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भगवत्प्राप्ति

प्रश्न—जब भगवत्प्राप्तिके लिये ही मनुष्यशरीर मिला है तो फिर भगवत्प्राप्ति कठिन क्यों दीखती है?

उत्तर—भोगोंमें आसक्ति रहनेके कारण! भगवत्प्राप्ति कठिन नहीं है, भोगोंकी आसक्तिका त्याग कठिन है॥ २३६॥

प्रश्न—भगवत्प्राप्ति कठिन कहें अथवा भोगासक्तिका त्याग कठिन कहें, बात तो एक ही हुई?

उत्तर—नहीं, बहुत बड़ा अन्तर है। भगवत्प्राप्तिको कठिन माननेसे साधक श्रवण, मनन, जप, स्वाध्याय आदिमें ही तेजीसे लगेगा और भोगासक्तिके त्यागकी तरफ ध्यान नहीं देगा। वास्तवमें भगवान् तो प्राप्त ही हैं, केवल संसारके सम्बन्धका त्याग करना है॥ २३७॥

प्रश्न—संसारके सम्बन्धका त्याग कैसे होगा?

उत्तर—जोरदार जिज्ञासा हो अथवा आर्तभावसे रोकर प्रार्थना की जाय तो संसारका सम्बन्ध छूट जायगा। भगवान‍्की कृपासे कभी अचानक विवेक जाग्रत् हो जायगा और संसारकी आसक्ति छूट जायगी॥ २३८॥

प्रश्न—भगवत्प्राप्ति सुगम कैसे है?

उत्तर—भगवान् नित्यप्राप्त हैं। वे प्रत्येक देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति और घटनामें परिपूर्ण हैं। उनकी प्राप्ति जड़ता (शरीर-संसार)-के द्वारा नहीं होती, प्रत्युत जड़ताके त्यागसे होती है। परन्तु नाशवान् संसारकी तरफ दृष्टि रहनेसे, नाशवान् सुखकी आसक्ति रहनेसे नित्यप्राप्त परमात्माका अनुभव नहीं होता। यह जानते हैं कि शरीर-संसार नाशवान् है, फिर भी इस जानकारीको आदर नहीं देते! वास्तवमें ‘शरीर-संसार नाशवान् हैं’—इसको सीख लिया है, जाना नहीं है। इसलिये नाशवान् जानते हुए भी सुख-लोलुपताके कारण उसमें फँसे रहते हैं। वास्तवमें नित्यनिवृत्तकी निवृत्ति करनी है और नित्यप्राप्तकी प्राप्ति करनी है॥ २३९॥

प्रश्न—नित्यनिवृत्तकी निवृत्ति और नित्यप्राप्तकी प्राप्ति करना क्या है?

उत्तर—नित्यनिवृत्तकी निवृत्ति करनेका तात्पर्य है—जो नित्यनिवृत्त है, उस शरीर-संसारको रखनेकी भावना छोड़ना अर्थात् वह बना रहे—इस इच्छाका त्याग करना। नित्यप्राप्तकी प्राप्ति करनेका तात्पर्य है—जो नित्यप्राप्त है, उस परमात्मतत्त्वको श्रद्धा-विश्वासपूर्वक स्वीकार करना।

जो कभी भी अलग होगा, वह अब भी अलग है और जो कभी भी मिलेगा, वह अब भी मिला हुआ है। शरीर, वस्तु, योग्यता और सामर्थ्य ‘नित्यनिवृत्त’ अर्थात् सदा ही हमसे अलग हैं और परमात्मा ‘नित्यप्राप्त’ अर्थात् सदा ही हमें प्राप्त हैं। जो तत्त्व सब जगह ठोस रूपसे विद्यमान है, वह हमसे दूर हो सकता ही नहीं। परमात्मा कभी हमसे अलग हुए नहीं, हैं नहीं, होंगे नहीं और हो सकते नहीं; क्योंकि उसीकी सत्तासे हम सत्तावान् हैं॥ २४०॥

प्रश्न—परमात्मप्राप्ति बहुत सुगम है तो फिर उसमें बाधा क्या लग रही है?

