॥ श्रीहरि:॥
शरणागति
१-भगवान्की शरणागति एक बड़े ही महत्त्वका साधन है परन्तु उसमें अनन्यता होनी चाहिये।
२-गीताके आरम्भमें अर्जुन ‘शाधि मां त्वां प्रपन्नम्’ (२। ७) कहकर भगवान्की शरण ग्रहण करता है और अन्तमें भगवान् ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’ (१८। ६६) कहकर शरणागतिका ही पूर्ण समर्थन करते हैं।
३-साधकको आवश्यकता है परमात्माके परायण होनेकी। श्रीपरमात्माकी शरण लेनेमात्रसे ही सब कुछ हो सकता है।
४-उस परमात्माके शरण होना साधकका कर्तव्य है, शरण होनेके बाद तो प्रभु स्वयं ही सारा भार सँभाल लेते हैं।
५-हमें प्रभुकी प्राप्तिके लिये घरसे तो कुछ भी नहीं देना पड़ता। भगवान्की ही चीजें उनको भेंट कर देनी है। इसमें हमारा क्या लगता है?
६-समस्त विघ्नोंसे छुटकारा पानेका मुख्य उपाय है—ईश्वरकी शरण।
७-भगवान्को यन्त्री मानकर अपनेको उनके समर्पण करके उनके हाथका यन्त्र बनकर उनके आज्ञानुसार चलना चाहिये।
८-जो समय पड़नेपर अपना सर्वस्व प्रभुके लिये निछावर करनेको तैयार रहते हैं वही श्रेष्ठ हैं।
९-शरणागतिमें प्रधानत: चार बातें साधकके लिये समझनेकी हैं—
१.सब कुछ परमात्माका समझकर उनके अर्पण करना।
२.उनके प्रत्येक विधानमें परम सन्तुष्ट रहना।
३.उनके आज्ञानुसार उन्हींके लिये समस्त कर्तव्य कर्म करना।
४.नित्य-निरन्तर स्वाभाविक ही उनका एकतार स्मरण रखना।
१०-शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा—सब उनके चारुचरणोंमें अर्पण कर दिन-रात उन्हींके चिन्तनमें लगे रहना चाहिये।
११-सब कुछ परमात्माके अर्पण कर देनेका अर्थ घर-द्वार छोड़कर संन्यासी हो जाना या कर्तव्य कर्मोंका त्यागकर कर्महीन हो बैठना नहीं है। सांसारिक वस्तुओंपर हमने भूलसे जो ममता आरोपित कर रखी है यानी उनमें जो अपनापन है, उसे उठा देना। यही उसकी वस्तु उसके अर्पण कर देना है।
१२-एक परमात्माके सिवा किसीका किसी भी कालमें कुछ भी सहारा न समझकर लज्जा, भय, मान, बड़ाई और आसक्तिको त्यागकर, शरीर और संसारमें अहंता-ममतासे रहित होकर, केवल एक परमात्माको ही अपना परम आश्रय, परम गति और सर्वस्व समझना तथा अनन्यभावसे अतिशय श्रद्धा, भक्ति और प्रेमपूर्वक निरन्तर भगवान्के नाम, गुण, प्रभाव और स्वरूपका चिन्तन करते रहना और भगवान्का भजन, स्मरण करते हुए ही उनके आज्ञानुसार समस्त कर्तव्य कर्मोंका नि:स्वार्थभावसे केवल भगवान्के लिये ही आचरण करते रहना, यही ‘सब प्रकारसे परमात्माके अनन्यशरण’ होना है।
१३-शरण, आश्रय, अनन्यभक्ति, अव्यभिचारिणी भक्ति, अवलम्बन, निर्भरता और आत्मसमर्पण आदि शब्द प्राय: एक ही अर्थके बोधक हैं।
१४-समस्त साधनोंमें परमात्माकी शरणागतिके समान सरल, सुगम, सुखसाध्य साधन अन्य कोई-सा भी नहीं प्रतीत होता। इसीलिये प्राय: सभी शास्त्रोंमें इसकी प्रशंसा की गयी है।
