साधनकी बातें
१-किसीके लड़का न हो तो गोद न ले, यदि नाम चलानेका उद्देश्य हो तो खयाल करना चाहिये कि हमलोगोंकी ३-४ पीढ़ी पूर्वका नाम ही कोई नहीं जानता।
२-किसीसे लड़ाई न करे, ‘हरे राम’ मन्त्रकी १४ माला जप करे, नीलका कपड़ा न पहने, मिलका कपड़ा न पहने, किसीको बुरी दृष्टिसे न देखे।
३-आपको विचार करना चाहिये कि संसारमें आकर मैंने क्या किया? पशुमें और मुझमें क्या अन्तर है? खाना, सोना और विषयभोग तो पशु भी करते हैं। फिर पशुसे अधिक आपको क्या आनन्द मिला?
४-कालका जरा भी विश्वास नहीं करना चाहिये।
५-विश्वासपूर्वक कटिबद्ध होकर भजन, ध्यानका साधन करनेकी चेष्टा करनी चाहिये। फिर काम-क्रोधका आप ही नाश हो सकता है।
६-जब भजन करते-करते आनन्द आता है तभी भजनका मर्म जाना जा सकता है।
७-तुमको ऐसी किस वस्तुकी आवश्यकता है, जिसके लिये तुम भगवान्-सरीखे प्रिय मित्रके प्रेम-चिन्तनको छोड़कर मिथ्या, क्षणभंगुर संसारके चिन्तनमें अपने अमूल्य समयको बिता रहे हो।
८-संसारका काम निष्कामभावसे अनासक्त होकर करना चाहिये।
९-एक पल भी व्यर्थकी बातोंमें तथा काममें नहीं बिताना चाहिये। भगवान्को छोड़कर अन्तमें कोई भी तुम्हारा साथी नहीं है। ऐसा जानकर उस नारायणको एक पलके लिये भी नहीं छोड़ना चाहिये।
१०-व्याख्यान देनेवालेके भजन-ध्यानसे भी ज्यादा फायदा है। क्योंकि यदि व्याख्यान देनेवालेमें वह गुण नहीं हो तो भी व्याख्यान देनेसे आज जो बात कही जाती है वह धारण करनेकी चेष्टा हो जाती है।
११-अर्जुन भगवान्का कितना बड़ा भक्त था, फिर भी भगवान्ने कह दिया यदि तू मेरी बात नहीं मानेगा तो नष्ट हो जायगा, फिर और लोगोंकी तो बात ही क्या है। इसलिये उनके कहनेके माफिक चलना ही ठीक है।
१२-लोगोंको अपने अवगुण स्वयं ही सोचने चाहिये। आप ही सोचनेसे उसकी बुद्धिका विकास होता है तथा अवगुणोंके नाश करनेकी चेष्टा भी होती है।
१३-हमें आलसी नहीं होना चाहिये बल्कि बहुत परिश्रमी होना चाहिये। अन्यथा हमलोग सत्संगके कलंक लगानेवाले हुए कि सत्संग करनेवाले आलसी हैं। इसी बातके कारण लोग सत्संगमें नहीं लग रहे हैं। ऐसे लोग बहुत बड़ा नुकसान कर रहे हैं, क्योंकि उनके आचरण अन्य लोगोंको सत्संगमें आनेसे रोकनेवाले हुए।
१४-मनसहित भजन, ध्यान, सत्संग करनेके लिये मनसे हरदम लड़ाई करता रहे और मनको समझाता रहे कि ऐसी अवस्थामें तेरी मृत्यु हो जायगी तो तेरी क्या दशा होगी।
१५-जिसमें ज्यादा लाभ हो उसमें समय बिताना सबसे ऊँचा काम है। इससे भी ऊँचे भाव ये हैं—
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ऊँचे दरजेकी बात अनुभवी पुरुषोंद्वारा सुनना।
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जपसहित ध्यान।
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गीताजीका अर्थ और भावसहित विचारना।
४..भगवान्के नामका जप तथा श्रीमद्भगवद्गीताके मूल श्लोकोंको पढ़ना।
उपर्युक्त चार बातोंमें चौथी बातके १०० वर्ष करनेसे जितना फायदा है, उतना ऊपरवाली ३ बातोंको काममें लानेसे ५-७ वर्षमें हो सकता है। प्राय: मनुष्योंके लिये चौथी बात ही होती है।
१६-युक्तिसहित साधन करनेसे बहुत जल्दी परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है।
१७-दो बातोंसे परमात्माकी प्राप्ति नहीं हो सकती, एक तो साधन न करनेसे, दूसरे युक्ति नहीं जाननेसे।
१८-‘गजल-गीता’ का पाठ रात्रिमें सोते समय करना चाहिये।
१९-‘प्रेमभक्ति-प्रकाश’ प्रेमसे सोच-सोचकर नित्य पढ़े।
