भक्त
प्रश्न—मनुष्य भक्त कब होता है?
उत्तर—अपनी निर्बलताका अनुभव और भगवान्के महान् प्रभावपर विश्वास होते ही मनुष्य भक्त हो जाता है। कारण कि निर्बलका बलवान्के साथ, भूखेका अन्नके साथ, प्यासेका जलके साथ, रोगीका वैद्यके साथ सम्बन्ध स्वत: हो जाता है।
भगवान् सर्वज्ञ, परम सुहृद् और सर्वसमर्थ हैं—यह भगवान्का प्रभाव है। अपनेमें कुछ बल, योग्यता, विशेषता देखनेसे और अपनी निर्बलताका दु:ख न होनेसे अर्थात् उसको दूर करनेकी आवश्यकताका अनुभव न होनेसे भगवान्के प्रभावपर विश्वास नहीं होता॥ १७२॥
प्रश्न—क्या प्रेमी भक्तको ज्ञानकी आवश्यकता रहती है?
उत्तर—प्रेमी भक्तको ज्ञानकी आवश्यकता रहती ही नहीं; क्योंकि प्रेममें कोरा ज्ञान-ही-ज्ञान है! एक प्रेमास्पद (परमात्मा)-के सिवाय और कुछ है ही नहीं—यही वास्तविक ज्ञान है॥ १७३॥
प्रश्न—एक ही भगवान् प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी लीलाके लिये कृष्ण और श्रीजी (राधा)—दो रूपोंमें होते हैं, फिर अन्य प्रेमी भक्तोंका क्या होता है?
उत्तर—अन्य प्रेमी भक्त श्रीजीमें लीन हो जाते हैं॥ १७४॥
प्रश्न—भगवान् अपने भक्तोंके ऋणको कैसे माफ करते हैं?
उत्तर—शरणागत भक्तका अपना कुछ है ही नहीं। जो कुछ है, वह भगवान्का है। अत: भक्तोंका ऋण भगवान्पर आ जाता है। जैसे, कोई व्यक्ति मर जाय तो उसकी सम्पत्ति सरकारके अधीन हो जाती है।
संसारमें कुछ भी अपना माननेसे ही ऋण होता है। जो कुछ भी अपना नहीं मानता और कुछ भी नहीं चाहता, उसपर ऋण कैसे?॥ १७५॥
प्रश्न—भक्त अपना सुख न चाहकर भगवान्को सुख देता है, कैसे?
उत्तर—भक्त भगवान्के ‘एकाकी न रमते’—इस अभावकी पूर्ति करता है। कारण कि भगवान्ने संसारको भक्तके लिये बनाया है और भक्तको अपने लिये बनाया है। इसलिये भक्तका अस्तित्व केवल भगवान्के सुखके लिये है। वास्तवमें सुखके भोक्ता भगवान् ही हैं, जीव नहीं। जैसे बच्चा माँके लिये होता है, ऐसे ही भक्त भगवान्के लिये है। भगवान्के सिवाय भक्तका कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है॥ १७६॥
प्रश्न—क्या भक्त संसारमात्रका कल्याण कर सकता है? यदि कर सकता है तो फिर करता क्यों नहीं?
उत्तर—भक्त यदि चाहे तो संसारमात्रका कल्याण कर सकता है। परन्तु दूसरेके कल्याणकी सामर्थ्य होते हुए भी उसमें सामर्थ्यका अभिमान नहीं होता। उसको शर्म आती है कि भगवान्के रहते हुए क्या कल्याण करूँ ! उसके भीतर यह भाव ही नहीं होता कि मैं कल्याण कर सकता हूँ। उसकी दृष्टिमें एक भगवान्के सिवाय दूसरा कोई है ही नहीं—‘वासुदेव: सर्वम्’, फिर वह किसका कल्याण करे?॥ १७७॥
प्रश्न—श्रीमद्भागवतमें भगवान्ने कहा है कि मैं भक्तोंके पीछे यह सोचकर घूमता हूँ कि उनकी चरण-रज मेरे ऊपर पड़ जाय और मैं पवित्र हो जाऊँ* तो यह पवित्र होना क्या है?
