भक्ति
प्रश्न—भक्ति कैसे प्राप्त होती है?
उत्तर—भगवान्के भक्तोंका संग करनेसे, उनके द्वारा भगवान्की महिमा सुननेसे, भक्तोंका चरित्र पढ़नेसे और भगवान्से प्रार्थना करनेसे भक्ति प्राप्त होती है। भगवान् और उनके भक्तोंकी विशेष कृपासे भी भक्ति प्राप्त होती है—
मुख्यतस्तु महत्कृपयैव भगवत्कृपालेशाद्वा।
(नारदभक्ति०३८)
‘भक्ति मुख्यरूपसे भगवत्प्रेमी महापुरुषोंकी कृपासे अथवा भगवत्कृपाके लेशमात्रसे प्राप्त होती है।’
भगति तात अनुपम सुखमूला।
मिलइ जो संत होइँ अनुकूला॥
(मानस, अरण्य० १६। २)॥ १८५॥
प्रश्न—भक्ति और भक्तियोगमें क्या अन्तर है?
उत्तर—सकामभाव होनेपर ‘भक्ति’ होती है और निष्कामभाव होनेपर ‘भक्तियोग’ होता है। ‘योग’ निष्कामभाव होनेपर ही होता है। केवल ‘कर्म’ और केवल ‘ज्ञान’ से लाभ नहीं होता, पर केवल ‘भक्ति’ से लाभ होता है; क्योंकि भक्तिमें भगवान्का सम्बन्ध रहता है। इसलिये भगवान्ने सकामभाववाले (आर्त और अर्थार्थी) भक्तोंको भी उदार कहा है—‘उदारा: सर्व एवैते’ (गीता ७। १८)॥ १८६॥
प्रश्न—भक्ति और शरणागतिमें क्या अन्तर है?
उत्तर—भक्ति व्यापक है और शरणागति उसके अन्तर्गत है। जहॉँ नवधा भक्तिका वर्णन आया है, वहाँ आत्मनिवेदन (शरणागति)-को उसका एक अंग बताया है; जैसे—
श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥
(श्रीमद्भा० ७। ५। २३)॥ १८७॥
प्रश्न—भक्ति सभी साधनोंके अन्तमें तो है, पर आरम्भमें कैसे है?
उत्तर—मनुष्यका जब सांसारिक आकर्षण छूटता है और परमात्मामें आकर्षण होता है, तभी वह साधनमें लगता है। परमात्मामें आकर्षण हुए बिना साधन होगा ही कैसे? यह आकर्षण ही भक्ति है। अत: भक्ति सभी साधनोंके आरम्भमें पारमार्थिक आकर्षणके रूपसे रहती है॥ १८८॥
प्रश्न—रामायणमें काकभुशुण्डिजी भक्तिको सर्वोपरि मानते हैं और योगवासिष्ठमें वे ज्ञानको सर्वोपरि मानते हैं, हम किसको ठीक मानें?
उत्तर—गहरा विचार करें तो तत्त्व एक ही है। संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद (मुक्ति) करनेमें ज्ञान और भक्ति—दोनोंमें कोई फर्क नहीं है, केवल दृष्टिकोण (साधन-दृष्टि)-का फर्क है—
भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा।
उभय हरहिं भव संभव खेदा॥
(मानस, उत्तर० ११५। ७)
प्रेमके बिना ज्ञान शून्यतामें चला जाता है और ज्ञानके बिना प्रेम आसक्तिमें चला जाता है। ज्ञानकी अपेक्षा भक्ति सुगम भी है और श्रेष्ठ भी। भगवान्की कृपाका आश्रय होनेसे यह सुगम है और प्रेम होनेसे श्रेष्ठ है॥ १८९॥
प्रश्न—मुक्ति होनेके बाद जो दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य भाव होते हैं, वे किस आधारपर होते हैं?
उत्तर—पहलेके (साधनावस्थाके ) संस्कारको लेकर होते हैं॥ १९०॥
प्रश्न—भगवान् विरह क्यों देते हैं?
उत्तर—भगवान् विरह इसलिये देते हैं कि भक्त अपनेमें प्रेमकी कमी अनुभव करे और कमी अनुभव करनेसे प्रेम बढ़े; क्योंकि विरहके बिना प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान नहीं होता। भगवान् भक्तको उस आनन्दका अनुभव कराना चाहते हैं, जो उनके भीतर है॥ १९१॥
प्रश्न—शरीर चिन्मय कैसे होता है? जैसे—मीराबाईका शरीर चिन्मय होकर भगवान्के श्रीविग्रहमें लीन हो गया?
उत्तर—जब भगवान्के प्रति भक्तकी आत्मीयता अधिक प्रगाढ़ हो जाती है, तब उसका शरीर भी चिन्मय हो जाता है। उसके भीतरका भाव इतना दृढ़ हो जाता है कि वह मन-बुद्धि-शरीरमें उतर आता है। शरीर चिन्मय होनेपर वह भगवान्के अवतारी शरीरकी तरह हो जाता है। उसमें कोई रोग नहीं आता॥ १९२॥
प्रश्न—शरीरनिर्वाहके लिये तो संसारपर निर्भर होना ही पड़ता है, फिर भगवान्पर पूर्ण निर्भरता कैसे हो?
उत्तर—जैसे बालक खिलौनोंसे खेलता है, पर उसकी निर्भरता मॉँपर ही होती है, ऐसे ही व्यवहारमें अन्यकी निर्भरता होनेपर भी अपनी पूर्ण निर्भरता भगवान्पर ही होनी चाहिये। वास्तवमें शरीरका निर्वाह संसारपर निर्भर होनेसे नहीं होता, प्रत्युत प्रारब्धके अनुसार होता है॥ १९३॥