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दोष (काम-क्रोधादि)

प्रश्न—जैसे द्रवित मोममें जो रंग डाला जाय, वही उसमें बैठ जाता है, ऐसे ही द्रवित चित्तमें जो कामादि दोष बैठ गये हैं। उनको कैसे निकालें?

उत्तर—द्रवित चित्तमें काले श्यामसुन्दरको बैठा दें। काले रंगमें सब रंग समा जाते हैं॥ १०५॥

प्रश्न—दोष आने-जानेवाले हैं, पर दीखता ऐसा है कि दोष कहींसे आते नहीं, प्रत्युत अपने भीतर ही रहते हैं और समयपर जाग्रत् हो जाते हैं?

उत्तर—दोष अन्त:करणमें आदतरूपसे, संस्काररूपसे रहते हैं और अन्त:करणमें ही जाग्रत् होते हैं। परन्तु अन्त:करणके साथ तादात्म्य होनेसे उन दोषोंको हम अपनेमें मान लेते हैं। अत: साधकमें यह सावधानी रहनी चाहिये कि वह दोषोंको अपनेमें न माने। कारण कि वास्तवमें दोष अपनेमें होते नहीं। स्वरूप निर्दोष है॥ १०६॥

प्रश्न—एक बात यह कही जाती है कि स्वरूप निर्दोष है और एक बात कही जाती है कि ‘मो सम कौन कुटिल खल कामी’—दोनोंमें कौन-सी बात ठीक है?

उत्तर—दोनों ही बातें ठीक हैं; क्योंकि दोनोंका परिणाम एक ही है और वह है—निर्दोष होना। पहली बात ज्ञानकी दृष्टिसे कही गयी है और दूसरी बात भक्तिकी दृष्टिसे। अपने स्वरूपको देखें तो वह निर्दोष है। भक्त भगवान‍्के सामने अपने दोषोंको कहता है तो उसका उद्देश्य दोषोंको रखनेका नहीं है, प्रत्युत मिटानेका है। भगवान‍्के सामने कोई दोष टिक सकता है क्या?

‘मो सम कौन कुटिल खल कामी’—ऐसा कहना अपनेमें दोषोंकी स्थापना करना नहीं है, प्रत्युत अपने दोषोंको भगवान‍्के सामने रखना है, उनको आगमें डालकर भस्म करना है।

जो साधक होता है, उसको अपनेमें थोड़ा भी दोष बहुत बड़ा दीखता है। वह चक्षुगोलकके समान होता है—‘अक्षिपात्रकल्पं योगिनम्’ (योगदर्शन २। १६ का व्यासभाष्य)। जैसे, पीठपर तिनका पड़ा हो तो कोई पीड़ा नहीं होती, पर आँखमें पड़ा छोटे-से-छोटा तिनका भी पीड़ा देता है॥ १०७॥

प्रश्न—सर्वथा निर्दोष जीवन कैसे मिलेगा?

उत्तर—सर्वथा निर्दोष जीवन मिलेगा निर्मम-निरहंकार होनेसे! कारण कि अहंता-ममता ही सम्पूर्ण दोषोंका घर है॥ १०८॥

प्रश्न—जो वस्तुएँ विजातीय हैं, उनमें ममता, कामना, आसक्ति कैसे होती है?

उत्तर—विजातीय शरीरको अपना स्वरूप (‘मैं’) मानकर हम सजातीय हो गये, इसलिये ममता, कामना, आसक्ति होती है॥ १०९॥

प्रश्न—क्रोध आनेपर क्या करना चाहिये?

उत्तर—चुप हो जाना चाहिये। बोलनेसे क्रोध बढ़ता है, चुप होनेसे क्रोध शान्त होता है। यदि बोले बिना रहा न जाय तो मुखमें ठण्डा जल भर ले और उसको कुछ देरतक मुखमें ही रखकर फिर धीरे-धीरे पी जाय। जलसे क्रोधरूपी अग्नि शान्त होती है।

मूलमें क्रोध अहंकार और कामनासे पैदा होता है— ‘कामात्क्रोधोऽभिजायते’ (गीता २। ६२)। जब अभिमानरूपी फोड़ेमें ठेस लगती है अथवा मनके विरुद्ध कोई बात होती है, तब क्रोध आता है। इसलिये अहंकार और कामनाका त्याग करना चाहिये।

शरीर संसारका है और मैं भगवान‍्का हूँ। मैं शरीरसे सर्वथा अलग हूँ। इस प्रकार विवेककी प्रधानता होनेसे क्रोध नहीं आता।

बड़ोंपर क्रोध आये तो उनके चरणोंमें गिर जाना चाहिये कि मुझे क्रोध आ गया!