१५-यह समस्त जगत् उस परमात्माका है, वही यावन्मात्र पदार्थोंका उत्पन्न करनेवाला, वही नियन्त्रणकर्ता, वही आधार और वही स्वामी है, उसीने हमको हमारे कर्मवश जैसी योनि, जो स्थिति मिलनी चाहिये थी उसीमें उत्पन्नकर अपनी कुछ वस्तुओंकी सँभाल और सेवाका भार दे दिया है और हमारे लिये कर्तव्यकी विधि भी बतला दी है। परन्तु हमने भ्रमसे परमात्माके पदार्थोंको अपना मान लिया है, इसीलिये हमारी दुर्गति होती है। यदि हम अपनी इस भूलको मिटाकर यह समझ लें कि जो कुछ है सो परमात्माका है, हम तो उसके सेवकमात्र हैं, उसकी सेवा करना ही हमारा धर्म है, तो वह परमात्मा हमें ईमानदार समझकर हमपर प्रसन्न होता है और हम उसकी कृपा और पुरस्कारके पात्र होते हैं।
१६-जाति या आचरणसे कोई कैसा भी नीच या पापी क्यों न हो, भगवान्की शरणमात्रसे ही वह अनायास परमगतिको प्राप्त हो जाता है।
१७-भगवान्ने शरणागतिको जितना महत्त्व दिया है उतना अन्य किसी भी साधनको नहीं दिया।
१८-श्रीहनुमान्जीकी तरह प्रेममें विह्वल होकर अति श्रद्धासे भगवान्की शरण ग्रहण करनेसे भगवान् प्रत्यक्ष मिल सकते हैं।
१९-भक्तको भगवान्के लिये ही भगवान्के शरणागत होना चाहिये। फिर तत्त्वकी उपलब्धि होनेमें विलम्ब नहीं होगा।
२०-एक बार भी जो सच्चे हृदयसे भगवान्की शरण हो जाता है, भगवान् उसे अभय कर देते हैं, यह उनका व्रत है।
२१-पूर्ण अनन्यता होनेपर भगवान्की ओरसे तुरन्त ही इच्छित उत्तर मिलता है।
२२-केवल एक परमात्माकी शरण लेनेसे ही सारे काम सिद्ध हो सकते हैं, परन्तु शरण लेनेका काम साधकका है। शरण होनेके बाद तो प्रभु स्वयं उसका सारा भार सँभाल लेते हैं।
२३-यदि कोई किसीके परायण हो जाता है तो उसकी सारी सँभाल वही रखता है, जैसे बच्चा जबतक अपनी माताके परायण रहता है तबतक उसकी रक्षाका और सब प्रकारकी सँभालका भार माता स्वयं ही अपने ऊपर लिये रहती है।
२४-छोटा बालक अपराध करके अपनी माताकी गोदमें जा बैठता है और बड़ा चरणोंमें गिर पड़ता है। इसी प्रकार भक्त अपने परम सुहृद् परमात्माके पादपद्मोंमें गिर पड़े। फिर वे चाहे मारें या तारें इसकी कोई परवा नहीं, भगवान्के द्वारा किये हुए विधानमें सदा प्रसन्न रहे, भारी-से-भारी दु:ख पड़नेपर भी कभी विचलित न हो।
२५-जिस समय बालकके फोड़ेकी चीर-फाड़ होती है उस समय वह अपनी माताकी गोदमें सुखसे बैठा रहता है, जरा भी घबड़ाता नहीं। वह रोता हुआ भी इस बातको जानता है कि मेरी स्नेहमयी जननी कभी स्वप्नमें भी मेरा अहित नहीं कर सकती। उसका प्रत्येक विधान मेरे लिये सदा मंगलमय ही होता है। इसी प्रकार भक्त नि:शंक होकर विश्वासपूर्वक भगवान्के चरणोंमें पड़ा रहता है।
२६-हम तो प्रभुके बालक हैं। माँ बालकके दोषोंपर ध्यान नहीं देती। उसके हृदयमें बालकके लिये अपार प्यार रहता है। प्रभु यदि हमारे दोषोंका खयाल करें तो हमारा कहीं पता ही न लगे।
२७-हमें वे चाहे जैसे रखें और चाहे जहाँ रखें उनकी स्मृति अटल बनी रहनी चाहिये। उनकी राजीमें ही अपनी राजी, उनके सुखमें ही अपना सुख मानना चाहिये। प्रभु यदि हमें नरकमें रखना चाहें तो हमें वैकुण्ठकी ओर ताकना भी नहीं चाहिये, बल्कि नरकमें वास करनेमें ही परम आनन्द मानना चाहिये।
२८-सब प्रकारसे प्रभुके शरण हो जानेपर फिर उनसे इच्छा या याचना करना नहीं बन सकता। जब प्रभु हमारे और हम प्रभुके हो गये तो फिर बाकी क्या रहा!
