प्रेम
१-सभी कुछ भगवान्का संकल्प है, वे भगवान् चाहे सो करें। उससे विकार होनेका कोई कारण नहीं। भगवान्के विधानमें अपना किसी प्रकार ‘हक उज्र’ नहीं रहनेसे वैराग्य और सत्संगमें प्रेमकी अधिकता देखी जाती है।
२-प्रेम होनेके बाद तो प्रेमीकी कोई जरा-सी बात सुनते ही रोमांच, अश्रुपातादि प्रेमानन्दके चिह्न प्रत्यक्ष होने लगते हैं।
३-प्रेमास्पदके पाससे आया हुआ साधारण मनुष्य भी बड़ा प्रिय लगता है। एक साधारण मनुष्यके साथ प्रेम होनेपर भी जब उसके गुणानुवाद और प्रेमकी बात सुननेसे आनन्द होता है तब प्रेमिकशिरोमणि भगवान्की तो बात ही क्या है? उद्धवकी बात सुनकर गोपिकाओंको जैसा प्रेम हुआ था वैसा ही प्रेम आज भी हो सकता है।
४-प्रेममें जितनी त्रुटि है उतना ही विलम्ब है।
५-देर इसलिये होती है कि साधक देरको सह रहा है। यदि साधकको प्रभुका वियोग इतना असह्य हो जाय कि उसके प्राण निकलने लगें तो फिर मिलनेमें तनिक भी विलम्ब नहीं होता।
६-जबतक साधक परमात्माका न मिलना बरदाश्त कर रहा है, जबतक भगवान्के बिना उसका काम चल रहा है, तबतक भगवान् भी देखते हैं कि इसका काम तो मेरे बिना चल ही रहा है, फिर मुझे ही क्या शीघ्रता है। जिस दिन भगवान्के बिना साधक नहीं रह सकेगा, उस दिन भगवान् भी भक्तके बिना नहीं रह सकेंगे।
७-विलम्ब भगवान्को चाहनेमें है, पानेमें नहीं।
८-सगुणमें प्रेम होनेपर उनके दर्शन हो जानेसे निर्गुणका भाव तुरन्त ही जाना जा सकता है।
९-श्रीपरमेश्वरके समान संसारमें प्रेम करने लायक दूसरा कोई भी नहीं है। कोई भी श्रीपरमेश्वरसे प्रेम करनेकी इच्छा करे, वे सबके साथ प्रेम करनेको तैयार रहते हैं।
१०-भगवान्से प्रेम करनेकी इच्छा हो तो भगवान्को ही सबसे उत्तम समझना चाहिये। संसारमें श्रीनारायणके समान दयालु तथा सुहृद् और कोई भी नहीं है। न उसके समान कोई प्रेमी ही है। वह नीचसे भी प्रेम करता है, किसीसे भी घृणा नहीं करता। यदि कोई मनुष्य अपनी नीचताकी ओर देखकर भगवान्को न भजे तब तो कोई उपाय नहीं, परन्तु भगवान्की ओरसे तो सबके लिये ‘खुला आर्डर’ है। चाहे कोई कितना भी नीच क्यों न हो यदि निरन्तर भजन करे तो उसे भी भजनके प्रतापसे परमानन्दकी प्राप्ति हो जाती है। भगवान्के ऐसे प्रभावको कोई न जाने तो इसमें भगवान्का कोई दोष नहीं।
११-भगवत्प्रेमकी इतनी प्रबलता होनी चाहिये कि जिससे भगवान्के मिले बिना रहा न जाय! ऐसी तीव्र उत्कण्ठा होनेपर ही भगवान् मिलते हैं।
१२-भगवान्का प्रेमी भगवान्के सर्वस्वका मालिक होता है।
१३-प्रेमास्पदमें प्रेम चाहिये, प्रेम ही प्रधान है। प्रेम न हो तो मिलनेका विशेष मूल्य नहीं।
१४-भगवान्में ऐसा प्रेम हो जाना चाहिये कि जिससे उनके मिले बिना चित्तमें चैन ही न पड़े।
१५-भगवान्में अधिक प्रेम होनेका उपाय भगवान्का चिन्तन ही है।
१६-सब जीवोंके साथ जो निष्काम प्रेम है वह प्रेम भगवान्के साथ ही है; क्योंकि भगवान् ही सर्वजीवोंकी आत्मा हैं।
