प्रेम-विरह-व्याकुलता
१-व्रजराज भगवान् श्रीकृष्णके प्रति अनन्य प्रेम होनेमें ही इस जीवनकी सार्थकता है। जिस बड़भागीने इस दिव्य, अनन्य एवं विशुद्ध प्रेम-पीयूषका पान कर लिया, उसका जन्म सफल हो जाता है। उसकी युग-युगकी, जन्म-जन्मोंकी विषय-पिपासा बुझ जाती है, शान्त हो जाती है।
२-भगवान्के मिलनेके बहुत-से उपायोंमेंसे सर्वोत्तम उपाय है ‘सच्चा प्रेम’।
३-भवतापसे सन्तप्त प्राणी भगवत्प्रेमकी पावन मन्दाकिनीमें निमज्जन करके ही पूर्ण शान्ति प्राप्त कर सकता है। यही वह परम रस है जिसे पीकर मनुष्य सिद्ध, अमर और तृप्त हो जाता है।
४-परमात्माकी ही भाँति प्रेमका स्वरूप भी अनिर्वचनीय है।
५-प्रेम साधन भी है और साधनोंका फल (साध्य) भी।
६-प्रेमकी द्वैत-अद्वैत, भेद-अभेदसे विलक्षण अनिर्वचनीय स्थिति है।
७-गूँगेके स्वादकी तरह वह वाणीका विषय नहीं होता।
८-प्रेमका वास्तविक महत्त्व कोई परमात्माका अनन्य प्रेमी ही जानता है।
९-प्रेमका मूल्य भी कोई विरले ही जानते हैं।
१०-विशुद्ध प्रेम होनेपर जो आनन्द होता है उसकी महिमा अकथनीय है।
११-ऐसा कोई स्थान नहीं जहाँ प्रेम न हो। प्रेमियोंका प्रेम और ज्ञानियोंका आनन्द सब जगह है।
१२-प्रिय और प्रेममें कोई अन्तर नहीं है।
१३-संसारमें कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं है जिसमें आनन्द व्याप्त न हो। प्रेम उसका स्वरूप है। वह सब जगह है।
१४-प्रेमके सिवा दूसरी वस्तु नहीं है। प्रेम ही आनन्द है और आनन्द ही प्रेम है।
१५-भगवान् सगुण-साकारकी उपासना करनेवालोंके लिये प्रेममय बन जाते हैं और निर्गुण-निराकारकी उपासना करनेवालोंके लिये आनन्दमय बन जाते हैं।
१६-प्रेमका स्वरूप अलौकिक बतलाया गया है; क्योंकि वह लोकसे सर्वथा विलक्षण है।
१७-दिव्य, अनन्य एवं विशुद्ध प्रेम तो तीनों गुणोंसे अतीत और कामनाओंसे रहित होता है, वह प्रतिक्षण बढ़ता है, कभी घटता नहीं, वह सूक्ष्म-से-सूक्ष्म होता है, उसे वाणीद्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता, वह तो अनुभवकी वस्तु है।
१८-प्रेमको पाकर प्रेमी सदा आनन्दमें मस्त रहता है।
१९-प्रेमके प्राप्त होनेपर मनुष्य न तो किसी भी वस्तुकी इच्छा करता है, न शोक करता है, न द्वेष करता है, न किसी भी वस्तुमें आसक्त होता है और न (विषयभोगोंकी प्राप्तिमें) उसे उत्साह होता है।
२०-प्रेमकी पूर्णता उस दिव्य, अनन्य एवं विशुद्ध प्रेममें ही है, जहाँ प्रेम, प्रेमी और प्रियतमकी एकता होती है।
२१-प्रेममें प्रेमी और प्रेमास्पदका नित्य ऐक्य-शाश्वत संयोग बना रहता है।
२२-माधुर्यभावसे भी यह अद्भुत प्रेमभाव विलक्षण है। माधुर्यभावके भी दो स्वरूप हैं—स्वकीयाभाव और परकीयाभाव, परम श्रेष्ठ सती-शिरोमणि पतिव्रता नारीका अपने प्रियतम पतिके प्रति जो भाव होता है, वही स्वकीयाभाव है तथा परस्त्रीका परपुरुषमें जो गुप्त प्रेम होता है, उसी भावसे जो भगवान्के दिव्य स्वरूपमें उच्च श्रेणीका प्रेम हो, उसे परकीयाभाव कहते हैं। वह अनन्य प्रेमी इन सभी भावोंसे ऊपर उठा होता है।