उत्तर—अनेक बाधाएँ हैं; जैसे—

(१) भोग भोगने और संग्रह करनेमें आसक्ति है।

(२) परमात्मप्राप्तिकी जोरदार जिज्ञासा (भूख) नहीं है।

(३) अपनी वर्तमान स्थितिमें सन्तोष कर रखा है।

(४) परमात्मप्राप्तिको सांसारिक वस्तुओंकी प्राप्तिकी तरह मान रखा है। इस मान्यताके कारण क्रिया करनेको अधिक महत्त्व देते हैं, विवेक और भावको महत्त्व नहीं देते।

(५) तत्त्वको ठीक तरहसे जाननेवाले महात्मा नहीं मिलते।

(६) थोड़ी-सी बातें जानकर, थोड़ा-सा साधन करके अभिमान कर लेते हैं।

(७) कुछ करनेसे प्राप्ति होगी, गुरु नहीं मिला, समय ऐसा ही है, प्रारब्ध ऐसा ही है, हम योग्य नहीं हैं, हम अधिकारी नहीं हैं—ऐसे जो संस्कार भीतर बैठे हैं, वे बाधा देते हैं॥ २४१॥

प्रश्न—कई साधक भगवान‍्के लिये रोते हैं, व्याकुल होते हैं, फिर भी उनको भगवान् क्यों नहीं मिलते?

उत्तर—उनके भीतर भगवान‍्के सिवाय अन्य (सुख-आराम, मान-बड़ाई आदि)-की चाहना रहती है, अन्य वस्तु-व्यक्तिकी महत्ता और प्रियता रहती है। अत: भगवान‍्के लिये रोना तो तात्कालिक होता है, फिर वहीं-की-वहीं स्थिति हो जाती है।

चाहना एक भगवान‍्की ही होनी चाहिये—

एक बानि करुनानिधान की।
सो प्रिय जाकें गति न आन की॥
(मानस, अरण्य० १०। ४)

वे साधनमें लगे रहें तो अन्य चाहना मिटकर, एक चाहना प्रबल होनेपर भगवान‍्की प्राप्ति हो सकती है॥ २४२॥

प्रश्न—विकार अन्त:करणमें होते हैं; अत: परमात्मप्राप्तिमें कोई विकार बाधक नहीं है। परन्तु परमात्मप्राप्तिमें भोगासक्तिको बाधक भी बताया जाता है। दोनोंमें कौन-सी बात सही है?

उत्तर—अन्त:करणके साथ मिलकर उन विकारोंको अपनेमें मान लेते हैं तो वे विकार बाधक होते हैं। यदि अन्त:करणके साथ अपना सम्बन्ध न मानें तो उसमें होनेवाले विकार बाधक नहीं होते॥ २४३॥

प्रश्न—कोई भी कारक भगवान‍्तक नहीं पहुँच सकता तो क्या सम्प्रदान और अपादान कारक भी नहीं पहुँच सकते? भगवान‍्को अपने-आपको देना सम्प्रदान हुआ और संसारका त्याग करना अपादान हुआ!

उत्तर—भगवान‍्के अर्पित होना और संसारका त्याग करना क्रियावाला सम्प्रदान-अपादान नहीं है। ये दोनों क्रियाएँ नहीं हैं, प्रत्युत अपनी गलत मान्यताओंका त्याग हैं; क्योंकि वास्तवमें हम भगवान‍्के हैं और संसारके नहीं हैं।

गॉँवसे व्यक्ति आया—इसमें गाँव अपादान है और उसने दान दिया—इसमें दाता सम्प्रदान है। अपादानमें आनेकी क्रिया है और सम्प्रदानमें देनेकी क्रिया है—ये दोनों ही क्रियाएँ परमात्मातक नहीं पहुँच सकतीं। हाँ, सत्-क्रिया निरर्थक नहीं होती, प्रत्युत परमात्मप्राप्तिमें सहायक होती है। सत्-अंश कल्याणकारी होता है, क्रिया-अंश नहीं।

खास बात है कि परमात्माकी प्राप्तिके लिये जड़ता (क्रिया और पदार्थ अथवा शरीर-संसार)-की सहायता लेनेकी जरूरत ही नहीं है। उसकी प्राप्ति जड़ताके त्यागसे होती है। क्रिया और पदार्थ—दोनों ही जड़ हैं। क्रियाका आरम्भ और अन्त होता है, पदार्थकी उत्पत्ति और विनाश होता है। यह नित्य रहनेवाली चीज ही नहीं है॥ २४४॥

प्रश्न—शरीरकी सहायताके बिना हम साधन कैसे करेंगे?

