Hindu text bookगीता गंगा
होम > परमार्थ सूत्र संग्रह > दया

दया

१-उस कृपालुकी कृपा तो निरन्तर ही सबपर पूर्ण है। मनुष्य कृपा करनेवाला कौन है?

२-भगवान‍्की कृपाका निरन्तर अनुभव होते रहनेपर और अपनेको उनका कृपापात्र मान लेनेपर तो चिन्ता-फिकरका रहना सम्भव ही नहीं है। इसके बाद भी यदि चिन्ता रह जाय तो वह प्रभुको लज्जित करनेवाली है।

३-मनुष्यकी ‘नजर’ किस काम आवेगी? नजर तो केवल भगवान‍्की चाहिये और वह सबपर बहुत अच्छी है ही, परन्तु कोई इसपर ठीक-ठीक विश्वास करे तब तो!

४-पूर्वकालमें हजारों वर्षोंतक लगातार चेष्टा करनेपर भगवान‍्के दर्शन हुआ करते थे, परन्तु अब तो बहुत ही शीघ्र हो सकते हैं।

५-श्रीभगवान‍्की पूर्ण कृपा तो सदा ही है, इस समय विशेष कृपा है, साधनकी चेष्टा नहीं करनी बहुत मूर्खता है। अपनी तरफकी त्रुटि है।

६-सर्वत्र भगवान‍्की दया समझकर हर समय प्रसन्न रहना चाहिये। सांसारिक वस्तुओंके हानि-लाभमें भगवान‍्की लीला देखे, बहुत खुश हो और पद-पदपर भगवान‍्की दया देखे।

७-भगवान‍्की कृपा, दया हम सभीपर सदा ही पूर्ण बनी हुई है। इस बातको जो जान लेगा, वह भगवान‍्को कभी नहीं भूल सकेगा।

८-जैसे स्नेहमयी माता अपने प्यारे बच्चेको बुरे आचरणसे हटानेके लिये मारती है, इसी प्रकार भगवान् भी जीवोंके साथ दयापूर्ण कठोर बर्ताव करते हैं।

९-कलियुगमें थोड़ेहीमें भगवान् मिलते हैं। भगवद्-विषयक धन लुटा जा रहा है। लूट लेना चाहिये, किंतु लोग बहुत जोर-शोरसे स्वार्थ और बुरे कामोंमें रत हैं। परमार्थमें समय कम बिताते हैं।

१०-भगवान‍्का बर्ताव देखकर चित्तमें गद‍्गद भाव तथा अश्रुपात होना चाहिये, जैसे विषका कीड़ा विषमें राजी रहता है, उसी प्रकार संसारके लोग संसारमें राजी रहते हैं, मैलेका कीड़ा मैलेमें प्रसन्न है, परंतु वास्तवमें उसका दु:ख देखकर भी महात्मालोग उसको मैलेसे निकालकर मारना नहीं चाहते, उसी प्रकार संसारके लोग संसारमें राजी हैं तो उनको भगवान् बलपूर्वक कैसे निकालें।

११-श्रीपरमात्मदेवकी तो सबपर पूर्ण कृपा है। जिसको ऐसा निश्चय हो जाता है वही भगवान‍्का कृपापात्र है।

१२-फिर उसको शीघ्र ही भगवान् मिल जाते हैं; क्योंकि उससे बिना मिले उन्हें चैन नहीं पड़ता।

१३-भगवान‍्की तो पूर्णरूपसे कृपा है ही, परन्तु वह योग्य पात्रमें प्रत्यक्ष भासती है।

१४-जैसे सूर्यका प्रकाश सब जगह परिपूर्ण होनेपर भी दर्पणमें प्रत्यक्षवत् भासता है। भगवान‍्की कृपाका थोड़ा-सा प्रभाव जाननेपर साधक जो कुछ होता है सो भगवान‍्की कृपा ही समझता है और तब वह अपनी इच्छाको छोड़कर साक्षी होकर आनन्दमें मग्न रहता है।

