Hindu text bookगीता गंगा
होम > परमार्थ सूत्र संग्रह > कर्मयोग

कर्मयोग

१-निष्काम कर्मयोगरूप धर्मका थोड़ा भी साधन जन्म-मृत्युरूप महान् भयसे उद्धार कर देता है।

२-निष्कामभावसे किया हुआ अल्पकर्म भी मुक्तिका हेतु बन सकता है।

३-निष्कामभावसे किया हुआ आचरण अमृतस्वरूप माना गया है।

४-भगवद‍्गीता योगनिष्ठाको भगवत्प्राप्ति यानी मोक्षका स्वतन्त्र साधन भी मानती है और ज्ञाननिष्ठामें सहायक भी।

५-गीतामें सकामभावकी अपेक्षा निष्कामभावको बहुत अधिक महत्त्व दिया गया है और भगवान‍्की प्राप्तिके लिये उसे आवश्यक बतलाया है।

६-फल और आसक्तिको त्यागकर भगवान‍्के आज्ञानुसार केवल भगवदर्थ समत्व बुद्धिसे शास्त्रविहित कर्तव्य कर्मोंका करना ही निष्काम कर्मयोगका स्वरूप है।

७-सब कुछ भगवान‍्का समझकर, सिद्धि-असिद्धिमें समभाव रखते हुए, आसक्ति और फलकी इच्छाका त्याग करके भगवत्-आज्ञानुसार सब कर्मोंका आचरण करना (२। ४७ से ५१) अथवा श्रद्धा-भक्तिपूर्वक मन, वाणी और शरीरसे सब प्रकार भगवान‍्के शरण होकर नाम, गुण और प्रभावसहित उनके स्वरूपका निरन्तर चिन्तन करना (६। ४७)। यह ‘‘योगनिष्ठा’’ है। इसीका भगवान‍्ने समत्वयोग, बुद्धियोग, तदर्थकर्म, मदर्थकर्म एवं सात्त्विक त्याग आदि नामोंसे उल्लेख किया है।

८-योगनिष्ठाके भी तीन मुख्य भेद हैं—

  1. केवल कर्मयोग।

  2. भक्तिमिश्रित कर्मयोग।

  3. भक्तिप्रधान कर्मयोग।

(१) केवल कर्मयोग— इसमें कहीं-कहीं भगवान‍्ने केवल फलके त्यागकी बात कही है (५। १२; ६। १; १२। ११; १८। ११)। कहीं केवल आसक्तिके त्यागकी बात कही है (३। १९; ६। ४) और कहीं फल और आसक्ति दोनोंके छोड़नेकी बात कही गयी है (२। ४७, ४८; १८। ६,९)। जहाँ केवल फलके त्यागकी बात कही गयी है, वहाँ आसक्तिके त्यागकी बात ऊपरसे ले लेनी चाहिये और जहाँ केवल आसक्तिके त्यागकी बात कही है, वहाँ फलके त्यागकी बात ऊपरसे ले लेनी चाहिये। कर्मयोगका साधन वास्तवमें तभी पूर्ण होता है जब फल और आसक्ति दोनोंका ही त्याग होता है।

(२) भक्तिमिश्रित कर्मयोग—इसमें सारे संसारमें परमेश्वरको व्याप्त समझते हुए अपने-अपने वर्णोचित कर्मके द्वारा भगवान‍्की पूजा करनेकी बात कही गयी है (१८। ४६), इसीलिये इसको भक्तिमिश्रित कर्मयोग कह सकते हैं।

(३) भक्तिप्रधान कर्मयोग—

(३) इसके दो अवान्तर भेद हैं—

(क) ‘भगवदर्पण’ कर्म।

(ख) ‘भगवदर्थ’ कर्म।

भगवदर्पण कर्म भी दो तरहसे किया जाता है। पूर्ण ‘भगवदर्पण’ तो वह है जिसमें समस्त कर्मोंमें ममता, आसक्ति और फलेच्छाको त्यागकर तथा यह सब कुछ भगवान‍्का है, मैं भी भगवान‍्का हूँ और मेरे द्वारा जो कर्म होते हैं वे भी भगवान‍्के ही हैं, भगवान् ही मुझसे कठपुतलीकी भाँति सब कुछ करवा रहे हैं—ऐसा समझते हुए भगवान‍्के आज्ञानुसार भगवान‍्की ही प्रसन्नताके लिये शास्त्र-विहित कर्म किये जाते हैं (३। ३०; १२। ६; १८। ५७—६६)।