२३-दिव्य प्रेममें बड़े-छोटेकी कोई श्रेणी नहीं है। वहाँ दोनोंकी समान अवस्था है।
२४-अनन्य और विशुद्ध प्रेममें गुण और प्रभावकी विस्मृति है, स्मृति होनेपर भी उनका कोई मूल्य नहीं है। यहाँ तो दोनोंमें अनिर्वचनीय ऐक्य है। वहाँ सर्वशक्तिमान् और सर्वान्तर्यामी कहकर स्तवन नहीं किया जाता। स्तुतिकी अवस्था तो बहुत पहले ही समाप्त हो जाती है। अब तो कौन सर्वशक्तिमान् और कहाँका सर्वेश्वर। दोनों एक हैं, समान हैं, दोनों ही दोनोंके प्रेमी और प्रियतम हैं, इनमें परस्पर हेतुरहित सहज प्रेम होता है।
२५-प्रेम, प्रेमी और प्रेमास्पदमें भेद नहीं रहता। भक्ति, भक्त और भगवन्त—सब एक हो जाते हैं।
२६-प्रेम, प्रेमी और प्रेमपात्र—ये देखनेमें तीन होनेपर भी वास्तवमें एक हैं। इनका तत्त्व सदा सबकी समझमें नहीं आता। इन्हें एकरूप ही जानना चाहिये।
२७-इस दिव्य प्रेमकी अनुभूति निराली ही है। यहाँ न द्वैत है न अद्वैत। दोनोंसे विलक्षण स्थिति है। प्रेमी और प्रियतमका नित्य-नूतन प्रेम उत्तरोत्तर बढ़ता है।
२८-प्रेमके दिव्य भावको वाणीद्वारा व्यक्त करना असम्भव है। यहाँ प्रेमके सिवा कुछ रहता ही नहीं। इन प्रेमियोंका मिलन भी बड़ा ही विलक्षण—अत्यन्त अलौकिक होता है। यहाँ अद्वैत होते हुए भी द्वैत है और द्वैत होते हुए भी अद्वैत। हमारे दोनों हाथ परस्पर मिलकर सटकर एक हो जाते हैं, उस समय ये दो होते हुए भी एक हैं और एक होते हुए भी दो हैं। इस प्रकार यहाँ न भेद है न अभेद।
२९-जहाँ पूर्णरूपसे प्रेम है, वहाँ आदर-सत्कार तो एक विघ्न है। क्या कोई स्वयं ही अपना आदर करता है।
३०-मुक्ति तो भगवत्प्रेमका पासंगमात्र है, उस प्रेमधनको छोड़कर पासंगकी इच्छा करना अत्यन्त लज्जाका विषय है।
३१-प्रेममें स्वार्थकी गन्ध भी नहीं होनी चाहिये।
३२-स्वार्थकी भावना निष्काम प्रेमके लिये कलंकस्वरूप है।
३३-जहाँ स्वार्थका भाव आया, वहाँ प्रेमका टूटना प्रारम्भ हुआ।
३४-स्वार्थ और अहंकार—ये दोनों ही प्रेम-मार्गमें बड़े बाधक हैं।
३५-प्रभुकी ही प्रसन्नतामें प्रसन्न रहना चाहिये, उनसे अपनी खुशामद करानेकी इच्छा रखना भी एक प्रकारका स्वार्थ ही है।
३६-हेतु या कामना ही प्रेमका दूषण है।
३७-निष्काम प्रेममें कामनाकी गन्ध भी नहीं है।
३८-भगवत्प्रेम भी यदि किसी कामनासे किया जाय तो वह सकाम कहलाता है। सकाम प्रेममें दिव्यता, अनन्यता एवं विशुद्धताका अभाव होता है।
३९-संसारकी चिन्ताएँ प्रेमीका स्पर्श भी नहीं कर सकतीं, उसकी दृष्टिमें प्रेमके सिवा और कुछ रह ही नहीं जाता।
४०-लौकिक प्रेम भोग-कामनाओं और दुर्वासनाओंसे वासित होनेके कारण शुद्ध नहीं होता।
४१-जहाँ वासनाका आधिपत्य है वह प्रेम नहीं आसक्तिमूलक मोह है।
४२-लौकिक प्रेमके आलम्बन क्षणिक एवं नाशवान् होते हैं, अत: वह भगवत्प्रेमके सामने हेय ही है।
