गीता
प्रश्न—भगवान्ने गीता युद्धके समय ही क्यों सुनायी?
उत्तर—यह बतानेके लिये कि युद्ध-जैसा घोर कर्म करते हुए भी मनुष्य कल्याणको प्राप्त हो सकता है! तात्पर्य है कि साधन किसी परिस्थिति-विशेषकी अपेक्षा नहीं रखता। वह प्रत्येक परिस्थिति, अवस्थामें हो सकता है। कारण कि परमात्मा प्रत्येक परिस्थितिमें ज्यों-का-त्यों विद्यमान है। अत: वह प्रत्येक परिस्थितिमें प्राप्त किया जा सकता है॥ ४२॥
प्रश्न—गीताका सिद्धान्त सर्वश्रेष्ठ क्यों माना गया है?
उत्तर—कारण कि वह सिद्धान्त स्वयं भगवान्का है, ऋषि-मुनियोंका नहीं! भगवान् ऋषि-मुनियोंके भी आदि हैं—‘अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वश:’ (गीता १०।२)। वास्तवमें भगवान्का सिद्धान्त ही ‘सिद्धान्त’ कहनेलायक है। अन्य दार्शनिकोंका सिद्धान्त वास्तवमें ‘सिद्धान्त’ नहीं है, प्रत्युत ‘मत’ है॥ ४३॥
प्रश्न—भगवान्ने रामायणमें कहा है—‘मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा॥ ’ (अरण्य० ३६।५) अर्जुनने तो भगवान्के विश्वरूप, चतुर्भुजरूप और द्विभुजरूप—तीनोंके दर्शन कर लिये थे, फिर उनका मोह दूर क्यों नहीं हुआ?
उत्तर—दर्शन देनेके बाद मोह दूर करनेकी जिम्मेवारी भगवान्की होती है। अर्जुनका मोह आगे चलकर नष्ट हो ही गया था—‘नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा’ (गीता १८।७३)। इससे सिद्ध हुआ कि दर्शनके बाद मोह नष्ट होता ही है। परन्तु अर्जुनने मोह नष्ट होनेमें न तो गीताश्रवणको और न दर्शनको ही कारण माना है, प्रत्युत भगवान्की कृपाको ही कारण माना है—‘त्वत्प्रसादान्मयाच्युत’॥ ४४॥
प्रश्न—गीतामें श्रेष्ठ पुरुषोंके आचरणकी मुख्यता बतायी है—‘यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:’ (३।२१) और भागवतमें वचनकी मुख्यता बतायी है—‘ईश्वराणां वच: सत्यं तथैवाचरितं क्वचित्’ (१०।३३।३२)। दोनोंमें कौन-सी बात मानें?
उत्तर—गीतामें तो संसारकी स्वाभाविक प्रवृत्ति बतायी है कि श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करते हैं, वैसा ही अन्य लोग भी करते हैं। परन्तु वास्तवमें कर्तव्य-अकर्तव्यके विषयमें वचनको प्रमाण मानना श्रेष्ठ है। इसलिये इतिहासकी अपेक्षा विधिको और विधिकी अपेक्षा निषेधको प्रबल माना गया है।
श्रेष्ठ पुरुषोंके आचरणका स्वाभाविक ही दूसरेपर असर पड़ता है, चाहे हम देखें या न देखें। परन्तु जहाँ उनके आचरण और वचनोंमें विरोध दीखे, वहाँ उनके आचरण न देखकर उनके वचनोंका ही पालन करना चाहिये। कारण कि उन्होंने किस परिस्थितिमें क्या किया—इसका पता लगता नहीं॥ ४५॥
प्रश्न—असत् की सत्ता ही नहीं है—‘नासतो विद्यते भाव:’ (गीता २।१६), फिर प्रकृतिको अनादि क्यों कहा है—‘प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्धॺनादी उभावपि’ (गीता १३।१९)? अनादि कहनेसे यह भाव निकलता है कि प्रकृतिकी सत्ता है?
उत्तर—अज्ञानीको समझानेके लिये अज्ञानीकी ही भाषा बोलनी पड़ती है। हम प्रकृतिकी सत्ता मानते हैं, इसलिये शास्त्र हमारी भाषामें ही कहते हैं। वास्तवमें प्रकृतिकी सत्ता है ही नहीं। परन्तु जिनकी दृष्टिमें प्रकृतिकी सत्ता है, उनके लिये प्रकृतिको अनादि कहा गया है। प्रकृति अनादि होते हुए भी अनन्त नहीं है, प्रत्युत सान्त (अन्तवाली) है।
दृष्टिभेदसे दर्शन अनेक हैं, तत्त्व एक है। जहाँ द्रष्टा,दृष्टि और दृश्य नहीं है, वहाँ भेद नहीं है। द्रष्टा, ज्ञाता, दार्शनिक, दर्शन जबतक हैं, तबतक भेद है। इनसे आगे तत्त्वमें भेद नहीं है॥ ४६॥
प्रश्न—गीताने प्रकृतिको अनादि तो कहा है, अनन्त या सान्त नहीं कहा है, ऐसा क्यों?