१७-अपना उद्धार चाहे न हो, केवल प्रेमसहित भगवान्का चिन्तन होना चाहिये।
१८-भगवान्में इतना प्रेम बढ़ता है कि भगवान्को भक्त छोड़ ही नहीं सकता।
१९-नाम-जपादिका अभ्यास होनेसे जब अन्त:करणका मल नाश हो जाता है तब भगवान्में प्रेम होता है।
२०-हर समय भगवान्के समीप रहनेकी उत्कण्ठा रखनी चाहिये। भगवान्के पास नित्य रहनेमें उत्कण्ठा ही प्रधान हेतु है। उत्कण्ठा तीव्र होनेपर कोई भी प्रतिबन्धक नहीं रह सकता।
२१-भगवान् चाहे न मिलें, पर अनन्य प्रेम जल्दी होना चाहिये।
२२-भगवान्में प्रेम होकर संसारमें जीना हो तो उससे बढ़कर आनन्द ही नहीं है।
२३-प्रेममें विह्वल होकर निष्कामभावसे नित्य-निरन्तर भगवान्का नाम-जप करनेका नाम भजन है।
२४-जिस विद्याके द्वारा परमात्मामें प्रेम हो उसीका नाम सद्विद्या है।
२५-जिन शास्त्रोंके द्वारा संसारसे वैराग्य और परमेश्वरमें प्रेम हो उसीका नाम सत्-शास्त्र है।
२६-भजन, ध्यानका तीव्र अभ्यास करनेसे हृदय शुद्ध होता है, तभी सच्ची धारणा होती है। भगवान्में ही पूर्ण प्रेम होनेका उपाय करना चाहिये।
२७-प्रेमपूर्वक भजनमें ऐसा मग्न हो जाय कि शरीरका ज्ञान ही न रहे। तब आनन्द-ही-आनन्द है।
२८-काम करते हुए अधिक भजन होना तभीतक कठिन है जबतक प्रेम कम है।
२९-वही पुरुष धन्यवादका पात्र है जिसका अनन्य प्रेम होनेके कारण हर समय एकमात्र भगवान्में ही ध्यान रहता है यानी जिसको निरन्तर भगवान्का ही स्मरण रहता है। उसको फिर जीवन्मुक्तिसे भी क्या प्रयोजन है? वह तो दर्शन करनेयोग्य है।
३०-प्राण भले ही चले जायँ, परन्तु प्रभुके प्रेममें कभी कलंक न लगने पावे।
३१-विश्वास ही सार है। बिना विश्वासके नारायणमें प्रेम नहीं होता, बिना प्रेमके नारायण मिलते नहीं और नारायणके मिले बिना संसारसे उद्धार होनेका और कोई भी उपाय नहीं है।
३२-जबतक भगवान्का प्रभाव नहीं जानते तभीतक संसारका चिन्तन होता है। भगवान्का प्रभाव जान लेनेपर उसमें श्रद्धायुक्त पूर्ण प्रेम हो जाता है, फिर दूसरा चिन्तन हो ही नहीं सकता।
३३-प्रेम होना चाहिये। मिलना भले ही कम हो। मैं तो प्रेमीका हूँ।
३४-भगवान् श्रीकृष्णकी मनमोहिनी मूर्तिको अपने हृदयसे कभी विसारना नहीं चाहिये।
३५-उस मोरमुकुटधारी, वंशीविहारीकी माधुरीमूर्ति और मीठी वाणीमें जब एक बार सुरति समा जाती है तो फिर वह लौटकर नहीं आती। चित्त उसीमें फँस जाता है।
३६-भगवान्में प्रेम हो जानेपर तो सांसारिक प्रेम अपने-आप ही कम हो जाता है। सांसारिक प्रेमको हटानेके लिये कोई दूसरा साधन नहीं करना पड़ता।
३७-संसारके जिस काममें बहुत प्रेम होता है वह चित्तमें बस जाता है, वैसे ही प्रेम अधिक होनेपर भगवान् मनमें बस जाते हैं।
३८-प्रेमीको भगवान्के बिना मिले चैन नहीं पड़ता।
