भगवत्कृपा
प्रश्न—जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति आती है, उसमें प्रारब्ध कारण है या भगवत्कृपा? कर्मका फल भगवान् देते हैं तो उनकी कृपा क्या काम आयी?
उत्तर—अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति कर्मोंका फल है, पर उसका विधान करनेवाले भगवान् हैं। जैसे कोई मनुष्य जंगलमें जाकर दिनभर परिश्रम करे तो उसको पैसे कौन देगा? पर वह किसी मालिकके आदेशपर परिश्रम करे तो उसको मालिक पैसे देगा। ऐसे ही कर्मोंके अनुसार फल मिलता है, पर उस फलको देनेवाले भगवान् हैं; क्योंकि जड़ होनेके कारण कर्म खुद फल देनेमें असमर्थ हैं।
भगवान् कृपाकी मूर्ति हैं। उनके प्रत्येक विधानमें कृपा भरी रहती है। परन्तु केवल प्रारब्धकी तरफ दृष्टि रहनेसे और कृपाकी तरफ दृष्टि न रहनेसे मनुष्य उस कृपासे लाभ नहीं उठा सकता। जैसे बछड़ा माँके दूधसे जैसा पुष्ट होता है, वैसा दूसरे दूधसे पुष्ट नहीं होता, ऐसे ही कृपाकी तरफ दृष्टि रहनेसे जैसा लाभ होता है, वैसा प्रारब्धकी तरफ दृष्टि रहनेसे लाभ नहीं होता।
प्रारब्ध (कर्मोंका फल) तो नाशवान् है, पर कृपा अविनाशी है। जैसे रेतमें चीनी मिली हुई हो तो चीनीको रेतसे अलग नहीं कर सकते। परन्तु जैसे चींटी रेतसे चीनीको अलग कर लेती है, ऐसे ही भक्त प्रारब्धमें भी कृपाको पहचान लेता है।
परिस्थितिको कर्मोंका फल मानेंगे तो अनुकूलतामें सुख होगा और प्रतिकूलतामें दु:ख होगा। परन्तु भगवान्की कृपा मानेंगे तो दोनों परिस्थितियोंमें आनन्द होगा! अत: कृपा माननेमें विशेष लाभ है।
मनुष्य प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग करके अपना कल्याण कर सकता है—यह भगवत्कृपा है। अगर मनुष्य रोकर, आर्तभावसे प्रार्थना करे तो भगवान् अशुभ कर्मका फल (प्रतिकूलता) माफ भी कर देते हैं और अचानक विवेक भी दे देते हैं—यह उनकी कृपा है॥ २२०॥
प्रश्न—भगवान् हमारी आवश्यकताकी पूर्ति प्रारब्धके अनुसार करते हैं या प्रारब्धके बिना अपनी कृपासे भी करते हैं?
उत्तर—भक्तोंकी आवश्यकता भगवान् अपनी कृपासे भी पूर्ण कर देते हैं। सन्त-महात्मा भी अपनी कृपासे दूसरेकी आवश्यकता पूरी कर सकते हैं; जैसे—पेड़की कलम भी फल-फूल दे देती है॥ २२१॥
प्रश्न—धनादि सांसारिक वस्तुओंकी प्राप्ति भगवान्की कृपासे होती है या प्रारब्धसे?
उत्तर—नाशवान् वस्तुओंकी प्राप्तिमें कृपाको लगाना गलती हैै। कृपा तो चिन्मयताकी प्राप्तिमें ही है। जड़ताकी प्राप्तिमें तो पतन है। अनुकूलताकी प्राप्ति होना और प्रतिकूलताका नाश होना कृपा नहीं है, प्रत्युत कर्मफल (प्रारब्ध) है। भगवान्की कृपा है—जड़तासे वृत्ति हटकर चिन्मयतामें हो जाय, साधनमें लग जाय, सत्संगमें लग जाय॥ २२२॥
प्रश्न—भगवान्की कृपा तो सबपर समानरूपसे है, फिर सबको उससे समान लाभ क्यों नहीं होता?
उत्तर—लाभ होता है भगवत्कृपाके सम्मुख होनेपर—
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥
(मानस, सुन्दर० ४४। १)
जैसे गंगाके पास रहकर भी कोई उसमें स्नान करे ही नहीं, उसका जल पीये ही नहीं तो उसको गंगासे लाभ कैसे होगा? ऐसे ही भगवान्की सबपर समान कृपा होते हुए भी कोई उसके सम्मुख न हो तो उसको लाभ कैसे होगा?॥ २२३॥
प्रश्न—भगवत्कृपाके सम्मुख होना क्या है?
उत्तर—कृपाके सम्मुख होना है—कृपाको स्वीकार करना, अपनेपर भगवान्की कृपा मानना, प्रत्येक परिस्थितिमें उनकी कृपाको देखते रहना॥ २२४॥
प्रश्न—भगवत्कृपा और सन्तकृपामें क्या फर्क है?
उत्तर—भगवान्में तो यथा-तथा है—‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (गीता ४। ११), पर सन्तोंमें यथा-तथा नहीं है। इसलिये भगवान् तो सम्मुख होनेपर कृपा करते हैं, पर सन्त सबपर कृपा करते हैं। कोई प्रेम रखनेवाला हो, द्वेष रखनेवाला हो, उदासीन हो, विरुद्ध चलनेवाला हो, दु:ख देनेवाला हो, कैसा ही प्राणी क्यों न हो, सन्तोंकी सबपर समान कृपा रहती है।
भगवान् पिताकी तरह कृपा करते हैं और सन्त माताकी तरह। पिताकी कृपामें न्याय रहता है और माताकी कृपामें मोह रहता है। मोहके कारण माता न्याय नहीं देखती। सन्तोंमें मोह तो नहीं रहता, पर प्रेम रहता है। कारण कि सन्त भुक्तभोगी होते हैं अर्थात् उन्होंने सांसारिक दु:खोंका अनुभव कर लिया होता है। इसलिये वे देखते हैं कि पहले हम भी ऐसे ही दु:खी थे; अत: दूसरेका दु:ख मिटानेके लिये वे विशेष कृपा करते हैं॥ २२५॥
प्रश्न—साधकपर भगवान्की कृपा स्वत: होती है या प्रार्थना करनेपर?
उत्तर—अपने भीतरकी लालसा ही प्रार्थना है। साधक अपने भीतर आवश्यकताका अनुभव करता है और अपनी स्थितिमें सन्तोष नहीं करता तो स्वत: कृपासे काम होता है। भीतरमें भूख हो तो किसी-न-किसी उपायसे भगवान् पूर्ति कर देते हैं॥ २२६॥
प्रश्न—भगवान्की सबपर समान कृपा है तो वे सबको सत्संगका मौका क्यों नहीं देते?
उत्तर—सबको देते हैं, पर लाभ उठाना तो हमारे हाथकी बात है। वे सत्संग न भी दें, पर सत्प्रेरणा सबके हृदयमें करते हैं, सबको चेत कराते हैं, पर मनुष्य ध्यान नहीं देता॥ २२७॥
प्रश्न—भगवान्की सबपर समान कृपा है, फिर कृपा दीखती क्यों नहीं?
उत्तर—भोजन सबको बराबर मिलनेपर भी व्यक्ति अपनी भूखके अनुसार ही भोजन करता है। भूख सबकी समान नहीं होती। इसी तरह भगवान्की कृपा सबपर समान होनेपर भी भगवान्पर जितनी ज्यादा निर्भरता होती है, उतनी ही ज्यादा कृपा पकड़में आती है॥ २२८॥