उत्तर—साधन करनेमें क्रियाकी मुख्यता नहीं है, प्रत्युत विवेक और भावकी मुख्यता है। इसलिये शरीरकी सहायताके बिना हम कामनारहित हो सकते हैं, ममतारहित हो सकते हैं, अहंकाररहित हो सकते हैं, भगवान‍्को अपना मान सकते हैं और श्रद्धा-विश्वासपूर्वक उनके शरणागत हो सकते हैं। ऐसा होनेके लिये शरीरकी जरूरत ही नहीं है।

सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्ति तो शरीरके द्वारा होती है, पर परमात्माकी प्राप्ति शरीरके त्याग (सम्बन्ध-विच्छेद)-से होती है। परमात्मप्राप्तिमें शरीर लेशमात्र भी सहायक अथवा बाधक नहीं है। परमात्मतत्त्वमें क्रिया नहीं है, इसलिये क्रियारहित होनेसे ही उसकी प्राप्ति होगी॥ २४५॥

प्रश्न—परमात्मप्राप्ति भावसे होती है, क्रियासे नहीं। परन्तु भाव भी तो मन-बुद्धिमें पैदा होता है?

उत्तर—भाव अनेक प्रकारके होते हैं। मन-बुद्धिमें राग-द्वेष आदि भाव पैदा होते हैं। परन्तु ‘मैं भगवान‍्का हूॅँ, भगवान् मेरे हैं’—यह सम्बन्धात्मक भाव स्वयंमें रहता है॥ २४६॥

प्रश्न—संसारको और परमात्माको प्राप्त करनेकी प्रक्रिया एक नहीं है—इसका तात्पर्य?

उत्तर—संसारकी प्राप्ति अप्राप्तकी प्राप्ति है और परमात्माकी प्राप्ति नित्यप्राप्तकी प्राप्ति है। संसारकी प्राप्तिमें ‘करना’ मुख्य है और परमात्माकी प्राप्तिमें ‘न करना’ मुख्य है। सांसारिक वस्तुका निर्माण करना पड़ता है, कहींसे लाना पड़ता है, पर परमात्माको बनाना या कहींसे लाना नहीं पड़ता; क्योंकि परमात्मा सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, क्रिया, परिस्थिति, घटना और अवस्थामें समानरूपसे सदा परिपूर्ण हैं। जो तत्त्व सब देश, काल आदिमें परिपूर्ण है, वह क्रियासे कैसे मिलेगा? क्रिया करनेसे तो उलटे वह हमसे दूर होगा॥ २४७॥

प्रश्न—न दीखनेवाला तत्त्व कैसे दीखे?

उत्तर—दीखनेवालेको सत्ता और महत्ता न दें तो न दीखनेवाला दीखने लग जायगा॥ २४८॥

प्रश्न—जब भगवान‍्ने मनुष्यजन्म दे दिया, सत्संग दे दिया तो फिर उनकी प्राप्तिमें देरी क्यों?

उत्तर—भगवान‍्से जो मिला है, उसका सदुपयोग न करनेसे ही देरी लग रही है। जितना समय,समझ, सामर्थ्य और सामग्री मिली है, उसका सदुपयोग करना है। भगवान‍्से मिली वस्तुको व्यक्तिगत माननेसे ही अपनेमें निर्बलता आती है, जिससे हम उसका सदुपयोग नहीं कर पाते। बलका अभाव बाधक नहीं है, प्रत्युत बलका दुरुपयोग बाधक है। ‘कर नहीं सकते’—यह निर्बलता बाधक नहीं है, प्रत्युत ‘कर सकते हैं, पर करते नहीं’—यह निर्बलता बाधक है॥ २४९॥

प्रश्न—उपनिषद्‍में आया है कि बलहीन मनुष्यको परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती—‘नायमात्मा बलहीनेन लभ्य:’ (मुण्डक० ३।२। ४)—इसका क्या तात्पर्य है?