२९-यह सारा संसार उस नटवरका क्रीड़ास्थल है, प्रभु स्वयं इसमें बड़ी ही निपुणताके साथ नाटॺ कर रहे हैं, उनके समान चतुर खिलाड़ी दूसरा कोई भी नहीं है, यह जो कुछ हो रहा है सब उन्हींका खेल है। उनके सिवा कोई भी ऐसा अद्भुत खेल नहीं कर सकता। इस प्रकार इस संसारकी सम्पूर्ण क्रियाओंको भगवान्की लीला समझकर वह शरणागत भक्त क्षण-क्षणमें प्रसन्न होता रहता है और पग-पगपर प्रभुकी दयाका दर्शन करता रहता है।
३०-शरणागत भक्त स्वयं तो उद्धाररूप हैं ही और जगत्का उद्धार करनेवाले हैं, ऐसे महापुरुषोंके दर्शन, स्पर्श, भाषण और चिन्तनसे ही मनुष्य पवित्र हो जाते हैं, वे जहाँ जाते हैं वहींका वातावरण शुद्ध हो जाता है, पृथ्वी पवित्र होकर तीर्थ बन जाती है, ऐसे ही पुरुषोंका संसारमें जन्म लेना सार्थक और धन्य है।
३१-अभिन्नदर्शी परमात्मपरायण तद्रूप भक्तोंमें कोई तो स्वामी शुकदेवजीकी तरह लोगोंके उद्धारके लिये उदासीनकी भाँति विचरते हैं, कोई अर्जुनकी भाँति भगवदाज्ञानुसार आचरण करते हुए कर्तव्य कर्मोंके पालनमें लगे रहते हैं, कोई प्रात:स्मरणीया भक्तिमती गोपियोंकी तरह अद्भुत प्रेमलीलामें मत्त रहते हैं और कोई जडभरतकी भाँति जड और उन्मत्तवत् चेष्टा करते रहते हैं।
३२-जैसे कोई प्रेमी सज्जन अपने किसी प्रेमी न्यायकारी सुहृद् सज्जनके द्वारा किये हुए न्यायको अपनी इच्छासे प्रतिकूल फैसला होनेपर भी उस सज्जनकी न्यायपरायणता, विवेकबुद्धि, विचारशीलता, सुहृदता, पक्षपातहीनता और प्रेमपर विश्वास रखकर हर्षके साथ स्वीकार कर लेता है, इसी प्रकार शरणागत भक्त भी भगवान्के कड़े-से-कड़े विधानको सहर्ष सादर स्वीकार करता है क्योंकि वह जानता है, मेरा सुहृद् अकारण करुणाशील भगवान् जो कुछ विधान करता है उसमें उसकी दया, प्रेम, न्याय और मेरी मंगलकामना भरी रहती है। वह भगवान्के किसी भी विधानपर कभी भूलकर भी मन मैला नहीं करता।
३३-बाजीगरकी कोई भी चेष्टा उसके जमूरेको अपने मनसे प्रतिकूल या दु:खदायक नहीं दीखती। वह अपने स्वामीकी इच्छाके अधीन होकर बड़े हर्षके साथ उसकी प्रत्येक क्रियाको स्वीकार करता है। इसी प्रकार भक्त भी भगवान्की प्रत्येक लीलामें प्रसन्न रहता है, वह जानता है कि यह सब मेरे नाथकी माया है। वे अद्भुत खिलाड़ी नाना प्रकारके खेल करते हैं। मुझपर तो उनकी अपार दया है जो उन्होंने अपनी लीलामें मुझे साथ रखा है—यह मेरा बड़ा सौभाग्य है जो मैं उस लीलामयकी लीलाओंका साधन बन सका हूँ, यों समझकर वह उसकी प्रत्येक लीलामें, उसके प्रत्येक खेलमें उसकी चातुरी और उसके पीछे उसका दिव्य दर्शन कर पद-पदपर प्रसन्न होता है।