इसके अतिरिक्त पहले किसी दूसरे उद्देश्यसे किये हुए कर्मोंको पीछेसे भगवान‍्के अर्पण कर देना, कर्म करते-करते बीचमें ही भगवान‍्के अर्पण कर देना, कर्म समाप्त होनेके साथ-साथ भगवान‍्के अर्पण कर देना अथवा कर्मोंका फलमात्र भगवान‍्के अर्पण कर देना—यह भी ‘भगवदर्पण’ का ही प्रकार है, यद्यपि यह भगवदर्पणकी प्रारम्भिक सीढ़ी है। ऐसा करते-करते ही उपर्युक्त पूर्ण भगवदर्पण होता है।

‘भगवदर्थ’ कर्म भी दो प्रकारके होते हैं—

भगवान‍्के विग्रह आदिका अर्चन तथा भजन-ध्यान आदि उपासनारूप कर्म जो भगवान‍्के ही निमित्त किये जाते हैं और जो स्वरूपसे भी भगवत्सम्बन्धी होते हैं, उनको ‘भगवदर्थ’ कर्म कह सकते हैं।

इनके अतिरिक्त जो शास्त्रविहित कर्म भगवत्प्राप्ति, भगवत्प्रेम अथवा भगवान‍्की प्रसन्नताके लिये भगवत्-आज्ञानुसार किये जाते हैं वे भी ‘भगवदर्थ’ कर्मके ही अन्तर्गत हैं। इन दोनों प्रकारके कर्मोंका ‘मत्कर्म’ और ‘मदर्थ कर्म’ नामसे भी गीतामें उल्लेख हुआ है (११। ५५; १२। १०)।

जिसे अनन्यभक्ति अथवा भक्तियोग कहा गया है (८। १४, २२, ९। १३, १४, २२, ३०, ३४; १०। ९; १३। १०; १४। २६), वह भी ‘भगवदर्पण’ और ‘भगवदर्थ’ इन दोनों कर्मोंमें ही सम्मिलित है। इन सबका फल एक भगवत्प्राप्ति ही है।

(१) निषिद्ध कर्मोंका सर्वथा त्याग—

चोरी, व्यभिचार, झूठ, कपट, छल, जबरदस्ती, हिंसा, अभक्ष्य-भोजन और प्रमाद आदि शास्त्रविरुद्ध नीच कर्मोंको मन, वाणी और शरीरसे किसी प्रकार भी न करना। यह पहली श्रेणीका त्याग है।

(२) काम्य कर्मोंका त्याग—

स्त्री, पुत्र और धन आदि प्रिय वस्तुओंकी प्राप्तिके एवं रोग-संकटादिकी निवृत्तिके उद्देश्यसे किये जानेवाले यज्ञ, दान, तप और उपासना आदि सकाम कर्मोंको अपने स्वार्थके लिये न करना। यह दूसरी श्रेणीका त्याग है।

(३) तृष्णाका सर्वथा त्याग—

मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा एवं स्त्री, पुत्र और धनादि जो कुछ भी अनित्य पदार्थ प्रारब्धके अनुसार प्राप्त हुए हों उनके बढ़नेकी इच्छाको भगवत्प्राप्तिमें बाधक समझकर उसका त्याग करना। यह तीसरी श्रेणीका त्याग है।

(४) स्वार्थके लिये दूसरोंसे सेवा करानेका त्याग—

अपने सुखके लिये किसीसे भी धनादि पदार्थोंकी अथवा सेवा करानेकी याचना करना एवं बिना याचनाके दिये हुए पदार्थोंको या की हुई सेवाको स्वीकार करना तथा किसी प्रकार भी किसीसे अपना स्वार्थ सिद्ध करनेकी मनमें इच्छा रखना—इत्यादि जो स्वार्थके लिये दूसरोंसे सेवा करानेके भाव हैं, उन सबका त्याग करना। यह चौथी श्रेणीका त्याग है।

(५) सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मोंमें आलस्य और फलकी इच्छाका सर्वथा त्याग—

ईश्वरकी भक्ति, देवताओंका पूजन, माता-पितादि गुरुजनोंकी सेवा, यज्ञ, दान, तप तथा वर्णाश्रमके अनुसार आजीविकाद्वारा गृहस्थका निर्वाह एवं शरीर-सम्बन्धी खान-पान आदि जितने कर्तव्यकर्म हैं, उन सबमें आलस्यका और सब प्रकारकी कामनाका त्याग करना।

(६) संसारके सम्पूर्ण पदार्थोंमें और कर्मोंमें ममता और आसक्तिका सर्वथा त्याग—

धन, मकान और वस्त्रादि सम्पूर्ण वस्तुएँ तथा स्त्री, पुत्र और मित्रादि सम्पूर्ण बान्धवजन एवं मान, बड़ाई और प्रतिष्ठा इत्यादि इस लोकके और परलोकके जितने विषय-भोगरूप पदार्थ हैं, उन सबको क्षणभंगुर और नाशवान् होनेके कारण अनित्य समझकर उनमें ममता और आसक्तिका न रहना तथा केवल एक परमात्मामें ही अनन्यभावसे विशुद्ध प्रेम होनेके कारण मन, वाणी और शरीरके द्वारा होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाओंमें और शरीरमें भी ममता और आसक्तिका सर्वथा अभाव हो जाना। यह छठी श्रेणीका त्याग है।