४३-परमेश्वरमें प्रेम करनेका हेतु केवल परमेश्वर या उनका प्रेम ही हो, प्रेमके लिये ही प्रेम किया जाय, अन्य कोई हेतु न रहे।
४४-भगवान्के साथ किसी भी भावको लेकर प्रेम किया जाय वह आदर्श ही है।
४५-भगवत्प्राप्तिके उद्देश्यसे यदि किसीसे भी प्रेम किया जाता है तो वह भगवान्के ही लिये समझा जाता है।
४६-जब दो प्रेमी मिलते हैं तो एक अपूर्व आनन्दकी बाढ़-सी आ जाती है। ऐसे प्रेम-सम्मेलनको देखकर प्रभु भी उनके हाथ बिक जाते हैं।
४७-सबको साक्षात् भगवान्का स्वरूप समझकर ही उनसे प्रेम करना तो परम पवित्र प्रेम है।
४८-अहंकार, अभिमान, ममता, आसक्ति आदि दोषोंको लेकर अथवा व्यक्तिगत स्वार्थवश जो प्रेम होता है, वही दूषित समझा जाता है।
४९-क्षणभंगुर, नाशवान्, दृश्य पदार्थोंको सत्य मानकर उनके सम्बन्धसे होनेवाले भ्रमजन्य सुखको सुख मानकर उनमें प्रेम करना अज्ञानपूर्ण प्रेम है।
५०-भगवान्में जितना प्रेम बढ़ता जायगा, भगवानका उतना ही ज्ञान होता जायगा, उतना ही सांसारिक विषयोंमें वैराग्य होकर उनमें स्वत: ही आनन्द कम प्रतीत होने लगेगा। धीरे-धीरे भगवान्के प्रेमका आनन्द बढ़ेगा और फिर उसके सामने त्रिलोकीका आनन्द भी तुच्छ प्रतीत होगा।
५१-ज्यों-ज्यों भगवान्में प्रेम बढ़ता है त्यों-त्यों विषयोंमें आनन्द कम होता जाता है, यही प्रेमकी कसौटी है।
५२-भगवान्की ओरसे विषयोंका प्रलोभन मिलनेपर मनमें पश्चात्ताप होकर यह भाव उदय हो कि ‘अवश्य ही मेरे प्रेममें कोई दोष है, मेरे मनमें सच्चा विशुद्ध भाव होता और इन स्वार्थकी बातोंको सुनकर यथार्थमें मुझे क्लेश होता तो भगवान् इनके लिये मुझे कभी न ललचाते’।
५३-विनय, अनुरोध और भय दिखलानेपर भी परमात्माके प्रेमके सिवा किसी भी हालतमें दूसरी वस्तु स्वीकार न करे, अपने प्रेम-हठपर अटल-अचल रहे। वह यही समझता रहे कि भगवान् जबतक मुझे नाना प्रकारके विषयोंका प्रलोभन देकर ललचा रहे हैं और मेरी परीक्षा ले रहे हैं, तबतक मुझमें अवश्य ही विषयासक्ति है। सच्चा प्रेम होता तो एक अपने प्रेमास्पदको छोड़कर दूसरी बात भी मैं न सुन सकता।
५४-विषयोंको देख, सुन और सहन कर रहा हूँ, इससे यह सिद्ध है कि मैं सच्चे प्रेमका अधिकारी नहीं हूँ। तभी तो भगवान् मुझे लोभ दिखा रहे हैं। उत्तम तो यह था कि मैं विषयोंकी चर्चा सुनते ही मूर्च्छित होकर गिर पड़ता। ऐसी अवस्था नहीं होती, इसीलिये नि:संदेह मेरे हृदयमें कहीं-न-कहीं विषयवासना छिपी हुई है। यह है विशुद्ध प्रेमके ऊँचे साधनका स्वरूप।
५५-सर्वस्व समर्पण करनेपर भी यदि एक रत्तीभर प्रेम मिले तो सर्वस्व दे डालना चाहिये। सच्चा प्रेमी ऐसा ही करता है।
५६-सच्चे प्रेमी सिरकी बाजी लगाकर ही प्रभुका प्रेम प्राप्त करते हैं।
५७-संसारमें ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो प्रेमके बदले न दी जा सके। तन, मन, धन, प्राण सभी इसपर निछावर किये जा सकते हैं।