उत्तर—अगर प्रकृतिको अनन्त (नित्य) कहें तो ज्ञानका खण्डन होता है; क्योंकि ज्ञानकी दृष्टिसे प्रकृतिकी सत्ता ही नहीं है—‘नासतो विद्यते भाव:’ (गीता २। १६)। अगर प्रकृतिको सान्त (अनित्य) कहें तो भक्तिका खण्डन होता है; क्योंकि भक्तिकी दृष्टिसे प्रकृति भगवान्की शक्ति होनेसे भगवान्से अभिन्न है—‘सदसच्चाहम्’ (गीता ९। १९)। अत: भगवान्ने ज्ञान और भक्ति —दोनोंकी बात रखनेके लिये ही प्रकृतिको न अनन्त कहा है और न सान्त कहा है, प्रत्युत अनादि कहा है॥ ४७॥
प्रश्न—भगवान्ने गीतामें कहा है कि अगर मैं कर्तव्यका पालन नहीं करूँगा तो लोग भी कर्तव्यसे विमुख हो जायँगे, इसलिये मैं भी कर्तव्यका पालन करता हूँ (३। २२—२४)। फिर आजकल लोग अपने कर्तव्यका पालन क्यों नहीं करते?
उत्तर—भगवान्की बात उन लोगोंके लिये है, जो भगवान्को माननेवाले (आस्तिक) हैं। कारण कि भगवान्के कर्तव्य-पालनका असर उन्हीं लोगोंपर पड़ेगा, जो भगवान्पर श्रद्धा-विश्वास रखते हैं। जो भगवान्को नहीं मानते, उनपर भगवान्के कर्तव्यपालनका असर नहीं पड़ेगा। जिनकी विपरीत बुद्धि हो रही है, वे भगवान्की कृपाको क्या समझें॥ ४८॥
प्रश्न—गीतामें भगवान्ने कहा है—‘सुखं दु:खं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च’ (१०। ४)। ‘अभय’ दैवी सम्पत्ति है और ‘भय’ आसुरी सम्पत्ति, फिर दोनों भगवान्के स्वरूप कैसे हुए?
उत्तर—दैवी सम्पत्ति भी भगवान्का स्वरूप है और आसुरी सम्पत्ति भी भगवान्का स्वरूप हैै। अभय भी भगवान्का स्वरूप है और भय भी भगवान्का स्वरूप है। वास्तवमें तत्त्व एक ही है, पर हमारी कामना (भोगेच्छा)-के कारण दो विभाग हो जाते हैं।
भगवान्के विराट्रूपमें भयभीत भी दीखते हैं—‘रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति’ (गीता ११। ३६), ‘केचिद्भीता: प्राञ्जलयो गृणन्ति’ (गीता ११ । २१)। भयभीत भी विराट्रूपका ही अंग है। तात्पर्य है कि भयभीत होनेवाले भी भगवान् हैं और जिनसे भयभीत हो रहे हैं, वे भी भगवान् हैं।
मनुष्य सुख चाहता है, दु:ख नहीं चाहता, तभी दो विभाग हुए हैं और शास्त्रोंने भी दो विभागों (दैवी-आसुरी, शुभ-अशुभ, विहित-निषिद्ध आदि)-का वर्णन किया है। भेदके मूलमें भोगेच्छा ही है। सम्पूर्ण दु:ख, सन्ताप, अनिष्ट आदि भोगेच्छाके कारण ही हैं। भोगेच्छा सर्वथा मिटनेपर मोक्ष ही है॥ ४९॥
प्रश्न—भगवान्में मन लगाना करणसापेक्ष साधन है, जिसमें योगभ्रष्ट होनेकी सम्भावना रहती है। फिर गीतामें भक्तके द्वारा मन लगानेकी बात क्यों आयी है—‘मन्मना भव’ (९। ३४,१८। ६५)?
उत्तर—वास्तवमें भक्त स्वयं लगता है, मन नहीं लगाता। मन लगाकर स्वयं लगना करणसापेक्ष है, पर स्वयं लगकर मन स्वत: लग जाना करणनिरपेक्ष है। भक्त मन लगाकर स्वयं नहीं लगता। वह स्वयं लगता है (मद्भक्त:), फिर उसके मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ भी अपने-आप लग जाते हैं॥ ५०॥
प्रश्न—गीताने संसारको असत् तो कहा है, पर रज्जुमें सर्पकी तरह अध्यस्त नहीं कहा है, इसका क्या कारण है?
