गीता
१-ब्रह्मचर्याश्रम, गीताका प्रचार, सत्संगका प्रचार यह काम बहुत अच्छा है। लोगोंको कहा भी जाता है। देशी कपड़ा, जूता, ब्रह्मचर्याश्रम, गीताजीका प्रचार—इनके करनेमें कितनी कठिनाई पड़ी है। अब आपको कितनी सुगमता है। आगे कलियुगमें समय बहुत खराब आ रहा है।
२-गीताके अध्ययनसे भी ईश्वरमें पूर्ण श्रद्धा हो सकती है।
३-श्रीगीताजीका अर्थ बहुत सरल है, उसका भी सार—‘त्यागसे भगवत्प्राप्ति है।’
४-हर समय भजन-ध्यान, श्रीगीताजीका अभ्यास करनेवालेसे भगवान् तथा महात्मा बहुत प्रसन्न रहते हैं।
५-मेरेको गीताजी बहुत प्यारी हैं, क्योंकि मेरे प्यारे प्रेमीकी बनायी हुई हैं। इनका मनन नित्य करना चाहिये।
६-जिस प्रकार दलालके साथ सैम्पुलकी गठरी ढोनेवाले मजदूरकी भी मालिकसे मुलाकात हो जाती है, उसी प्रकार जो श्रीगीताजीके प्रचारका थोड़ा भी काम निष्कामभावसे करता है, वह भी परमात्मप्राप्तिका पात्र बन जाता है।
७-सबसे ऊँचा काम श्रीगीताजीका प्रचार करना और श्रीपरमात्माके ध्यानका है। इनमें भी श्रीगीताजीका प्रचार एक नम्बर है।
८-जो बात सुनकर श्रीगीताजीका प्रचार करनेकी शक्ति और उत्साह बढ़े और ध्यानकी स्थितिकी वृद्धि हो, ऐसी प्रभावकी बातें सारे काम छोड़कर सुननी चाहिये।
९-श्रीगीताजीका प्रचार सम्पूर्ण जातियोंमें करना चाहिये।
१०-श्रीगीताजीका काम सत्संग छोड़कर भी करना उत्तम है।
११-श्रीगीताजीकी महिमा, श्रीगीताजीके प्रचारके बराबर लाभदायक दूसरा काम नहीं है, मेरे जो कुछ लाभ देखनेमें आता है, वह श्रीगीताजीका प्रभाव है।
१२-गो, गीता, गंगा, गायत्री और गोविन्दका नाम। इन पाँचोंकी शरणसे पूरन होवे काम॥ एक-एककी शरणसे भी बेड़ा पार है। इनमें भी गीता और गोविन्दका नाम प्रधान है।
१३-गीता ज्ञानका प्रवाह है।
१४-भगवान्की प्राप्तिके लिये श्रीगीताजीका अर्थसहित अभ्यास करना चाहिये।
१५-गीताजीका श्लोक अर्थ, भाव, विषयसहित जो याद करता है, वह पहली कक्षा पास है।
१६-श्लोकोंका जो भाव है उसके अनुसार धारण करनेकी कोशिश करना दूसरी कक्षा पास है।
१७-गीताजीके अनुसार गुणोंको धारण कर लेना, अवगुणको निकाल देना तीसरी भूमिका है।
१८-संसारकी उन्नतिके लिये विद्यालयोंद्वारा गीताका प्रचार करना चाहिये।
१९-गीताजीका अर्थसहित अभ्यास करनेसे बहुत लाभ है, क्योंकि अन्तकालमें याद रह जावे तो उद्धार हो जाय।
२०-गीतामें एक-एक शब्द हीरा, माणिक जड़ा है।
२१-मेरा मत क्या है, गीता। गीतासे विरुद्ध चाहे कुछ क्यों न हो मेरेको मान्य नहीं है।
२२-श्रुति, स्मृति सबका सार गीता है।
२३-श्रीगीताजीका घर-घरमें प्रचार करना चाहिये। रोम-रोममें रमानी चाहिये।
२४-गीता एक परम रहस्यमय ग्रन्थ है। इसमें सम्पूर्ण वेद और शास्त्रोंका सार संग्रह किया गया है।
२५-गीता सर्वशास्त्रमयी है। गीतामें सारे शास्त्रोंका सार भरा हुआ है। उसे सारे शास्त्रोंका खजाना कहें तो भी अत्युक्ति न होगी।
२६-भगवद्गीता एक ऐसा अनुपमेय शास्त्र है जिसका एक भी शब्द सदुपदेशसे खाली नहीं है। गीतामें एक भी शब्द ऐसा नहीं है जो रोचक कहा जा सके। उसमें जितनी बातें कही गयी हैं, वह सभी अक्षरश: यथार्थ हैं।
२७-श्रीमद्भगवद्गीता साक्षात् भगवान्की दिव्य वाणी है। इसकी महिमा अपार है, अपरिमित है। उसका यथार्थमें वर्णन कोई नहीं कर सकता।