५८-प्रेमकी उत्पत्ति सेवासे होती है। भगवत्प्रेमकी प्राप्ति भी सेवा और भक्तिसे ही होती है।
५९-सेवासे भी भक्तिका दर्जा ऊँचा है। सेवा तो हर किसीकी हो सकती है, किन्तु भक्ति हर किसीकी नहीं होती। भक्तिमें सेवा तो रहती ही है, पर साथमें श्रद्धा और प्रेमका भी समावेश रहता है, प्रेमका महत्त्व तो भक्तिसे भी अधिक है।
६०-प्रेम खरीदनेके लिये भगवान्का नाम ही पूँजी है। इसलिये निरन्तर नाम-जपका अभ्यास करना चाहिये।
६१-जिन्हें प्रेम प्राप्त करना हो उन्हें दो बातोंको भूल जाना चाहिये। दूसरेके प्रति किया हुआ उपकार और दूसरेके द्वारा किया हुआ अपना अपकार एवं दो बातें कभी नहीं भुलानी चाहिये—
१.हमारे प्रति दूसरेका किया हुआ उपकार और
२.अपने द्वारा किया हुआ दूसरेका अपकार।
६२-प्रेमकी वृद्धिके लिये मन, वाणी और व्यवहारमें निष्कामभाव तथा अहिंसा और निरहंकारताका होना बहुत ही आवश्यक है, जहाँ स्वार्थ और अहंकार होता है वहाँ प्रेम नहीं ठहर सकता।
६३-जब सत्संग, भजन, चिन्तन, निर्मलता, वैराग्य, उपरति, उत्कट इच्छा और परमेश्वरविषयक व्याकुलता क्रमसे होती है तब भगवान्में सच्चा, विशुद्ध प्रेम होता है।
६४-जिस चाहसे वे प्रकट हो जाते हैं वही चाह असली चाह समझनी चाहिये। अत: जबतक वे न आवें चाह बढ़ाता ही रहे। घड़ा भर जानेपर पानी अपने-आप ऊपरसे बह चलेगा।
६५-वह चाह कैसी होनी चाहिये, इस बातको प्रभु ही पहचानते हैं।
६६-प्रभुसे हमारा बिछोह इसीलिये हो रहा है कि उनके वियोग (बिछोह)-में हमें व्याकुलता नहीं होती। जब हम ही उनका वियोग सहनेके लिये तैयार हैं और कभी उनके वियोगमें हमारे मनमें व्याकुलता या दु:ख नहीं होता तो प्रभुको ही क्यों परवा होने लगी?
६७-ऊपरसे हम उनके दर्शनके लिये लालायित-से दीखते हैं, परन्तु भीतरसे उसे पानेकी लालसा कहाँ है? मुँहसे हम भले ही न कहें कि अभी ठहरो, परन्तु हमारी क्रियासे यही सिद्ध होता है। प्रभुके प्रकट होनेमें विलम्ब सहन करना ही उन्हें ठहराना है।
६८-खुशीसे हम उनके बिना जी रहे हैं। इस हालतमें वे यदि न आवें तो इसमें उनका क्या दोष है? प्रकट होनेके लिये तो वे तैयार हैं, पर जबतक हमारे अंदर उत्सुकता नहीं होती तबतक वे आवें भी कैसे? उनका दर्शन प्राप्त करनेके लिये आवश्यकता है प्रबल चाहकी।
६९-उसे इतना व्याकुल कर देना चाहिये कि हमारे बिना वह एक क्षण भी न रह सके। फिर उसे हार माननी ही पड़ेगी, आनेके लिये बाध्य होना ही पड़ेगा। हमें व्यवस्था ही ऐसी कर देनी चाहिये, प्रेमसे उन्हें मोहित कर देना चाहिये। फिर तो धक्का देनेपर भी वे नहीं हटेंगे।
७०-प्रेमीके वियोगमें जहाँ प्राण व्याकुल हो उठें, वहाँ प्रेमकी पराकाष्ठा समझनी चाहिये। जलके वियोगमें मछली तड़प उठती है यह तड़पन उच्च श्रेणीका प्रेम है।
७१-यदि हमारे भीतर तड़पन होती और इसपर भी वे न आते तो हमें कहनेके लिये गुंजाइश थी।