३४-आनन्दमें मग्न हुआ वह भगवान्का शरणागत भक्त लीलामय भगवान्की आनन्दमयी लीलाका ही अनुकरण करता है अतएव उसके कर्म भी लीलामात्र ही हैं।
३५-परमात्माके शरणका तत्त्व जानकर भक्त भगवान्की तद्रूपताको प्राप्त हो जाते हैं।
३६-सम्पूर्ण कर्म परमात्माके अर्पण करके प्रतिपल उसे स्मरण रखना और क्षणभरकी विस्मृतिसे मणिहीन सर्प या जलसे निकाली हुई मछलीकी भाँति परम व्याकुल होकर तड़पने लगना शरणागत भक्तका स्वभाव बन जाता है।
३७-शरणागत साधकको यदि कोई भय रहता है तो वह इसी बातका रहता है कि कहीं उसके चित्तसे प्रियतम परमात्माकी विस्मृति न हो जाय। वास्तवमें वह कभी परमात्माको भूल भी नहीं सकता।
३८-शरणागत भक्तकी बात ही क्या है, भय और पाप तो उसके भी नहीं रहते जो ईश्वरका यथार्थरूपसे अस्तित्व (होनापन) ही मान लेता है।
३९-सतीशिरोमणि पतिव्रता स्त्री अपने परमप्रिय पतिकी भृकुटीकी ओर ताकती हुई सदा-सर्वदा पतिके अनुकूल ही उसकी छायाके समान चलती है, उसी प्रकार ईश्वरप्रेमी शरणागत भक्त भगवदिच्छाका अनुसरण करता है। सब कुछ उसीका समझकर उसके लिये कार्य करता है।
४०-शरणागत भक्त इस तत्त्वको जानता है कि दैवयोगसे जो कुछ आकर प्राप्त होता है वह ईश्वरके न्यायसंगत विधान और उसकी दयापूर्ण आज्ञासे होता है। इससे वह उसे परम सुहृद् प्रभुद्वारा भेजा हुआ इनाम समझकर आनन्दसे मस्तक झुकाकर ग्रहण करता है।
४१-शरणागत भक्त जो कुछ होता है उसीमें सन्तुष्ट रहता है। प्रारब्धवश अनिच्छा या परेच्छासे जो कुछ भी लाभ-हानि, सुख-दु:खकी प्राप्ति होती है वह उसको परमात्माका दयापूर्ण विधान समझकर सदा समानभावसे सन्तुष्ट, निर्विकार और शान्त रहता है।
४२-शरणागतिके रहस्यको समझनेवाले भक्तोंके लिये उद्धारकी चिन्ता करना तो दूर रहा, वह इस प्रसंगकी स्मृतिको भी पसंद नहीं करता। यदि भगवान् स्वयं कभी उसे उद्धारकी बात कहते हैं तो वह अपनी शरणागतिमें त्रुटि समझकर लज्जित और संकुचित होकर अपनेको धिक्कारता है। वह समझता है कि यदि मेरे मनमें कहीं मुक्तिकी इच्छा छिपी हुई न होती तो आज इस अप्रिय प्रसंगके लिये अवसर ही क्यों आता?
४३-शरणागतिका साधक प्रत्येक सुख-दु:खको उसका दयापूर्ण विधान मानकर प्रसन्न होता है।
४४-भगवान्का प्रिय प्रेमी शरणागत भक्त महान् दु:खरूप फलको बड़े आनन्दके साथ भोगता हुआ पद-पदपर उसकी दयाका स्मरण करता हुआ परम प्रसन्न होता रहता है।
४५-शरणागत भक्तको उद्धार होने-न-होनेसे मतलब ही क्या है? वह तो अपने-आपको मन-बुद्धिसहित उसके चरणोंमें समर्पित कर सर्वथा निश्चिन्त हो जाता है, उसे उद्धारकी परवा ही क्यों होने लगी?