उक्त छठी श्रेणीके त्यागको प्राप्त हुए पुरुषोंका संसारके सम्पूर्ण पदार्थोंमें वैराग्य होकर केवल एक परम प्रेममय भगवान‍्में ही अनन्य प्रेम हो जाता है। इसलिये उनको भगवान‍्के गुण, प्रभाव और रहस्यसे भरी हुई विशुद्ध प्रेमके विषयकी कथाओंका सुनना-सुनाना और मनन करना तथा एकान्त देशमें रहकर निरन्तर भगवान‍्का भजन, ध्यान और शास्त्रोंके मर्मका विचार करना ही प्रिय लगता है। विषयासक्त मनुष्योंमें रहकर हास्य, विलास, प्रमाद, निन्दा, विषयभोग और व्यर्थ वार्तादिमें अपने अमूल्य समयका एक क्षण भी बिताना अच्छा नहीं लगता एवं उनके द्वारा सम्पूर्ण कर्तव्यकर्म भगवान‍्के स्वरूप और नामका मनन रहते हुए ही बिना आसक्तिके केवल भगवदर्थ होते हैं।

कर्मयोगका साधन करते-करते ही साधक परमात्माकी कृपासे परमात्माके स्वरूपको तत्त्वत: जानकर अविनाशी परमपदको प्राप्त हो जाता है (१८। ५६)।

किन्तु यदि कोई सांख्ययोगके द्वारा परमात्माको प्राप्त करना चाहे तो उसे उपर्युक्त साधन करनेके अनन्तर निम्नलिखित सातवीं श्रेणीकी प्रणालीके अनुसार सांख्ययोगका साधन करना चाहिये।

(७) संसार, शरीर और सम्पूर्ण कर्मोंमें सूक्ष्म वासना और अहंभावका सर्वथा त्याग—

संसारके सम्पूर्ण पदार्थ मायाके कार्य होनेसे सर्वथा अनित्य हैं और एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा ही सर्वत्र समभावसे परिपूर्ण हैं—ऐसा दृढ़ निश्चय होकर शरीरसहित संसारके सम्पूर्ण पदार्थोंमें और सम्पूर्ण कर्मोंमें सूक्ष्म वासनाका सर्वथा अभाव हो जाना अर्थात् अन्त:करणमें उनके चित्रोंका संस्काररूपसे भी न रहना एवं शरीरमें अहंभावका सर्वथा अभाव होकर मन, वाणी और शरीरद्वारा होनेवाले सम्पूर्ण कर्मोंमें कर्तापनके अभिमानका लेशमात्र भी न रहना तथा इस प्रकार शरीरसहित सम्पूर्ण पदार्थों और कर्मोंमें वासना और अहंभावका अत्यन्त अभाव होकर एक सच्चिदानन्दघन परमात्माके स्वरूपमें ही एकीभावसे नित्य-निरन्तर दृढ़ स्थिति रहना। यह सातवीं श्रेणीका त्याग है।

इस प्रकार साधन करनेसे वह पुरुष तत्काल ही सच्चिदानन्दघन परमात्माको सुखपूर्वक प्राप्त हो जाता है (६। २८), किंतु जो पुरुष उक्त प्रकारसे कर्मयोगका साधन न करके आरम्भसे ही सांख्ययोगका साधन करता है वह परमात्माको कठिनतासे प्राप्त होता है।

९-निष्काम कर्मयोगी साधनकालमें कर्म, कर्मफल, परमात्मा और अपनेको भिन्न-भिन्न मानता हुआ कर्मोंके फल और आसक्तिको त्यागकर ईश्वर-परायण हो ईश्वरार्पणबुद्धिसे ही सब कर्म करता है (गीता ३। ३०; ४। २०; ५। १०; ९। २७-२८; १२। ११-१२; १८। ५६-५७)।

१०-कर्मयोगका विशेषत्व इसीलिये बतलाया है कि वह सुगम है और उसका साधन देहाभिमानी भी कर सकता है, परन्तु सांख्ययोग इसकी अपेक्षा बड़ा कठिन है (गीता अध्याय ५। ६)।

११-निष्काम कर्मयोगीकी परमात्माको प्राप्त करनेकी कामना परिणाममें परम कल्याणका हेतु होनेके कारण कामना नहीं समझी जाती, भगवत्प्राप्तिकी कामनावाला पुरुष निष्काम ही समझा जाता है।