७२-जो हरिके लिये जैसे लालायित है उसके लिये हरि भी वैसे ही लालायित रहते हैं।
७३-प्रभु तो इस बातके लिये सदा उत्सुक रहते हैं कि कोई रास्ता मिले तो मैं प्रकट होऊँ। किंतु हमी लोग उनके प्रकट होनेमें बाधक हो रहे हैं।
७४-भगवान्के प्रकट होनेमें जो विलम्ब हो रहा है उसमें मुख्य कारण हमारी टानकी कमी ही है। प्रभु तो प्रेम और दयाकी मूर्ति ही हैं। फिर वे आनेमें विलम्ब क्यों करते हैं।
७५-सीताका जैसा उत्कट प्रेम भगवान् रामचन्द्रजीमें था वैसा ही प्रेम यदि हमलोगोंका प्रभुमें हो जाय तो प्रभु हमारे लिये भी तैयार हैं।
७६-महात्माओंकी आज्ञामें तत्पर हुए राजा मयूरध्वजकी तरह मौका पड़नेपर अपने पुत्रका मस्तक चीरनेमें भी नहीं हिचकनेवाले प्रेमी भक्तको भगवान् प्रत्यक्ष दर्शन दे सकते हैं।
७७-ऋषिकुमार सुतीक्ष्णकी तरह प्रेमोन्मत्त होकर विचरनेसे भगवान् मिल सकते हैं।
७८-कुमार भरतकी तरह राम-दर्शनके लिये प्रेममें विह्वल होनेसे भगवान् प्रत्यक्ष मिल सकते हैं।
७९-गोपियोंके प्रेमको देखकर ज्ञान और योगके अभिमानको त्यागनेवाले उद्धवकी तरह प्रेममें विह्वल होनेपर भगवान् प्रत्यक्ष मिल सकते हैं।
८०-जब प्रेम हो जाता है तो भगवान् प्रत्यक्ष मूर्तिमान् होकर प्रकट हो जाते हैं।
८१-प्रेममूर्ति परमेश्वर सब काल तथा सब देशमें सब मनुष्योंको भक्तिवश होकर अवश्य ही प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं।
८२-जो प्रेमसे उनकी उपासना करते हैं, वे भाग्यवान् बहुत ही शीघ्र उन प्रेममयके प्रेमपूर्ण वदनारविन्दका दर्शन कर कृतार्थ होते हैं।
८३-भगवान्से सच्चा प्रेम होनेमें तथा दो मित्रोंकी तरह भगवान्की मनोमोहिनी मूर्तिके प्रत्यक्ष दर्शन मिलनेमें विश्वास ही मूल कारण है।
८४-प्रेम ही उनकी महिमामयी मूर्ति है, इसलिये प्रेमी पुरुष ही उनको पहचान सकते हैं।
८५-वह प्रेमतत्त्वज्ञ प्रियतम स्वयं ही मिले बिना नहीं रह सकता। उसे गरज होगी तो स्वयं ही आवेगा, भक्त क्यों मिलनेके लिये परेशान हो?
८६-प्रभु तो प्रेमका लोभी है, प्रेम होगा तो अपने-आप दौड़ा आवेगा, न होगा तो बुलानेसे भी नहीं आवेगा। इसीलिये जो निष्काम प्रेमी होते हैं, वे भगवान्को बुलाते भी नहीं।
८७-प्रेमके बिना भगवान्का काम नहीं चलता, उनके सब कल-कारखाने बंद हो जाते हैं।
८८-वास्तवमें न तो भगवान्को दर्शन देनेके लिये बुलानेकी आवश्यकता है, न रोकनेकी। बिना किसी कामना या हेतुके ही भगवान्में केवल प्रेम बढ़ाना आवश्यक है।
८९-अहंकारसे दूर रहकर संयोग-वियोगकी चिन्तासे बेपरवाह होकर, उत्तरोत्तर प्रेम बढ़ता रहे इसीके लिये सारा प्रयत्न—सम्पूर्ण चेष्टा होनी उचित है।
९०-भगवत्प्रेमकी अवस्था ही अनोखी होती है। भगवान्का प्रसंग चल रहा है, उसकी मधुर चर्चा चल रही है, उस समय यदि स्वयं भगवान् भी आ जायँ तो प्रसंग चलता रहे, भंग न होने दे।
९१-प्रियतमकी चर्चामें एक अद्भुत मिठास होती है, जिसकी चाट लग जानेपर और कुछ सुहाता ही नहीं।
