जीवन्मुक्त (तत्त्वज्ञ)
प्रश्न—ज्ञानी महापुरुषके द्वारा जो क्रियाएँ होती हैं, उनका कर्ता कोई नहीं होता, फिर (अहम्के बिना) वे क्रियाएँ कैसी होती हैं?
उत्तर—जीवन्मुक्त की कियाएँ अभिमानशून्य अहम्से होती हैं,जिसको ‘अहंवृत्ति’ (वृत्तिरूप समष्टि अहंकार) भी कहते हैं। जब उसका कहलानेवाला शरीर नहीं रहता, तब यह अभिमानशून्य अहम् परमात्मतत्त्वमें विलीन हो जाता है।
जबतक प्रारब्धका वेग रहता है, तबतक जीवन्मुक्तके द्वारा अपने तथा दूसरेके प्रारब्धके अनुसार क्रिया होती है। परन्तु वह क्रिया बिना कर्ताके होती है; जैसे—रेलगाड़ी चल रही हो और ड्राइवर उसमेंसे बाहर कूद जाय तो बिना ड्राइवरके भी वह गाड़ी चलती रहती है अथवा आदमी ठेलेको धक्का देकर फिर स्वयं उसपर चढ़ जाता है तो बिना चालकके भी ठेला (जबतक वेग है, तबतक) चलता जाता है।
मुक्त पुरुषका पहले (साधनावस्थामें) जैसा स्वभाव, संग, शिक्षा, साधना आदि रहे हैं, उसके अनुसार उसके द्वारा सब क्रियाएँ होती हैं। अहंभाव न रहनेसे वे क्रियाएँ फलजनक नहीं होतीं।
दूसरे व्यक्तिके सद्भावके अनुसार जीवन्मुक्त महापुरुषके द्वारा विशेष क्रिया हो सकती है, उसके उद्धारका भाव पैदा हो सकता है। अत: उनपर सद्भाव करके मनुष्य बहुत विशेष लाभ ले सकता है॥ ६३॥
प्रश्न—क्या ज्ञानी महापुरुषके द्वारा व्यवहारमें भूल हो सकती है?
उत्तर—हॉँ, हो सकती है, तभी उपनिषद्के दीक्षान्त उपदेशमें आया है—
यान्यस्माकॸ सुचरितानि। तानि त्वयोपास्यानि। नो इतराणि।
(तैत्तिरीय० १। ११)
‘हमारे जो-जो अच्छे आचरण हैं, उनका ही तुम्हें सेवन करना चाहिये, दूसरोंका कभी नहीं।’
यदि व्यवहारमें भूल नहीं होती तो वे ऐसा क्यों कहते? दूसरी बात, उनके सब आचरणोंको हम समझ सकते ही नहीं कि किस समय उन्होंने क्या किया और क्यों किया। अपनी श्रद्धा हो तो उनकी भूलसे भी लाभ ही होता है, नुकसान नहीं। कारण कि श्रद्धालु आदमी अपनी समझकी कमी स्वीकार करता है कि ये तो ठीक करते हैं, पर मैं समझा नहीं। अपनी कमी न माननेसे, अपनी बुद्धिमानीका अभिमान होनेसे ही मनुष्य तत्त्वज्ञ महापुरुषमें दोषारोपण करता है—‘निज अग्यान राम पर धरहीं’ (मानस, उत्तर० ७३। ५)॥ ६४॥
प्रश्न—क्या ज्ञानी महापुरुषके द्वारा निषिद्ध क्रिया भी हो सकती है?
