आनन्द
प्रश्न—सात्त्विक सुख, शान्ति और आनन्दमें क्या फर्क है?
उत्तर—चिन्मयताके सम्बन्धसे (कीर्तन आदिमें) ‘सात्त्विक सुख’ मिलता है। सात्त्विक सुखका भोग न करनेसे ‘शान्ति’ मिलती है। शान्तिका भी उपभोग न करनेसे ‘आनन्द’ मिलता है।
सात्त्विक सुखमें गुण है, शान्ति और आनन्द गुणातीत हैं।
संसारके त्यागसे शान्ति और परमात्माकी प्राप्तिसे आनन्द मिलता है॥ १६॥
प्रश्न—सांसारिक सुख और पारमार्थिक आनन्दमें क्या अन्तर है?
उत्तर—सांसारिक सुख दु:खकी अपेक्षासे है अर्थात् सांसारिक सुखके साथ दु:ख भी है। परन्तु आनन्द निरपेक्ष है, उसके साथ दु:खका मिश्रण नहीं है। सांसारिक सुखमें विकार है, पर आनन्द निर्विकार है। सांसारिक सुख विषयेन्द्रिय-संयोगजन्य है, पर आनन्द संयोगजन्य नहीं है। अत: सांसारिक सुखमें तो भभका है, पर आनन्दमें भभका नहीं है, प्रत्युत वह सम, एकरस, शान्त, निर्विकार है। तात्पर्य है कि विकार, दु:ख, परिवर्तन, कमी, हलचल, विक्षेप, विषमता, पक्षपात आदिका न होना ही ‘आनन्द’ है।
आनन्द दो प्रकारका होता है, अखण्ड आनन्द (निजानन्द) और अनन्त आनन्द (परमानन्द)। मुक्तिका आनन्द ‘अखण्ड आनन्द’ और प्रेमका आनन्द ‘अनन्त आनन्द’ है। अखण्ड आनन्द सम, शान्त, एकरस रहता है और अनन्त आनन्द प्रतिक्षण वर्धमान होता है। अत: प्रेमका आनन्द मुक्तिके आनन्दसे बहुत विलक्षण है। मुक्तिमें तो केवल सांसारिक दु:ख मिटता है और स्वयं वैसा-का-वैसा रहता है, पर प्रेममें स्वयंका अपने अंशी परमात्माकी ओर खिंचाव होता है।
यदि साधक अपना आग्रह न रखे तो शान्तरस अखण्डरसमें और अखण्डरस अनन्तरसमें स्वत: लीन होता है॥ १७॥
प्रश्न—‘सत्’ (अपनी सत्ता)-का अनुभव तो सबको होता है, पर ‘चित्’ और ‘आनन्द’ का अनुभव सबको नहीं होता, इसमें क्या कारण है?
उत्तर—सत् से चित् स्थूल है और चित् से आनन्द स्थूल है। सत् जितना व्यापक है, उतना चित् नहीं और चित् जितना व्यापक है, उतना आनन्द नहीं। इसलिये जैसा सत् का अनुभव होता है, वैसा चित् का नहीं होता और जैसा चित् का अनुभव होता है, वैसा आनन्दका नहीं होता। चित् और आनन्दमें लौकिक चित् और आनन्द भी आ जाता है, इसलिये साधारण लोग क्रियाशील वस्तुको चेतन तथा लौकिक सुखको आनन्द मान लेते हैं।
सत् सब जगह प्रकट है, चित् जीवोंमें प्रकट है और आनन्द तत्त्वज्ञानीमें प्रकट है॥ १८॥