१२-निष्काम कर्मयोगीकी दृष्टिमें संसारके समस्त पदार्थ उस परमात्माके सामने अत्यन्त तुच्छ, मलिन और छुद्र प्रतीत होते हैं, वह उस महान्-से-महान् परमात्माकी प्राप्तिरूप शुभेच्छामें जगत‍्के सम्पूर्ण बड़े-से-बड़े पदार्थोंको तुच्छ समझता है (गीता २। ४९)।

१३-परमात्माकी प्राप्तिके अनुकूल तो वे ही कार्य हो सकते हैं जिनके लिये भगवान‍्ने आज्ञा दी है, जो शास्त्रविहित हैं, जो किसीके लिये किसी प्रकारसे भी अनिष्टकारक नहीं होते। ऐसे कर्मोंमें निषिद्ध कर्मोंका समावेश किसी प्रकार भी नहीं हो सकता।

१४-गीताका निष्काम कर्मयोग सर्वथा भक्तिमिश्रित है।

१५-निष्काम कर्मका आचरण ही तभीसे आरम्भ होता है जबसे साधक अपने मनमें परमात्माको पानेकी शुभ और दृढ़ भावनाको लेकर संसारके भोगोंकी प्राप्ति-अप्राप्तिमें हर्ष-शोकका विचार छोड़कर फलासक्तिका त्याग कर देना चाहता है।

१६-जो कर्म भगवान‍्की प्रीति या प्राप्तिके लिये नहीं होते उनका तो नाम ही कर्मयोग नहीं होता। कर्मयोग नाम तभी सफल होता है जब कर्मोंका योग परमात्माके साथ कर दिया जाता है।

१७-इसमें सन्देह नहीं कि कर्मयोगके साथ स्मरण-कीर्तनादि भक्तिका संयोग कर देनेपर भगवत्प्राप्ति बहुत शीघ्र होती है और सम्पूर्ण कर्मयोगियोंमें ऐसे ही योगी पुरुष उत्तम समझे जाते हैं (गीता ६। ४७)।

१८-मदर्पण कर्मका स्वरूप तो यह है कि जैसे एक आदमी किसी दूसरे उद्देश्यसे कुछ धन संग्रह कर रहा है और उसके पास पहलेसे कुछ धन संगृहीत भी है, परन्तु वह जब चाहे तब अपने धन-संग्रहका उद्देश्य बदल सकता है और संगृहीत धन किसीको भी अर्पण कर सकता है। कर्मका आरम्भ करनेके बाद बीचमें या कर्मके पूरे होनेपर भी उसका अर्पण हो सकता है।

१९-मदर्थ या भगवदर्थ कर्म तो आरम्भसे ही भगवान‍्के लिये ही किया जाता है। किसी देवताके उद्देश्यसे प्रसाद बनाना या ब्राह्मण-भोजनके लिये भोजनकी सामग्रियोंका संग्रह करना जैसे आरम्भसे ही एक निश्चित उद्देश्यको लेकर होता है, उसी प्रकार भगवदर्थ कर्म करनेवाले साधकके प्रत्येक कर्मका आरम्भ श्रीभगवान‍्के उद्देश्यसे ही हुआ करता है।

२०-भगवत्प्राप्तिके लिये किया जानेवाला कर्म ही निष्काम कर्मयोग है।

२१-निष्काम कर्मयोगीको परमात्माकी प्राप्तिके लिये कर्तव्यकर्मोंको छोड़कर एकान्तमें भजन-ध्यान करनेकी भी आवश्यकता नहीं रहती।

२२-भजन-ध्यान तो सदा-सर्वदा ही परम श्रेष्ठ है। परन्तु एकान्तमें भजन-ध्यान न करके भी भगवच्चिन्तनसहित शास्त्रविहित कर्तव्यकर्मोंको निरन्तर करता हुआ ही निष्काम कर्मयोगी परमात्माकी शरण और उसकी कृपासे परमगतिको प्राप्त हो जाता है।

२३-अपने-अपने वर्णधर्मके अनुसार कर्ममें लगा हुआ पुरुष सिद्धिको प्राप्त हो जाता है, अवश्य ही कर्म करते समय मनुष्यका लक्ष्य परमात्मामें रहना चाहिये।

२४-जिस प्रकार पतिव्रता स्त्री पतिको ही अपना सर्वस्व मानकर पतिका ही चिन्तन करती हुई, पतिके आज्ञानुसार, पतिके लिये ही मन, वाणी, शरीरसे नियत (अपने जिम्मे बँधे हुए) संसारके समस्त कर्मोंको करती हुई पतिकी प्रसन्नता प्राप्त करती है, इसी प्रकार निष्काम कर्मयोगी एक परमात्माको ही अपना सर्वस्व मानकर उसीका चिन्तन करता हुआ उसीके आज्ञानुसार मन, वाणी, शरीरसे उस परमात्माके ही लिये अपने कर्तव्यकर्मका आचरण कर परमात्माकी प्रसन्नता और परमात्माको प्राप्त करता है।

