मनुष्यजन्म
प्रश्न—मनुष्यजन्म प्रारब्धसे मिलता है या भगवत्कृपासे?
उत्तर—भगवत्कृपासे मिलता है। यदि प्रारब्धसे मनुष्यशरीर मिलता तो क्रमसे चौरासी लाख योनियोंसे होता हुआ मिलता। परन्तु भगवान् कर्मोंका फल पूरा भोगनेसे पहले, बीचमें ही अपनी कृपासे मनुष्यशरीर दे देते हैं। तात्पर्य है कि मनुष्यशरीर मिलता तो कर्मोंसे ही है, पर भगवान् अपना कल्याण करनेके लिये बीचमें ही मनुष्यशरीर दे देते हैं—यह भगवान्की कृपा है*॥ २५५॥
* कबहुॅँक करि करुना नर देही।
देत ईस बिनु हेतु सनेही॥
(मानस०, उत्तर० ४४। ३)
प्रश्न—मनुष्यजन्म मिलनेमें यदि भगवत्कृपा कारण है तो फिर कई बालक जन्मके बाद ही मर जाते हैं अथवा उनका मस्तिष्क जन्मसे ही विकृत होता है, फिर उनका कल्याण कैसे होगा?
उत्तर—उनकी आकृति तो मनुष्यकी है, पर वास्तवमें वह भोगयोनि ही है। भोग भोगनेसे उनकी शुद्धि होगी ही। वास्तवमें आकृतिका नाम मनुष्य नहीं है, प्रत्युत विवेकशक्तिका नाम मनुष्य है। विवेकके बिना वह केवल मनुष्यका ढाँचा है, मनुष्य नहीं। सन्तकृपासे उनका कल्याण हो सकता है।
पशुमें भी जितने अंशमें विवेक है, उतने अंशमें वह मनुष्य है! मनुष्यमें भी यदि अविवेक है तो वह पशु ही है—‘मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति’। विवेक विकसित होनेसे ही वह मनुष्य बनता है॥ २५६॥
प्रश्न—विवेक तो अनादि है और अन्य योनियोंको भी प्राप्त है, फिर मनुष्ययोनिकी क्या महिमा हुई?
उत्तर—मनुष्यदेहका मस्तिष्क विशेष प्रकारका बना हुआ है, जिसमें विवेक विशेषरूपसे जाग्रत् हो सकता है। अन्य योनियोंमें वैसा मस्तिष्क नहीं है; अत: उनका विवेक जीवन-निर्वाहतक सीमित रहता है। कर्तव्य और अकर्तव्य, सत् और असत् का विवेक मनुष्यशरीरमें ही जाग्रत् हो सकता है, जिसको महत्त्व देकर मनुष्य अपना कल्याण कर सकता है॥ २५७॥
प्रश्न—सन्त कहते हैं कि शरीर अपने काम आता ही नहीं, यह कैसे?
उत्तर—वास्तवमें शरीर अपने काम नहीं आता, प्रत्युत विवेक अपने काम आता है। यह विवेक अन्य योनियोंमें नहीं है। मनुष्यशरीरमें विवेकको महत्त्व देनेसे शरीरका त्याग ही अपने काम आता है। शरीर-त्यागसे अपने लिये और सेवासे दूसरेके लिये उपयोगी होता है॥ २५८॥
प्रश्न—त्याग तो अपने लिये हुआ?
उत्तर—त्याग भी अपने लिये नहीं है, प्रत्युत त्यागका फल (शान्ति) अपने लिये है—‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता १२।१२)। त्याज्य वस्तु दूसरोंके काम आती है और त्यागका फल हमारे काम आता है। त्यागके फल (शान्ति)-का भी सुख लेंगे तो वह भी बन्धनकारक हो जायगा॥ २५९॥
प्रश्न—जन्म लेते ही बालकको वैष्णवी माया घेर लेती है—इसका तात्पर्य क्या है?
उत्तर—वैष्णवी माया वह है, जिससे सब संसारकी रचना होती है। बाहरी मायाका असर तब होता है, जब अपने भीतर माया होती है। हमारे भीतर कुसंस्कार (कुसंगका संस्कार) होता है, तभी बाहरी कुसंगका असर पड़ता है। भीतरका कुसंस्कार है—असत् की सत्ता और महत्ता मानकर उससे सम्बन्ध जोड़ना॥ २६०॥
प्रश्न—मनुष्यके पतनका कारण क्या है?
उत्तर—भोगोंकी इच्छा और संग्रहकी इच्छा—इन दो इच्छाओंसे मनुष्यका पतन होता है। तात्पर्य है कि संसारसे कुछ भी लेनेकी इच्छा ही पतन करनेवाली है॥ २६१॥