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भगवान्

प्रश्न—भगवान‍्की आवश्यकता क्यों है?

उत्तर—अपनेमें कमी मानते हैं, इसलिये है। हमें कोई ऐसा साथी चाहिये, जो हमसे प्रेम करे, हमें आश्रय दे और कभी हमसे बिछुड़े नहीं, सदा साथ रहे। ऐसा साथी ईश्वर ही हो सकता है। तात्पर्य है कि हमें प्रेमके लिये ईश्वरकी आवश्यकता है। इस आवश्यकताकी पूर्ति न स्वयंसे हो सकती है, न संसारसे। इसकी पूर्ति ईश्वरसे ही हो सकती है॥ १९४॥

प्रश्न—ईश्वरकी आवश्यकता कैसे जाग्रत् हो?

उत्तर—प्रेमका उद्देश्य होनेसे और संसारकी ममता-आसक्ति छूटनेसे ईश्वरकी आवश्यकता जाग्रत् होगी॥ १९५॥

प्रश्न—शास्त्र और सन्त परमात्माका अलग-अलग वर्णन करते हैं। कोई क्या कहता है, कोई क्या, फिर किसकी बात मानें?

उत्तर—परमात्मा क्या हैं—इसको कोई नहीं जानता। वे सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार सब कुछ हैं। उनके विषयमें जो कुछ कहा गया है, वह अपनी समझके लिये है और प्रक्रिया-भेदसे है।

अभीतक परमात्माका जितना वर्णन हुआ है, वह सब-का-सब मिलकर भी परमात्माका पूरा वर्णन नहीं है। यदि पूरा वर्णन हो जाय तो परमात्मा असीम नहीं रहेंगे, सीमित हो जायॅँगे! सभी लोग अपने-अपने मत एवं सम्प्रदायके अनुसार परमात्माका वर्णन करते हैं। परमात्माका दया भरा कानून भी है कि उनके किसी भी अंग (नाम, रूप, गुण, लीला, धाम)-को पकड़नेसे उनकी प्राप्ति हो जाती है।

साधकको केवल इतनी ही बात मान लेनी चाहिये कि ‘परमात्मा हैं’। वे कैसे हैं? किस रूपवाले हैं? कहॉँ रहते हैं? क्या करते हैं? आदि बातोंपर साधक बुद्धि लगायेगा तो झगड़ा पैदा होगा, एक नयी आफत पैदा होगी। परन्तु ‘परमात्मा हैं’ ऐसा मान लेनेसे सबके साथ समन्वय हो जायगा। प्रह्लादजीने नरसिंहरूपका चिन्तन-ध्यान नहीं किया था, उनको इष्ट नहीं माना था। उन्होंने दृढ़तासे यही मान लिया था कि ‘भगवान् हैं और वही मेरे अपने हैं’। इसी तरह गजेन्द्रने भी भगवान‍्को यही मानकर पुकारा कि ‘कोई एक ईश्वर है’॥ १९६॥

प्रश्न—जब परमात्माका वर्णन कोई कर सकता ही नहीं तो फिर शास्त्रोंमें, सन्तवाणीमें परमात्माका जो वर्णन आया है, उसकी सार्थकता क्या हुई?

उत्तर—जैसा वर्णन हुआ है, वैसा मानकर साधन करनेसे परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है, इसलिये वह वर्णन उपयोगी है॥ १९७॥

प्रश्न—भगवान‍्पर विश्वास कैसे दृढ़ हो?