२५-सम्पूर्ण भूतप्राणियोंमें परमात्माको व्यापक समझकर, सभीको परमात्माका स्वरूप मानकर अपने कर्मोंद्वारा निष्काम कर्मयोगी भक्त भगवान‍्की पूजा करता है।

२६-जैसे धनका लोभी मनुष्य अपने प्रत्येक कर्ममें धनकी प्राप्तिका उपाय ही सोचता है। किसी तरह धन मिलना चाहिये केवल यही भाव उसके मनमें निरन्तर रहता है। जिस काममें रुपये खर्च होते हैं, रुपये आते नहीं या उनके आनेमें कुछ बाधा होती है, उस कामके वह समीप भी जाना नहीं चाहता। वह केवल उन्हीं कार्योंको करता है जो धनकी प्राप्तिके अनुकूल या सहायक होते हैं। इसी प्रकार निष्काम कर्मयोगी भी ‘आठ पहर चौंसठ घड़ी’ मन, वाणी, शरीरद्वारा उन्हीं सब कर्मोंको करता है जो ईश्वरको सन्तुष्ट करनेवाले होते हैं।

२७-दूसरेके अच्छे-से-अच्छे कामकी ओर तनिक भी न ताककर प्रभुकी प्रसन्नताके लिये अपना काम कुशलताके साथ करे।

२८-राज-दरबारका एक विद्वान् पण्डित वेदगान सुनाकर राजाको जितना प्रसन्न कर सकता है उतना ही महलोंमें झाड़ू देनेवाला राजाका परम आज्ञाकारी मामूली वेतनका नौकर भी महलोंको साफ-सुथरा रखकर कर सकता है।

२९-निष्काम कर्मयोगीका लक्ष्य रहता है केवल एक परमात्मा।

३०-प्रत्येक कार्य भगवदर्पण होनेके कारण निष्काम कर्मयोगी परमात्माका सर्वथा कृपापात्र बन जाता है।

३१-जो परमात्माका नि:स्वार्थ सेवक है, जो अपने प्रत्येक कर्मका समर्पण उस परमात्माकी प्रीतिके लिये उसीके चरणोंमें कर देता है, उससे यदि कोई भूल होती है तो उसपर अकारण सुहृद् परमात्मा कोई ध्यान नहीं देते। यह नियम नहीं है किन्तु स्वार्थरहित सेवकके लिये यही नियम है।

३२-निष्काम कर्मयोगका साधक परमात्माकी प्राप्तिके लिये कर्मोंको परमात्मामें अर्पण कर देनेके कारण अन्तमें परमात्माके प्रसादसे परमात्माको पा जाता है।

३३-जिस कर्ममें आदिसे लेकर अन्ततक परमात्माका इतना नित्य और अविच्छिन्न सम्बन्ध है वह कर्म भक्तिरहित कभी नहीं हो सकता।

३४-गीतोक्त भक्तियुक्त कर्मयोगके साधकोंको तो भगवान‍्पर ही भरोसा रखकर सारी चेष्टाएँ करनी चाहिये। सब समय भगवान‍्को याद रखते हुए ही भगवान‍्में प्रेम होनेके उद्देश्यसे भगवान‍्के आज्ञानुसार ही सारे कर्म करने चाहिये।

३५-भगवदर्थ या भगवदर्पण कर्म करनेवाले पुरुषके द्वारा दृढ़ अभ्यास होनेपर भगवत्स्मृति होते हुए ही सारे कर्म होने लगते हैं।

३६-भगवदर्थ या भगवदर्पण कर्म तो साक्षात् भगवान‍्की ही सेवा है। यह रहस्य समझनेके बाद उसे प्रत्येक क्रियामें प्रसन्नता और शान्ति मिलनी चाहिये। क्या पतिव्रता स्त्रीको कभी पतिके अर्थ या पतिके अर्पण किये हुए कर्मोंमें झंझट प्रतीत होता है? यदि होता है तो वह पतिव्रता कहाँ?

३७-जिन्हें भगवदर्थ या भगवदर्पण कर्मोंमें झंझट प्रतीत होता है वे न कर्मोंके, न भक्तिके और न भगवान‍्के ही तत्त्वको जानते हैं।

३८-जो सच्ची पतिव्रता स्त्री होती है वह तो पतिको अपने हृदयमें रखती हुई ही पतिके आज्ञानुसार उसकी सेवा करती हुई हर समय पतिप्रेममें प्रसन्न रहती है।

३९-भगवान‍्के आज्ञानुसार भगवत्कार्य करनेवाले भगवद्भक्तका हर समय यह भाव रहना चाहिये कि मैं भगवान‍्का सेवक हूँ।