१५-भगवत्कृपासे ही भगवत्-चर्चा होती है।

१६-भजन, ध्यान और सत्संगादि सभी कुछ भगवत्कृपासे होते हैं।

१७-निरन्तर ही भगवान‍्की पूर्ण कृपा मानते रहना चाहिये।

१८-भगवान‍्की कृपासे भगवान् मिलते हैं और जीवका उद्धार होता है। इन सब बातोंको खूब अच्छी तरह समझना चाहिये।

१९-दयासागर भगवान‍्की जीवोंपर इतनी अपार दया है कि जिसकी कोई सीमा ही नहीं।

२०-भगवान् श्रीरामचन्द्रजीको दयाका सागर कहें, तब भी उनकी अपरिमित दयाका तिरस्कार ही होता है। जीवोंपर उनकी जो दया है, वह कल्पनातीत है।

२१-भगवान‍्को दयासागर कहना भी उनकी स्तुतिके व्याजसे निन्दा ही करना है; क्योंकि सागर तो सीमावाला है, परन्तु भगवान‍्की दयाकी तो कोई सीमा ही नहीं है।

२२-दयामय परमेश्वरकी सब जीवोंपर इतनी दया है कि सम्पूर्णरूपसे तो मनुष्य उसे समझ ही नहीं सकता, मनुष्य अपनी बुद्धिसे अपने ऊपर जितनी अधिक-से-अधिक दया समझता है, उतना समझना भी उसके लिये बहुत ही है, मनुष्य ईश्वर-कृपाकी यथार्थरूपसे तो कल्पना भी नहीं कर सकता।

२३-मनुष्य अपनी ऊँची-से-ऊँची कल्पनासे उनकी दयाका जहाँतक अनुमान लगाता है, भगवान‍्की दया उससे अनन्तगुना अधिक ही नहीं, असीम और अत्यन्त विलक्षण है। भगवान् वस्तुत: दयामय ही हैं। ‘है तुलसिहि परतीति एक प्रभु मूरति कृपामयी है।’

२४-परमात्माकी प्राप्ति परमात्माकी दयासे ही होती है, दया ही एकमात्र कारण है, परन्तु यह दया मनुष्यको अकर्मण्य नहीं बना देती। परमात्माकी दयासे ही ऐसा परम पुरुषार्थ बनता है। जीवका अपना कोई पुरुषार्थ नहीं, वह तो निमित्तमात्र होता है।

२५-दया और प्रेमका बड़ा भारी समुद्र उमड़ा हुआ है—भरा हुआ है। उसमें अपने-आपको डुबो दें। चारों तरफ बाहर-भीतर, नीचे-ऊपर सर्वत्र ईश्वरकी दया और प्रेमका समुद्र परिपूर्ण है।

२६-ईश्वर दयालु है, प्रेमी है। उनकी दया और प्रेम सब जगह परिपूर्ण हो रहे हैं। अणु-अणुमें उनकी दया और प्रेमको देख-देखकर हमें मुग्ध होना चाहिये। हर समय प्रसन्न रहना चाहिये। इसको साधन बना लेना चाहिये।

२७-जैसे सूर्यकी धूपमें हम बैठते हैं, हमारे चारों ओर धूप-ही-धूप पूर्ण है उसी तरह परमात्माकी दया और प्रेम सब जगह पूर्ण है।

२८-कोई स्थान उसकी दया और प्रेमसे खाली नहीं।

२९-‘सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।’ (गीता ५।२९)

ईश्वर परम सुहृद् है। सुहृद्का अर्थ क्या है? दया और प्रेम जिसमें हो उसका नाम सुहृद् है। उसकी दया और प्रेम अनन्त है, अपार है। अणु-अणुमें, जर्रे-जर्रेमें व्याप्त हो रहे हैं।

३०-उस परम दयालु, सबके सुहृद्, सर्वशक्तिमान् परमेश्वरकी अपार दया हमलोगोंपर स्वाभाविक है। क्षण-क्षणमें उसकी दयाका स्वाभाविक लाभ हमको मिल रहा है, वे स्वयं अवतार लेकर अपनी दयाका प्रत्यक्ष दर्शन करा गये हैं, इसलिये उसकी ओर लक्ष्य करके भगवान‍्की दयाके रहस्य, प्रभाव और तत्त्वको समझनेके लिये हमें तत्पर हो जाना चाहिये।