२०-मुझे सबसे ज्यादा प्रिय है ‘गीता’ और ‘धार्मिक ग्रन्थोंका प्रचार’ लेख लिखकर छोड़ जानेसे संसारका बहुत हित है। जैसे ऋषि-मुनि-प्रणीत शास्त्रोंसे संसारका हित हो रहा है।
२१-जो जीवित रहते हुए ही शरीरका आश्रय त्याग देता है, शरीरको मुर्देके समान समझ लेता है वही उत्तम है, वही जीवन्मुक्त है।
२२-मन, वाणी, शरीरसे ब्राह्मणोंका सत्कार करना चाहिये। विद्वानोंका तो विशेषरूपसे करना चाहिये।
२३-कलियुगमें ऐसा सरल समय भविष्यमें नहीं मिलेगा। भविष्यमें तो ऐसे मनुष्य होवेंगे कि हम कहते हैं वही धर्म है, हमको ही दो, हमारी ही सेवा करो, ऐसे वह देनेवाला और लेनेवाला दोनों ही नरकमें पड़ेंगे। ऐसा अनुमान होता है कि नरकमें भी शायद जगह नहीं रहेगी। जैसे गांधीजीके आन्दोलनसे सरकारके जेलमें जगह नहीं रही। इसी तरह नरकादिकी जगह भी सीमित है।
२४-अन्त:करण शुद्ध हुए बिना राग-द्वेष, सुख-दु:ख, शोक-मोह आदि हुए बिना नहीं रह सकते। संसारकी सत्ताका अत्यन्त अभाव नहीं होता। भजन, ध्यान, सत्संग और निष्काम कर्म करनेसे तथा भगवान्के प्रेम, भक्ति और ज्ञानकी बातोंके पढ़नेसे अन्त:करण शुद्ध हो जाता है।
२५-बड़ाई करनेवाले तो अपनेको सब तरफसे ठगते हैं। ऊपरका धन तथा अपने मनमें प्रसन्नता हो जाय तो अपने परमार्थका धन दोनोंको हर लेते हैं।
२६-आत्माकी गतिमें तम्बाकू बहुत नुकसान पहुँचानेवाली है।
२७-ऐसी चेष्टा करे जिससे अनाजमें जन्तु नहीं पड़े।
२८-चाहे जैसा भी पापी क्यों न हो उसका भी कल्याण हो सकता है। हिम्मत रखे।
२९-भगवान्के नामका जप और स्वरूपका ध्यान एवं स्वार्थको त्याग कर दु:खी जीवोंकी सेवा करनेसे एवं न्यायोपार्जित द्रव्यसे संगृहीत आहार करनेसे अन्त:करण पवित्र होता है, तब श्रद्धा-भक्ति एवं प्रेमकी वृद्धि होती है। इनकी वृद्धि होनेसे विषयासक्तिका नाश हो जाता है और विषयासक्तिके नाश हो जानेपर काम-क्रोधादि षड्रिपु कभी उत्पन्न नहीं होते।
३०-परमेश्वरकी दयासे सतयुग प्राप्त होता है एवं प्रकृतिके संगसे नीचे उतरता है। पानी जैसे नीचे जाता है वैसे ही जीवोंका नीचे गिरना तो सहज है। ऊपर जाना ही पुरुषार्थका काम है।
३१-पतिव्रता स्त्री अपने पतिमें मन रखते हुए संसारका काम करती है, उस प्रकार करनेसे साधन परिपक्व हो जाता है।
३२-अपनेमें पुरुषार्थकी न्यूनताका अनुमान करके निराश नहीं होना चाहिये।
३३-चौरासी लाख योनियोंके भोगोंको भोगनेके उपरान्त बड़ी कठिनाईसे यह मनुष्य-शरीर हमें मिला है। अत: मनुष्यजन्मका वास्तविक उद्देश्य समझकर जगत्के मिथ्या प्रपंचोंको छोड़ देना चाहिये।
३४-तन, मन, धनसे सेवा करनेके विषय—
(१) एक दिन भगवान्का भजन करना (तन),
(२) एक मिनट मनसे भगवान्का चिन्तन (मन),
(३) दस हजार रुपया लगाना (निष्काम धन)—
ये तीनों फलमें बराबर हैं।
३५-मन जहाँ-जहाँ जाय, वहाँ-वहाँ भगवान्के स्वरूपके चिन्तनका अभ्यास करना चाहिये।
३६-मन जहाँ-जहाँ जाय, वहाँ-वहाँसे खींचकर भगवान्के स्वरूपमें लगाना चाहिये।
३७-संसार, शरीर और भोग, ये सब क्षणभंगुर और नाशवान् हैं। देखते-देखते नाश होते जा रहे हैं। यदि मूर्खतासे कोई इन्हें सत्य भी मान ले तो सुख इनमें लेशमात्र भी नहीं है। मूर्खतासे यह जिसको सुख मानता है, विचारकर देखनेसे उसमें दु:ख और शोकके ही भण्डार निकलते हैं।
३८-मन्त्र-जप करनेवाले विष्णुभक्तके लिये एकान्तमें ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ और सब समय ‘राम’ नामका जप उत्तम है। जिनकी भक्ति शिवजीमें है उन पुरुषोंके लिये एकान्तमें ‘ॐ नम: शिवाय’ और सर्वकालमें ‘शिव’ नामका जप उत्तम है।