४०-जो स्थिति परमेश्वरके स्वरूपमें भेदरूपसे होती है, यानी परमेश्वर अंशी और मैं उसका अंश हूँ। परमेश्वर सेव्य और मैं उसका सेवक हूँ, इस भावसे परमात्माकी प्रीतिके लिये उसके आज्ञानुसार फलासक्ति त्यागकर जो कर्म किये जाते हैं उसका नाम है निष्काम कर्मयोग-निष्ठा।

४१-साधारण सकाम कर्मोंमें और निष्काममें भेद इतना ही है कि सकामकर्मी कर्मका अनुष्ठान सांसारिक कामनासिद्धिके लिये करता है और निष्कामकर्मी भगवत्प्रीत्यर्थ करता है।

४२-जिस क्रियामें भगवान‍्की सम्मति हो, वही काम करे और वह काम केवल उसके लिये ही करे।

४३-जो भी स्वेच्छासे काम करे, सावधानीसे करे, स्वार्थको त्यागकर करे और दूसरोंके हितकी दृष्टिसे करे। वही काम करे जिससे भगवान् प्रसन्न हों और स्वयं अपने मस्तकपर भगवान‍्का हाथ समझ-समझकर हर समय प्रसन्न रहे। यह बड़ा अच्छा साधन है। अपनी बुद्धिके अनुसार वही कार्य करता रहे, जिस कार्यसे भगवान् प्रसन्न हों।

४४-स्वेच्छासे तो भगवान‍्की प्रसन्नताके अनुसार, उनकी आज्ञाके अनुसार कार्य करता रहे और अनिच्छा तथा परेच्छासे होनेवालेको भगवान‍्का भेजा हुआ प्रसाद समझता रहे।

४५-प्रतिदिन कुछ समय एकान्तमें भजन-ध्यान, स्वाध्याय-सत्संगके लिये भी निकालनेकी आवश्यकता है अन्यथा भगवान् सब जगह सब रूपोंमें हैं, यह बात हमें याद ही नहीं आवेगी और हम केवल कर्मके प्रवाहमें बहते रहेंगे।

४६-भगवान‍्की पूजा-बुद्धिसे कर्म करनेवाला व्यवहारमें सबके साथ अपने अधिकारके अनुसार बर्ताव करता हुआ भी भीतर सजग रहेगा कि इन सब रूपोंमें वह मायावी ही खेल कर रहा है।

४७-सब कुछ परमात्माका समझकर उसके अर्पण कर दे और प्रत्येक क्रिया करते समय भगवान‍्को याद रखे।

४८-हमारा कर्म भगवान‍्की पूजा तभी कहला सकता है जब उसमें दो बातें प्रधानरूपसे हों। पहली बात तो यह है कि उसमें ममता, आसक्ति एवं फलेच्छाका त्याग होना चाहिये। इनमेंसे सबसे स्थूल बात फलेच्छाका त्याग है और उसकी पहचान है सिद्धि-असिद्धिमें समता। यदि हमें अपनी सफलतापर हर्ष एवं असफलतापर विषाद होता है तो हमने उस कर्मके द्वारा भगवान‍्की पूजा की है, यह नहीं कहा जा सकता। दूसरी बात यह है कि प्रत्येक कर्म करते समय हमें इस बातका स्मरण होना चाहिये कि हम इस कर्मके द्वारा भगवान‍्की पूजा कर रहे हैं और जिसकी हम सेवा कर रहे हैं, वह भगवान‍्का ही स्वरूप है।

४९-साधकोंको दृढ़ निश्चय कर लेना चाहिये कि सारे संसारके पदार्थ भगवान‍्के ही हैं।

५०-भगवान‍्के कहे हुए वचनोंमें विश्वास करके उनके आज्ञानुसार स्वार्थके त्यागपूर्वक शास्त्रविहित कर्मोंका आचरण करते रहनेसे आसक्तिका नाश और कर्मयोगके तत्त्वका ज्ञान होता चला जाता है। इस प्रकार करते हुए जब आसक्तिका नाश और कर्मयोगके तत्त्वका ज्ञान हो जाता है तब कर्मयोगका सम्पादन कठिन नहीं प्रतीत होता।

५१-कर्मयोगके साधनका आरम्भ तो देहाभिमानके रहते हुए भी अन्त:करणकी मलिन अवस्थामें भी हो सकता है और उसके द्वारा पवित्र हुई बुद्धिमें भगवत्कृपासे स्वाभाविक ही स्थिरता होकर और भगवद्भावका उदय होकर भगवान‍्की प्राप्ति हो सकती है। यही इसकी ज्ञानयोगकी अपेक्षा सुगमता और विशेषता है।

५२-यथार्थ कल्याण चाहनेवाले मनुष्यको स्वार्थरहित होकर लोकहितके लिये ही कर्म करने चाहिये।

५३-स्वार्थ और राग-द्वेषको छोड़कर किये हुए कर्म ही कर्मयोगके साधकके लिये भगवत्प्राप्ति करानेवाले हैं और सिद्धोंकी शोभा बढ़ानेवाले हैं।