उत्तर—यहाँ ‘बल’ शब्दका अर्थ है—उत्साह, हिम्मत। जिसका उत्साह भंग हो गया है, जो हिम्मत हार चुका है, वह मनुष्य ‘बलहीन’ है।

निर्बलता दो तरहकी होती है—(१) करनेमें असमर्थ होना और (२) करनेमें समर्थ होते हुए भी न करना। जानते हैं और कर सकते हैं, फिर भी वैसा करते नहीं—यह निर्बलता होनेपर मनुष्य परमात्मप्राप्ति नहीं कर सकता। इसलिये सन्तोंने कहा है—

हिम्मत मत छाँड़ो नराँ, मुख ते कहताँ राम।
‘हरिया’ हिम्मत से किया, ध्रुवका अट्टल धाम॥ २५०॥

प्रश्न—क्या तीव्र व्याकुलता हुए बिना भी भगवान‍्की प्राप्ति हो सकती है?

उत्तर—भगवत्प्राप्ति तीन कारणोंसे होती है—(१) निर्बलतासे, (२) निर्भरतासे और (३) कभी निर्बलता तथा कभी निर्भरता होनेसे। तात्पर्य है कि अगर तेजीसे व्याकुलता हो जाय तो प्राप्ति हो जायगी अथवा भगवान‍्की कृपापर पूरी निर्भरता हो जाय कि जो होगा, उनकी कृपासे होगा तो प्राप्ति हो जायगी। कभी निर्बलता (व्याकुलता) और कभी निर्भरता हो तो दोनोंमेंसे कभी एक पूरी होनेसे भगवत्प्राप्ति हो जायगी॥ २५१॥

प्रश्न—कभी निर्बलता और कभी निर्भरता तो प्राय: सभी साधकोंमें रहती है, फिर वह पूरी क्यों नहीं होती?

उत्तर—साधनमें कुछ-न-कुछ अपना बल, अपनी योग्यता मिला लेनेसे न निर्बलता पूरी होती है, न निर्भरता। अत: यह आशा ही टूट जानी चाहिये कि हम अपने बलसे प्राप्त कर लेंगे। परन्तु प्राप्तिकी उत्कण्ठा पूरी होनी चाहिये; क्योंकि जब भगवान‍्के बलसे, उनकी कृपासे प्राप्ति होगी तो फिर हम निराश हों ही क्यों?॥ २५२॥

प्रश्न—अन्त:करण शुद्ध न होनेसे परमात्मामें रुचि नहीं होगी और रुचि न होनेसे परमात्माकी प्राप्ति नहीं होगी; अत: परमात्मप्राप्तिमें अन्त:करणकी शुद्धि कारण हुई?

उत्तर—परमात्मप्राप्तिमें अन्त:करणकी शुद्धि कारण नहीं है; क्योंकि परमात्मप्राप्ति करणके द्वारा नहीं होती, प्रत्युत करणके सम्बन्ध-विच्छेदसे होती है। अन्त:करण अशुद्ध होनेसे परमात्माकी तरफ रुचि नहीं होगी—यह नियम नहीं है। कोई बड़ी आफत आनेपर, किसी सन्तकी कृपा होनेपर अथवा अन्य किसी कारणसे अशुद्ध अन्त:करणवाला मनुष्य भी परमात्मामें लग सकता है, क्योंकि मूलमें वह परमात्माका ही अंश है। इसीलिये गीतामें आया है—

अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम:।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि॥
(४।३६)

‘अगर तू सब पापियोंसे भी अधिक पापी है, तो भी तू ज्ञानरूपी नौकाके द्वारा नि:सन्देह सम्पूर्ण पाप-समुद्रसे अच्छी तरह तर जायगा।’

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥
(९। ३०)

‘अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभक्त होकर मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये। कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है’॥ २५३॥

प्रश्न—जो हमारा है, वह हमें मिलता क्यों नहीं?

उत्तर—जो हमारा नहीं है, उसको अपना न मानें तो वह मिला हुआ ही है। हमें केवल अपनी भूल मिटानी है। सुखकी कामना, आशा और भोगके कारण ही ‘संसार हमारा नहीं है’—इसका अनुभव नहीं होता॥ २५४॥

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