उत्तर—निषिद्ध क्रिया कामनासे होती है१। ज्ञान होनेपर कामनाका सर्वथा नाश हो जाता है—‘परं दृष्ट्वा निवर्तते’ (गीता २। ५९), ‘कामक्रोधवियुक्तानाम्’ (गीता ५। २६)। अत: ज्ञानीके द्वारा निषिद्ध क्रिया होना सम्भव ही नहीं है। परन्तु मनके अनुकूल न होनेसे दूसरेको ज्ञानीकी कोई क्रिया निषिद्ध दीख सकती है। कारण कि दूसरेकी कोई क्रिया हमारे मनके प्रतिकूल होगी तो वह हमें बुरी लगेगी ही, भले ही वह क्रिया अच्छी क्यों न हो!२ दूसरेने कौन-सी क्रिया किस भावसे की, किस परिस्थितिमें की—इसका निर्णय करना कठिन होता है।
१-काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव:।
महाशनो महापाप्मा विद्धॺेनमिह वैरिणम्॥
(गीता३।३७)
२-द्वेष्यो न साधुर्भवति न मेधावी न पण्डित:।
प्रिये शुभानि कार्याणि द्वेष्ये पापानि चैव ह॥
(महाभारत,उद्योग०३९। ४)
‘जिससे द्वेष हो जाता है, वह न तो साधु, न विद्वान् और न बुद्धिमान् ही जान पड़ता है। प्रियके सभी कर्म शुभ प्रतीत होते हैं और द्वेष्यके सभी कर्म पाप।’
भगवान् और महात्माके द्वारा कभी किसीका अहित नहीं होता—
हेतु रहित जग जुग उपकारी।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥
(मानस, उत्तर० ४७। ३)
नारदजीने नलकूबर और मणिग्रीवको वृक्ष बननेका शाप दिया तो वह शाप भी भगवान्की प्राप्ति करानेवाला हो गया*!॥ ६५॥
* साधूनां समचित्तानां सुतरां मत्कृतात्मनाम्।
दर्शनान्नो भवेद् बन्ध: पुंसोऽक्ष्णो: सवितुर्यथा॥
(श्रीमद्भा० १०। १०। ४१)
‘जिनकी बुद्धि समदर्शिनी है और हृदय पूर्णरूपसे मेरे प्रति समर्पित है, उन साधु पुरुषोंके दर्शनसे बन्धन होना ठीक वैसे ही सम्भव नहीं है, जैसे सूर्योदय होनेपर मनुष्यके नेत्रोंके सामने अन्धकारका होना।’
प्रश्न—क्या जीवन्मुक्त महापुरुषपर लोकसंग्रहकी जिम्मेवारी रहती है?
उत्तर—जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ महापुरुषपर लोकसंग्रहकी अथवा प्राणिमात्रका हित करनेकी जिम्मेवारी नहीं रहती। उनका खुदका किंचिन्मात्र भी कोई प्रयोजन नहीं रहता—‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन’ (गीता ३। १८)। उनपर किसीका भी ऋण नहीं रहता। उनके लिये कुछ भी करना, जानना और पाना शेष नहीं रहता। परन्तु साधनावस्थामें प्राणिमात्रके हितका स्वभाव होनेसे सिद्धावस्थामें भी उनका वह स्वभाव बना रहता है—‘स्वभावस्तु प्रवर्तते’ (गीता ५। १४)। अत: वे लोकसंग्रह करते नहीं, प्रत्युत उनके द्वारा स्वत: लोकसंग्रह होता है॥ ६६॥
प्रश्न—जीवन्मुक्त महापुरुषको शारीरिक पीड़ाका अनुभव होता है या नहीं?
उत्तर—उसको पीड़ाका ज्ञान तो होता है, पर दु:ख नहीं होता॥ ६७॥
प्रश्न—जब उसका शरीरसे सम्बन्ध रहा ही नहीं तो फिर उसको शरीरकी पीड़ाका ज्ञान क्यों होता है?
उत्तर—जीवन्मुक्त होनेपर चेतन सर्वव्यापी होता है, प्राण सर्वव्यापी नहीं होते। वह शरीरसे निरपेक्ष होता है, शरीरसे रहित नहीं होता। उसका शरीरसे ज्ञानपूर्वक सम्बन्ध होता है, अज्ञानपूर्वक नहीं। साधनावस्थासे ही उसका शरीरके साथ सम्बन्ध रहा है, इस कारण उसको शरीरकी पीड़ाका ज्ञान तो होता है, पर उसका असर नहीं पड़ता अर्थात् दु:खरूप विकार नहीं होता। जैसे बचपनमें कॉँचके टुकड़ोंका भी असर पड़ता था, वे बड़े अच्छे दीखते थे; परन्तु अब हमें काँचके टुकड़ोंका ज्ञान तो है, पर उनका असर नहीं पड़ता।
यदि पीड़ाका ज्ञान न हो तो जीवन्मुक्ति सिद्ध हो ही नहीं सकती। जीवन्मुक्त अर्थात् जीवन(शरीर)-के रहते हुए मुक्त हो गया—ऐसा कहनेका यही अर्थ है कि शरीरकी पीड़ा आदिका असर (सुख-दु:ख) नहीं होता। मुक्ति सुख-दु:खसे होती है। सुख-दु:ख विकार हैं, ज्ञान विकार नहीं है। ज्ञान तो हो, पर विकार न हो—यह महत्त्वकी बात है। ज्ञान न होना महत्त्वकी बात नहीं है। ज्ञान तो मूर्च्छित व्यक्तिको भी नहीं होता। जो साधारण (बद्ध) मनुष्य है, उसकी वृत्ति अगर दूसरी जगह लगी हो तो उसको भी पीड़ाका ज्ञान नहीं होता। सती होनेवाली स्त्रीको भी पीड़ाका ज्ञान नहीं होता। अत्यन्त वीर पुरुषको भी युद्धमें पीड़ाका ज्ञान नहीं होता। अत: पीड़ाका ज्ञान न होना तत्त्वज्ञानका अथवा प्रेमका लक्षण नहीं है॥ ६८॥
प्रश्न—जीवन्मुक्त महापुरुष यदि व्यवहारमें उतरे तो क्या अहंकार अनिवार्य है?
