Hindu text bookगीता गंगा
होम > प्रश्नोत्तर मणिमाला > भगवद्दर्शन

भगवद्दर्शन

प्रश्न—भगवान‍्के दर्शन कब होते हैं?

उत्तर—इसमें तीन बातें हैं—(१) कभी व्याकुलता हो और कभी निश्चिन्तता हो तो ऐसा होते-होते कभी दर्शन हो जाते हैं (२) कुछ भी इच्छा न हो, न संसारकी,न परमात्माकी, तब दर्शन हो जाते हैं और (३) केवल व्याकुलता हो जाय तो दर्शन हो जाते हैं।

भगवान‍्को हमसे कोई काम लेना हो तो वे अपनी इच्छासे भी दर्शन दे देते हैं। भगवान् दर्शन दें—यह हमारे हाथकी बात नहीं है, पर ‘हम भगवान‍्के हैं, भगवान् हमारे हैं’—यह मानना हमारे हाथकी बात है। जो हाथकी बात है, उसको मान लें तो फिर किसीकी जरूरत नहीं!॥ २२९॥

प्रश्न—भगवान‍्के दर्शनसे क्या होता है?

उत्तर—भक्त मुक्ति, ज्ञान, प्रेम आदि जो चाहता है, वे सब दर्शन करनेसे मिल जाता है। यदि भक्त अपनी मान्यताका आग्रह न रखे तो दर्शन होनेपर उसको तत्त्वज्ञान हो जायगा*। भगवान‍्का स्वभाव है कि वे किसीकी मान्यताको नहीं तोड़ते।

* मम दरसन फल परम अनूपा।
जीव पाव निज सहज सरूपा॥
(मानस, अरण्य० ३६। ५)

दर्शन होनेपर तत्त्वज्ञान हो अथवा न हो, भक्तमें कोई कमी नहीं रहती। अगर भक्त भगवान‍्के परायण रहता है तो उसको तत्त्वज्ञान करानेकी, उसकी कमी दूर करनेकी जिम्मेवारी भगवान‍्पर होती है। भक्तमें तो भगवान‍्को जाननेकी जिज्ञासा ही नहीं होती॥ २३०॥

प्रश्न—ऐसे कई सन्त हुए हैं, जिन्होंने भगवान‍्के दर्शनको महत्त्व नहीं दिया, इसका क्या कारण है?

उत्तर—अधिक प्रेम होनेपर दर्शनकी इच्छा ही नहीं होती। कारण कि प्रेममें एक रस, मादकता होती है, भक्त उसीमें मस्त रहता है।

प्रेमकी अपेक्षा दर्शन अनित्य होता है। प्रेम तो नित्य-निरन्तर रहता है, पर दर्शन नित्य नहीं होता। इसलिये चतुर भक्त प्रेम ही चाहते हैं। असली रस प्रेममें ही है, मिलने या न मिलनेमें नहीं। जबतक प्रेमास्पदसे मिलनेकी इच्छा है, तबतक असली प्रेम जाग्रत् नहीं हुआ। असली प्रेम जाग्रत् होनेपर प्रेमास्पद मिले या न मिले, कोई इच्छा नहीं रहती॥ २३१॥

प्रश्न—शूर्पणखा, दुर्योधन, शकुनि आदिने भगवान‍्के साकार रूप (श्रीराम और श्रीकृष्ण)-के दर्शन किये थे, फिर उनमें काम-क्रोधादि दोष नष्ट क्यों नहीं हुए?

उत्तर—वास्तवमें उन्होंने भगवान‍्के दर्शन किये ही नहीं थे। वे भगवान् राम और कृष्णको ईश्वररूपसे न मानकर मनुष्यरूपसे ही देखते थे, फिर ईश्वर-दर्शन कैसा? उनके भीतर ईश्वरभाव अथवा भक्तिभाव था ही नहीं। अत: उनको ईश्वररूपसे ईश्वर नहीं मिला। सम्पूर्ण जगत् भी ईश्वररूप ही है, पर मनुष्य मानते कहॉँ हैं!॥ २३२॥

प्रश्न—परमात्मप्राप्तिमें कोई कारक या कर्ता नहीं चलता; परन्तु सन्तोंके द्वारा दूसरेको भगवान‍्के दर्शन करवानेकी बात भी आती है, इसमें क्या कारण है?

उत्तर—यह बात लोगोंकी दृष्टिसे कही गयी है, वास्तविक नहीं है। भगवान‍्के दर्शन करना और करवाना हाथकी बात नहीं है। भगवान् कृपापूर्वक अपनी मरजीसे ही दर्शन देते हैं—

सोइ जानइ जेहि देहु जनाई।
जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥
तुम्हरिहि कृपॉँ तुम्हहि रघुनंदन।
जानहिं भगत भगत उर चंदन॥
(मानस, अयोध्या० १२७। २)

कर्ता तो स्वतन्त्र होता है—‘स्वतन्त्र:कर्ता’ (पाणि०अ०१।४।५४), जबकि भगवद्दर्शन करवानेवाला स्वतन्त्र नहीं होता। भगवान‍्से प्रार्थना हो सकती है, पर उनके ऊपर शासन नहीं हो सकता। अगर खुदकी इच्छा हो तो सन्तोंकी कृपा भगवद्दर्शनमें सहायक हो सकती है॥ २३३॥

प्रश्न—भगवान‍्के दर्शन हों और वे कहें कि वर मॉँगो, पर कुछ मॉँगे नहीं तो क्या फल होगा?

उत्तर—माँगनेसे वस्तुके साथ सम्बन्ध होता है और कुछ न माँगनेसे भगवान‍्के साथ सम्बन्ध होता है। अत: जो कुछ नहीं माँगता, उसको भगवान् अपने-आपको दे देते हैं अर्थात् उसके अधीन हो जाते हैं!॥ २३४॥

प्रश्न—भगवान‍्के दर्शन होनेपर भक्त स्तुति करता है या स्तुति होती है?

उत्तर—स्तुति करता नहीं, प्रत्युत स्तुति होती है॥ २३५॥

अगला लेख  > भगवत्प्राप्ति