३९-समय बीता जा रहा है। जो समयको अमूल्य जान लेगा वह एक पल भी व्यर्थ काममें नहीं बितायेगा। भगवत्-चिन्तनके बिना जो किसी दूसरे काममें समय बिताया जाता है वही व्यर्थ है।
४०-समय बड़ा अमूल्य है। इस प्रकारका अवसर मिलना बहुत ही कठिन है, जो ऐसा समझेगा वह तो अपने अमूल्य समयको अमूल्य काममें बितावेगा।
४१-भजन हुए बिना कुछ भी उपाय नहीं है।
४२-भजन न होनेमें सत्संग, प्रेम और पुरुषार्थका अभाव ही प्रधान कारण समझा जाता है।
४३-पुरुषार्थहीनका भगवान् भी उद्धार नहीं कर सकते।
४४-जिनकी प्रभुके निराकाररूपमें भक्ति है उनके लिये ‘ॐ’ मन्त्रका जप उत्तम है।
४५-मान, बड़ाई आदिकी कामनाको जीतनेवाला ही दुर्लभ है।
४६-किसी समय भी इस कल्पित संसारकी सत्ता मानना उचित नहीं। इस खेलको जो मनुष्य सत्य समझ लेता है वह ठगा जाता है।
४७-समयको अमूल्य जानना चाहिये। ऐसा जाननेवाला एक पल भी मिथ्या कामोंमें नहीं खोता। जो मिथ्या और वृथा कामोंमें समय व्यतीत करता है वह समयके मूल्यको नहीं जानता।
४८-संसारमें जीवको सुख तो देखनेमें नहीं आता फिर भी यह जीव संसारमें भटकता क्यों फिरता है? मूर्खता अर्थात् अज्ञानके कारण जीव संसारमें भटकता है। इसने भूलसे संसारमें सुख मान रखा है, मृगतृष्णाके जलकी तरह संसारमें मिथ्या सुख भासता है, इसीसे यह मूर्खतामें फँसकर मृगकी तरह भटकता फिरता है।
४९-ऐश-आराम, स्वाद-शौकीनी आदि इन्द्रियोंके सारे भोगोंको विषवत् त्याग देना चाहिये। संसारके सारे भोग मिथ्या हैं। यदि मिथ्या न दिखें तो क्षणभंगुर और अन्तमें दु:ख देनेवाले तो हैं ही। ऐसा समझकर भोगोंसे उपराम होना चाहिये। ये विषयभोग कल्याण-मार्गमें बहुत ही हानि पहुँचानेवाले हैं, ऐसा मानकर इन्हें मनसे छोड़ देना चाहिये।
५०-शुद्ध आयुर्वेदिक दवा ही लेनी चाहिये। डॉक्टरी दवाई कभी नहीं लेनी चाहिये, प्राण भले ही चला जाय। माता-पिताके कहनेपर भी नहीं लेनी चाहिये; क्योंकि त्याज्य वस्तु कभी ग्राह्य नहीं है।
५१-भगवान्की इच्छा बिना कुछ भी नहीं हो सकता। उनकी आज्ञाके बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। जो ऐसा समझता है वह मालिककी राजीमें राजी रहनेवाला सब समय आनन्दमें मग्न रहता है।
५२-चिन्ता, शोक, भय कभी नहीं करना चाहिये। यदि मनुष्य करता है तो वह मूर्ख है।
५३-सांसारिक भोग-विलास, धन, स्त्री, पुत्रकी वृद्धि देखकर जो प्रसन्न होता है वह भी मूर्ख है और सांसारिक वस्तुकी हानि देखकर जो चिन्ता करता है वह भी मूर्ख है।
५४-आराम, मौज-शौक आदि विलासितासहित संसारकी सारी भोगासक्तिका मनके द्वारा त्याग करना चाहिये। ऐसा होनेसे ही सुख सम्भव है।
५५-भगवान्के भक्त निपुण वैद्य हैं, वेद, शास्त्र और भक्तिसम्बन्धी ग्रन्थ ही वैद्यकशास्त्र हैं, उत्तम कर्म तथा उत्तम आचरण सुपथ्य है और पापाचरण ही कुपथ्य है।
५६-समयको अमूल्य समझना चाहिये, समयकी अमूल्यताका रहस्य समझनेके बाद और कुछ भी समझना बाकी नहीं रह जाता।
५७-केवल सतोगुणी वृत्तिसे ही कल्याण नहीं होता, जैसे सत्ययुगमें भी कल्याण साधनसे ही होता है।
५८-जैसे रेलवे स्टेशनपर टिकट लेकर मनुष्य गाड़ीमें बैठनेके लिये तैयार रहता है, उसी प्रकार सब काम निपटाकर तैयार रहना चाहिये, फिर कोई चिन्ताकी बात नहीं।
५९-जो मृत्युको हर समय सामने खड़ी देखे—चाहे जब ले जाय—इस प्रकार तैयार रहे वह कृतकृत्य है।
६०-जिन्होंने संसारको हर समय दृढ़ कर रखा है, उनको हर समय भगवान्का चिन्तन किस प्रकार हो सकता है?
६१-अनित्य वस्तुके लिये नित्य वस्तुका त्याग करनेवालेके बराबर कौन मूर्ख है?