उत्तर—नहीं। उसके द्वारा अहंकाररहित ‘क्रिया’ होती है, अहंकारयुक्त ‘कर्म’ नहीं होता—‘क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे’ (मुण्डक० २। २। ८)॥ ६९॥
प्रश्न—जीवन्मुक्तके द्वारा शौच-स्नान आदि व्यवहार कैसे होता है?
उत्तर—जैसे कुम्हार एक बार चक्केको चलाकर छोड़ देता है, फिर चक्का स्वत: चलता रहता है, ऐसे ही पूर्वसंस्कारोंके वेगसे जीवन्मुक्तका शरीर चलता रहता है, उसका व्यवहार होता रहता हैै। तात्पर्य है कि उसके द्वारा वैसा ही व्यवहार होता है, जैसा पहले होता था। परन्तु ज्ञान होनेपर उसमें निर्लिप्तता आती है और कोई फर्क नहीं पड़ता। सामान्य लोग जैसे संसारको नित्य मानते हुए व्यवहार करते हैं, ऐसे ही तत्त्वज्ञानीके द्वारा संसारको अनित्य मानते हुए व्यवहार होता है। उसके अनुभवमें अन्त:करणसहित सम्पूर्ण संसारका सर्वथा अभाव होता है।
जीवन्मुक्तका व्यवहार तीन कारणोंसे होता है—
१-प्रारब्धसे प्राप्त परिस्थितिके अनुसार।
२-स्वभावके अनुसार*।
* सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रह: किं करिष्यति॥
(गीता ३। ३३)
‘सम्पूर्ण प्राणी प्रकृतिको प्राप्त होते हैं। ज्ञानी महापुरुष भी अपनी प्रकृतिके अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसीका हठ क्या करेगा?’
३-सामने आये हुए व्यक्ति या समुदायकी भावनाके अनुसार।
यथायोग्य व्यवहार होनेपर भी जीवन्मुक्त महापुरुषकी असंगता ज्यों-की-त्यों रहती है। उनके द्वारा होनेवाली चेष्टाएँ राग-द्वेषरहित होती हैं॥ ७०॥
प्रश्न—जीवन्मुक्त महापुरुषमें हर्ष-शोक होना, राजी-नाराज होना भी देखा जाता है, इसमें क्या कारण है?
उत्तर—वह केवल दूसरोंके हितके लिये किया गया नाटक है! जैसे, माता-पिता अपने बालकपर क्रोध करते हैं तो केवल उसका हित करनेके लिये करते हैं, अनिष्ट करनेके लिये नहीं। परन्तु जीवन्मुक्त को ऐसा नाटक भी करना नहीं पड़ता, प्रत्युत उनके द्वारा स्वत: दूसरोंके हितकी चेष्टा होती है॥ ७१॥
प्रश्न—क्या मुक्त होनेपर महापुरुष अपने मतका मण्डन तथा दूसरे मतका खण्डन करते हैं?
