेके लोभमें पड़कर फँस जाता है।
१०२-मनुष्य-जन्ममें ही आत्माका सुधार और उद्धार हो सकता है। अन्य किसी भी योनिमें नहीं हो सकता।
१०३-ये सब पदार्थ किस काम आवेंगे? एक दिन सबको मिट्टीमें मिल जाना है? जो कुछ ले सकें सो शीघ्र ही ले लेना चाहिये, अमूल्य श्वासोंको व्यर्थ गँवाना उचित नहीं है।
१०४-आपको वह काम कभी नहीं भूलना चाहिये, जिस कामके लिये आपका संसारमें आना हुआ है।
१०५-जो संसारका दास होगा वही संसारकी इच्छा करेगा। सांसारिक वस्तुओंकी इच्छा करनेवाला ही संसारमें जन्म लेता है। ऐसा पुरुष भगवान्के अन्त:करण एवं मनका स्वामी नहीं हो सकता।
१०६-समय बीता जा रहा है। शीघ्र ही यह शरीर मिट्टीमें मिलनेवाला है। जब शरीर ही अपना नहीं तो रुपये एवं संसारके भोगोंकी तो बात ही क्या है?
१०७-श्रीभगवान्का विछोह आपसे कैसे सहा जाता है!
१०८-भगवान्के भजन-ध्यानके सिवा एक पल भी वृथा क्यों जाय? किसी भी बातके लिये एक पल भी बिना भजन-ध्यानके नहीं जाने देना चाहिये; क्योंकि सभी कुछ अनित्य है। अनित्यके लिये अपना अमूल्य समय हाथसे कभी न खोना चाहिये।
१०९-जब आपका शरीर छूट जायगा तब शरीर और रुपये किस काम आवेंगे? सब कुछ मिट्टीमें मिल जायगा।
११०-देर क्यों लगाते हैं? समय बीता जाता है। सब वस्तुओंको निश्चय ही छोड़ना पड़ेगा। पीछे पछतानेसे कुछ भी काम न होगा। संसारकी असारता पुराने खंडहरों और श्मशानोंके देखनेसे प्रत्यक्ष प्रतीत होती है।
१११-जबतक मृत्यु दूर है और शरीर आरोग्य है तथा अनुकूल परिस्थिति है उतने ही समयमें जो कुछ उत्तम काम करना हो सो बहुत शीघ्र कर लेना चाहिये, जिससे आगे चलकर पश्चात्ताप न करना पड़े।
११२-इस संसारमें एक भगवान्के सिवा और कोई भी तुम्हारा नहीं है। माता, पिता, भाई, स्त्री, पुत्र, मकान, रुपये सभी नाशवान् हैं, इनका संग थोड़े ही दिनोंका है, इनमेंसे कोई भी पदार्थ तुम्हारे साथ नहीं जायगा।
११३-संसारमें चिन्ता करनेयोग्य कुछ भी नहीं है।