३९-जैसे पतिव्रता स्त्री अपने पतिकी ओर देखती हुई पतिके इच्छानुसार सब काम करती है, उसी भाँति उस भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र मोरमुकुटधारी, वंशीवट-विहारीकी माधुरीमूर्तिको अपने नेत्रोंके सामने देखता हुआ काम करता रहे।
४०-जहाँ-जहाँ नेत्र जाय वहाँ-वहाँ श्रीवासुदेव श्यामसुन्दरकी मूर्तिकी भावना करे।
४१-जहाँ-जहाँ नेत्र जाय वहाँ-वहाँ आनन्दमय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी मूर्तिका चिन्तन करते हुए, मनको भगवान्में रखते हुए सांसारिक काम करता रहे।
४२-मनसहित भजन करने और शास्त्रका अभ्यास करनेसे जितना लाभ एक वर्षमें होगा उतना लाभ बिना मनके करनेसे १०० वर्षमें भी नहीं हो सकता, आजकल लोगोंकी शीघ्र उन्नति नहीं होनेका यही कारण है।
४३-किसी क्षण नामोच्चारण करते-करते प्रेममें मग्न हो जाय तो उसी समय भगवान् प्रकट हो जायँ।
४४-प्रेमकी प्राप्तिके लिये भगवान्से प्रार्थना करनी चाहिये और भगवान्के आगे रोना चाहिये।
४५-प्रेम परमात्माकी दयासे प्राप्त होता है। परमात्माकी कितनी दया है, खयाल करो कि हमलोगोंकी वृत्ति परमार्थकी तरफ जाती है।
४६-जहाँ प्रेम है, वहाँ बहुत जोर है।
४७-जब भगवान्में पूर्ण प्रेम और विश्वास हो जायगा तब तो चाहे जितना विषयी मनुष्योंका संग हो, फिर भगवान्की स्मृति भूली नहीं जा सकती।
४८-भगवान् बड़े प्रेमी हैं। जो ऐसे भगवान्की दोस्ती छोड़कर सांसारिक तुच्छ स्त्री और अपने शरीरका दास होकर उनमें प्रेम करता है, वही पशु है।
४९-समय बीता जा रहा है। जो भी कुछ सांसारिक वस्तुएँ देखनेमें आती हैं, सब नाशवान् हैं, ऐसा जानकर इनसे प्रेम छोड़कर सत्यस्वरूप भगवान्से ही प्रेम करना चाहिये।
५०-भगवान् तो केवल प्रेम ही चाहते हैं।
५१-सांसारिक व्यसन चाहे जितना प्रबल हो, कोई डरकी बात नहीं, यदि प्रेमपूर्वक निरन्तर नारायणके नामका जप होता रहे। रास्ता सुधरनेका इससे बढ़कर और क्या उपाय है!
५२-जो प्रेम निरन्तर बना रहता है, उसीकी महिमा है।
५३-भगवान्के विछोहमें बीतनेवाला एक पल भी युगके समान लगना चाहिये।
५४-अनन्य प्रेम प्राप्त करनेके तीन साधन—(१) प्रेमी भगवान्को अपने चित्तसे कभी बिसारे नहीं। (२) प्रेमीके मनके अनुकूल चलना, यदि प्रेमीके मनकी बात नहीं जाने तो उनके हुकुमके अनुकूल चलना। (३) प्रेमीको सर्वस्व अर्पण कर देना।
५५-अपना मित्र अपार धनी भी हो तो भी उसका धन लेनेकी आशा नहीं करनी चाहिये। धन लेनेकी आशा प्रेममें कलंक लगानेवाली है।
५६-प्रेमकी रक्षा स्वयं करे, जैसे महाराज युधिष्ठिर अपने धर्मका पालन अपने-आप ही करते थे, इसी प्रकार अपनी इज्जतकी रक्षा अपने ही हाथ है।
५७-भगवान् श्रीकृष्णने कहा है—‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।’ (४। ११) मुझसे जो प्यार करता है, वही मेरा प्रिय है, मुझसे जिसका जितना प्रेम है वह मुझे उतना ही प्यारा है—यह भगवान्का बर्ताव है। महापुरुषोंका भी ऐसा ही बर्ताव होता है।