२८-गीताका भलीभाँति ज्ञान हो जानेपर सब शास्त्रोंका तात्त्विक ज्ञान अपने-आप हो सकता है, उसके लिये अलग परिश्रम करनेकी आवश्यकता नहीं रहती।
२९-यह गीता उन्हीं भगवान्के मुखकमलसे निकली है जिनकी नाभिसे कमल निकला। उस कमलसे ब्रह्माजी उत्पन्न हुए। ब्रह्माजीसे चारों वेद प्रकट हुए और उनके आधारपर ही समस्त ऋषिगणोंने सम्पूर्ण शास्त्रोंकी रचना की है। अत: गीताको अच्छी प्रकार भावसहित समझकर धारण कर लेनेपर अन्य सब शास्त्रोंकी आवश्यकता नहीं रह जाती, क्योंकि सारे शास्त्रोंका विस्तार तो भगवान्की नाभिसे हुआ और गीता स्वयं भगवान्के मुखकमलसे कही गयी है।
३०-गीताकी रचना इतनी सरल और सुन्दर है कि थोड़ा अभ्यास करनेसे भी मनुष्य इसको सहज ही समझ सकता है, परन्तु इसका आशय इतना गूढ़ और गम्भीर है कि आजीवन निरन्तर अभ्यास करते रहनेपर भी उसका अन्त नहीं आता।
३१-भगवान्के गुण, प्रभाव, स्वरूप, मर्म और उपासनाका तथा कर्म एवं ज्ञानका वर्णन जिस प्रकार इस गीता-शास्त्रमें किया गया है वैसा अन्य ग्रन्थोंमें एक साथ मिलना कठिन है।
३२-एकाग्रचित्त होकर श्रद्धा-भक्तिसहित विचार करनेसे गीताके पद-पदमें परम रहस्य भरा हुआ प्रत्यक्ष प्रतीत होता है।
३३-सारे शास्त्रोंकी उत्पत्ति वेदोंसे हुई, वेदोंका प्राकटॺ भगवान् ब्रह्माजीके मुखसे हुआ और ब्रह्माजी भगवान्के नाभिकमलसे उत्पन्न हुए। इस प्रकार शास्त्रों और भगवान्के बीचमें बहुत अधिक व्यवधान पड़ गया है, किन्तु गीता तो स्वयं भगवान्के मुखारविन्दसे निकली है, इसलिये उसे सभी शास्त्रोंसे बढ़कर कहा जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी।
३४-गीता गंगासे भी बढ़कर है। शास्त्रोंमें गंगास्नानका फल मुक्ति बतलाया गया है। परन्तु गंगामें स्नान करनेवाला स्वयं मुक्त हो सकता है। वह दूसरोंको तारनेकी सामर्थ्य नहीं रखता। किन्तु गीतारूपी गंगामें गोते लगानेवाला स्वयं तो मुक्त होता ही है, वह दूसरोंको भी तारनेमें समर्थ हो जाता है।
३५-गंगा तो भगवान्के चरणोंसे उत्पन्न हुई और गीता साक्षात् भगवान् नारायणके मुखारविन्दसे निकली है।
३६-गंगा तो जो उसमें आकर स्नान करता है उसीको मुक्त करती है, परन्तु गीता तो घर-घरमें जाकर उन्हें मुक्तिका मार्ग दिखलाती है।
३७-गीता गायत्रीसे बढ़कर है, गायत्री-जपसे मनुष्यकी मुक्ति होती है, यह बात ठीक है, किन्तु गायत्री-जप करनेवाला भी स्वयं ही मुक्त होता है, पर गीताका अभ्यास करनेवाला तो तरन-तारन बन जाता है। जब मुक्तिके दाता स्वयं भगवान् ही उसके हो जाते हैं, तब मुक्तिकी तो बात ही क्या है। मुक्ति उसकी चरणधूलिमें निवास करती है। मुक्तिका तो वह सत्र खोल देता है।
३८-वास्तवमें गीताके समान संसारमें यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत, संयम और उपवास आदि कुछ भी नहीं है।
३९-गीताको हम स्वयं भगवान्से भी बढ़कर कहें तो कोई अत्युक्ति न होगी। भगवान्ने स्वयं कहा है—
गीताश्रयेऽहं तिष्ठामि गीता मे चोत्तमं गृहम्।
गीताज्ञानमुपाश्रित्य त्रीँल्लोकान् पालयाम्यहम्॥
(वाराहपुराण)
४०-गीता भगवान्का प्रधान रहस्यमय आदेश है। ऐसी दशामें उसका पालन करनेवाला उन्हें प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय हो, इसमें आश्चर्य ही क्या है।
४१-गीता भगवान्का श्वास है, हृदय है और भगवान्की वाङ्मयी मूर्ति है।