३१-भगवान‍्की दयाका महत्त्व अपार है, उससे जो मनुष्य जितना लाभ उठाना चाहेगा, उतना ही उठा सकता है। भगवान‍्की दयाको एवं उसके रहस्य और तत्त्वको बिना समझे वह दया समानभावसे साधारण फल देती है। उसे जो जितना अधिक समझता है उसे वह उतना ही अधिक फल देती है और समझकर उसके अनुसार क्रिया करनेसे अत्यधिक फल देती है।

३२-जैसे सूर्यका प्रकाश समभावसे सर्वत्र होनेपर भी उज्ज्वल होनेके कारण काँच उसका विशेष पात्र है, क्योंकि वह सूर्यका प्रतिबिम्ब भी ग्रहण कर लेता है और काँचोंमें भी सूर्यमुखी काँच तो सूर्यकी शक्तिको लेकर वस्त्रादि पदार्थोंको जला भी डालता है। इसी प्रकार सब जीवोंपर प्रभुकी दया समानभावसे रहते हुए भी जो मनुष्य उस दयाके तत्त्व और प्रभावको विशेषरूपसे जानते हैं, वे तो उस दयाके द्वारा समस्त पाप-तापोंको सहज ही भस्म कर डालते हैं।

३३-प्रभु असम्भवको भी सम्भव करनेवाले हैं, वे अपने दासोंके दोषोंकी ओर देखते ही नहीं। वे बिना ही कारण दासोंपर दया और प्रेम करते हैं। उनका स्वभाव ही ऐसा है।

३४-भगवान् हमलोगोंके साथ क्रीड़ा करनेके लिये हमारे-जैसे बनकर हमारे इस भूमण्डलमें उतर आते हैं, इससे बढ़कर जीवोंपर भगवान‍्की और क्या कृपा होगी।

३५-भगवान् तो कृपाके आकर (खजाना) हैं। कृपा करना उनका स्वभाव ही है। कृपा किये बिना उनसे रहा नहीं जाता।

३६-उनकी दया, प्रेम सर्वत्र परिपूर्ण हो रहे हैं। वे दर्शन देनेको तैयार हैं। वे सब प्राणियोंके सुहृद् हैं।

३७-यह मनुष्य-शरीर भगवान‍्की निर्हैतुकी दयासे प्राप्त हुआ है। इसीमें यह जीव भगवान‍्की दयाको समझकर उनका परम प्रेमपात्र बन सकता है।

३८-भगवान‍्की दयाका ऐसा प्रभाव है कि उसका रहस्य और तत्त्व जाननेवालेसे वह पारसमणिकी भाँति स्वयं क्रिया करवा लेती है।

३९-किसीके घरमें पारस पड़ा है, पर वह उसके गुण, प्रभाव और रहस्यको न जाननेके कारण दरिद्रताके दु:खको भोगता है, उसी प्रकार हमलोग भगवान् और भगवान‍्की दयाके रहस्य, प्रभाव, तत्त्व और गुणोंको न जाननेके कारण दु:खी हो रहे हैं।

४०-जो कुछ भी ईश्वरका विधान है उसमें हित ही भरा है। कहीं भी अहित दीखता है तो यह अपनी समझकी कमी है।

४१-अणु-अणुमें सब समय, सब देश और सब वस्तुमें अपना हित ही देखे, यह देखना ही सर्वत्र उसी दयाको देखना है। विश्वासपूर्वक मान लें बस, फिर काम खतम।

४२-यदि हम दृढ़ विश्वास कर लें कि वे तो बड़े ही दयालु हैं, उनके न मिलनेमें हमारी बेसमझी ही कारण है। हमको मिलेगें, जरूर मिलेंगे, आज ही मिलेंगे—ऐसा दृढ़ निश्चय कर लें तो आज ही मिल जायँगे इसमें तनिक भी शंका नहीं है।