४६-शरण होनेपर हमारे मनमें अपने उद्धारकी चिन्ता होती है और हम अपनेको शरणागत भी समझते हैं तो यह हमारी नीचता है, हम शरणागतिका रहस्य ही नहीं समझते।
४७-शरण ग्रहण करनेपर भी यदि शरणागतको चिन्ता करनी पड़े तो वह शरण ही कैसी? जो जिसकी शरण होता है उसकी चिन्ता उसके स्वामीको ही रहती है।
४८-अपने उद्धारकी चिन्ता तो शरणागतिके साधकके चित्तसे भी चली जाती है।
४९-जो चिन्ता करता है, अपनेको बँधा हुआ मानता है, बन्धनसे मुक्ति चाहता है वह वास्तवमें परमात्माके तत्त्वको जानकर उनके शरण नहीं हुआ।
५०-अर्पणकी सिद्धि हो जानेपर साधक बन्धनमुक्त हो जाता है, उसे किसी प्रकारकी कोई चिन्ता नहीं रहती।
५१-मायाके बन्धनसे छूटना ही सबसे बड़ा पुरस्कार है। जो कुछ है सो परमात्माका है, इस बुद्धिके आ जानेपर ममता चली जाती है और जो कुछ है सो परमात्मा ही है, इस बुद्धिसे अहंकारका नाश हो जाता है—यानी एक परमात्माको ही जगत्का उपादान और निमित्त-कारण समझ लेनेसे उसमें ममता और अहंकार (मैं और मेरा) नष्ट हो जाता है।
५२-‘मैं-मेरा’ ही बन्धन है, भगवान्का शरणागत भक्त ‘मैं-मेरा’ के बन्धनसे मुक्त होकर परमात्मासे कहता है कि बस केवल एक तू ही है और सब तेरा ही है।
५३-जो अपने-आपको भगवान्के हाथमें सौंप देता है उसके द्वारा शास्त्रनिषिद्ध कर्म तो हो ही नहीं सकते। यदि शास्त्रविरुद्ध किंचिन्मात्र भी कर्म होता है तो समझना चाहिये कि हमारी बागडोर भगवान्के हाथमें नहीं है, कामके हाथमें है।
५४-यदि सद्गुणोंकी वृद्धि होती न दीखे तो समझना चाहिये कि शरणमें अभी त्रुटि है। जैसे सूर्यकी शरण ले लेनेपर अन्धकारको कहीं भी स्थान नहीं रह जाता, वैसे ही भगवान्के शरण हो जानेपर हृदयमें किसी प्रकारका दोष रह ही नहीं सकता।
५५-जो शरणागत भक्त अपने जीवनको परमात्माके हाथोंमें सौंपकर उसके इशारेपर नाचना चाहता है उसके द्वारा पाप कैसे बन सकते हैं।
५६-भगवान्का जो शरणागत अनन्यभक्त सब तरफ, सबमें, सर्वदा भगवान्को देखता है, वह छिपकर भी पाप कैसे कर सकता है!
५७-शरणागतिके मार्गपर चलनेवाले साधकके हृदयमें दुर्गुण और दुराचार स्वत: ही नष्ट होते जाते हैं तथा सदाचार और सद्गुणका विकास भी भगवान्की दयासे अपने-आप ही होता जाता है।
५८-भक्त विचार करता है कि मुझमें जो ‘मैं’ था, वह ‘मैं’ तो प्रभुके शरण हो गया। अब तो मैं प्रभुकी कठपुतली मात्र हूँ।
५९-कठपुतलीको सूत्रधार जैसे नचाता है वह वैसे ही नाचती है। अपनी ओरसे कोई चेष्टा नहीं करती। वैसे ही वह भक्त अपने अहंकारसे कुछ भी नहीं करता। उसके द्वारा जो कुछ होता है, सब भगवान् ही करते हैं, इसीलिये उसकी प्रत्येक क्रिया परम पवित्र और आदर्श होती है। उससे ऐसा कोई कार्य होता ही नहीं जो भगवान्की आज्ञा और रुचिके प्रतिकूल हो।
६०-स्वामीके पूर्णतया शरण होनेपर तो स्वामीके इशारेमात्रसे ही उनके हृदयका भाव समझमें आने लगता है। फिर तो वह प्रेमपूर्वक आनन्दके साथ उसीके अनुसार काम करने लगता है।
६१-दैवयोगसे अपने मनके अत्यन्त विपरीत भारी संकट आ पड़नेपर भी भक्त उस संकटको और दयामय स्वामीके दयापूर्ण विधानको पुरस्कार समझकर अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करता है।