उत्तर—हाँ, करते हैं; परन्तु उनकी नीयत शुद्ध रहती है। लोग उत्पथगामी (कुमार्गी) न हो जायॅँ, उनका उद्धार हो जाय, इसके लिये वे अपने अनुभव किये हुए मत (साधन-प्रणाली)-का, जिसमें वे नि:सन्देह हैं, प्रचार करते हैं। वे राग-द्वेषपूर्वक खण्डन-मण्डन नहीं करते। वे साधकोंकी दुविधा मिटानेके लिये खण्डन-मण्डन करते हैं; क्योंकि साधकमें दुविधा रहेगी तो वह एक साधनमें पूरी तरह लगेगा नहीं॥ ७२॥
प्रश्न—मुक्त होनेपर भी जो सूक्ष्म अहम् रहता है, उसका स्वरूप क्या है?
उत्तर—एक आग्रह (राग) होता है और एक प्रेम। अगर साधन, सत्संग आदिमें आग्रह होगा तो उसमें (साधन आदिमें) बाधा लगनेपर क्रोध आयेगा और प्रेम होगा तो उसमें बाधा लगनेपर रोना आयेगा—यह आग्रह और प्रेमकी पहचान है। बद्ध पुरुषमें तो अपने मतका आग्रह होता है, पर मुक्त पुरुषमें अपने मतका प्रेम होता है। जिस साधनसे मुक्ति प्राप्त की है; उस साधनके प्रति जो प्रेम है, कृतज्ञताका भाव है, वही सूक्ष्म अहम् अथवा अहम्का संस्कार है। यह सूक्ष्म अहम् कोई विकार पैदा करनेवाला तो नहीं होता, पर मतभेद पैदा करनेवाला होता है। जैसे जले हुए कागजपर अक्षर दीखते हैं, ऐसे ही मुक्त पुरुषमें अभिमानशून्य अहम् दीखता है। इस सूक्ष्म अहम्के कारण ही मुक्त महापुरुषोंमें द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत आदि अनेक मतभेद पैदा हुए हैं।॥ ७३॥
प्रश्न—आचार्योंमें रहनेवाला मतभेद क्या उनकी मुक्तिमें बाधक नहीं होता?
उत्तर—आचार्योंमें रहनेवाला मतभेद मुक्तिमें तो बाधक नहीं होता, पर आपसमें मिलन नहीं होने देता।
आचार्योंमें अपने मतके पालनकी बात विशेष होती है, दूसरेके खण्डनकी बात विशेष नहीं होती, इसलिये उनकी मुक्तिमें वह मतभेद बाधक नहीं होता। परन्तु उनके अनुयायियोंमें दूसरेके खण्डनकी बात विशेष होती है, अपने मतके पालनकी बात विशेष नहीं होती, इसलिये वह मतभेद उनकी मुक्तिमें बाधक होता है। आचार्योंमें दूसरेके हितका भाव विशेष होता है।॥ ७४॥
प्रश्न—मुक्त होनेपर भी जो सूक्ष्म अहम् रह जाता है, वह क्या पुन: पतन कर सकता है?
उत्तर—सूक्ष्म अहम् रहनेसे उनका पुन: जन्म तो हो सकता है, पर पुन: पतन (बन्धन) नहीं हो सकता। जैसे, जड़भरतको अन्तकालमें हरिणका चिन्तन होनेसे हरिणका शरीर मिला तो भी उनका पतन नहीं हुआ। हरिणके जन्ममें भी सूखे पत्ते खाकर संयमसे रहते थे। शरीरका मिलना (पुनर्जन्म होना) पतन नहीं है, प्रत्युत भीतरी स्थितिसे नीचे गिरना पतन है। अन्तकालमें किसी विशेष श्रद्धालुकी तरफ वृत्ति जानेसे मुक्त महापुरुषका भी पुनर्जन्म हो सकता है, पर पतन नहीं हो सकता॥ ७५॥
प्रश्न—मुक्तिके बाद रहनेवाला यह सूक्ष्म अहम् कब मिटता है?
उत्तर—परमप्रेम (पराभक्ति )-की प्राप्ति होनेपर यह सूक्ष्म अहम् सर्वथा मिट जाता है। इसीलिये कहा गया है—
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई।
अभिअंतर मल कबहुॅँ न जाई॥
(मानस, उत्तर० ४९। ३)॥ ७६॥
प्रश्न—चैतन्य महाप्रभु तो प्रेमी भक्त थे, फिर उनमें मतभेद (अचिन्त्यभेदाभेद) क्यों पाया जाता है?
