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चुप-साधन

प्रश्न—चुप-साधन सुगमतापूर्वक कैसे होता है?

उत्तर—मेरेको बैठना है, चुप-साधन करना है—ऐसा संकल्प रहनेसे चुप-साधन बढ़िया नहीं होता; क्योंकि वृत्तिमें गर्भ रहता है। मेरेको कुछ नहीं करना है—यह भी ‘करना’ ही है। चुप-साधन बढ़िया तब होता है, जब कुछ करनेकी रुचि न रहे। जो देखना था, देख लिया; सुनना था, सुन लिया; बोलना था, बोल लिया। इस प्रकार कुछ भी देखने, सुनने, बोलने आदिकी रुचि न रहे। रुचि रहनेसे चुप-साधन बढ़िया नहीं होता॥ ५६॥

प्रश्न—कुछ करनेकी रुचि न रहे तो सिद्धि हो गयी, फिर साधन कैसे होगा?

उत्तर—सिद्धि होनेपर रुचि नहीं रहती—इतनी ही बात नहीं है, प्रत्युत असत् की सत्ता ही उठ जाती है! न करनेकी रुचि रहती है, न नहीं करनेकी रुचि रहती है—‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन’ (गीता ३। १८)। अत: रुचि न रहनेसे ही सिद्धि नहीं होती, प्रत्युत असत् की सत्ता न रहनेसे सिद्धि होती है। सर्वथा रुचि न मिटनेपर भी चुप-साधन हो सकता है॥ ५७॥

प्रश्न—चुप-साधनमें बाधक क्या है?

उत्तर—पदार्थ और क्रियाका आकर्षण अर्थात् पदार्थकी आसक्ति और करनेका वेग चुप-साधनमें बाधक है॥ ५८॥

प्रश्न—चुप-साधन और समाधिमें क्या अन्तर है?

उत्तर—चुप-साधन समाधिसे श्रेष्ठ है; क्योंकि इससे समाधिकी अपेक्षा शीघ्र तत्त्वप्राप्ति होती है। चुप-साधन स्वत: है, कृतिसाध्य नहीं है, पर समाधि कृतिसाध्य है। चुप होनेमें सब एक हो जाते हैं, पर समाधिमें सब एक नहीं होते। समाधिमें समय पाकर स्वत: व्युत्थान होता है, पर चुप-साधनमें व्युत्थान नहीं होता। चुप-साधनमें वृत्तिसे सम्बन्ध-विच्छेद है, पर समाधिमें वृत्तिकी सहायता है॥ ५९॥

प्रश्न—चुप-साधनमें चिन्तनकी उपेक्षा कौन करता है?

उत्तर—उपेक्षा स्वयं करता है, जो कर्ता है अर्थात् जिसमें कर्तृत्व है। सिद्ध होनेपर वह स्वभाव बन जाता है, उसका कर्तृत्व नहीं रहता॥ ६०॥

प्रश्न—उपेक्षा अथवा साक्षीका भाव रहेगा तो बुद्धिमें ही?

उत्तर—भाव तो बुद्धिमें रहेगा, पर उसका परिणाम स्वयं (स्वरूप)-में होगा; जैसे—युद्ध तो सेना करती है, पर विजय राजाकी होती है। उपेक्षासे, उदासीनतासे स्वयंका जड़तासे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है॥ ६१॥

प्रश्न—जाग्रत्-सुषुप्तिके क्या लक्षण हैं?

उत्तर—जब न तो स्थूलशरीरकी ‘क्रिया’ हो, न सूक्ष्म-शरीरका ‘चिन्तन’ हो और न कारणशरीरकी ‘निद्रा’ तथा ‘बेहोशी’ हो, तब जाग्रत्-सुषुप्ति होती है। जाग्रत्-सुषुप्ति और चुप-साधन एक ही हैं।

समाधिमें तो लय, विक्षेप, कषाय और रसास्वाद—ये चार दोष (विघ्न) रहते हैं, पर जाग्रत्-सुषुप्तिमें ये दोष नहीं रहते। ध्येय परमात्माका होनेसे जब साधककी वृत्तियॉँ परमात्मामें लग जाती हैं, तब जाग्रत्-सुषुप्ति होती है। इसमें सुषुप्तिकी तरह बाहृा ज्ञान नहीं रहता, पर भीतरमें ज्ञानका विशेष प्रकाश(स्वरूपकी जागृति) रहता है॥ ६२॥

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