६२-जो पुरुष सब प्रकारसे अपने-आपको भगवान्के अर्पण कर देता है, उसकी सारी क्रियाएँ पतिव्रता स्त्रीकी भाँति स्वामीके अनुकूल होने लगती हैं।
६३-जैसे शेषनागजी अपने शरीरकी शय्या बनाकर निरन्तर उसे भगवान्की सेवामें लगाये रखते हैं, जैसे राजा शिबिने अपना शरीर कबूतरकी रक्षाके लिये लगा दिया, जैसे मयूरध्वज राजाके पुत्रने अपने शरीरको प्रभुके कार्यमें अर्पण कर दिया, वैसे ही प्रभुकी इच्छा, आज्ञा, प्रेरणा और संकेतके अनुसार लोक-सेवाके रूपमें या अन्य किसी रूपमें शरीरको प्रभुके कार्यमें लगा देना ही शरीरका प्रभुके अर्पण करना है।
६४-सब प्रकारसे भगवान्के शरण होनेके लिये बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और शरीर—इन सबको सम्पूर्णरूपसे भगवान्के अर्पण कर देनेकी आवश्यकता है।
बुद्धिका अर्पण
६५-भगवान् ‘हैं’ इस बातका बुद्धिमें प्रत्यक्षकी भाँति नित्य-निरन्तर निश्चय रहना, संशय, भ्रम और अभिमानसे सम्पूर्णतया रहित होकर भगवान्में परम श्रद्धा करना, बड़ी-से-बड़ी विपत्ति पड़नेपर भी भगवान्की आज्ञासे तनिक भी न हटना यानी प्रतिकूल भाव न होना तथा पवित्र हुई बुद्धिके द्वारा गुण और प्रभावसहित भगवान्के स्वरूप और तत्त्वको जानकर उस तत्त्व और स्वरूपमें बुद्धिका अविचलभावसे नित्य-निरन्तर स्थित रहना। यह बुद्धिका भगवान्में अर्पण करना है।
मनका अर्पण
६६-प्रभुकी अनुकूलतामें अनुकूलता, उनके इच्छानुसार ही इच्छा और उनकी प्रसन्नतामें ही प्रसन्न होना, प्रभुके मिलनेकी मनमें उत्कट इच्छा होना, केवल प्रभुके नाम, रूप, गुण, प्रभाव, रहस्य और लीला आदिका ही मनसे नित्य-निरन्तर चिन्तन करना, मन प्रभुमें रहे और प्रभु मनमें वास करें, मन प्रभुमें रमे और प्रभु मनमें रमण करें। यह रमण अत्यन्त प्रेमपूर्ण हो और वह प्रेम भी ऐसा हो कि जिसमें एक क्षणका भी प्रभुका विस्मरण जलके वियोगमें मछलीकी व्याकुलतासे भी बढ़कर मनमें व्याकुलता उत्पन्न कर दे। यह भगवान्में मनका अर्पण करना है।
इन्द्रियोंका अर्पण
६७-कठपुतली जैसे सूत्रधारके इशारेपर नाचती है, उसकी सारी क्रिया स्वाभाविक ही सूत्रधारकी इच्छाके अनुकूल ही होती है, इसी प्रकार अपनी सारी इन्द्रियोंको भगवान्के हाथोंमें सौंपकर उनकी इच्छा, आज्ञा, प्रेरणा और संकेतके अनुसार कार्य होना और इन्द्रियोंद्वारा जो कुछ भी क्रिया हो उसे मानो प्रभु ही करवा रहे हों ऐसे समझते रहना—यही अपनी इन्द्रियोंको प्रभुके अर्पण करना है।
शरीरका अर्पण
६८-प्रभुके चरणोंमें प्रणाम करना, यह शरीर प्रभुकी सेवा और उनके कार्यके लिये ही है, ऐसा समझकर प्रभुकी सेवामें और उनके कार्यमें शरीरको लगा देना। खाना-पीना, उठना-बैठना, सोना-जागना सब कुछ प्रभुके कार्यके लिये होना यह शरीरका अर्पण है।
६९-अपनी बागडोर भगवान्के हाथमें सौंप देनी चाहिये,जिस प्रकार भगवान् करवावें वैसे ही कठपुतलीकी भाँति कर्म करे।
७०-भगवान्के शरणार्थीको ऐसा मानना चाहिये कि भगवान् जो कुछ करते हैं, सब मंगल ही करते हैं। उनके प्रत्येक विधानमें दया और न्याय मानकर आनन्दित होना चाहिये।