उत्तर—चैतन्य महाप्रभुने केवल एक ही मत ‘प्रेम’-को स्वीकार किया और उसमें भी केवल ‘विप्रलम्भ’ (वियोग)-को मुख्यता दी—यह उनमें मतभेद था। वियोगका आग्रह होनेसे उनमें मतभेद हो गया।
जिसमें मतभेद नहीं होता, वह कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्ति-योग—तीनों योगोंकी बात कहता है। वह परमात्माके समग्ररूपको मानता है, जिसके अन्तर्गत सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार आदि सब रूप और सख्य, वात्सल्य, माधुर्य आदि सब भाव आ जाते हैं॥ ७७॥
प्रश्न—भक्तोंमें अपने मतका आग्रह भी पाया जाता है; जैसे—घण्टाकर्ण भगवान् शङ्करके सिवाय अन्य कोई नाम सुनना ही नहीं चाहता था। इसका क्या कारण है?
उत्तर—वास्तवमें भक्तका अपना कोई आग्रह नहीं होता, प्रत्युत भगवान्का ही आग्रह होता है—
अस अभिमान जाइ जनि भोरे।
मैं सेवक रघुपति पति मोरे॥
(मानस,अरण्य० ११। ११)
भगवान्का ही आश्रय होनेसे भगवान् भक्तके आग्रहको मिटा देते हैं॥ ७८॥
प्रश्न—क्या जीवन्मुक्त होनेके बाद भी अन्तकालीन चिन्तनके अनुसार गति होती है?
उत्तर—नहीं। जबतक अहम् है, तभीतक अन्तकालीन चिन्तनके अनुसार गति होती है? हॉँ, मुक्त होनेपर भी जो सूक्ष्म अहम् रह जाता है, उससे अन्तकालीन चिन्तनके अनुसार जन्म तो हो सकता है, पर पतन नहीं हो सकता। जैसे, जड़भरतको अन्तकालमें हरिणका चिन्तन होनेसे हरिणकी योनिमें जाना पड़ा। परन्तु हरिणका शरीर मिलनेपर भी उनका पतन नहीं हुआ। जैसे नदीका प्रवाह स्वत: समुद्रकी ओर जाता है, ऐसे ही भगवान्की तरफ स्वत: प्रवाह होनेके कारण हरिणका शरीर मिलनेपर भी वह प्रवाह बना रहा। वास्तवमें पशु-पक्षी आदिका शरीर मिलना पतन नहीं है, प्रत्युत भीतरी स्थितिसे नीचे गिरना पतन है। अत: अन्तकालमें ज्यादा श्रद्धा-भक्ति रखनेवाले किसी विशेष प्रियजनकी तरफ वृत्ति जानेसे महात्माका भी पुनर्जन्म हो सकता है, पर पतन नहीं हो सकता॥ ७९॥
प्रश्न—क्या तत्त्वज्ञानीको संसार स्वप्नकी तरह मिथ्या दीखता है?
उत्तर—विवेकी साधकको संसार स्वप्नकी तरह दीखता है। तत्त्वज्ञानीकी दृष्टिमें तो संसार है ही नहीं! उसकी दृष्टिमें एक परमात्माके सिवाय कुछ नहीं है—‘वासुदेव: सर्वम्’ (गीता ७। १९)॥ ८०॥
प्रश्न—क्या मुक्त पुरुषको ‘मैं सर्वगत हूँ’ ऐसा अनुभव होता है?
उत्तर—मैं सर्वगत(सर्वव्यापी) हूँ—ऐसा अनुभव ऊँचे साधकको होता है। मुक्त होनेपर तो मैं-पन मिट जाता है और एक सत्ताके सिवाय कुछ नहीं रहता। कारण कि जब ‘सर्व’ की सत्ता ही नहीं है तो फिर सर्वगतका अनुभव कैसे?॥ ८१॥
प्रश्न—क्या जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञानी महापुरुष सर्वज्ञ होते हैं?