९२-प्रीतिकी रीति अनोखी है। प्रभुकी प्रीतिका रस जिसने पा लिया उसे और पाना ही क्या रहा? प्रभु तो केवल प्रेम देखते हैं। स्वयं प्रभुसे बढ़कर प्रभुका प्रेम है।
९३-प्रभुके साथ हमारा व्यवहार वैसा ही होना चाहिये जैसा स्त्रीका अपने पतिके साथ। जैसे स्त्री अपने प्रेम और हावभावसे पतिको मोहित कर लेती है, वैसे ही हमें भगवान्को अपने प्रेम और आचरणसे मोहित कर लेना चाहिये। उसे अपनेमें आसक्त भी कर ले और खुशामद भी न करे। फिर तो वह एक पलके लिये भी हमारे द्वारपरसे हटनेका नहीं। वह प्रेमका भिखारी प्रेमका बंदी बना बैठा है। जायगा कहाँ।
९४-प्रभुको वशीभूत करनेका ढंग स्त्रीसे सीखना चाहिये। इसी प्रकारका सम्बन्ध उनसे जोड़ना चाहिये। यही माधुर्यभाव है। बाहरका वेष न बदले, भीतर प्रेमकी प्रगाढ़तामें उसीका बन जाय। यही उन्हें प्राप्त करनेका सर्वोत्तम उपाय है।
९५-पति पत्नीके प्यारको ठुकरा ही कैसे सकता है? इसी प्रकार प्रभु भी अपने भक्तके प्यारका तिरस्कार कैसे कर सकते हैं। ऐसा हो जानेपर उनसे हमारे बिना रहा ही कैसे जायगा? वे तो सदा प्रेमके अधीन रहते हैं। एक बार प्रभुको अपने प्रेम-पाशमें बाँध लें, फिर तो वे सदाके लिये बँध जाते हैं।
९६-दो प्रेमियोंमें यदि न बोलनेकी शर्त लग जाय तो अधिक प्रेमवाला ही हारेगा। पति-पत्नीमें यदि न बोलनेका हठ हो जाय तो वही हारेगा, जिसमें अधिक स्नेह होगा। इसी प्रकार जब भक्त और भगवान्में होड़ होती है तो भगवान्को ही हारना पड़ता है; क्योंकि प्रभुसे बढ़कर प्रेमी कोई नहीं है।
९७-जैसे नन्हें बछड़ेको छोड़कर गौ वनमें चरने जाती है, वहाँ घास चरती है, उस गौका प्रेम घासमें गौण है, बछड़ेमें मुख्य है और अपने जीवनमें अनन्य है, बछड़ेके लिये घासका एवं जीवनके लिये वह बछड़ेका भी त्याग कर सकती है। इसी प्रकार उत्तम साधक सांसारिक कार्य करते हुए भी अनन्यभावसे परमात्माका चिन्तन किया करते हैं।
९८-अनन्यप्रेमका साधारण स्वरूप यह है—एक भगवान्के सिवा अन्य किसीमें किसी समय भी आसक्ति न हो, प्रेमकी भग्नतामें भगवान्के सिवा अन्य किसीका ज्ञान ही न रहे। जहाँ-जहाँ मन जाय वहीं भगवान् दृष्टिगोचर हों। यों होते-होते अभ्यास बढ़ जानेपर अपने-आपकी विस्मृति होकर केवल एक भगवान् ही रह जायँ। यही विशुद्ध अनन्य प्रेम है।
९९-साधारण भगवत्-प्रेमी साधक अपना मन परमात्मामें लगानेकी कोशिश करते हैं, परन्तु अभ्यास और आसक्तिवश भजन-ध्यान करते समय भी उनका मन विषयोंमें चला ही जाता है। जिनका भगवान्में मुख्य प्रेम है, वे हर समय भगवान्को स्मरण रखते हुए समस्त कार्य करते हैं और जिनका भगवान्में अनन्यप्रेम हो जाता है उनको तो समस्त चराचर विश्व एक वासुदेवमय ही प्रतीत होने लगता है। ऐसे महात्मा बड़े दुर्लभ हैं (गीता ७। १९)।