५८-निष्कामभावसे प्राणिमात्रके साथ प्रेम करना भगवान्को मोल ले लेना है। यह बर्ताव महापुरुषोंद्वारा किया गया है। इस बातपर आँख मूँदकर विश्वास करना चाहिये। इसका पालन करनेसे महान् लाभ है।
५९-जिस प्रेममें ईर्ष्या न हो वह प्रेम ऊँचे दर्जेका है।
६०-भगवान्के प्रेममें मग्न हो जानेसे भी मनका नाश हो सकता है अथवा वह अपने अधीन हो सकता है। उस समय भी मनमें संसारकी स्फुरणा नहीं होती।
६१-भगवान्में बहुत जल्दी प्रेम होनेके उपाय—
(१) निष्कामभावसे भगवान्के नामका निरन्तर जप और स्वरूपका ध्यान करनेकी चेष्टा करना।
(२) भगवान्के गुण, प्रभाव और मर्म (तत्त्व)-की कथा भगवान्के भक्तोंद्वारा सुनना, पढ़ना और कथन करना।
(३) भगवान्के आज्ञानुसार निष्कामभावसे सब कर्म भगवान्के लिये ही करना।
(४) मनमें भगवान्के मिलनेकी तीव्र इच्छा रखना और उनके नाम-गुणोंको सुनकर आनन्दमग्न होना।
६२-जिस दिन मनमें धैर्य नहीं होगा, जिस दिन श्रीभगवान्के बिना नहीं रहा जायगा उस दिन तो भगवान्को आना ही होगा। जबतक आप भगवान्का वियोग सहन कर रहे हैं, तभीतक उनका वियोग हो रहा है। जिस समय आप भगवान्के मिले बिना एक क्षण भी नहीं ठहर सकेंगे तथा विछोहके कारण आपका मन मछलीकी तरह तड़फड़ाने लगेगा, फिर भगवान्की ओरसे देर हो ही नहीं सकती। भगवान्को प्रकट होना ही होगा।
६३-संसारमें प्रेमके समान कुछ भी नहीं है, किन्तु प्रेमके प्रभाव और मर्मको कोई प्रेमी ही जानता है।
६४-प्रेमी भक्त प्रभुको जिस मूर्तिमें, जिस रूपमें और जिस समय प्रकट करना चाहता है वह लीलानिकेतन नटवर उस प्रेमीके अनन्य प्रेमसे आकर्षित होकर उसी मूर्ति और उसी रूपमें और उसी समय साक्षात् प्रकट हो जाता है।
६५-जिस प्रकार कामीको स्त्रीमें, लोभीको रुपयोंमें प्रेम होता है, उसी प्रकार हमारा परमेश्वरमें प्रेम होना चाहिये।
६६-एकमात्र परमेश्वर ही प्रेम करनेलायक है।
६७-भगवान्के प्रेमी पुरुषोंका संग करनेसे, अन्त:करण शुद्ध होनेसे और भगवान्की शरण लेकर भजनका अभ्यास करनेसे भगवान् में प्रेम हो सकता है।
प्रश्न—काम ज्यादा होनेसे फुरसत नहीं मिलती कल्याणका मार्ग कैसे बैठे?
उत्तर—प्रेम होनेसे अपने-आप ही रास्ता बैठ सकता है।
६८-उत्तम यह है कि परमात्मासे कुछ भी नहीं कहे। किसी प्रकारकी खुशामद न करे, उनकी गरज हो तो आवें नहीं तो उनकी मर्जी।
६९-भगवान्के प्रेमी भक्तोंसे सुनी हुई और शास्त्रोंमें पढ़ी हुई, श्रीपरमात्माके गुण, प्रभाव और प्रेमकी बातें निष्कामभावसे लोगोंमें कथन करनेसे भगवान्में बहुत महत्त्वका प्रेम हो सकता है।
७०-मान-अपमानको समान समझकर, निष्कामभावसे सबको भगवान्का स्वरूप जानकर सबकी सेवा करनी चाहिये। यों करनेसे भगवत्कृपासे आप ही प्रेम हो सकता है।
७१-आप उस प्रभुसे मैत्री क्यों नहीं करते? उसके समान प्रभु तथा प्रेमी और कौन मिलेगा? ऐसा हितैषी दूसरा कौन है?