५४-सभी कार्योंमें स्वार्थत्याग प्रधान है। किसी भी वैध कार्यमें स्वार्थका त्याग होनेसे नीच-से-नीच प्राणीका भी कल्याण हो जाता है।

५५-थोड़ा-सा भी कर्म नि:स्वार्थभावसे बन जाय तो वह मुक्ति करनेवाला होता है। फिर सदा-सर्वदा जिसके सम्पूर्ण कर्म नि:स्वार्थभावसे होते हैं, वे तो मुक्तरूप ही हैं? उनके तो दर्शन, स्पर्श, भाषणसे दूसरे पवित्र हो जाते हैं—मुक्त हो जाते हैं।

५६-स्वार्थ (स्व-अर्थ)-का अभिप्राय है—‘अपने लिये’ अपने व्यक्तिगत लाभके लिये और नि:स्वार्थका अर्थ है—‘अपने लिये नहीं’ अर्थात् दूसरों (समष्टि)-के हितके लिये।

५७-वास्तविक हित चाहनेवाले पुरुषको मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाकी इच्छाका भी सर्वथा त्याग करके विशुद्ध नि:स्वार्थभावसे ही लोकहितार्थ कर्म करने चाहिये।

५८-सम्पूर्ण प्राणियोंके कल्याणके उद्देश्यसे ही मनुष्यको शास्त्रविहित कर्मोंमें प्रवृत्त होना चाहिये।
५९-कर्मोंमें सब प्रकारके फलकी इच्छाके त्यागका नाम ही स्वार्थत्याग है।

६०-मान-बड़ाई-प्रतिष्ठाका एवं स्वार्गादिके भोगकी इच्छाका भी सर्वथा त्याग कर उस त्यागके अभिमानका भी त्याग होनेसे सर्वथा स्वार्थका त्याग होता है।

६१-निष्कामभाव तो हृदयमें रखनेयोग्य एक गोपनीय निधि है। वह ढिंढोरा पीटनेकी चीज नहीं।

६२-स्वार्थत्यागरूप धर्मके सेवनसे समस्त अनर्थोंकी मूल हेतु आसक्तिका शनै:-शनै: त्याग हो जाता है।

६३-स्वार्थरहित कर्मोंका अनुष्ठान कर्ताको बाँध नहीं सकता (गीता ४। १४; ५। १०)।

६४-स्वधर्मके अनुसार आसक्ति और स्वार्थरहित होकर अखिल जगत‍्में परमात्माको व्यापक समझकर सबकी सेवा करनेके भावसे अपना-अपना कर्तव्यकर्म मनुष्यको करना चाहिये।

६५-जैसे पारा और संखिया अमृतका-सा काम दे सकता है, यदि वह चतुर वैद्यके द्वारा शोधकर शुद्ध कर लिया जाय। इसी तरह जहाँतक कर्मोंमें स्वार्थ और आसक्ति है वहींतक उनसे बन्धन या मृत्यु प्राप्त होती है। जिस दिन स्वार्थ और आसक्ति निकालकर कर्मोंकी शुद्धि कर ली जाती है उसी दिन वे अमृत बनकर मनुष्यको परमात्माका अमरपद प्रदान करनेमें कारण बन जाते हैं।

६६-यदि भगवत्प्राप्तिकी इच्छा है तो वास्तविक त्याग कीजिये। हृदयसे अपना सर्वस्व प्रभुका समझिये। प्रभुके लिये ही सारे काम कीजिये। ममता, अहंता और आसक्तिको जड़से उखाड़ डालिये।

६७-कर्मोंकी बहुलता स्थितिमें बाधक नहीं है, राग-द्वेष और काम-क्रोधादि अवगुण ही बाधक हैं।

६८-जिसका मन पदार्थों और कर्मोंमें आसक्त नहीं होता वही योगी है। क्रिया करता है पर आसक्त नहीं होता। स्फुरणा हो पर आसक्ति नहीं, ऐसा सर्वसंकल्पोंका त्यागी ही योगारूढ है।

६९-जो कुछ भी कार्य करे उसमें अहंकारका त्याग कर दे। किसी भी उत्तम कार्यमें अहंकारको पास न आने दे।

७०-फलकामना, आसक्ति और कर्तापनके अभिमानसे रहित होकर केवल लोकहितार्थ कर्मोंको करना चाहिये।

७१-‘आसक्तिसहित कर्मफलका त्याग ही कर्मयोग है।’

७२-कुपथ्यके सेवनमें भी विचार करके देखा जाय तो जैसे रोगीकी मूर्खता ही हेतु है, इसी प्रकार स्त्री, पुत्र, धन, देह और मान-बड़ाई आदिमें जो हमारी आसक्ति है, उसमें भी मूर्खता ही हेतु है।