६२-जो साधन निरन्तर विशेष कालतक और आदरपूर्वक होता है, वही महत्त्वका समझा जाता है।
६३-कन्यादान साधुको करे तो इसमें दोनों नरकमें जावेंगे। तामसी दानमें लेने और देनेवाले दोनोंको नरक होता है। जैसे कोई कसाईको गाय दान दे।
६४-ग्रहणके समय कन्यादान न करे, वह समय तो भूखोंको अन्न आदि दान देनेका है।
६५-दूध, घी, खोआ गायका सात्त्विक तथा भैंस, बकरीका नं० २ है।
६६-एक महत्त्वकी बात है जिसके माननेसे आपका कल्याण हो जायगा।
६७-जो कुछ पुण्य कर्म किया हुआ है वह सब परमात्माके अर्पण कर दिया फिर उसपर पीछेका कर्म लागू नहीं पड़ता। जितना पीछेका कर्म है वह तो भगवान्के अर्पण कर दिया और आगे करे वह गीता अ० १२ श्लोक १० के अनुसार भगवदर्थ करे। यदि भगवदर्थ कर्म नहीं कर सके तो जो काम करे उसको गीता अ० १२ श्लोक ११ के अनुसार भगवदर्पण कर दे। भगवदर्थ कर्म करनेसे गीता अ० ९ श्लोक २८ के अनुसार शुभाशुभ कर्मसे छुटकारा प्राप्त हो जायगा।
६८-कर्म अर्पण इस प्रकार कर सकते हैं—
(१) मनसे आजतक जो कुछ शुभ कर्म बनता है वह सम्पूर्ण आपकी प्रेरणासे बना है वह सब आपके अर्पण है, मुझे इसका फल बिलकुल नहीं चाहिये और जो दूषित कर्म बन गया उसको भुगता दीजिये या माफ कर दीजिये।
(२) अच्छा कर्म भगवान्के अर्पण करनेके बाद बुरे कर्मका फल उसे नहीं भोगना पड़ता।
प्रश्न—साधकने एक बार तो सब कर्म भगवान्के अर्पण कर दिये, फिर आसक्तिके कारण उससे शास्त्रविरुद्ध कर्म होते रहें तो क्या करे?
उत्तर—जो कर्म करे वह भगवान्के अर्पण करता जाय ऐसा करते-करते शास्त्रविरुद्ध कर्म उससे छूट जायँगे, किंतु यदि कोई आदमी यह समझ लेवे कि पाप तो कर लें फिर पीछे भगवान्के अर्पण कर देवेंगे तो उसका वह कर्म बिना भोगे नहीं नाश होता।
६९-साधन बढ़ाना चाहिये किंतु काम नहीं छोड़ना चाहिये। साधन शनै:-शनै: बढ़ावे।
७०-जितना आरामका त्यागी है, उतना ही भगवान्के नजदीक है।
७१-नास्तिकका भी त्यागके कारण आदर किया जाता है, यह त्यागकी ही महिमा है।
७२-कलियुगके वर्तमान समयमें संन्यास-आश्रममें सुगमता नहीं है।
७३-एक गृहस्थाश्रम ही है, बेफिक्र होकर भजन-ध्यान करो।
७४-मैं कौन हूँ, कहाँसे आया हूँ, क्या कर रहा हूँ, मेरेको क्या करना चाहिये? मैं परमात्माका अंश हूँ। लाख योनियोंसे संसार-चक्रमें भ्रमण करता-करता आया हूँ। अपने स्वरूपको पहचानना ही कर्तव्य है, यह बात विचारता रहे।
७५-जो बात आत्मामें युक्तिसंगत, हितकारी निश्चित हो जाय उसको कटिबद्ध होकर काममें लावे तो निम्नलिखित लाभ प्राप्त होंगे—प्रत्यक्ष फल परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है और जिन पुरुषोंको परमात्मा कोसों दूर मालूम देता था या दीखता ही नहीं था, वही परमात्मा इस प्रकार साधन करनेसे उन्हीं पुरुषोंको रोम-रोम, पत्तों-पत्तोंमें दीखने लगेगा, संसार दु:खमयके बदले आनन्दमय हो जायगा, भगवत्स्वरूपमें निष्ठा रखनेवाले साधकको परमशान्तिका साम्राज्य प्राप्त हो जायगा। चारों तरफ शान्ति-ही-शान्तिकी स्थिति हो जायगी।
७६-आश्रय, शिक्षा, उपदेश, प्रेरणा, आज्ञा, वरदान एक-से-एक बलवान् हैं। प्रेरणाके अनुसार साधन करनेसे वरदानके माफिक लाभ हो सकता है।
७७-जिस आदमीमें जो गुण हो उसका चिन्तन करनेसे उसका गुण आता है। जैसे श्रीभगवान्का और उनके भक्तोंका चिन्तनसे उनके गुण आते हैं।
७८-अग्नि, गाय, ब्राह्मण, तुलसी, गंगा—इनको देवताके समान आदर देना चाहिये।
७९-परमात्माको हर समय याद रखनेकी चेष्टा करनी चाहिये।
८०-मनको विचारना चाहिये कि मैंने इस संसारमें आकर क्या किया और क्या करना चाहिये। इसी तरह यदि और भी समय बीतेगा तो फिर कैसे जल्दी कामयाबी होगी। समयको अमूल्य काममें बिताना चाहिये।