४३-केवल मान लेना ही साधन है। जप या ध्यान कुछ भी करनेकी बात नहीं कही। केवल मान लो बस इतना ही करना है। वह परम सुहृद् है जिसमें अपार दया हो, हेतुरहित प्रेम हो। भगवान‍्की दया अपार है। वह अपार दयादृष्टिसे हमें देख रहा है फिर किस बातकी चिन्ता है।

४४-हर समय यह भाव जाग्रत् रहना चाहिये। अहा! ईश्वरकी हमपर कितनी दया है। ईश्वरका हमपर कितना प्रेम है। सबपर समानभावसे अपार दया है। जब इतनी दया है, तब हमको भय, चिन्ता, शोक करनेकी क्या आवश्यकता है। हम चिन्ता-भय करें यह तो हमारी मूर्खता है। भय किसका? न वहाँ भय है, न चिन्ता है, न मोह है। यह हमारी बेसमझी थी, हम जानते नहीं थे कि प्रभु इतने दयालु हैं। अब कहाँ चिन्ता? कहाँ भय? कहाँ शोक?

४५-ईश्वरकी दया सर्वत्र है। सर्वत्र उसके प्रेमकी छटा छा रही है। फिर हम क्यों भय करें। वह प्रेमका महान् समुद्र है, उसमें हम डूबे हुए हैं, प्रेम-जलसे भींगे हुए हैं, मग्न हो रहे हैं। यह भाव जब दृढ़ हो जायगा तब शान्ति और आनन्दकी बाढ़ प्रत्यक्ष दीखने लगेगी। फिर प्रेम आनन्दके रूपमें परिणत हो जायगा, वही परमात्माका स्वरूप है।

४६-एक बादशाहकी दया हो जाती है तो आनन्दका ठिकाना नहीं रहता। एक महात्माकी दया हो जाती है तो आनन्द समाता नहीं फिर ईश्वरकी दया तो अपार है। फिर क्या बात है।

४७-हम बेसमझीके कारण ही दु:खी हो रहे हैं। ईश्वरकी दया और प्रेम तो सब जगह पूर्ण हो ही रहे हैं। हम मानते नहीं तभी हम दु:खी होते हैं।

४८-भगवान‍्की दयाका प्रवाह अहर्निश गंगाके प्रवाहसे भी बढ़कर सर्वत्र बह रहा है तो भी मनुष्य उसका प्रभाव न जाननेके कारण एवं श्रद्धा-भक्तिकी कमी होनेके कारण भगवान‍्की शरण लेकर उनकी दयासे विशेष लाभ नहीं उठा सकते।

४९-भगवान‍्की दया तो सदा ही सबपर समानभावसे है, परन्तु जबतक उसकी अपार दयाको मनुष्य पहचान नहीं लेता, तबतक उसे दयासे लाभ नहीं होता।

५०-प्रभुकी दया सबके ऊपर ही अपार है, किन्तु हमलोग इस बातको अज्ञानके कारण समझते नहीं हैं, विषय-सुखमें भूले हुए हैं। इसलिये उस दयासे पूरा लाभ नहीं उठा सकते।

५१-बस केवल उसकी दयापर निर्भर होना चाहिये।

५२-भगवान‍्की दया और प्रेमका स्मरण कर हर समय भगवत्प्रेममें मुग्ध और निर्भय रहे। भगवच्चिन्तनमें खूब प्रेम और श्रद्धाकी वृद्धि करे। यह बड़ी ही मूल्यवान् है।

५३-यदि कहें कि किस बातको लेकर खुश रहें तो इसका उत्तर यह है कि भगवान‍्की दयाको देख-देखकर। देखो, भगवान‍्की तुमपर कितनी दया है। अपार दया समझकर इतना आनन्द होना चाहिये कि वह हृदयमें समावे नहीं। हर समय आनन्दमें मुग्ध रहे। बार-बार प्रसन्न होवे। अहा, प्रभुकी कितनी दया है। यही सबसे बढ़कर साधन है और यही भक्ति है एवं इसीका नाम शरण है।

५४-भगवान‍्की दया दोनों रूपोंसे सामने आती है। कहीं वह प्रेमके रूपमें दर्शन देती है, कहीं दण्डके रूपमें।