उत्तर—विवेकविरोधी विश्वासका त्याग करनेसे भगवान‍्का विश्वास दृढ़ हो जाता है। विश्वास, सम्बन्ध और कर्म—ये तीनों ही विवेक-विरोधी नहीं होने चाहिये। संसारपर विश्वास करना विवेकविरोधी ‘विश्वास’ है। संसारको अपना मानना विवेकविरोधी ‘सम्बन्ध’ है। शास्त्रनिषिद्ध तथा सकामभावसे कर्म करना विवेकविरोधी ‘कर्म’ है।

विश्वास विवेकसमर्थित नहीं होता। जहाँ विवेककी मुख्यता है, वहाँ विश्वास नहीं होता और जहाँ विश्वासकी मुख्यता है, वहाँ विवेक नहीं होता। भगवान‍्से भी विश्वास ही माँगना चाहिये। विश्वासके सिवाय और कुछ भी मॉँगनेकी जरूरत नहीं है। विश्वास प्रेमका साधन है। ‘भगवान् हैं और वही मेरे अपने हैं’—इस विश्वाससे प्रेम हो जाता है॥ १९८॥

प्रश्न—भगवान् दयालु हैं या न्यायकारी?

उत्तर—भगवान् संसारकी दृष्टिसे ‘न्यायकारी’ हैं, ज्ञानकी दृष्टिसे ‘उदासीन’ हैं और भक्तिकी दृष्टिसे ‘दयालु’ हैं। भगवान् तीनों हैं और तीनोंसे रहित भी हैं; फर्क हमारी दृष्टिमें है।

भगवान‍्में परस्परविरोधी सब भाव रहते हैं*। वे दयालु भी हैं, उदासीन भी हैं, पक्षपाती भी हैं, सब कुछ हैं। उनको हम अपनी बुद्धिसे समझ सकते ही नहीं! भक्तोंके भावसे भगवान‍्का भी भाव बदल जाता है। भगवान‍्के भावोंको कोई कह नहीं सकता। कहना दूर रहा, सोच भी नहीं सकता! वे सब तरहसे अनन्त, अपार, असीम हैं!

* ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि॥
(गीता ७।१२)
‘जितने भी सात्त्विक भाव हैं और जितने भी राजस तथा तामस भाव हैं, वे सब मुझसे ही होते हैं—ऐसा उनको समझो। परन्तु मैं उनमें और वे मुझमें नहीं हैं।’

किसी वस्तुके विषयमें ‘वह कैसी है, कैसी नहीं है’—यह विचार तब किया जाता है, जब हम उसका त्याग करनेमें समर्थ हों। परमात्माका त्याग कोई कर ही नहीं सकता; फिर वे कैसे हैं, कैसे नहीं हैं—ऐसा विचार करनेकी क्या जरूरत! वे कैसे भी हों, पर वे हमारे हैं*॥ १९९॥

* असुन्दर: सुन्दरशेखरो वा
गुणैर्विहीनो गुणिनां वरो वा।
द्वेषी मयि स्यात् करुणाम्बुधिर्वा
श्याम: स एवाद्य गतिर्ममायम्॥
‘मेरे प्रियतम श्रीकृष्ण असुन्दर हों या सुन्दर-शिरोमणि हों, गुणहीन हों या गुणियोंमें श्रेष्ठ हों, मेरे प्रति द्वेष रखते हों या करुणासिन्धु-रूपसे कृपा करते हों, वे चाहे जैसे हों, मेरी तो वे ही एकमात्र गति हैं।’

प्रश्न—एक मन्दिरमें चोर मूर्ति चुराने आये तो वहॉँके पुजारीने कहा कि मैं जीते-जी मूर्ति नहीं ले जाने दूॅँगा। संघर्ष हुआ तो पुजारी मारा गया। भगवान‍्ने पुजारीकी रक्षा क्यों नहीं की?

उत्तर—यह पुजारीका हठ था, प्रेम नहीं। भगवान् हठसे प्रकट नहीं होते, प्रत्युत प्रेमसे प्रकट होते हैं—

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना।
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
(मानस, बाल० १८५। ३)

पुजारी मारा गया तो भगवान‍्ने पापोंसे उसकी रक्षा की अर्थात् उसके पाप नष्ट हो गये। प्राय: घटना सुननेको और मिलती है तथा वास्तवमें और होती है। वास्तवमें क्या बात हुई—इसका क्या पता?