८१-श्रीभगवान्के दर्शनकी भी इच्छा नहीं रखनी चाहिये। यदि दर्शनकी इच्छा नहीं रखनेसे साधन ढीला होता हो तो भगवान्से मिलनेकी इच्छा रखनी चाहिये।
८२-मनुष्यको ऐसा बनना चाहिये कि अपनेको जीवित रहते हुए ही भगवत्प्राप्ति हो जाय।
८३-बुद्धिको कुशाग्र और तीक्ष्ण करनेके लिये सत्पुरुषोंका संग एवं सत्-शास्त्रोंका विचार करना चाहिये। निष्काम कर्मयोग और उपासनाके द्वारा पवित्र होनेसे भी बुद्धिमें कुशाग्रता और तीक्ष्णता आती है और स्मरणशक्ति बढ़ सकती है। ब्रह्मचर्यका पालन इसमें विशेष सहायक होता है।
८४-शुद्ध आहार-विहारका सेवन एवं ब्रह्मचर्यके पालन और योगके साधनसे आयुका बढ़ना भी सम्भव है।
८५-जो भगवान्को छोड़ संसारका चिन्तन करता है उसको मूर्ख समझना चाहिये।
८६-भजनको सच्चे मनसे सर्वोत्तम मान लेनेके बाद दूसरा चिन्तन अपने-आप कम होने लगेगा, वह भी थोड़े ही दिन होगा। संसारका चिन्तन जब आपके मनको अच्छा नहीं लगेगा तब भगवान्का ही चिन्तन अधिक होगा।
८७-संसारका चिन्तन हमारे लिये बड़ा घातक है। जो संसारका चिन्तन करते हुए मरेगा उसे संसारकी ही प्राप्ति होगी और जो भगवान्का चिन्तन करते हुए मरेगा उसे भगवान् ही प्राप्त होंगे। जो इस भेदको समझ जायगा उसे संसारका चिन्तन सहन नहीं हो सकता।
८८-संसारके चिन्तनका जब चोटकी भाँति दर्द होगा तब अपने-आप चेत हो जायगा। हम जितनी ही अधिक चोट सहते हैं उतनी ही अधिक चोट हमें लगती है।
८९-समयका मूल्य जान लेनेपर सफलतामें विलम्ब नहीं है।
९०-झूठ बोलनेसे पाप जरूर होता है और कोई फायदा भी नहीं होता। बात तो सच्ची ही कहनी चाहिये। उसके लिये गाली सुननी पड़े या नुकसान सहना पड़े तो कुछ हर्ज नहीं।
९१-अर्जुन भगवान्का अच्छा भक्त था। भगवान्का साक्षात्कार जाननेमें कुछ त्रुटि थी, ऐसे भक्तमें भी कुलका मोह हो गया, माया ऐसी चीज है, अद्भुत घटना भी घटा देती है।
९२-प्रश्नोत्तर—
- प्रश्न—कामना छोड़नेके बाद भी कुछ बाकी रहता है क्या?
उत्तर—बहुत-सा काम हो जाता है थोड़ा बाकी रहता है (गीता २।७१)।
२..प्रश्न—हिंसक जीव सर्पादिको मारनेमें पुण्य है या पाप।
उत्तर—क्षत्रियके लिये पुण्य है, दूसरोंके लिये पाप।
३.प्रश्न—यदि मारनेके लिये आवे?
उत्तर—मारनेमें पाप नहीं है।
९३-आढ़तिये लोग जो कुछ धर्मादेका लगाते हैं वे रुपये धर्मादेके कामोंमें या चन्दे आदिमें दे सकते हैं, परंतु जिस जगह अपना नाम हो, उस जगह लगाना पाप है; क्योंकि वह रकम उसकी अपनी नहीं है।
९४-मठ, गौशालाका पैसा जिस ग्रामकी गौशालाके निमित्तसे निकलता है, उसी जगह ही लगाना चाहिये, दूसरी जगह लगाना पाप है।
९५-श्रीमंगलनाथजी महाराजने गोरखपुरमें कहा था—निष्कपट, निरभिमान, नि:स्वार्थभावसे श्रीभगवान्का भजन, ध्यान करनेसे बहुत जल्दी फायदा हो सकता है।
९६-मान-बड़ाईसे बचना चाहिये। मानसे भी बहुत सूक्ष्म है बड़ाई, इसका बहुत खयाल रखना चाहिये।
९७-विश्वासी और मेहनती होना चाहिये, इस प्रकार होनेसे सांसारिक काममें जैसे बहुत लाभ होता है, उसी प्रकार पारमार्थिकमें भी बहुत लाभ होता है।
९८-योगदर्शनके अनुसार साधन करनेमें एक-दो घंटा रोज लगाना चाहिये, जैसे लोग नया काम सीखनेमें समय लगाते हैं।
९९-अपनी जो सबसे प्यारी वस्तु हो, उसमें भगवान्की भावना करके मनको स्थिर करनेका अभ्यास करना चाहिये।
१००-जो साधक थोड़े भजन-ध्यानसे भगवान्का दर्शन चाहता है वह भजनका मर्म नहीं समझता, वह तो बोझा ढोकर मजदूरी लेनेवालेके समान है। जैसे बोझा ढोनेवालेको मजदूरी मिलती है वैसे ही उसे भगवद्विषयक धन मिलता है यानी आध्यात्मिक उन्नति होती है।
१०१-जिनको भगवान्के भजन, ध्यानमें रस आता है उनको भजन, ध्यानका थोड़ा आनन्द आया है। वास्तवमें भजन, ध्यानके मर्मको उन्होंने समझा है। जिनको भजन, ध्यानमें पूरा आनन्द आता है वे तो भगवान्की प्राप्ति भी नहीं चाहते। बल्कि यही चाहते हैं कि उनका भजन, ध्यान बढ़ता रहे। यदि बार-बार जन्म भी हो तो यही काम करता रहूँ।