५५-जिस प्रकार बच्चेको प्यार करने और ताड़ना देने, दोनोंमें माताकी दया ही है, उसी प्रकार जीवोंके गुण-दोषोंका नियन्त्रण करनेवाले भगवान‍्की सब प्रकारसे उनपर कृपा ही है।

५६-उनकी प्रत्येक क्रियामें जगत‍्का हित भरा रहता है। भगवान् जिनको मारते या दण्ड देते हैं उनपर भी दया ही करते हैं, उनका कोई भी विधान दया और प्रेमसे रहित नहीं होता। इसलिये भगवान् सब भूतोंके सुहृद् हैं।

५७-सुख-दु:ख जो भी प्राप्त हो, उसमें उसकी दया देखे। अपने द्वारा की जानेवाली क्रियामें भी यह देखे कि भगवान‍्की ‘रुचि’ क्या है, जिसे भगवान‍्की दया और उनकी रुचिकी तरफ खयाल हो उस पुरुषको भगवान‍्के स्वरूपका खयाल तो दोनों ही तरहसे साथ-साथ होता ही रहता है।

५८-हानि-लाभ, जय-पराजय एवं सुख-दु:खादिमें समानरूपसे ईश्वरकी दयाका दर्शन करे।

५९-शरीरको समर्पित कर देनेपर तत्सम्बन्धी सुख-दु:खोंमें साधकको भगवान‍्की दया स्पष्टरूपसे दीखने लगती है।

६०-दयालु डॉक्टर जैसे पके हुए फोड़ेमें चीरा देकर सड़ी हुई मवादको बाहर निकालकर उसे रोगमुक्त कर देता है, इसी प्रकार भगवान् भक्तके हितार्थ कभी-कभी कष्टरूपी चीरा लगाकर उसे नीरोग बना देते हैं। इसमें उनकी दया ही भरी रहती है।

६१-माता स्नेहसे बच्चेको पकड़कर यदि फोड़ेको चिरवा रही है तो चिन्ता क्यों करनी चाहिये। माँ देख रही है न, बच्चा यदि रोता है तो उसका बालकपन है। समझदार तो रोता भी नहीं। हमपर कोई भी दु:ख आवे तो समझना चाहिये—हमारी माँ, भगवान् हमें सुखी करनेके लिये, पवित्र करनेके लिये गोदमें लेकर चिरवा रहे हैं।

६२-मारमें भी माँका प्यार भरा रहता है, माताकी दयापर विश्वास करनेवाले बच्चेकी भाँति जो भगवान‍्के दया-तत्त्वको जान लेता है और भगवान‍्की मारपर भी भगवान‍्को ही पुकारता है, भगवान् उसे अपने हृदयसे लगा लेते हैं। फिर जो भगवान‍्की कृपाको विशेषरूपसे जान लेता है, उसकी तो बात ही क्या है?

६३-सारी माताओंके हृदयोंमें अपने पुत्रोंपर जो दया या स्नेह है, वह सब मिलकर भी उन दयासागरकी दयाके एक बूँदके बराबर भी नहीं है।

६४-श्रद्धा-भक्तिपूर्वक विचार करनेसे क्षण-क्षणमें, पद-पदपर, हर एक अवस्थामें मनुष्यको भगवान‍्की दयाके दर्शन होते रहते हैं। सब जीवोंको जल, वायु, प्रकाश आदि तत्त्वोंसे सुख-भोग मिल रहा है, उनके जीवनका निर्वाह हो रहा है, खान-पान आदि कार्य चल रहे हैं, इन सबमें ईश्वरकी समान दया व्याप्त है।

६५-मनुष्यके शुभ और अशुभ कर्मोंके अनुसार फल-भोगकी व्यवस्था कर देनेमें भगवान‍्की दयाका ही हाथ है।

६६-थोड़ा-सा जप, ध्यान और सत्संग करनेसे मनुष्यके जन्म-जन्मान्तरके पापोंका नाश होनेका जो भगवान‍्ने कानून बनाया है, इसमें तो भगवान‍्की अपार दया भरी हुई है।