७३-कर्मोंकी क्रिया मनुष्यको नहीं बाँधती, फलकी इच्छा और आसक्तिसे ही उसका बन्धन होता है। फल और आसक्ति न हो तो कोई भी कर्म मनुष्यको बाँध नहीं सकता।

७४-अपना कर्तव्यकर्म छोड़नेकी किसीको भी आवश्यकता नहीं, आवश्यकता है प्रभुको प्रसन्न करनेके लिये स्वार्थ छोड़कर अपने कर्तव्यकर्म उस प्रभुके अर्पण करनेकी, यही अपने कर्मोंसे परमात्माकी पूजा है और इसीसे परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है।

७५-जिन लोगोंको एकान्तमें सांसारिक विक्षेप सताते हैं, वे अधिक समयतक कर्मरहित होकर एकान्तवासके अधिकारी नहीं हैं। जगत‍्में ऐसे ही लोग अधिक हैं।

७६-संसारमें प्राय: अधिकांश अधिकारी कर्मके ही मिलते हैं।

७७-शास्त्रोक्त सांसारिक कर्मोंकी गति भगवत् की ओर मोड़ देनेका ही विशेष प्रयत्न करना चाहिये, कर्मोंको छोड़नेका नहीं।

७८-स्वरूपसे कर्मत्यागकी तो गीताने निन्दा की है और उसे तामसी त्याग बतलाया है।

७९-मोहसे कर्मोंको छोड़ बैठनेवाला अज्ञानी वास्तवमें त्यागी नहीं है।

८०-किसी भी कर्तव्यकर्मके त्यागकी आवश्यकता नहीं है, आवश्यकता है बुद्धिको शुद्ध करनेकी।

८१-आसक्ति न छूटे तो कोई चिन्ता नहीं, सब कुछ भगवान‍्का समझकर जैसे गुमाश्ता (नौकर) मालिकके लिये काम करता है, वैसे ही अपना स्वार्थ छोड़कर संसारके सम्पूर्ण काम भगवान‍्के लिये ही करने चाहिये।

८२-निष्काम प्रेमभावसे सबकी परम सेवा करनेके सदृश अन्य कोई भी कार्य नहीं है।

८३-संसारमें रहकर शुद्ध हृदयसे काम किया जाय तो बहुत अच्छी तरह काम चल सकता है।

८४-जो मनुष्य कामको लीलामात्र समझ लेगा वह कामसे कभी घबरायेगा नहीं।

८५-निष्कामभावसे तन, मन, धन दूसरेके काममें लग जाय वही समय काम आया, बाकी सब धूलमें गया।

८६-कर्म आसक्तिसे रहित होकर करे, उसके सिद्ध होने और न होनेमें समानभाव रखे।

८७-सत्यकी चेष्टा कभी व्यर्थ नहीं जाती।

८८-सकामभावसे श्रद्धा कम ही होती है। यदि निष्कामभावकी श्रद्धा हो तो घटे नहीं। सकामभावकी श्रद्धा तो कामना पूरी होनेसे घट सकती है या कामना पूरी होनेकी आशा नहीं हो तो घट जाती है।

८९-जीवन्मुक्त पुरुषके लिये तो कोई भी कर्म शेष नहीं रहता। जब उसकी दृष्टिमें एक परमात्माके अतिरिक्त अन्य किसीका भी अस्तित्व नहीं रहता तब किसी भी कर्मका भोग उसे कैसे भोगना पड़ता है।

९०-लोभ-त्यागपूर्वक केवल धर्मकी भावनासे, भगवान‍्को ही सब कुछ जानकर और उन्हींकी आज्ञा मानकर, जो व्यावहारिक कर्म किये जाते हैं, उनसे संसारके लोगोंको बहुत लाभ होता है।

९१-जिनके व्यवहारमें अपने लिये केवल शरीर-निर्वाहमात्रका ही भाव रहता है, वह भी चाहे न हो और जिनको लाभ-हानिमें हर्ष-शोक नहीं होता, ऐसे पुरुषोंका व्यवहार केवल लोक-हितके लिये ही हुआ करता है, धनके लिये नहीं, इसीका नाम निष्काम व्यवहार है। इससे हृदयकी बड़ी शुद्धि होती है।

९२-घरके तथा संसारके समस्त मनुष्योंके साथ स्वार्थ छोड़कर उनका हित-चिन्तन करते हुए जो बर्ताव किया जाता है, वही बर्ताव उत्तम है और उसीसे हृदयकी शुद्धि होती है।

९३-अपना शरीर और अपने प्राण यदि भगवान‍्के काममें लग जायँ तो अपनेको धन्य मानना चाहिये।

९४-निष्कामभावसे लोगोंको खूब काम करना चाहिये। लोगोंकी खूब सेवा करनी चाहिये।

अगला लेख  > साधनकी बातें