७१-जैसे बच्चा अपनेको और अपनी सारी क्रियाओंको माताके प्रति सौंपकर मातृपरायण होता है, इसी प्रकार हमें भी अपने-आपको और अपनी सारी क्रियाओंको परमात्माके हाथोंमें सौंपकर उनके चरणोंमें पड़ जाना चाहिये।
७२-जो पुरुष बच्चेकी भाँति भगवान्पर भरोसा करता है, भगवान् उसकी उन्नति और रक्षाकी व्यवस्था स्वयं करते हैं, उसे तो केवल निमित्त बनाते हैं।
७३-वे सर्वशक्तिमान्, सर्वान्तर्यामी, परमदयालु, सर्वज्ञ प्रभु अपने आश्रितको कभी गिरने देते ही नहीं।
७४-बच्चेकी तरह परम श्रद्धा और विश्वासके साथ जो अपने-आपको परमात्माकी गोदमें सौंप देता है, वही पुरुष परमात्माकी कृपाका इच्छुक और पात्र समझा जाता है और इसके फलस्वरूप वह परमात्माकी दयासे परमात्माको प्राप्त हो जाता है।
७५-जो लोग अपने पुरुषार्थसे भगवान्को पानेमें अपनेको सर्वथा असमर्थ अनुभव करते हैं, जो निरन्तर केवल उन्हींकी कृपाकी बाट जोहते रहते हैं तथा मातृपरायण शिशुकी भाँति उन्हींपर सर्वथा निर्भर हो जाते हैं, उनसे मिलनेके लिये भगवान् स्वयं आतुर हो उठते हैं और उसी प्रकार दौड़ पड़ते हैं जैसे नयी ब्यायी हुई गौ अपने बछड़ेसे मिलनेके लिये दौड़ पड़ती है।
७६-भगवान्के आश्रयसे स्वत: ही सद्गुण और सदाचारकी वृद्धि होने लगती है।
७७-सारे गुणोंकी प्राप्ति भगवच्छरणागतिसे हो जाय इसमें तो कहना ही क्या, ये सब तो भगवान्के प्रेमियोंके सहवाससे ही प्राप्त हो सकते हैं।
७८-शरणागतिकी दृढ़ताके लिये साधकको सदा आत्मनिरीक्षण करते रहना चाहिये। वह अपने मनको सदा देखता रहे कि उसमें सद्गुणोंका और भगवान्का वास हो रहा है या विषयोंका। वह ध्यान रखे कि उसकी वाणी भगवद्गुणानुवादका रसानुभव कर रही है या नहीं। उसकी क्रियाएँ भगवान्के बदले कहीं भोगोंके लिये तो नहीं हो रही हैं?
७९-जो अपने-आपको भगवान्के अर्पण कर देता है, उसके सारे आचरण भगवत्कृपासे भगवान्के अनुकूल ही होते हैं—यही शरणागतिकी कसौटी है।
८०-जो कुछ संसार प्रतीत होता है वह भी भगवान्की लीला है। भगवान् ही लीला कर रहे हैं। उनकी रुचिके अनुसार ही लीलावत् काम करना चाहिये।
८१-मालिककी इच्छासे ही सब काम होते हैं। अत: मालिक जैसा करें, उसीमें प्रसन्न रहना चाहिये। उसके विपरीत इच्छा ही नहीं करनी चाहिये।
८२-अपने मनके अनुसार करना ही शरणागतिमें दोष लगाना है। इसलिये अपनी इच्छाको सर्वथा छोड़कर जिससे स्वामी प्रसन्न हों वही काम स्वामीके लिये लीलामात्र मानकर करना चाहिये।
८३-आपलोग अपने साधनके समयका थोड़ा सुधार कर लें तो कल्याण हो सकता है। ईश्वरकी शरण लेनेसे काम बना पड़ा है, विचारनेकी बात है। हमलोगोंका समय प्राय: व्यर्थ व्यतीत होता है।
८४-महात्माकी शरण लेनेके बाद तो भजन-ध्यान होनेमें कुछ भी कठिनता नहीं रहती और स्वभाव भी स्वत: ही सुधर जाता है। चित्तमें चिन्ता या किसी प्रकारकी इच्छा हो जानेसे तो शरणागतिमें दोष आता है।
८५-भगवान्का सब समय चिन्तन करनेसे ही शरण हुआ जाता है।
८६-संसार सभी मिथ्या है, यों जानकर निरन्तर नारायणके चिन्तनकी शरण लेनी चाहिये।