१००-अनन्यप्रेमी भक्तोंमें कई तो प्रेममें इतने गहरे डूब जाते हैं कि वे लोकदृष्टिमें पागल-से दीख पड़ते हैं। किसी-किसीकी बालकवत् चेष्टा दिखायी देती है। उनके सांसारिक कार्य छूट जाते हैं। कई ऐसी प्रकृतिके भी प्रेमी पुरुष होते हैं जो अनन्यप्रेममें निमग्न रहनेपर भी महान् भागवत श्रीभरतजीकी भाँति या भक्तराज श्रीहनुमान्जीकी भाँति सदा ही ‘रामकाज’ करनेको तैयार रहते हैं। ऐसे भक्तोंके सभी कार्य लोकहितार्थ होते हैं। ये महात्मा एक क्षणके लिये भी परमात्माको नहीं भुलाते, न भगवान् ही इन्हें कभी भुला सकते हैं।
१०१-स्वामीमें अनन्यप्रेम, नित्य संयोग और उनकी प्रसन्नताके लिये ही भक्तकी सारी चेष्टाएँ होती हैं। अपने प्रेमास्पद सगुण ब्रह्मपर तन, मन, धनको और अपने-आपको न्योछावर करके वह प्रेम और आनन्दमें मुग्ध हो जाता है। केवल एकमात्र भगवान् ही उसके परम आश्रय, जीवन, प्राण, धन और आत्मा हैं। इसलिये वह उनके वियोगको एक क्षण भी नहीं सह सकता। उस प्यारे प्रेमीके नाम, रूप, गुण, प्रेम, प्रभाव, रहस्य और चरित्रोंका श्रवण, मनन और कीर्तन करता हुआ नित्य-निरन्तर उसमें रमण करता है।
१०२-जैसे कामिनीके नूपुरोंकी झनकार सुनकर कामी पुरुषके हृदयमें काम जाग्रत् हो उठता है, वैसे ही यदि प्रेमीके कानोंमें भगवन्नामकीर्तनकी ध्वनि पड़ जाती है तो वह प्रेममें विभोर हो जाता है। वह यदि किसी भगवत् रसिक महापुरुषके दर्शन कर लेता है तो उसके नेत्र गुलाबके फूलकी तरह खिल उठते हैं और उनसे झर-झर अश्रुपात होने लगता है।
१०३-प्रेमी तो प्रेमको ही देखता, प्रेमको ही सुनता और प्रेमका ही वर्णन तथा चिन्तन करता है। उसके मन, प्राण और आत्मा प्रेमकी ही गंगामें अनवरत अवगाहन करते रहते हैं।
१०४-प्रेमी सर्वत्र प्रेममय भगवान्को ही देखता है, सब कुछ भगवान्में ही देखता है, ऐसी दृष्टि रखनेवालेकी नजरसे भगवान् अलग नहीं हो सकते तथा वह भी भगवान्से अलग नहीं हो सकता।
१०५-भगवान् ऐसे भक्तका लोकोत्तर अनुराग देख अपनी महेश्वरता भूल जाते और मुग्ध होकर अपने प्राणप्रिय भक्तको निहारते रहते हैं, उसके साथ उसीके अनुरूप बनकर उसकी इच्छाके अनुकूल विग्रह धारण कर खेलते, नृत्य करते, गाते, बजाते और आनन्दित होते रहते हैं।
१०६-प्रेमी भक्त मिलन और बिछोहकी चिन्तासे भी परे होता है। उसे तो केवल प्रेम करना है, वह भी प्रेमके लिये।
१०७-प्रेमी तो सब कुछ उस प्रियतमके ही सुखके लिये करता है। उसे यदि मिलनमें सुख मिलता हो तो स्वयं ही आकर मिले। बिछोहसे दु:ख होता हो तो कभी यहाँसे दूर न जाय।
१०८-भगवत्प्रेमीका पूजन, खाना, पीना, रोना, गाना आदि सब भगवत्प्रीत्यर्थ होना चाहिये। प्रेमीका प्रेममय भगवान्के सिवा और कोई लक्ष्य न हो।