नाथ एक बर मागउँ राम कृपा करि देहु।
जन्म जन्म प्रभु पद कमल कबहुँ घटै जनि नेहु॥
जब यह विश्वास हो जाय कि मृत्यु होनेपर माता, पिता, बेटा, रुपया कोई काम नहीं आयेगा, फिर समयको धूलमें क्यों मिलाता है।
साधनका उपाय इस तरह निकाले। २ माला सबेरे, २ माला दोपहर, २ माला रात्रिमें—इस तरह धीरे-धीरे, थोड़ा-थोड़ा समय निकालकर अभ्यास बढ़ाना चाहिये।
१०२-भगवत्प्राप्तिका सदाव्रत बाँटनेवाला बननेकी इच्छा करनी चाहिये यानी दूसरोंको मुक्त करा दें ऐसी इच्छा रखनी चाहिये। कमाकर खानेवाला होनेकी चेष्टा करनी चाहिये, भिखमंगा होनेकी नहीं करनी चाहिये यानी साधन करके ही भगवत्प्राप्ति चाहनी चाहिये।
१०३-कहनेवाले पुरुषोंमें सदाचार, विद्या और युक्ति हो तो लोगोंके ऊपर बहुत असर पड़ता है, सदाचारमें नि:स्वार्थभावकी बहुत जरूरत है।
१०४-मार्मिक बात—पाँच आदमियोंको बेगार समझकर (उपेक्षा-भावसे) यदि भोजन कराया जाय तो उसका कोई फल नहीं है। यदि उनको ही हँसते हुए भगवान् या महात्मा समझकर जिमावे, सबमें ईश्वरबुद्धि करे तो वह ईश्वरको ही भोजन कराना है। यदि सकामभाव हो तो स्वर्ग मिलता है और निष्कामभाव हो तो मुक्ति मिलती है।
१०५-भाव जितना तेज होता है उतना ही विशेष लाभ होता है।
१०६-मनुष्य-जन्म पाकर बुराईकी अपेक्षा भलाई लेकर जाना अच्छा है, श्रेयस्कर है।
१०७-सबसे बढ़कर बात—जो मनुष्य-जीवनके समयकी कीमत जान गया वही धन्य है। परमात्माकी प्राप्ति एक क्षणमें हो सकती है, यदि वह क्षण अभी हो जाय तो अभी परमात्मा मिल सकता है। वह क्षण कैसा है? जिसे परमात्मा प्राप्त होता है वही जानता है, वह क्षण हठात् मिल सकता है।
१०८-किसी समयमें ऐसी शिक्षाकी बात यदि अपनेको सुननेको मिल जाय और वह समझमें आ जाय तो एक क्षणमें परमात्माकी प्राप्ति हो जाय।
१०९-अपने धर्मके पालनसे कल्याण निश्चित है—(गुरु गोविन्दसिंह)।
११०-हर समय उद्यमशील होना चाहिये, ५ मिनट भी फालतू नहीं बिताना चाहिये। समयको उत्तरोत्तर दामी बनाना चाहिये। फालतू आदमियोंसे बात करनेकी तो फुरसत ही नहीं होनी चाहिये। जिसमें न तो स्वार्थ हो और न परमार्थ हो, ऐसे कामके पास जाना ही नहीं चाहिये। निकम्मा नहीं रहे।
१११-तीन प्रकारकी कमाई करे तो बहुत उत्तम है—(क) मनसे भजन-ध्यान, (ख) वाणीसे सत्य और प्रिय वचन, नामका जप और (ग) शरीरके द्वारा परोपकार।
११२-नीचे लिखे अनुसार समय बिताये तो जल्दी ही कल्याण हो जाय, यह शास्त्रोंका निचोड़ और सब बातोंका सार है—
(क)सहनशील बनना, भारी-से-भारी आपत्तिको भी हर्षके साथ सहना। संकट सहनेसे मनुष्य पक्का होता है।
(ख)यावन्मात्र जीवोंपर दया करना।
(ग)निरन्तर भगवच्चिन्तन करना।
इन तीनों बातोंका पालन करनेवाला मानव पारसका भी महापारस आनन्दमूर्ति बन जाता है, आनन्दका सदाव्रत देनेवाला बन जाता है।
११३-महात्माओंका संग करके ज्ञानयोग, ध्यानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग आदिका तत्त्व-रहस्य समझकर अपनी रुचि और अधिकारके अनुसार महात्माके बतलाये हुए किसी एक साधनको विवेक, वैराग्य और धैर्ययुक्त बुद्धिसे आजीवन करनेका निश्चय करके उसी साधनके लिये तत्परताके साथ प्राणपर्यन्त चेष्टा करनी चाहिये।
११४-शास्त्रोंमें बतलाये हुए विभिन्न मार्गोंमेंसे किसी भी मार्गको निश्चित कर प्राणपणसे प्रयत्न करना चाहिये। भगवत्कृपासे विजय निश्चित है, सफलता मिलेगी ही।
११५-परमात्माकी प्राप्तिके सभी साधन सुगम होनेपर भी सुगम माननेसे सुगम हैं और दुर्गम माननेसे दुर्गम हैं। श्रद्धापूर्वक तत्त्व और रहस्य समझकर साधन करनेसे सभी साधन सुगम हो सकते हैं।