किसी घटनामें भगवान‍्का क्या हित भरा है—इसको हमारी बुद्धि नहीं पकड़ सकती। अगर हम अपनी बुद्धिसे भगवान‍्की परीक्षा करेंगे तो भगवान् फेल हो जायँगे! इसलिये अपनी बुद्धिसे पकड़नेकी चेष्टा न करे, प्रत्युत अपनी बुद्धिको उनके अर्पित कर दे कि भगवान् जो कुछ करते हैं, उसमें उनकी कृपा और सबका हित भरा होता है॥ २००॥

प्रश्न—ऐसी घटनाएँ पढ़ने-सुननेमें आती हैं कि कभी तो भगवान् संकटसे रक्षा कर देते हैं, कभी रक्षा नहीं करते, इसका क्या कारण है?

उत्तर—भगवान् प्रारब्धका भोग करवाते हैं। प्रारब्ध होता है तो भगवान् रक्षा कर देते हैं और प्रारब्ध नहीं होता तो रक्षा नहीं करते। प्रारब्धभोगका विधान भगवान् करते हैं।

भक्तिकी दृष्टिसे देखें तो जैसे माँ कभी प्यार करती है, कभी थप्पड़ लगाती है तो दोनोंमें माँकी समान कृपा है, ऐसे ही भगवान् रक्षा करें अथवा रक्षा न करें, दोनोंमें उनकी समान कृपा है॥ २०१॥

प्रश्न—जब भगवान् सबकी रक्षा करनेवाले हैं तो फिर संसारमें हिंसा क्यों होती है?

उत्तर—भगवान् तो हिंसा करनेवालोंके हृदयमें दूसरेकी रक्षाकी प्रेरणा करते हैं, पर कामना तेज होनेके कारण वे भगवान‍्की आवाज नहीं सुन पाते॥ २०२॥

प्रश्न—जब भगवान् सबका पालन-पोषण करते हैं तो फिर मनुष्य भूखे क्यों मरते हैं?

उत्तर—यह उनका प्रारब्ध है। भगवान् उनके लिये अन्नकी आवश्यकता नहीं समझते। जैसे, वैद्य रोगीके लिये अन्न ग्रहण करना मना कर देता है तो उसका उद्देश्य रोगीको नीरोग बनाना है। तात्पर्य हुआ कि भूखसे वे ही मनुष्य मरते हैं, जिनका जीना भगवान् आवश्यक नहीं समझते। वास्तवमें आवश्यक वस्तु केवल परमात्मा ही हैं। भूखसे मरना भी एक साधन है, जिससे पुराने पापोंका प्रायश्चित्त होता है।

हम अपनी दृष्टिसे देखते हैं कि भगवान‍्को ऐसा करना चाहिये। ऐसा नहीं, पर भगवान् हमसे ज्यादा जानते हैं, हमसे ज्यादा दयालु हैं और हमसे ज्यादा समर्थ हैं॥ २०३॥

प्रश्न—परम उदार भगवान‍्के रहते हुए लोग अभावग्रस्त क्यों हैं?

उत्तर—लोग नाशवान् पदार्थोंको नहीं छोड़ते तो भगवान‍्की उदारता क्या करे? कोई गंगाजीके पास जाय ही नहीं, जल पीये ही नहीं तो ठण्डक कैसे मिले? जबतक नाशवान‍्का खिंचाव नहीं मिटता, तबतक मनुष्य भगवान‍्की उदारताको नहीं पकड़ सकता॥ २०४॥

प्रश्न—भगवान् कहते हैं कि सब इन्द्रियोंसे मैं ही ग्रहण किया जाता हूँ*। इन्द्रियोंसे तो विषय (जड़) ही ग्रहण होगा, परमात्मा (चेतन) कैसे ग्रहण होगा?