उत्तर—रस्सीमें सर्प तो बोध होनेके बाद नहीं दीखता, पर संसार बोध होनेके बाद भी दीखता है। आसक्ति (दोष) कर्तामें है, पर दीखती है संसारमें। अपने रागके कारण ही रुपयोंमें आकर्षण (लोभ) होता है। राग न रहनेपर रुपये तो वैसे ही दीखते हैं, पर आकर्षण नहीं रहता। इसी तरह भोगोंकी आसक्ति न रहनेपर संसार तो दीखता है, पर उसमें आकर्षण नहीं होता।
वास्तवमें संसार अध्यस्त नहीं है, प्रत्युत उसका सम्बन्ध अध्यस्त है। संसार आसक्तको भी दीखता है और विरक्त को भी, पर आसक्तको ठोस दीखता है, विरक्तको पोला। जो है नहीं, पर दीखता है, वह अध्यस्त होता है। परन्तु संसार जैसा है, वैसा ही दीखता है, पर उसका सम्बन्ध(राग)नहीं रहता। ज्ञानी महापुरुषको सोनेकी मुहर मुहररूपसे ही दीखती है, पत्थररूपसे नहीं दीखती, पर उसमें उसका राग नहीं होता। तात्पर्य है कि संसारकी सत्ता बाधक नहीं है, प्रत्युत रागपूर्वक जोड़ा गया सम्बन्ध बाधक है। वैराग्य वस्तुकी सत्ताका नाश नहीं करता, प्रत्युत रागका नाश करता है। रागपूर्वक सम्बन्ध बॉँधनेवाला है। संसार दु:खदायी नहीं है, उसका सम्बन्ध दु:खदायी है॥ ५१॥
प्रश्न—रज्जुमें सर्प दीखना ‘निरुपाधिक भ्रम’ है और दर्पणमें मुख दीखना ‘सोपाधिक भ्रम’ है। क्या संसारके दीखनेको ‘सोपाधिक भ्रम’ मान सकते हैं; क्योंकि भ्रम मिटनेपर भी दर्पणमें मुख तो दीखता ही है?
उत्तर—सोपाधिक भ्रम भी नहीं मान सकते; क्योंकि दर्पणमें मुख दीखता तो है, पर वह काम नहीं आता अर्थात् उससे व्यवहार नहीं होता। परन्तु संसारमें राग मिटनेपर भी व्यवहार तो होता ही है॥ ५२॥
प्रश्न—गीतामें आया है कि योगभ्रष्ट पुरुष शुद्ध श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है अथवा योगियोंके कुलमें जन्म लेता है (गीता ६। ४१-४२)। परन्तु जड़भरतने हरिणयोनिमें जन्म लिया। अत: वे कौन-से योगभ्रष्ट थे?
उत्तर—उनको योगभ्रष्ट नहीं कह सकते। कारण कि योगभ्रष्ट अपना साधन पूरा करनेके लिये शुद्ध श्रीमान्के घरमें अथवा योगीके घरमें जन्म लेता है और वहाँ पहले किये हुए साधनमें पुन: लगता हैै। परन्तु जड़भरतने न तो श्रीमान्के घरमें जन्म लिया और न योगीके कुलमें ही जन्म लिया, प्रत्युत हरिणयोनिमें जन्म लिया। उन्होंने हरिणयोनिमें कोई साधन भी नहीं किया। अत: वे योगभ्रष्ट नहीं थे, पर अन्तसमयमें हरिणकी तरफ वृत्ति जानेसे उनको पुन: जन्म लेना पड़ा॥ ५३॥
प्रश्न—भगवान्ने गीतामें कर्मयोग (साधन)-को अव्यय कहा है—‘इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्’ (४। १)। अव्यय अर्थात् नित्य तो साध्य है, साधन नित्य कैसे?
उत्तर—साधक ही साधन होकर साध्यमें लीन होता है। अत: साधक, साधन और साध्य—तीनों ही तत्त्वसे नित्य हैं। साधक, साधन और साध्य—तीनों एक ही हैं, पर मोहके कारण अलग-अलग दीखते हैं। तीनों नित्य हैं, पर मोह अनित्य है—‘नष्टो मोह:’ (गीता १८। ७३)॥ ५४॥
प्रश्न—भगवान्ने गीतामें स्वयं (आत्मा)-को ‘शरीरी’ (शरीरवाला) और ‘देही’ (देहवाला) कहा है, इससे सिद्ध हुआ कि स्वयंका शरीरके साथ सम्बन्ध है?
उत्तर—स्वयंका शरीरके साथ किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध न कभी था, न है, न होगा और न होना सम्भव ही है। परन्तु भगवान्ने साधकोंको समझानेकी दृष्टिसे स्वयंको ‘शरीरी’ अथवा ‘देही’ नामसे कहा है। ‘शरीरी’ कहनेका तात्पर्य यही बताना है कि तुम शरीर नहीं हो। स्वयं परमात्माका अंश है—‘ममैवांशो जीवलोके’(गीता १५। ७)और शरीर प्रकृतिका अंश है—‘मन:षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि’(गीता १५। ७)। शरीर प्रतिक्षण नष्ट होनेवाला और असत् है। ऐसे असत् शरीरको लेकर स्वयं शरीरी (शरीरवाला) कैसे हो सकता है? अत: साधक स्वयं शरीर भी नहीं है और शरीरी भी नहीं है॥ ५५॥