Hindu text bookगीता गंगा
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अहम‍्

प्रश्न—अहम‍्को करण भी कहा है और कर्ता भी कहा है। करण कर्ता कैसे हो सकता है?

उत्तर—वास्तवमें अहम‍् करण है, कर्ता तो हम मान लेते हैं—‘कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३।२७)॥ १०॥

प्रश्न—मैंपन भूलसे माना हुआ है तो यह भूल किसमें है?

उत्तर—माननेवालेमें है। जिसने एकदेशीयताको स्वीकार किया है, उसमें है। यह भूल अनादि है, पर इसका अन्त होता है॥ ११॥

प्रश्न—मन, बुद्धि और अहम‍्के संस्कार कैसे दूर हों?

उत्तर—मन-बुद्धि-अहम‍्को छेड़ो मत। उनको मत देखो, एक ‘है’ को देखो। एकदेशीयपना मिट जाय—यह भी मत देखो। कुछ भी मत देखो, चुप हो जाओ, फिर सब स्वत: ठीक हो जायगा। समुद्रमें बर्फके ढेले तैरते हों तो उनको न गलाना है, न रखना है। इसीको सहजावस्था कहते हैं॥ १२॥

प्रश्न—अहम‍् रूपी अणु टूटना कठिन क्यों दीखता है?

उत्तर—संयोगजन्य सुखकी इच्छाके कारण ही अहंता मिटनी कठिन दीखती है। जीते रहें और सुख-सुविधासे रहें—इसपर अहंता टिकी हुई है॥ १३॥

प्रश्न—‘मैं ज्ञानी हूँ’ और ‘मैं भक्त हूँ’—दोनोंमें अहंभाव समान है, फिर फर्क क्या हुआ?

उत्तर—फर्क यह है कि भक्तिमें तो भगवान‍्का सहारा है, पर ज्ञानमें किसका सहारा है? भगवान‍्का सहारा रहनेके कारण भक्तमें कुछ कमी भी रह जाय, तो भी उसका पतन नहीं होता*॥ १४॥

* बाध्यमानोऽपि मद्भक्तो विषयैरजितेन्द्रिय:।
प्राय: प्रगल्भया भक्त्या विषयैर्नाभिभूयते॥
(श्रीमद्भा० ११।१४।१८)
‘उद्धवजी! मेरा जो भक्त अभी जितेन्द्रिय नहीं हो सका है और संसारके विषय उसे बार-बार बाधा पहुँचाते रहते हैं, अपनी ओर खींचते रहते हैं, वह भी प्रतिक्षण बढ़नेवाली मेरी भक्तिके प्रभावसे प्राय: विषयोंसे पराजित नहीं होता।’

प्रश्न—बिना अहंकारके निषिद्ध कर्म हो जाय और अहंकारपूर्वक शुभ कर्म हो जाय तो दोनोंमें क्या ठीक है?

उत्तर—अहंकाररहित होनेपर तो कोई भी कर्म लागू नहीं होता*, पर अहंकारके रहते हुए शुभकर्म भी बन्धनकारक हो जाता है॥ १५॥

* यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥
(गीता १८।१७)
‘जिसका अहंकृतभाव (‘मैं कर्ता हूँ’—ऐसा भाव) नहीं है और जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती, वह युद्धमें इन सम्पूर्ण प्राणियोंको मारकर भी न मारता है और न बँधता है।’

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