११६-भगवान् और सत्पुरुषोंका आश्रय लेकर भजनकी जो कोशिश होती है वह अवश्य सफल होती है। उसमें कुसंग, आसक्ति और संचित बाधा तो डालते हैं, किन्तु इसके तीव्र अभ्याससे सब बाधाओंका नाश हो जाता है और उत्तरोत्तर साधनकी उन्नति होकर श्रद्धा और प्रेमकी वृद्धि होती है और फिर विघ्न-बाधाएँ नजदीक भी नहीं आ सकतीं।
११७-प्रभुमें श्रद्धा-प्रेम बढ़े, उनका चिन्तन बना रहे, एक पलके लिये भी उनका विस्मरण न हो, ऐसा ही लक्ष्य हमारा सदा बना रहना चाहिये।
११८-ज्ञान या प्रेम किसी भी मार्गका अवलम्बन करके उत्तरोत्तर उन्नति करता चला जाय। कलकी अपेक्षा आज कुछ-न-कुछ साधन बढ़ा ही देना चाहिये। इस प्रकार निरन्तर उन्नति करे। चलते-फिरते, उठते-बैठते किसी भी समय एक मिनटके लिये भी भगवान्को न भूले। भगवान् कहते हैं—
तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
(गीता ८। ७)
११९-सच्चे सुखकी प्राप्तिका साक्षात् सरल और सबसे सुलभ उपाय परमात्माके स्वरूपका निरन्तर चिन्तन करना ही है।
१२०-जीवनके अमूल्य समयका एक क्षण भी श्रीभगवान्के स्मरणसे रहित नहीं जाना चाहिये। जीवनमें सदा-सर्वदा जैसा अभ्यास होता है, अन्तमें भी उसकी स्मृति रहती है और अन्तकालकी स्मृतिके अनुसार ही उसकी गति होती है।
१२१-मनकी भजन-ध्यानकी ओर कम रुचि हो तो भी यही कोशिश करते रहे कि वह भजन-ध्यानमें लगा रहे। धीरे-धीरे उसमें रुचि होकर भजन-ध्यान ठीक हो सकता है।
१२२-साधकको यह कभी नहीं सोचना चाहिये कि मुझे यह साधन किसी दिन छोड़ देना है। उसको यही समझना चाहिये कि यह साधन ही मेरा परम धन, परम कर्तव्य, परम अमृत, परम सुख और मेरे प्राणोंका परम आधार है।
१२३-जो लोग यह समझते हैं कि परमात्माका ज्ञान होनेके बाद हमें साधनकी क्या आवश्यकता है, वे भूल करते हैं। जिस साधनद्वारा अन्त:करणको परम शान्ति प्राप्त हुई है, भला, वह उसे क्योंकर छोड़ सकता है?
१२४-श्रद्धा-भक्तिपूर्वक साधन करनेसे साधकके सम्पूर्ण दुर्गुणोंका, पापोंका और दु:खोंका मूलसहित नाश हो जाता है एवं वह कृतकृत्य होकर सदाके लिये परमानन्द और परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है।
१२५-परमेश्वर और उसकी प्राप्तिके साधनोंमें श्रद्धा और प्रेमकी कमी होनेके कारण ही साधन करनेमें उत्साह नहीं होता।
१२६-कल्याणकी प्राप्तिके सैकड़ों उपाय हैं, परन्तु कुछ-न-कुछ तो करना ही होगा। साधन किये बिना कल्याण नहीं हो सकता।
१२७-हमारे सुखकी प्राप्तिमें तीन बड़े बाधक शत्रु हैं, उन्हींके कारण हम सुखके समीप नहीं पहुँच पाते। वे हैं मल, विक्षेप और आवरण। मल है मनकी मलिनता, विक्षेप है चंचलता और आवरण है अज्ञानका पर्दा। जबतक इन तीनोंका नाश नहीं होता तबतक यथार्थ सुखकी प्राप्ति असम्भव है।
१२८-मल-दोषके नाशके लिये कई उपाय बतलाये गये हैं।
इनमेंसे प्रधान दो हैं—भगवान्के नामका जप और निष्काम कर्म। साधनकी सफलता मन-बुद्धिकी पवित्रता और स्थिरतापर ही निर्भर है। साधनकी वृद्धिसे ज्यों-ज्यों अन्त:करणकी निर्मलता और एकाग्रता बढ़ती है त्यों-ही-त्यों सच्चे आनन्दकी भी उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहती है। निष्ठापूर्वक साधनसे ही मन और बुद्धिमें निर्मलता तथा स्थिरता आती है। मन और इन्द्रियाँ शुद्ध और स्थिर होकर भगवत् में प्रवेश कर जायँ इसके लिये पहले आवश्यकता इस बातकी है कि मन और इन्द्रियोंको अपने वशमें किया जाय। जबतक ये काबूमें नहीं आते तबतक भगवान्के स्वरूपमें स्थिर होकर भगवान्की प्राप्ति हो नहीं सकती।
१२९-भगवत्-साक्षात्काररूप परम कल्याण और परम सुखकी प्राप्तिके साधनमें किंचित् भी विलम्ब नहीं करना चाहिये। यही मनुष्य-जन्मका परम कर्तव्य है, यही सबसे बड़ा और सच्चा सुख है।