* निरपेक्षं मुनिं शान्तं निर्वैरं समदर्शनम्।
अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यङ्घ्रिरेणुभि:॥
(श्रीमद्भा० ११। १४। १६)
उत्तर—पापी-पुण्यात्मा, पवित्र-अपवित्र सब कुछ भगवान्के अन्तर्गत ही है। सम्पूर्ण पापी भगवान्में ही हैं, इसलिये उनकी अपवित्रता भगवान्की ही अपवित्रता है और उनकी शुद्धि भगवान्की ही शुद्धि है। तात्पर्य है कि भक्तोंकी चरण-रजसे (भगवान्के अन्तर्गत रहनेवाले) पापी भी पवित्र हो जाते हैं।॥ १७८॥
प्रश्न—भक्तके साधन और साध्य—दोनों भगवान् होते हैं, तो साधन भगवान् कैसे?
उत्तर—उसके द्वारा जो साधन होता है, उसमें वह भगवान्की कृपाको ही हेतु मानता है। उसके साधनमें भी भगवान्का ही आश्रय रहता है। वह साधननिष्ठ न होकर भगवन्निष्ठ होता है॥ १७९॥
प्रश्न—भक्त और भगवान्के चरित्रमें क्या फर्क है?
उत्तर—दोनोंका चरित्र एक ही है। फर्क इतना है कि भक्तमें पहले जड़ता थी, पर भगवान्में कभी जड़ता आयी ही नहीं। दोनोंका चरित्र सुननेसे कल्याण हो जाता है। भगवान्का चरित्र सुननेके भक्त अधिकारी हैं और भक्तका चरित्र सुननेके भगवान् अधिकारी हैं॥ १८०॥
प्रश्न—भक्त-चरित्रमें आयी कुछ घटनाओंकी सत्यतामें सन्देह हो जाय तो क्या करना चाहिये?
उत्तर—सन्देह होनेपर यह विचार करे कि घटना भले ही झूठी हो, पर ऐसी घटना हो तो सकती है, सिद्धान्तसे यह ठीक तो है। हमें तो सिद्धान्तसे मतलब है, घटना चाहे हो या न हो। यदि कोई घटना असम्भव दीखे तो उसको छोड़ दे॥ १८१॥
प्रश्न—भक्त अपनेको भगवान्का मानता है तो शरीरसहित अपनेको मानता है या शरीररहित?
उत्तर—स्वयंको भगवान्का माननेसे शरीर भी साथमें हो जाता है। परन्तु शरीरको मुख्य माननेसे स्वयं साथमें नहीं होगा; क्योंकि स्वतन्त्र सत्ता स्वयंकी है, शरीरकी नहीं। भक्तिमें सत् के साथ असत् भी हो जाता है, पर सांसारिक भोग भोगनेमें असत् के साथ सत् भी हो जाता है अर्थात् भोक्ता, भोग और भोग्य—तीनों ही असत् हो जाते हैं॥ १८२॥
प्रश्न—भगवान्के प्रति भक्तका भाव कैसा होता है?
उत्तर—उसका भगवान्के प्रति अनन्यभाव होता है। उसका खिंचाव केवल भगवान्की तरफ ही होता है। भगवान्के सिवाय वह कुछ भी अपना नहीं मानता। उसका एकमात्र भगवान्में ही गाढ़ अपनापन होता है। उसका भाव भगवान्को सुख पहुॅँचानेका होता है—‘तत्सुखसुखित्वम्’। भगवान्के सुखके लिये वह अपने सुखका त्याग कर देता है। भगवान् कैसे हैं, कैसे नहीं हैं—यह विवेक न लगाकर वह अपनी दृष्टिसे यही चेष्टा करता है कि किसी तरह भगवान्को सुख मिले॥ १८३॥
प्रश्न—भक्त क्या जानता है और क्या मानता है?
उत्तर—अनन्त ब्रह्माण्डोंमें केश-जितनी वस्तु भी हमारी नहीं है—यह भक्त ‘जानता’ है और केवल प्रभु ही हमारे हैं—यह भक्त ‘मानता’ है॥ १८४॥