उत्तर—जो करणसापेक्ष शैलीसे (योगाभ्यास करके) सिद्ध हुए हैं, वे सर्वज्ञ हो सकते हैं; क्योंकि वे प्रकृतिको साथ लेकर चले हैं। परन्तु जिन्होंने करणनिरपेक्ष शैलीसे (सम्बन्ध-विच्छेदपूर्वक) साधना की है, वे सर्वज्ञ नहीं होते। वे सर्वज्ञ होनेको महत्त्व ही नहीं देते।
स्वयंमें ‘सर्व’ की अर्थात् प्रकृतिकी सत्ता ही नहीं हैं। सर्वज्ञता प्रकृतिमें है। महापुरुषकी दृष्टिमें ‘सर्व’ है ही नहीं; क्योंकि उनकी दृष्टिमें एक परमात्मतत्त्वके सिवाय अन्यकी सत्ता ही नहीं रहती। प्रकृतिमें स्थित होनेपर ही वह सर्वज्ञ, त्रिकालज्ञ होता है।
महापुरुष सर्वज्ञ तो नहीं होता, पर दूसरे व्यक्ति की प्रबल जिज्ञासाके कारण उसके हृदयमें भविष्यकी कोई बात स्वत: पैदा हो सकती है॥ ८२॥
प्रश्न—तत्त्वज्ञ महात्माकी दृष्टिमें संसार है ही नहीं, फिर लोगोंको दु:खी देखकर उन्हें दु:ख क्यों होता है?
उत्तर—दु:ख नहीं होता, प्रत्युत व्यवहारमात्र होता है। लोगोंकी दृष्टिसे उनमें दु:ख दीखता है, पर वास्तवमें उनके भीतर दु:ख नहीं है। परन्तु व्यवहारमें उनके द्वारा दूसरोंका दु:ख मिटानेकी चेष्टा वैसी ही होती है। तात्पर्य है कि वे दु:खी नहीं होते, पर दु:ख दूर करनेकी चेष्टा वैसे ही करते हैं, जैसे साधारण मनुष्य करता है।
दूसरेके सुख-दु:खसे सुखी-दु:खी होना भोग है, योग नहीं। महात्माओंमें भोग नहीं होता, प्रत्युत योग होता है। वे दर्पणकी तरह सुख-दु:खको पकड़ते नहीं। योगमें स्वयं सुखी-दु:खी नहीं होता, पर चेष्टा वैसी होती है। यह चेष्टा कर्मयोगी और भक्तियोगीमें विशेष होती है। ज्ञानयोगी तटस्थ रहता है, उसमें समता (निर्लिप्तता) रहती है॥ ८३॥
प्रश्न—जीवन्मुक्त होनेके बाद भी क्या उसका धर्मी रहता है? क्या वह अपना अलग अस्तित्व बनाये रखता है?
उत्तर—हॉँ, अलग अस्तित्व रखता है। उसमें ‘मैं जीवन्मुक्त हो गया, दूसरे नहीं हुए’—यह भेद रहता है। अगर उसकी दृष्टिमें ‘सब जीवन्मुक्त हैं’ ऐसा मानें तो भी ‘दूसरोंको बन्धनका वहम है, मेरा वहम नहीं है’—यह भेद रहता ही है। इसलिये गीताने जीवन्मुक्तके लिये भी ‘स सर्वविद्भजति’ (१५। १९) पदोंसे भजन करनेकी बात कही है।
जीवन्मुक्ति के बाद बहुत दूरतक धर्मी रहता है। प्रेमकी प्राप्ति होनेपर फिर धर्मी नहीं रहता। धर्मी न रहनेपर भी स्वभाव-भेद रहता ही है—‘सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृतेर्ज्ञानवानपि’ (गीता ३। ३३)। तलवारको पारससे छुआ दिया जाय तो उसकी मार, धार और आकार नहीं बदलते, प्रत्युत धातु बदलती है। इसीलिये भगवान्ने सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंको पाँच भागोंमें विभक्त किया है (गीता १२। १३-१४,१५,१६,१७ और १८-१९)। भगवान्ने ‘प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानाम्’ (गीता १०। ३०) ‘दैत्योंमें प्रह्लाद मैं हूँ’—इन पदोंमें वर्तमानकालका प्रयोग किया है। इससे भक्तोंका अलग अस्तित्व सिद्ध होता है। ‘सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च’ (गीता १४। २) ‘ज्ञानी महापुरुष महासर्गमें भी पैदा नहीं होते और महाप्रलयमें भी व्यथित नहीं होते’—इन पदोंसे भी ज्ञानी महापुरुषोंका अलग अस्तित्व सिद्ध होता है।
तत्त्वज्ञान होनेपर अपनी सत्ताका नाश नहीं होता, प्रत्युत अपनी परिच्छिन्नताका, जड़-चेतनकी ग्रन्थिका नाश होता है।
जिसकी पहले प्राणिमात्रके हितमें रति रही है, उस मुक्त महापुरुषको भगवान् कारक पुरुषके रूपमें भेजते हैं। इससे सिद्ध हुआ कि मुक्त होनेपर उसकी अलग सत्ता मिटी नहीं।
भगवान्में लीन होनेका यह अर्थ नहीं है कि भक्त की सत्ता ही नहीं रही। एक मूर्ख आदमी विद्वान् बन जाता है तो क्या उसकी सत्ता मिट जाती है? भगवान्में लीन होनेका अर्थ है—भगवान्के रूपमें अवतार लेना। जैसे, भगवान् कच्छप, वराह आदि रूपोंमें अवतार लेते हैं तो उनकी सत्ता मिट नहीं जाती। भगवान्में लीन होनेपर जैसा होता है, वैसा अभी भी है। भगवान्में लीन होना अथवा उनके लोकमें निवास करना—दोनों नित्य हैं और भक्तके भावके अनुसार होते हैं। वास्तविक बातका पता अनुभव होनेपर ही लगता है॥ ८४॥
प्रश्न—कारक पुरुष कौन होते हैं?