७२-सब मतलबकी मनवार करनेवाले हैं। फिर आप उस प्रभुसे प्रेम क्यों नहीं करते? प्रभु तो आपसे कुछ भी नहीं माँगता। केवल उसे हर समय स्मरण रखना चाहिये। उसके नामका जप और ध्यान ही सार है, जप करनेसे ध्यान अपने-आप होने लगता है।
७३-भगवद्भक्तोंद्वारा श्रीभगवान्के गुणानुवाद और उनके प्रेम तथा प्रभावकी बातें सुननेसे अतिशीघ्र प्रेम हो सकता है। भक्तोंके संगके अभावमें शास्त्रोंका अभ्यास ही सत्संगके समान है।
७४-भगवान्के विषयको लेकर जो किसीसे भी प्रेम है, वह भगवान्के साथ ही प्रेम है।
७५-श्रीभगवान्के प्रेमके समान कुछ भी नहीं है।
७६-प्रेमके मर्मको जो कोई जानता है, वही प्रेममें बिक जाता है।
७७-जबतक हम भगवान्के वियोगको सह रहे हैं तभीतक भगवान्का वियोग हो रहा है। जिस दिन हम श्रीभगवान्के वियोगमें गोपियोंकी भाँति विह्वल हो जावेंगे उसी दिन भगवान्को तुरन्त ही आना पडे़गा।
७८-प्रेमी कभी भगवान्को बुलानेकी प्रार्थना नहीं करता; क्योंकि वह जानता है कि भगवान् अन्तर्यामी हैं और मर्मको समझनेवाले हैं तथा प्रेमके अधीन हैं फिर वह किसलिये खुशामद करे!
७९-श्रीपरमात्माके मिलनेकी तीव्र इच्छासे भी प्रेम बढ़ सकता है।
८०-श्रीपरमात्माके आज्ञानुकूल आचरणसे, उनके मनके अनुसार चलनेसे उनमें प्रेम हो सकता है। शास्त्रकी आज्ञाको भी परमात्माकी आज्ञा समझनी चाहिये।
८१-प्रेमको गुप्त रखना अच्छा है।
८२-प्रेम होनेसे ही भगवान्में मन रमता है।
८३-सच्चा प्रेमी उसीको मानना चाहिये जो प्रेमके लिये अपना आत्मसमर्पण कर सकता हो, जो अपने तन, मन, धन सर्वस्वको अपने प्रेमास्पदकी सम्पत्ति समझता हो।
८४-जो वस्तु अपने प्रेमीके काम आ गयी, वही सार्थक है, यों समझनेवाला ही यथार्थ प्रेमी है। ऐसा प्रेमी ही सर्वथा पूजनीय है।
८५-भगवान्से कुछ भी माँगना उचित नहीं, प्रेम केवल प्रेमके लिये ही करना चाहिये।
८६-संसारमें प्रेमके समान और कुछ भी नहीं है। उस प्रेमके मर्मको जाननेके लिये ही परमात्मासे मैत्री करनी चाहिये।
८७-अपने प्रियतम मित्रके लिये प्राणोंको भी तुच्छ समझना चाहिये। ऐसे प्रेमी ही भगवान्को प्यारे लगा करते हैं।
८८-भगवान् प्रेमके अधीन हैं। प्रेमी अपनी प्रेम-रज्जुसे भगवान्को बाँध सकता है। भगवान् अपने प्रेमीका साथ कभी नहीं छोड़ते।
८९-पाँच बातें अमूल्य हैं—प्रेम, ज्ञान, श्रद्धा, उपरामता और वैराग्य—ये रुपयोंसे नहीं मिलती हैं। इनमें प्रेम ही प्रधान है। प्रेमवालेको साकार-निराकार-स्वरूपकी प्राप्ति होती है। ज्ञानवालेको सच्चिदानन्दघनकी प्राप्ति होती है।
