॥ श्रीहरि:॥
अर्पण
प्रश्न—अर्पण करनेका क्या तात्पर्य है?
उत्तर—अपनापन छोड़ देना॥ १॥
प्रश्न—भगवान्को सर्वस्व अर्पण करनेके बाद क्या पूर्व संस्कारवश निषिद्ध कर्म हो सकता है?
उत्तर—नहीं हो सकता॥ २॥
प्रश्न—क्या भूलवश ऐसा अहंकार हो सकता है कि हमने प्रभुको सर्वस्व अर्पण कर दिया?
उत्तर—नहीं हो सकता। यदि अभिमान होता है तो वास्तवमें पूर्ण समर्पण हुआ ही नहीं। पदार्थोंको भूलसे अपना माना था, वह भूल मिट गयी तो अभिमान कैसा?॥ ३॥
प्रश्न—सर्वस्व अर्पण करनेसे गुणोंके साथ-साथ दोष भी समर्पित हो जायँगे, जैसे मकान बेचनेपर उसमें रहनेवाले साँप-बिच्छू भी उसके साथ चले जाते हैं?
उत्तर—अग्निमें जो भी डाला जाय, वह जलकर अग्निरूप ही हो जाता है। इसीलिये गीतामें आया है—‘शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनै:’ (९।२८) ‘इस प्रकार मेरे अर्पण करनेसे तू कर्मबन्धनसे और शुभ (विहित) और अशुभ (निषिद्ध) सम्पूर्ण कर्मोंके फलोंसे तू मुक्त हो जायगा।’ ‘अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि’ (१८।६६) ‘मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा’॥ ४॥