* मनसा वचसा दृष्टॺा गृहृातेऽन्यैरपीन्द्रियै:।
अहमेव न मत्तोऽन्यदिति बुध्यध्वमञ्जसा॥
(श्रीमद्भा०११।१३।२४)
‘मनसे, वाणीसे, दृष्टिसे तथा अन्य इन्द्रियोंसे जो कुछ (शब्दादि विषय) ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हूँ। अत: मेरे सिवाय और कुछ भी नहीं है—यह सिद्धान्त आप विचारपूर्वक शीघ्र समझ लें अर्थात् स्वीकार करके अनुभव कर लें।’

उत्तर—ऐसा भगवान् साधकके भीतर जड़ताकी मान्यता हटानेके लिये कहते हैं। भगवान‍्के कथनका तात्पर्य है कि जड़ नहीं है, मैं ही हूँ। साधक मेरे सिवाय अन्य किसीको सत्ता न दे॥ २०५॥

प्रश्न—सन्त कहते हैं कि हमें प्यास लगती है तो जलरूपसे, भूख लगती है तो अन्नरूपसे भगवान् आते हैं, पर जल, अन्न आदि तो जड़ तथा परिवर्तनशील हैं?

उत्तर—हम अपनेको शरीर मानकर वस्तु चाहते हैं तो भगवान् भी वैसे ही बनकर आते हैं। हम असत् में स्थित होकर देखते हैं तो भगवान् भी असत्-रूपसे ही दीखते हैं। हम जैसा देखना चाहते हैं, भगवान् वैसा ही दीखते हैं; क्योंकि भगवान‍्का स्वभाव है—‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (गीता ४। ११)‘जो जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ।’॥ २०६॥

प्रश्न—भगवान् तो सुखके सागर हैं, फिर उनको सुख देनेका, उनकी सेवा करनेका भाव क्यों रखें?

उत्तर—माताएँ सन्तोंकी सेवा करती हैं, उनको भिक्षा देती हैं तो इस भावसे नहीं देतीं कि उनके पास खानेको कुछ नहीं है, प्रत्युत इस भावसे देती हैं कि हमारे द्वारा भी महाराजकी कुछ सेवा बन जाय! हमारी वस्तु भी महाराजकी सेवामें लग जाय! इसी तरह भक्तमें भी स्वाभाविक ही भगवान‍्की सेवा करनेका, उनको सुख देनेका भाव रहता है; क्योंकि वह स्वयं भी भगवान‍्का है और उसके शरीर-इन्द्रियॉँ-मन-बुद्धि भी भगवान‍्के हैं॥ २०७॥

प्रश्न—जिसने वस्तुत: कर्म नहीं किया, केवल भूलसे अपनेको कर्ता मान लिया, उसको जब अल्पज्ञ न्यायाधीश भी दण्डादि फल नहीं देता तो फिर सर्वज्ञ ईश्वर क्यों देता है?

उत्तर—ईश्वर दण्ड नहीं देता। जो कर्ता बनता है, वही भोक्ता बनता है। वह अपनी भूलका ही फल भोगता है॥ २०८॥

प्रश्न—हम भगवान‍्से विमुख होकर संसारके सम्मुख हो जाते हैं तो भगवान् हमारी संसारकी सम्मुखता छुड़ा क्यों नहीं देते?

उत्तर—कारण कि भगवान‍्ने हमें स्वतन्त्रता दी हुई है। यदि वे स्वतन्त्रता न देते तो हम पशु-पक्षी आदिकी तरह ही होते। उस स्वतन्त्रताका दुरुपयोग करके हमने संसारको अपना मान लिया॥ २०९॥

प्रश्न—हम मिली हुई स्वतन्त्रताका दुरुपयोग करते हैं तो भगवान् वह स्वतन्त्रता वापिस क्यों नहीं ले लेते?