९०-श्रीभगवान्की प्राप्ति प्रेम बिना नहीं होती, प्रेम तत्पर हुए बिना होता नहीं। श्रीभगवान्की इच्छा यदि उनकी भक्तिका प्रचार कराना है तो केवल यही उद्देश्य होना चाहिये कि श्रीभगवान् राजी हों। अपना मान, बड़ाई, पूजा, स्वार्थ नहीं चाहे, शरीरका आराम भी नहीं देखे।
९१-अपने लोगोंमें प्रेम कहाँ है। प्रेम होनेके बाद तो रोमांच और अश्रुपातकी धारा चल जाती है।
९२-भगवान्में प्रेम होनेका उपाय है भगवत्-भक्ति। भगवत्-भक्ति ही प्रेमका स्वरूप है। भगवान्में जो अत्यन्त अनुराग है उसका नाम प्रेम है और उस भगवत्-भक्तिके जो प्रकार हैं, उनके पालनसे भगवत् में अनन्य प्रेम हो जाता है।
९३-मनमें खूब जोश रखना चाहिये कि एक भी अवगुण क्यों रहे यानी दैवी सम्पदाके सभी २६ लक्षण घटने लग जायँ। यह स्थिति श्रीभगवान्के निष्काम प्रेमभावसे निरन्तर ध्यानसहित जप होनेसे स्वयमेव प्राप्त हो जाती है।
९४-भगवान्में ऐसी लौ लगानी चाहिये कि शरीरकी सुधि भी न रहे। यदि सब समय एक-सी लगन लगी रहे तो उद्धार होना कौन बड़ी बात है।
९५-जो हर समय भगवान्में लौ लगाये रहता है, वह अन्तमें उन्हींमें समा जाता है।
९६-मग्न तो केवल भगवान्में होना चाहिये और ऐसा होना चाहिये कि मन उन्हींके आनन्दमें रम जाय, उनके सिवा और कुछ भासे ही नहीं।
९७-जिस पुरुषका मन भगवान्में रम जाता है, उसको सारा कुटुम्ब और धन झंझट मालूम होने लगता है, फिर पीछे झंझट बढ़ानेवाले कामकाज भी आप-से-आप कम होने लगते हैं।
९८-हरिचरणोंमें प्रेम होनेके लिये आठ बातें सार हैं—
१.जो कुछ सुख-दु:खादि आकर प्राप्त हो उसको भगवान्की आज्ञासे प्राप्त हुआ मानकर आनन्दके सहित स्वीकार करना भगवान्की शरण है।
२.सबको भगवान्की भक्तिमें लगानेकी कोशिश जीवोंकी परम सेवा है।
३.भगवद्भक्तोंका संग, यदि उनका संग नहीं मिले तो उनके भक्तोंका संग भी बहुत लाभदायक है।
४.एकान्तमें परमेश्वरका ध्यान करनेकी चेष्टा करे, यदि ध्यान नहीं लगे तो ध्यान लगानेके लिये श्रीगीताजीके ध्यानविषयक श्लोकोंके अर्थका विचार करना चाहिये।
५.परमेश्वरके स्वरूपका चिन्तन करते हुए चलते-फिरते प्रत्येक क्रिया करते समय परमेश्वरके नामके जपका अभ्यास।
६.भगवान्के सिवाय और किसी चीजकी भी इच्छा नहीं करनी। केवल भगवान्के मिलनेकी उत्कट इच्छा करनी चाहिये।
७.जिस कामसे भगवान् राजी होवें उस कामको करनेकी चेष्टा यानी हिंसावर्जित सदाचार।
८.निष्कामभावसे सब जीवोंकी सेवा जिस प्रकारसे मनुष्योंको तथा सब जीवोंको सुख पहुँचे वैसी चेष्टा।
उपर्युक्त बातें काममें लानेसे भगवान्में बहुत ही जल्दी प्रेम हो सकता है। इनमेंसे एक भी बात काममें लावे तो परमात्मा मिल सकते हैं। इन बातोंमें एक-से-एक अधिक लाभदायक हैं, याने आठ नम्बरसे सात नम्बरवाली अधिक लाभदायक है और सातसे छ:वाली इसी प्रकार क्रमसे समझना चाहिये।