१०९-प्रेमी उस दिव्य प्रेमका साक्षात् स्वरूप होता है। उसकी वाणी प्रेमसे ओतप्रोत तथा शरीर और मन प्रेमरसमें सराबोर होते हैं। उसका रोम-रोम प्रेमानन्दसे थिरकता दिखायी देता है। उसके साथ सम्भाषण, उसका चिन्तन तथा उसके निकट गमन करनेसे अपने अंदर प्रेमके परमाणु आते हैं, उसका स्पर्श पाकर नीरस हृदयमें भी प्रेमका संचार होता है। बड़े-बड़े नास्तिक भी उसके सम्पर्कमें आनेपर सब कुछ भूलकर प्रेमदीवाने बन सकते हैं। उसके अनन्य अनुराग या अलौकिक भावोद्रेकको ठीक-ठीक हृदयंगम करानेके लिये उपयुक्त शब्द नहीं है। समझानेके लिये उसके भावको चाहे जो भी भाव कह दिया जाय, वास्तवमें वह सब भावोंसे ऊपर उठा होता है।
११०-वह अनन्यप्रेमी भक्त पूर्ण प्रेममें डूबा रहता है। भगवान्से वह भिन्न नहीं, भगवान् उससे भिन्न नहीं। इस अवस्थामें न भय है न संकोच, मान, आदर और सत्कारका भी वहाँ कुछ खयाल नहीं रहता, बड़े-छोटेका कोई लिहाज नहीं किया जाता। उन (भक्त और भगवान्)-में न कोई उत्तम है न मध्यम। दोनों समान हैं।
१११-अनन्यप्रेमीकी दृष्टिमें सर्वत्र और सदा ही दिव्य प्रेमकी अखण्ड ज्योति जगमगाती रहती है। वह सम्पूर्ण जगत् पर समानरूपसे प्रेमामृतकी वर्षा करता है। उसकी दृष्टिमें कोई घृणा या द्वेषका पात्र नहीं है। उसके लिये सर्वत्र ही प्रेमका महासागर लहराता रहता है।
११२-भगवान्के साथ प्रेमीका एक क्षणके लिये भी कभी वियोग नहीं होता। भगवान् उसके अधीन होते हैं, उसके हाथों बिके रहते हैं। उसका साथ छोड़कर कहीं जाते ही नहीं।
११३-प्रेमीको प्रभु त्याग नहीं सकते।
११४-गंगा और समुद्र मिलकर एक-से हो जाते हैं, किन्तु भगवान् और अनन्यप्रेमी भक्तका दिव्य मिलन इनसे भी विलक्षण और उत्कृष्ट है। वह अलौकिक एवं अनिर्वचनीय अवस्था है। भेद-अभेदसे परेकी फलरूपा स्थिति है। यह मिलन नित्य है।
११५-भगवान्के मिलनेपर भगवान् जब भक्तको हृदयसे लगाते हैं तब वस्त्रादिका व्यवधान भी उसको विघ्नरूप-सा प्रतीत होने लगता है। वह अव्यवधानरूपसे नित्य-निरन्तर मिलना ही पसन्द करता है और एक क्षण भी भगवान्से अलग होना नहीं चाहता।
११६-अनन्यप्रेमीका ऊपरी व्यवहार चाहे जैसा हो, भीतरसे वह एकनिष्ठ है, भगवन्मय है, इसीलिये वह भगवान्में नित्य स्थित है।
११७-अहा! अपने प्यारेकी यादमें कितना मिठास है।
११८-प्रेमास्पद प्रेमीका जितना ही निरादर करता है उतना ही वह आनन्दित होता है। प्रेमीको चाहे कितनी खोटी-खरी सुनायी जाय, कितना ही वह तिरस्कृत हो किन्तु फिर भी प्रेमास्पदके प्रति उसके मनमें अधिकाधिक प्रेम ही बढ़ता रहता है।
११९-जिसको हम बिना हिचकिचाहटके उपालम्भ दे सकें, निस्संकोच कड़ी बातें सुना सकें, वही सच्चा प्रेमी है।
१२०-यदि प्रेमास्पद प्रेमीकी चीजको उसकी सम्मति लिये बिना ही किसीको दे देता है तो प्रेमीके चित्तमें आनन्द होता है।
१२१-प्रेमीको कठिन-से-कठिन काममें यदि प्रेमास्पद नियुक्त कर दे, यहाँतक कि उसकी सम्मतिके बिना उसका बलिदान भी कर दे तो भी प्रेमी प्रसन्न ही रहता है, उसके चित्तमें इतना उल्लास होता है कि मानो उसे साक्षात् ईश्वरके दर्शन ही हो गये।
१२२-जो एक बार प्रेमसे घायल हो जाता है, उसपर कोई भी औषध काम नहीं करती।