उत्तर—जबतक हम स्वतन्त्रता चाहते हैं, तबतक भगवान् उसको लेंगे नहीं। दी हुई वस्तुको वापिस लेनेका अधिकार नहीं है। यह कार्य सज्जनोंका नहीं है, प्रत्युत डाकुओंका है। हॉँ, अगर हम अपनी स्वतन्त्रता उनको दे दें अर्थात् अपने-आपको उनके अर्पित कर दें, उनके शरणागत हो जायॅँ तो वे उसको ले लेंगे अर्थात् हमें मुक्त करके भक्त बना लेंगे॥ २१०॥

प्रश्न—भगवान् सब कुछ देते हैं, पर अपनेको छिपाकर देते हैं—ऐसा क्यों?

उत्तर—व्यवहारमें ऐसा देखा जाता है कि देनेवाला अपनेमें बड़प्पनका अनुभव करता है और लेनेवाला छोटेपनका। भगवान् अपनेमें बड़प्पन और लेनेवालेमें छोटापन नहीं आने देते, इसीलिये अपनेको छिपाकर देते हैं। भगवान् जीवको तत्त्वज्ञान, मुक्ति देकर अपने समान बना लेते हैं, फिर भी अपनेको छिपाकर रखते हैं।॥ २११॥

प्रश्न—सन्त कहते हैं कि देनेवाले भी भगवान् हैं और लेनेवाले भी भगवान् हैं। लेनेवाले भगवान् कैसे?

उत्तर—भगवान‍्ने जीवमात्रको अपनेमेंसे ही प्रकट किया है, इसलिये लेनेवाले भी वे ही हैं। वास्तवमें एक भगवान‍्के सिवाय और कुछ है ही नहीं—‘वासुदेव: सर्वम्’ (गीता ७।१९)॥ २१२॥

प्रश्न—कण-कणमें भगवान् हैं और कण-कण भगवान् ही हैं—दोनोंमें क्या अन्तर है?

उत्तर—कण-कणमें भगवान् हैं—यह मान्यता है और कण-कण भगवान् ही हैं—यह वास्तविकता है॥ २१३॥

प्रश्न—नारदभक्तिसूत्रमें आया है कि ईश्वरका भी अभिमानसे द्वेष है—‘ईश्वरस्याप्यभिमानद्वेषित्वाद्’ (२७)। ईश्वरमें द्वेषभाव कैसे?

उत्तर—भगवान‍्का अभिमानसे द्वेष है, अभिमानीसे नहीं। ‘द्वेष’ होनेका तात्पर्य है कि उनको अभिमान सुहाता नहीं; क्योंकि अभिमानसे भक्तका महान् अनिष्ट होता है। भगवान‍्में भक्तका हित करनेवाली दया है, राग-द्वेषवाला द्वेष नहीं है—‘समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय:’ (गीता ९। २९)॥ २१४॥

प्रश्न—संसार अपना नहीं है, पर भगवान् अपने हैं—ऐसा माननेसे भगवान‍्से कुछ आशा, अपेक्षा रह सकती है। यदि ऐसा मानें कि न संसार अपना है, न भगवान् अपने हैं तो?

उत्तर—भगवान् अपने हैं, पर लेनेके लिये अपने नहीं है। केवल भगवान् ही अपने हैं—ऐसा माननेसे दूसरी सत्ता नहीं रहेगी और दूसरी सत्ता न रहनेसे कोई भी चाह नहीं रहेगी। भगवान‍्के सिवाय दूसरी सत्ता रहनेसे ही इच्छा होती है। जब भगवान् ही मेरे हैं तो फिर इच्छा कैसे रहेगी?

कोई भी अपना नहीं है, न संसार, न परमात्मा—ऐसा माननेसे साधक ज्ञानमार्गमें चला जायगा। अत: उसकी मुक्ति तो हो जायगी, पर प्रेमकी प्राप्ति नहीं होगी॥ २१५॥

प्रश्न—भगवान् अपने लिये हैं—ऐसा कहनेका क्या तात्पर्य है?