सत्संग करनेसे स्वभाव सुधरता है और काम-क्रोधादि दोष कम होते हैं॥ ११०॥

प्रश्न—कामवृत्तिका नाश कैसे हो?

उत्तर—शरीरके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे ही काम-वृत्ति पैदा होती है। हमारा स्वरूप सत्तामात्र है। सत्तामात्रकी तरफ वृत्ति रहनेसे कामवृत्तिका नाश हो जाता है। कारण कि सत्तामें विकार नहीं है और विकारमें सत्ता नहीं है।

विचार करनेसे अथवा भगवान‍्से प्रार्थना करनेसे भी ‘काम’ से बचा जा सकता है। दृढ़ निश्चयसे भी ‘काम’ दूर जो जाता है; जैसे—पहले जमानेमें राजालोग ही नहीं, डाकू भी स्त्रियोंसे दुर्व्यवहार नहीं करते थे तो यह उनका दृढ़ निश्चय था।

‘काम’ नीरसतासे पैदा होता है। जैसे कुत्तेको मांस नहीं मिलता तो वह सूखी हड्डी ही चबाता है, जिससे उसके मुखसे खून निकलता है और वह उसीसे राजी हो जाता है! ऐसे ही नीरसतामें मनुष्य देखता है कि कोई भी भोग मिल जाय तो थोड़ा सुख ले लें! यदि भगवान‍्में प्रियता हो जाय तो नीरसता दूर हो जायगी और नीरसता दूर होनेसे ‘काम’ भी नहीं रहेगा॥ १११॥

प्रश्न—सब कुछ भगवान् ही हैं; अत:‘काम’ भी भगवान‍्का स्वरूप हुआ, फिर उसका निषेध क्यों?

उत्तर—मृत्यु भी भगवान‍्का स्वरूप है—‘मृत्यु: सर्वहरश्चाहम्’ (गीता १०। ३४) तो क्या कोई जान-बूझकर मरना चाहेगा? नरक भी भगवान‍्का स्वरूप है तो क्या कोई नरकोंमें जाना चाहेगा? परन्तु मनुष्यका उद्देश्य सदा अपने कल्याणका, आनन्दका ही होता है, दु:खका नहीं। अत: निषिद्ध क्रिया कभी नहीं करनी चाहिये॥ ११२॥

प्रश्न—ममता मिटानेका उपाय क्या है?

उत्तर—ममता-कामना मिटानेके लिये किसी श्रमसाध्य साधनकी आवश्यकता नहीं है, प्रत्युत विचारकी आवश्यकता है। मिलने और बिछुड़नेवाली वस्तु अपनी नहीं होती—यह विचार करना चाहिये॥ ११३॥

प्रश्न—किसीमें बुराई दीखे तो क्या करना चाहिये? उसका सुधार करें, उपेक्षा करें या प्रभुकी लीला मानें?

उत्तर—उसके सुधारकी चेष्टा करें और यदि वह न माने तो प्रभुकी लीला समझकर उपेक्षा कर दें॥ ११४॥

प्रश्न—कोई भी व्यक्ति बुरा नहीं है, कैसे?

उत्तर—सम्पूर्ण जीव परमात्माके अंश हैं—‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५। ७) और परमात्माका अंश कभी बुरा नहीं होता। बुराई तो आगन्तुक है अर्थात् संसारके सम्बन्धसे बुराई आयी है, मूलमें है नहीं। बुराईकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, प्रत्युत भलाईकी कमीका नाम ही बुराई है॥ ११५॥

प्रश्न—अगर किसीकी भी बुराई देखना दोष है तो फिर बुराई देखे बिना गुरु शिष्यका, पिता पुत्रका सुधार कैसे करेगा?

उत्तर—दूसरेको निर्दोष बनानेकी नीयतसे बुराई देखना दोष नहीं है। दोष है—बुराई देखकर राजी होना। गुरु शिष्यकी और पिता पुत्रकी बुराई देखकर राजी नहीं होता, प्रत्युत दु:खी होता है और उसको निर्दोष देखना चाहता है।॥ ११६॥

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