४२-गीतामें ही भगवान् मुक्तकण्ठसे यह घोषणा करते हैं कि जो कोई मेरी इस गीतारूप आज्ञाका पालन करेगा वह नि:संदेह मुक्त हो जायगा।
४३-जिसके हृदयमें, वाणीमें, शरीरमें तथा समस्त इन्द्रियों एवं उनकी क्रियाओंमें गीता रम गयी है, वह पुरुष साक्षात् गीताकी मूर्ति है। उसके दर्शन, स्पर्श, भाषण एवं चिन्तनसे भी दूसरे मनुष्य परम पवित्र बन जाते हैं।
४४-गीता ज्ञानका अथाह समुद्र है, इसके अंदर ज्ञानका अनन्त भण्डार भरा पड़ा है। इसका तत्त्व समझानेमें बड़े-बड़े दिग्गज विद्वान् और तत्त्वालोचक महात्माओंकी वाणी भी कुण्ठित हो जाती है; क्योंकि इसका पूर्ण रहस्य भगवान् श्रीकृष्ण ही जानते हैं।
४५-गीता अनन्तभावोंका अथाह समुद्र है। रत्नाकरमें गहरा गोता लगानेपर जैसे रत्नोंकी प्राप्ति होती है, वैसे ही इस गीता-सागरमें गहरी डुबकी लगानेसे जिज्ञासुओंको नित्य नूतन विलक्षण भाव-रत्न-राशिकी उपलब्धि होती है।
४६-जैसे वेद परमात्माका नि:श्वास है इसी प्रकार गीता भी साक्षात् भगवान्का वचन होनेसे भगवत्-स्वरूप ही है। अतएव भगवान्की भाँति गीताका स्वरूप भी भक्तोंको अपनी भावनाके अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकारसे भासता है।
४७-कृपासिन्धु भगवान्ने अपने प्रिय सखा भक्त अर्जुनको निमित्त बनाकर समस्त संसारके कल्याणार्थ इस अद्भुत गीता-शास्त्रका उपदेश किया है।
४८-किसी एक ऐसे ग्रन्थका अवलम्बन करना उत्तम है जो सरलताके साथ मनुष्यको इस पावन पथपर ला सकता है। मेरी समझसे ऐसा पावन ग्रन्थ ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ है।
४९-बहुत थोड़ेसे सरल शब्दोंमें कठिन-से-कठिन सिद्धान्तोंको समझानेवाला, सब प्रकारके अधिकारियोंको उनके अधिकारानुसार उपयोगी मार्ग बतलानेवाला, सच्चे धर्मका पथप्रदर्शक, पक्षपात और स्वार्थसे रहित उपदेशोंके अपूर्व संग्रहका यह एक ही सार्वभौम महान् ग्रन्थ गीता है।
५०-गीता भगवान्के ही श्रीमुखका वचनामृत है। गीतामें जितने वचन ‘श्रीभगवानुवाच’ के नामसे हैं उनमें कुछ तो जो श्रुतियोंके प्राय: ज्यों-के-त्यों वचन हैं। अर्जुनको श्लोकरूपमें ही कहे गये थे और अवशेष संवाद बोलचालकी भाषामें हुआ था जिसको भगवान् श्रीव्यासदेवने श्लोकोंका रूप दे दिया।
५१-गीताके समान संसारमें कोई ग्रन्थ नहीं है। सभी मत इसकी उत्कृष्टता स्वीकार करते हैं, अत: हमें गीताका इतना अभ्यास करना चाहिये कि हमारी आत्मा गीतामय हो जाय।
५२-गीताका अर्थ समझनेके लिये विशेष प्रयत्न करना चाहिये। गीताका खूब अभ्यास करे, जिस समय पाठ करे उस समय अर्थपर खूब ध्यान रखे। पहले अर्थ पढ़ ले, पीछे श्लोक पढ़े।
५३-गीताके श्लोकोंमें कोई नयी बात जान पड़े तो उसे कण्ठस्थ कर ले।
जिन पुरुषोंको धर्मके विस्तृत ग्रन्थोंको देखनेका पूरा समय नहीं मिलता है, उनको चाहिये कि वे गीताका अर्थसहित अध्ययन अवश्य ही करें और उसके उपदेशोंको पालन करनेमें तत्पर हो जायँ।
५४-गीतामें सैकड़ों ऐसे श्लोक हैं जिनमेंसे एकको भी पूर्णतया धारण करनेसे मनुष्य मुक्त हो जाता है फिर सम्पूर्ण गीताकी तो बात ही क्या है। जैसे गीता अध्याय २। ७१; ३। ३०; ४। ३४, ५। २९; ६। ४७; ७। १४; ८। १४; ९। ३२; १०। ९-१०; ११। ५४; ५५; १२। ८; १३। १०; १४। १९; २६; १५। १९; १६। १; १७। १६; १८। ६५-६६ इत्यादि।