उत्तर—भगवान् कुछ लेनेके लिये अपने नहीं हैं, प्रत्युत देनेके लिये अपने हैं। इसलिये भगवान‍्से कुछ नहीं चाहना है, प्रत्युत भगवान‍्को ही चाहना हैै। तात्पर्य है कि भगवान् अपने लिये हैं—खुदको देनेके लिये और भगवान‍्को लेनेके लिये। अपनी कमीकी पूर्ति भगवान‍्के सिवाय और किसीसे नहीं हो सकती, इसलिये भगवान् अपने लिये हैं।॥ २१६॥

प्रश्न—जो जैसा व्यवहार करे, उसके साथ वैसा व्यवहार करनेको सन्तोंने निकृष्ट बताया है, फिर भगवान‍्के कहे ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (गीता ४। ११)—इन वचनोंका क्या तात्पर्य है?

उत्तर—भगवान‍्के ये वचन (यथा-तथा) क्रियाके विषयमें हैं, भावके विषयमें नहीं। भावमें तो भगवान‍्का सबके प्रति समान प्रेमभाव है। मनुष्योंके यथा-तथामें तो स्वार्थभाव रहता है, पर भगवान‍्के यथा-तथामें स्वार्थभाव नहीं है, प्रत्युत यह भगवान‍्की महत्ता है कि कहाँ जीव और कहाँ भगवान्, फिर भी वे जीवको अपने बराबर (मित्र)बनाते हैं! तात्पर्य है कि भगवान‍्में बड़प्पनका भाव (अभिमान) नहीं है॥ २१७॥

प्रश्न—जगन्नाथके रहते हुए भी अपनेमें अनाथपनेका अनुभव क्यों होता है?

उत्तर—कारण कि खुद नाथ (मालिक) बन गये! जैसे बालक माँके बिना नहीं रह सकता, पर विवाह होनेके बाद जब वह खुद मालिक बन जाता है, तब वह अपनी माँके बिना भी रहने लगता है। ऐसे ही जब मनुष्य भगवान‍्के सिवाय अन्य वस्तु या व्यक्तिको अपना मानकर खुद मालिक बन जाता है, तब वह अपने मालिक (भगवान्)-को भूल जाता है और मुफ्तमें दु:ख पाता है। केवल भगवान् ही अपने हैं, और कोई भी अपना नहीं है—ऐसा माननेसे हमारा अनाथपना दूर हो जायगा और हम सनाथ हो जायँगे॥ २१८॥

प्रश्न—क्या भगवान् प्राणिमात्रका कल्याण चाहते हैं?

उत्तर—जैसे साधक भक्त प्राणिमात्रका कल्याण चाहता है, ऐसे भगवान् सबका कल्याण नहीं चाहते। भगवान‍्में प्राणिमात्रके कल्याणकी सामान्य इच्छा होती है, विशेष नहीं। अगर उनमें विशेष इच्छा हो जाय तो सबका कल्याण हो ही जाय! भगवान् स्वाभाविक ही किसीका अहित नहीं चाहते। किसीका अहित न चाहना ही उनका कल्याण चाहना है। तात्पर्य है कि भगवान‍्में शुभ इच्छा होती है, अशुभ इच्छा होती ही नहीं। जीवन्मुक्त, भगवत्प्रेमी महापुरुषमें भी यही बात है। उनमें भी सबके कल्याणकी सामान्य इच्छा रहती है। परन्तु उनमें किसी विशेष परिस्थितिमें सामनेवाले व्यक्तिके कल्याणकी विशेष इच्छा हो सकती है। जैसे, चैतन्य महाप्रभुमें जगाई-मधाईके कल्याणकी विशेष इच्छा हो गयी तो उनका कल्याण हो गया॥ २१९॥

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