८७-संसार मिथ्या है। भगवान्की लीला है। उसे सच्चा समझनेसे आसक्ति होकर इच्छा उत्पन्न होनेसे मनुष्यमें बहुत-से दोष आ जाते हैं। इसलिये भगवान्की शरण लेनी ही उत्तम है।
८८-नारायणकी शरण होनी चाहिये, जो कुछ होता है सो उसीकी आज्ञासे होता है।
८९-मालिक अपने-आप चाहे सो करें, मैं निश्चिन्त हूँ। ऐसी भावना होनी चाहिये।
९०-जो सब समय भगवान् नारायणके चिन्तनकी शरण रखेगा, एक पल भी उसे नहीं छोड़ेगा और भगवान्के नाम-रूपका चिन्तन करते हुए ही मरेगा वह तो भगवान्को ही प्राप्त होगा। वह मृत्युरूपी संसार-सागरमें कभी न डूबेगा। उसको मृत्यु कभी नहीं मार सकेगी।
९१-भगवान्का काम करे और उसका भार उनपर ही छोड़ देवे।
९२-सब कुछ मालिकका है, ऐसा समझना चाहिये। स्वामी अपनी वस्तुको चाहे जिस प्रकार बरते, सब उसीका है।
९३-भगवान्के शरणागत होनेसे उनकी कृपासे आप ही ऊँचे-से-ऊँचे साधन करनेकी शक्ति आ जाती है। इस बातपर विश्वास होना चाहिये।
९४-जीव जहाँतक चेत नहीं करता, वहींतक मायाकी प्रबल शक्ति मानकर वह उससे दबा रहता है। यदि चेतकर परमात्माकी शरण ले ले और उसका स्वरूप जान ले तो फिर मायाकी शक्ति कुछ भी न रहे।
९५-भगवदर्पण-बुद्धिमें मोहयुक्त कर्तापनका अभिमान नहीं रहता, अभिमानशून्य निर्दोष कर्तापनमात्र रहता है, वह भी साधन करते-करते अन्तमें समाप्त हो जाता है।
९६-जिस प्रकार नौकर सब काम करता हुआ भी लाभ-नुकसान सब मालिकका समझता है, वेतनके सिवा अपना कुछ भी नहीं समझता, इसी प्रकार सब कुछ भगवान्का समझना चाहिये और जो कुछ मोटा खाना, मोटा पहनना मिले, उसीको भगवान्का प्रसादरूप वेतन समझना चाहिये।
९७-अपना यह शरीर भी प्रभुके प्रसादसे ही बना है, अतएव यह भी मालिकका ही है। इस प्रकार समझनेवाला नौकर मालिकको बहुत ही प्रिय होता है। ऐसा विचारकर उस प्रभुका सच्चा सेवक बनना चाहिये।
९८-माया तो अति दुस्तर ही है, परन्तु भगवान्की शरण लेनेके बाद दुस्तर नहीं रह जाती।
९९-भगवत्प्राप्ति तो भगवान्के भजन, ध्यानके तीव्र अभ्यास करनेसे ही हो सकती है और वह नारायणके आश्रयपर पुरुषार्थ करनेसे सभी जगह हो सकती है।
१००-शरणका साधारण स्वरूप यह है—
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श्रीभगवान्के अनुकूल होना और उनकी इच्छाके अनुसार चलना।
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श्रीभगवान्के नाम, रूप और गुणोंको हर समय याद रखना।
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जो कुछ सुख या दु:ख प्राप्त हो उसमें आनन्द मानना। उसमें भगवान्की दया समझना और उनका किया हुआ विधान समझकर प्रसन्न रहना। मन मलिन न करना।
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अपने कल्याणके लिये भगवान्पर ही निर्भर रहना। कुछ भी चिन्ता नहीं करना। भगवान्पर पूरा विश्वास रखना और अपनेको उनके चरणोंकी शरणमें समझना।
१०१-निर्भयता, धीरता, गम्भीरता, सन्तोष, शान्ति और प्रसन्नता आदि गुण शरणापन्न पुरुषमें स्वाभाविक आ जाते हैं।
१०२-अपना सर्वस्व भगवान्को अर्पण करनेसे भगवान्के सर्वस्वका मालिक वह हो जाता है।