५५-गीताधर्मके प्रचारमें सबको यत्नवान् होना चाहिये, इससे सबको आत्यन्तिक सुखकी प्राप्ति हो सकती है। यही एक सरल, सहज और मुख्य उपाय है।
५६-गीता-प्रचारके लिये भगवान्ने किसी देश, काल, जाति और व्यक्तिविशेषके लिये रुकावट नहीं की है, वरं अपने भक्तोंमें गीताका प्रचार करनेवालेको सबसे बढ़कर अपना प्रेमी बतलाया है।
५७-सभी देशोंकी सभी जातियोंमें गीताशास्त्रका प्रचार बड़े जोरके साथ करना चाहिये।
५८-केवल एक गीताके प्रचारसे ही पृथ्वीके मनुष्यमात्रका उद्धार हो सकता है।
५९-गीतापाठ करनेवालोंमें सदाचार, श्रद्धा, भक्ति और प्रेमका होना आवश्यक है; क्योंकि भगवान्ने अश्रद्धालु, सुनना न चाहनेवाले, आचरणभ्रष्ट, भक्तिहीन मनुष्योंमें इसके प्रचारका निषेध किया है (गीता १८। ६७)।
६०-गीतामें बतलाये हुए साधनोंके अनुसार आचरण करनेका अधिकार मनुष्यमात्रको है। जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्णका यह उपदेश समस्त मानव-जातिके लिये है—किसी खास वर्ण अथवा किसी खास आश्रमके लिये नहीं। यही गीताकी विशेषता है।
६१-मुक्तिमें मनुष्यमात्रका अधिकार है और गीता मुक्ति-मार्ग बतलानेवाला एक प्रधान ग्रन्थ है, इसलिये परमेश्वरमें भक्ति और श्रद्धा रखनेवाले सभी आस्तिक मनुष्योंका इसमें अधिकार है।
६२-गीतारूपी दुग्धामृत अर्जुनरूप वत्सके व्याजसे ही विश्वको मिला, परन्तु वह इतना सार्वभौम और सुमधुर है कि सभी देश, सभी जाति, सभी वर्ण और सभी आश्रमके लोग उसका अबाधितरूपसे पान कर अमरत्व प्राप्त कर सकते हैं।
६३-जैसे भगवत्प्राप्तिमें सबका अधिकार है वैसे ही गीताके भी सभी अधिकारी हैं।
६४-गीता सभी वर्णाश्रमवालोंके लिये है। सभी अपने-अपने वर्णाश्रमके कर्मोंको करते हुए सांख्य या योग—दोनोंमेंसे किसी एक निष्ठाके द्वारा अधिकारानुसार साधन कर सकते हैं।
६५-गीतामें कर्म, भक्ति और ज्ञान—तीनों सिद्धान्तोंकी ही अपनी-अपनी जगह प्रधानता है।
६६-ज्ञान, कर्म और भक्ति—तीनोंका ही सम्यक्तया प्रतिपादन हुआ है।
६७-गीता अधिकारी-भेदसे ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों निष्ठाओंको मुक्तिके दो स्वतन्त्र साधन मानती है।
६८-गीता वर्णाश्रमको मानती है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र—चारों वर्ण अपने-अपने स्वाभाविक वर्ण-धर्मका स्वार्थरहित निष्कामभावसे भगवत्प्रीत्यर्थ आचरण करें तो उनकी मुक्ति होना गीताको सर्वथा मान्य है।
६९-गीता जन्म-कर्म दोनोंसे वर्ण मानती है। ‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।’ (४। १३)
७०-गीता मूर्तिपूजाको मानती है, अध्याय ९। २६ और ९। ३४ के श्लोकसे यह प्रमाणित है।
७१-गीता वेदोंको मानती है और उनको बहुत ऊँची दृष्टिसे देखती है।
गीतामें जितने सद्भाव यानी उत्तम गुण बतलाये गये हैं उन सबमें एक ऐसा गुण है जिस एकसे ही महापुरुषकी पहचान हो जाती है, उसका नाम है ‘समता’।
७२-व्यवहारमें परमार्थके प्रयोगकी अद्भुत कला गीतामें बतलायी गयी है।
७३-जिनको जो विषय प्रिय है, जो सिद्धान्त मान्य है वही गीतामें भासने लगता है।
७४-श्रीमद्भगवद्गीताकी ध्वजा फहरा रही है, फिर हमारी अवनति क्यों होनी चाहिये।
७५-गीतोक्त ज्ञानकी उपलब्धि हो जानेपर और कुछ जानना शेष नहीं रह जाता।