उत्तर—जो मुक्त हो गये हैं, भगवान्को प्राप्त हो गये हैं, उन्हीं जीवोंमेंसे स्वभावके अनुसार भगवान् उनको कारक पुरुष, यमराज अथवा ब्रह्मा बनाते हैं। ‘कारक’ का अर्थ है—कल्याण करनेवाला। जिनका स्वभाव पहले प्राणिमात्रका हित करनेका रहा है, उनको भगवान् कारक पुरुष बनाकर पृथ्वीपर भेजते हैं। कारक पुरुषका जन्म भगवान्के अवतारकी तरह कर्मोंके अधीन नहीं होता, प्रत्युत भगवान्की इच्छाके अधीन होता है। उनके शरीरमें कोई रोग भी नहीं होता। श्रीवेदव्यासजी महाराज ऐसे ही कारक पुरुष थे॥ ८५॥
प्रश्न—क्या जीवन्मुक्त महापुरुषके द्वारा मृत्युसे बचनेकी चेष्टा होती है?
उत्तर—जैसे दूसरे व्यक्ति को बचानेकी चेष्टा होती है, ऐसे ही उनके द्वारा अपनेको बचानेकी चेष्टा होती है, पर जी जाय या मर जाय—इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता। कारण कि उनमें न तो जीनेकी इच्छा होती है और न मृत्युका भय ही होता है। उनके द्वारा बिना इच्छा और भयके, स्वत:-स्वभाविक चेष्टा होती है; जैसे—नींदमें मच्छर काटे तो हाथ स्वत: वहाँ जाता है, सर्दी लगे तो हाथ स्वत: कम्बलपर पड़ता है॥ ८६॥
प्रश्न—कोई व्यक्ति जीवन्मुक्त महापुरुषके दर्शन कर ले तो क्या उसका कल्याण हो जायगा?
उत्तर—भक्त, जीवन्मुक्त अथवा भगवान्के दर्शनसे ही कल्याण हो जाय—यह बात जँचती नहीं। दुर्योधन भगवान् श्रीकृष्णको एक चालाक आदमी समझता था तो उसको चालाक आदमीके दर्शन हुए,भगवान्के दर्शन कहाँ हुए! तात्पर्य है कि कल्याण होनेमें भावकी मुख्यता है। अपनी भावना (श्रद्धा-प्रेम) विशेष हो तो कल्याण हो सकता है॥ ८७॥
प्रश्न—भीष्मपितामह जीवन्मुक्त थे, फिर दुर्योधनका अन्न खानेसे उनकी बुद्धि अशुद्ध कैसे हो गयी?
उत्तर—मनुष्य जीवन्मुक्त होता है तो उसका शरीर संसारसे अलग नहीं होता, प्रत्युत वह स्वयं शरीरसे अलग हो जाता है। अत: अशुद्ध अन्न खानेसे जीवन्मुक्तकी वृत्तियाँ भी अशुद्ध हो सकती हैं, पर वह वृत्ति तात्कालिक होती है, स्थायी नहीं। भीष्मपितामहके जीवनसे यह शिक्षा मिलती है कि मनुष्यको खराब अन्न नहीं लेना चाहिये॥ ८८॥