१३०-साधक यह समझता है कि मेरे साधनमें बाधा देनेवाले आसक्ति और अज्ञान आदि दोष कब दूर हों और कब मैं अपने परमधन परमात्माको प्राप्त करूँ। जितनी ही देर होती है उतनी ही उसकी व्याकुलता और उत्कण्ठा उत्तरोत्तर बढ़ती चली जाती है और वह उस विलम्बको सहन नहीं कर सकता।
१३१-इच्छा करनेमात्रसे प्राप्त होनेवाले एक श्रीभगवान् ही हैं। दुनियामें लोग नाना प्रकारके पदार्थोंकी इच्छा करते हैं, परन्तु इच्छा करनेसे ही उन्हें कुछ नहीं मिलता। इच्छा हो, प्रारब्धका संयोग हो और फिर प्रयत्न हो तब भौतिक पदार्थ मिलता है, पर भगवान्के लिये तो इच्छामात्रसे ही काम हो जाता है। इच्छा करनेपर जो प्रयत्न होता है वह प्रयत्न तो भगवान् स्वयं करा लेते हैं। साधक तो केवल निमित्तमात्र बनता है।
१३२-धन तो चाहनेपर भी प्रारब्धमें होता है तभी मिलता है, प्रारब्धमें नहीं होता तो नहीं मिलता, परन्तु भगवान् तो चाहनेपर अवश्य मिल जाते हैं; क्योंकि भगवान् धनकी भाँति जड नहीं हैं। जड धन हमारी चाहके बदलेमें वैसी चाह नहीं कर सकता, परन्तु भगवान् जो उनको चाहता है, उसको स्वयं चाहते हैं।
१३३-भक्तके चाहनेपर ही भगवान् उसे चाहते हैं।
१३४-साधनाके पथमें भगवान् पग-पगपर हमारी सहायता करते रहते हैं।
१३५-प्रत्येक साधकको अपनी परीक्षा अपने-आप करते रहना चाहिये। सूक्ष्मदृष्टिसे विचारकर देखनेपर अपने छिपे हुए दोष भी प्रत्यक्ष दीखने लग जाते हैं।
१३६-मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और इस लोक तथा परलोकके किसी भी पदार्थकी इच्छा साधकके मनमें न रहे, त्रैलोक्यके राज्यके लिये भी उसका मन कभी न ललचाये।
१३७-स्वयं भगवान् प्रसन्न होकर भोग्य पदार्थ प्रदान करनेके लिये आग्रह करें तब भी न ले। इस बातके लिये यदि भगवान् रूठ जायँ तो भी परवा न करे। अपने स्वार्थकी बातें सुनते ही उसे अतिशय वैराग्य और उपरामता हो।
१३८-अपने हृदयकी गूढ़ और मार्मिक बातें हर किसीसे नहीं कहनी चाहिये।
१३९-गुप्त पाप और गुप्त पुण्य दोनोंका ही फल अधिक होता है। गुप्त साधनसे ईश्वरमें प्रेम बढ़ता है और चित्तमें शान्ति और प्रसन्नता होती है।
१४०-जो साधन बतलाया गया हो उसे कठिन न समझे। सदा ऐसा साहस रखे कि दुर्गुण-दुराचार आ ही कैसे सकते हैं? यदि हम सावधान रहेंगे तो चोर हमारे घरमें कैसे घुस सकता है?
१४१-खूब कोशिश करता हूँ यह मानना गलत है। कोशिश थोड़ी करते हो और उसको मान बहुत लेते हो।
१४२-साधकको इस बातका दृढ़ विश्वास रखना चाहिये कि कर्तव्यपरायण, भगवत्-शरणागत पुरुषके लिये कोई भी कार्य दु:साध्य नहीं है। वह बड़ा-से-बड़ा काम भी सहजहीमें कर सकता है।
१४३-आत्मकल्याणकी यह शक्ति वास्तवमें प्रत्येक मनुष्यमें है। अपनी शक्तिका अभाव मानना मानो अपने-आपको नीचे गिराना है।
१४४-उत्साही पुरुषके लिये कष्टसाध्य कार्य भी सुखसाध्य हो जाता है।
१४५-विश्वास ही विषनाशक साधनकी लगनकी आधारभूमि है।
१४६-जिनकी साधनमें ऐसी दृढ़ निष्ठा होती है कि साध्य चाहे भले ही छूट जाय परन्तु साधन नहीं छूटना चाहिये, तो उनसे साधन तो छूटता ही नहीं, साध्य भी श्रद्धा और प्रेमके कारण उनके पीछे-पीछे उनके इशारेपर नाचता रहता है। साधन-निष्ठाकी ऐसी महिमा है।
१४७-परम शान्ति, परम आनन्द और परम प्रेमरूप परमात्माकी प्राप्तिके साधनमें ही इस जीवनको बितानेकी तत्परताके साथ प्राणपर्यन्त चेष्टा करनी चाहिये।
१४८-वास्तविक साधन तो उसे ही समझना चाहिये जो परमात्माकी प्राप्ति करानेवाला हो।
१४९-दु:खरूप संसारसे छूटनेका एक सर्वोत्तम उपाय है—परमात्माकी शरण लेकर विवेक और वैराग्ययुक्त बुद्धिसे दु:ख, शोक, भय और चिन्ताका त्याग।
१५०-शरणागतिके भावको आदर्श रखकर जहाँतक बने भजन, ध्यान, सेवा, सत्संगमें ही अपने समयको बितानेके लिये तत्परतासे प्राणपर्यन्त चेष्टा करनी चाहिये।