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दान

प्रश्न—क्या मृत्युके बाद नेत्रदान करना उचित है?

उत्तर—सर्वथा अनुचित है। जैसे सम्पत्ति देनेका अधिकार बालिग (वयस्क)-को होता है, नाबालिग(अवयस्क)-को नहीं होता, ऐसे ही शरीरके किसी अंगका दान करनेका अधिकार जीवन्मुक्त महापुरुषको ही है। जिसने अपनी मुक्ति (कल्याण) कर लिया है, अपना मनुष्य-जन्म सफल बना लिया है, वह बालिग है, शेष सब नाबालिग हैं। जीवन्मुक्त महापुरुष भी शरीरके रहते हुए ही नेत्रदान कर सकता है, शरीर छूटनेके बाद नहीं।

शवके साथ छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिये। शवका कोई अंग काटनेसे अगले जन्ममें वह अंग नहीं मिलता। अंग मिलता भी है तो उसमें कमी अथवा चिह्न रहता है। कुछ व्यक्तियोंमें पूर्वजन्मका चिह्न इस जन्ममें भी देखा गया है। बालकके मरनेपर माताएँ उसके किसी अंगपर लहसुन लगा देती हैं तो वह चिह्न अगले जन्ममें भी रहता है॥ ९८॥

प्रश्न—दान अपनी वस्तुका ही होता है—‘स्वस्वत्वपरित्यागपूर्वकं परसत्त्वोत्पादनं दानम्’, फिर कर्मयोगी किसी भी वस्तुको अपनी न मानकर दूसरोंकी सेवा करता है—यह बात कैसे?

उत्तर—वस्तु अपनी माननेसे कामना होती है। उसीकी वस्तु उसीको दे दी तो फिर कामना कैसे? कामना करना बेईमानी है। वास्तवमें अपना कुछ नहीं है। जो भी वस्तु हमारे पास है, वह मिली है और बिछुड़नेवाली है। अत: जो मिला है, वह दूसरोंकी सेवाके लिये ही है।

जो वस्तु वास्तवमें अपनी है, उसका त्याग कभी होता ही नहीं। क्या स्वरूपका त्याग हो सकता है? क्या सूर्य अपनी किरणोंका त्याग कर सकता है? नहीं कर सकता। त्याग उसीका होता है, जो अपना नहीं है, पर भूलसे अपना मान लिया है। अत: अपनी मानकर वस्तु देना राजस-तामस त्याग है, जिससे मुक्ति नहीं होती॥ ९९॥

प्रश्न—पति दान करनसे मना करता हो तो क्या पत्नी छिपकर दान कर सकती है?

उत्तर—दान करना दोष नहीं है, पर छिपकर दान करना दोष है। स्त्रीको चाहिये कि वह पतिसे मासिक ले और उसमेंसे अर्थात् अपने हकके रुपयोंमेंसे दान करे। अपने हिस्सेकी वस्तुमें तो उसका अधिकार है ही।

पति आदिसे छिपकर दान करना ‘गुप्त दान’ नहीं है, प्रत्युत चोरी है। गुप्त दान वह है, जिसमें लेनेवालेको पता ही न लगे कि किसने दिया॥ १००॥

प्रश्न—कुछ लोग अपने घरके बाल-बच्चोंको, पत्नीको वस्तु न देकर दूसरोंको देते हैं, उनकी सेवा करते हैं—यह उचित है क्या?

उत्तर—ऐसे लोग वास्तवमें अपना कल्याण नहीं चाहते, प्रत्युत मान-बड़ाई चाहते हैं। वस्तुओंपर अपने परिवारवालोंका पहला हक है। जो हमसे जितना नजदीक होता है, उतना ही उसका अधिक हक होता है, उतना ही वह सेवाका अधिकारी होता है। परिवारवालोंका हमपर ऋण है। ऋण पहले उतारना चाहिये, दान-पुण्य पीछे करना चाहिये॥ १०१॥

प्रश्न—अपनेपर कर्जा हो तो क्या दान-पुण्य कर सकते हैं?

उत्तर—कर्जदार व्यक्तिको दान-पुण्य करनेका अधिकार नहीं है। इसलिये पहले कर्जा चुकाना चाहिये। हॉँ, यदि दान-पुण्य करना ही हो तो अपने रोटी-कपड़ेके खर्चेमेंसे निकालकर करना चाहिये॥ १०२॥

प्रश्न—मृतात्माके निमित्त ब्राह्मणको शय्या, वस्त्र आदिका दान करते हैं तो ब्राह्मण उन्हें बेच देते हैं और रुपये इकट्ठे कर लेते हैं, यह ठीक है क्या?

उत्तर—ब्राह्मणको दानमें मिली वस्तु बेचनी नहीं चाहिये, प्रत्युत उसको अपने काममें लेनी चाहिये। यदि वह उस वस्तुको बेचता है तो उसको पाप लगता है और जो उसको खरीदता है, वह उस मृतात्माका कर्जदार होता है।

यदि विधिकर्ता ब्राह्मणको शय्या आदि वस्तुओंकी आवश्यकता न हो तो यजमानको चाहिये कि वह उस ब्राह्मणसे विधि (संकल्प) करवा ले और उन वस्तुओंको दूसरे गरीब, अभावग्रस्त ब्राह्मणको दे दे। यदि विधिकर्ता ब्राह्मण ऐसा करनेमें राजी न हो तो उसको वस्तुएँ दे दे, फिर उन वस्तुओंको पैसे देकर वापिस खरीद ले और उन्हें दूसरे गरीब ब्राह्मणको दे दे। ऐसा करनेसे विधिकर्ता ब्राह्मणको तो रुपये मिल जायँगे और गरीब ब्राह्मणको वस्तुएँ मिल जायँगी। तात्पर्य है कि वस्तुएँ उसी ब्राह्मणको देनी चाहिये, जो उनको खुद काममें ले॥ १०३॥

प्रश्न—पैसा देकर वस्तु खरीदनेपर तो दोष नहीं लगता, फिर ब्राह्मणसे शय्या आदि खरीदनेवाला दोषी (मृतात्माका कर्जदार) क्यों होता है?

उत्तर—वह सस्तेमें वस्तुएँ खरीदता है, इसीलिये उसको दोष लगता है। यदि सवाया-डॺोढ़ा अधिक मूल्य देकर खरीदे तो दोष नहीं लगेगा॥ १०४॥

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