६७-स्त्री, पुत्र, धन और मकान आदि सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्ति और उनका विनाश होनेमें, शरीरका स्वास्थ्य ठीक रहने और न रहनेमें, रोग और संकटादिकी प्राप्ति और उनके विनाशमें तथा सुख-सम्पत्ति और दु:खोंकी प्राप्तिमें भी हर एक अवस्थामें मनुष्यको भगवान‍्की दयाका दर्शन करनेका अभ्यास करना चाहिये।

६८-जो सांसारिक भोग-पदार्थोंके वियोगमें भी भगवान‍्की दयाका दर्शन करके सदा प्रसन्न रहता है, वही उनकी दयाके रहस्यको ठीक समझता है।

६९-सुखी और दु:खी, महात्मा और पापी जीवोंके साथ मिलन और बिछोह होनेके समय एवं उनसे किसी प्रकारका भी सम्बन्ध होते समय, सदा भगवान‍्की दयाका दर्शन करना चाहिये।

७०-दैवी सम्पदाकी प्राप्ति और आसुरी सम्पदाके नाशमें भगवान‍्की दया ही प्रधान हेतु है।

७१-भगवान‍्को हर समय याद रखना चाहिये। स्त्री-पुत्र आदिके प्राप्त होनेपर यह समझे कि भगवत्प्राप्तिमें सहायताके लिये ये मिले हैं और इनके नाश होनेपर यह समझे कि मैं इनकी आसक्तिमें फँस गया था इसलिये भगवान‍्ने दया करके इनको हटा लिया है। इसी प्रकार अन्य विषयोंकी प्राप्ति और विनाशमें भी समझना चाहिये।

७२-भजन, ध्यान, सेवा, सत्संग, सद‍्गुण और सदाचार आदिकी जो स्मृति, इच्छा और प्राप्ति होती है—यह भगवान‍्की विशेष दया है।

७३-हमारे ऊपर प्रभुकी अपार दया है। वे देखते रहते हैं कि जरा भी गुंजाइश हो तो मैं प्रकट होऊँ, थोड़ा भी मौका मिले तो भक्तको दर्शन दूँ।

७४-भगवान‍्की दयाके प्रभावको जाननेवाले पुरुषोंके संगसे मनुष्यको भगवान‍्की नित्य दयाका पता लगता है, दयाके ज्ञानसे भजनका मर्म समझमें आता है, फिर उसकी भजनमें प्रवृत्ति होती है और भजनके नित्य-निरन्तर अभ्याससे उसके समस्त संचित पाप समूल नष्ट हो जाते हैं और उसे परमात्माकी प्राप्तिरूप पूर्ण लाभ मिलता है।

७५-ज्यों-ही-ज्यों प्रभुकी दयाके तत्त्व और प्रभावको मनुष्य अधिक-से-अधिक जानता चला जाता है, त्यों-ही-त्यों उसके दु:ख, दुर्गुण और पापोंका नाश होता चला जाता है और फलत: वह निर्भय और निश्चिन्त होकर परम शान्ति और परमानन्दको प्राप्त हो जाता है।

७६-दयासागर भगवान‍्की दयाके तत्त्व और रहस्यको यथार्थ जाननेवाला पुरुष भी दयाका समुद्र और सब भूतोंका सुहृद् बन जाता है।

७७-जो पुरुष भगवत्कृपाके रहस्यको समझ जाता है, उसमें दया, गम्भीरता, शान्ति और सरलता आदि सद‍्गुण स्वयं ही आ जाते हैं। उसके हृदयमें आनन्दका समुद्र उमड़ने लगता है तथा दृष्टिमें सर्वत्र समताका साम्राज्य छा जाता है।

७८-जो परमेश्वर महापामर दीन-दु:खी अनाथको याचना करनेपर उसके दुर्गुण और दुराचारोंकी ओर खयाल न करके बच्चेको माताकी भाँति गले लगा लेता है, ऐसे उस परम दयालु सच्चे हितैषी परम पुरुषकी इस दयाके तत्त्वको जाननेवाला पुरुष उसकी प्राप्तिसे वंचित कैसे रह सकता है।

अगला लेख  > भक्ति