श्रद्धा
१-जिसका अन्त:करण जितना स्वच्छ यानी मल-दोषसे रहित होता है, उतनी ही उसमें श्रद्धा होती है।
२-श्रद्धा ही कल्याणमें परम कारण है, इसलिये आत्माका कल्याण चाहनेवाले पुरुषोंको श्रद्धाकी वृद्धिके लिये विशेष कोशिश करनी चाहिये।
३-श्रद्धाके अनुसार उत्साह और उत्साहके अनुसार ही साधनमें तत्परता होती है और उस तत्परतासे मन और इन्द्रियोंके संयमकी भी सामर्थ्य हो जाती है।
४-भगवान्के तथा महापुरुषोंके प्रभाव और गुणोंको सुनकर भी श्रद्धा नहीं होती—इसमें कारण है अन्त:करणकी मलिनता और तदनुकूल चेष्टा न होनेमें कारण है श्रद्धाका अभाव।
५-अन्त:करणकी मलिनता दूर करनेका उपाय इस समय सबसे बढ़कर भगवान्के नामका जप है। इसलिये कैसे भी हो—हठसे या प्रेमसे—नाम-जप करता रहे। नाम-जपसे अन्त:करणकी मलिनता नष्ट हो जायगी, उसमें सात्त्विक श्रद्धा उत्पन्न होगी और फिर भगवान् तथा महात्माओंमें आप ही श्रद्धा हो जायगी और उनके कथनानुसार तत्परतासे चेष्टा होने लगेगी।
६-अन्त:करणकी स्वच्छतासे श्रद्धा होती है। श्रद्धासे साधनमें तत्परता होती है, तत्परतासे मन और इन्द्रियोंका निरोध होकर परमात्माके स्वरूपमें निरन्तर ध्यान होता है, उस ध्यानसे परमात्माके तत्त्वका यथार्थ ज्ञान होता है और ज्ञानसे परम शान्तिकी प्राप्ति होती है। इसीको भगवत्प्राप्ति, परमधामकी प्राप्ति आदि नामोंसे गीतामें बतलाया गया है।
७-जिसका ऐसा विश्वास होता है कि मैं भगवान्की शरण हूँ—मेरी धारणाको दृढ़ और अन्त:करणकी शुद्धि भगवान् ही करते हैं, उसकी हो जाती है।
८-भगवान्में श्रद्धा और प्रेम हो जानेपर वे न मिलें ऐसा कभी हो नहीं सकता। बाध्य होकर भगवान् अपने श्रद्धालु भक्तकी श्रद्धाको फलीभूत करते ही हैं। जबतक उनकी कृपापर पूरा विश्वास नहीं होता तबतक प्रभुका प्रसाद हमें कैसे प्राप्त हो सकता है।
९-भगवान्के दर्शनमें जो विलम्ब हो रहा है उसका एकमात्र कारण दृढ़ विश्वासका अभाव ही है। चाहे जिस प्रकार निश्चय हो जाय, निश्चय हो जानेपर भगवान् न आवें ऐसा हो नहीं सकता।
१०-वास्तविक श्रद्धा इतनी बलवती होती है कि भगवान्को बाध्य होकर उस श्रद्धाको फलीभूत करनेके लिये प्रकट होना पड़ता है। पारस यदि पारस है और लोहा यदि लोहा है तो स्पर्श होनेपर सोना होगा ही।
११-श्रद्धावान्को भगवान्की प्राप्ति होती है। श्रद्धालु भक्तकी कमीकी पूर्ति करके भगवान् उसके कार्यको सिद्ध कर देते हैं। श्रद्धा होनेपर सारी कमीकी पूर्ति भगवान्की कृपासे अपने-आप हो जाती है।
१२-भगवन्निष्ठा भगवान्को बलात् अपना ऋणी बना लेती है।
१३-जो उनकी छोटी-सी-छोटी आज्ञाका पालन करनेके लिये अपने सर्वस्वको निछावर करनेको तैयार रहते हैं, भगवान् उनके ऋणी हो जाते हैं।
१४-ईश्वरकी प्राप्तिमें खूब विश्वास रखे। ऐसा विचार करे कि मेरे और कोई आधार नहीं है, केवल भगवान्की दयालुता देखकर मुझे पूरा भरोसा है कि वे अवश्य मेरी भी सुधि लेंगे।
१५-कल्याणमें श्रद्धा ही प्रधान है।
१६-उस परम प्यारेकी मनमोहिनी मूर्तिका साक्षात् दर्शन करनेवाले एवं उसके तत्त्वको भलीभाँति जाननेवाले पुरुषोंद्वारा ईश्वरके गुण, प्रेम और प्रभावकी बातोंको प्रेमसे सुनने एवं समझनेसे ईश्वरमें तर्करहित विशुद्ध श्रद्धा उत्पन्न हो सकती है—
(१) राजा द्रुपदकी महादेवजीके वचनोंमें उत्तम श्रद्धा थी। महादेवजीके वचनसे राजा द्रुपदने अपनी कन्याको पुत्र मानकर उसका विवाह भी कर दिया। (२) जबालाके पुत्र सत्यकामकी गुरुके वचनोंमें, (३) शुकदेवजीकी राजा जनकके वचनोंमें, (४) द्रोणाचार्यकी महाराज युधिष्ठिरके वचनोंमें उत्तम श्रद्धा थी।