तत्त्वज्ञान
प्रश्न—तत्त्वज्ञान होनेपर किसमें फर्क पड़ता है?
उत्तर—तत्त्वज्ञान होनेपर न तो स्वयं (आत्मा)-में फर्क पड़ता है और न अन्त:करण (मन-बुद्धि)-में ही फर्क पड़ता है, प्रत्युत अपनी मान्यतामें फर्क पड़ता है, जो बुद्धिमें दीखती है।
बन्धन और मुक्ति दोनों कर्तामें ही हैं अर्थात् बन्धन और मुक्ति की मान्यता स्वयंमें है। स्वयंमें इस मान्यताकी स्वीकृति है॥ ८९॥
प्रश्न—तत्त्वज्ञान और तत्त्वनिष्ठामें क्या भेद है?
उत्तर—तत्त्वज्ञान होनेके बाद तत्त्वनिष्ठा होनेमें समय लगता है, पर मुक्तिमें सन्देह नहीं रहता। तत्त्वज्ञमें कुछ कोमलता रहती है, पर तत्त्वनिष्ठमें स्वत:-स्वाभाविक दृढ़ता रहती है। जैसे नींद खुलनेपर कुछ देरतक आँखोंमें भारीपन रहता है, आँखोंको प्रकाश सहन नहीं होता, ऐसे ही तत्त्वज्ञान होनेपर पहलेका कुछ संस्कार रहता है। पर तत्त्वनिष्ठा होनेपर यह संस्कार नहीं रहता।
तत्त्वज्ञका व्यवहार जलमें लकीरके समान और तत्त्वनिष्ठका व्यवहार आकाशमें लकीरके समान होता है। गीतामें ‘ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थित:’ (५। २०) पदोंमें आये ‘ब्रह्मविद्’ पदसे तत्त्वज्ञान होनेकी और ‘ब्रह्मणि स्थित:’ पदोंसे तत्त्वनिष्ठा होनेकी बात आयी है॥ ९०॥
प्रश्न—तत्त्वबोध होनेपर निष्ठा स्वत: होती है या उसके लिये कुछ करना पड़ता है?
उत्तर—निष्ठा स्वत: होती है। अपनी-अपनी प्रकृतिके अनुसार तत्त्वनिष्ठा होनेमें कम या अधिक समय लगता है। जैसे, शरीरकी प्रकृति अलग होनेसे किसीको जुकाम लगता है तो बहुत जल्दी ठीक हो जाता है और किसीको जल्दी ठीक नहीं होता। साधक असत् को जितनी महत्ता देता है, उतनी ही देरी लगती है और जितनी बेपरवाह करता है, उतनी ही जल्दी निष्ठा होती है॥ ९१॥
प्रश्न—राजा जनकको घोड़ेकी रकाबपर पैर रखते ही तत्त्वज्ञान हो गया तो ऐसे तत्काल तत्त्वज्ञान होनेमें क्या कारण है?
उत्तर—तीव्र जिज्ञासा हो, वर्तमान स्थितिमें सन्तोष न हो, अपनेमें कमीका अनुभव हो तथा वह कमी सहृा न हो तो बहुत जल्दी काम होता है। अत्यन्त श्रद्धा हो तो भी जल्दी काम होता है; जैसे—सन्त कह दें कि अमुक पदार्थ सोनेका है तो वह वैसा ही (सोनेका) दीखने लग जाय॥ ९२॥
प्रश्न—क्या तत्त्वज्ञान होनेपर स्वयंकी सम्पूर्ण शक्तियाँ प्रकट हो जाती हैं?
उत्तर—स्वयंमें अनन्त शक्तियाँ हैं। परन्तु तत्त्वज्ञान होनेपर वे सब शक्तियाँ प्रकट नहीं होतीं। तत्त्वज्ञानी महापुरुष ‘युञ्जान योगी’ होता है। अत: वह जहाँ वृत्ति लगाता है, वही शक्ति प्रकट होती है॥ ९३॥
प्रश्न—सात्त्विक ज्ञान और तत्त्वज्ञानमें क्या अन्तर है?
उत्तर—सात्त्विक ज्ञानमें संग है—‘सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ’ (गीता १४। ६), पर तत्त्वज्ञान सर्वथा असंग है। सात्त्विक ज्ञानमें द्रष्टा(देखनेवाला) रहता है, पर तत्त्वज्ञानमें द्रष्टा नहीं रहता। सात्त्विक ज्ञानमें ‘मैं ज्ञानी हूँ’—इस प्रकार अपनेमें विशेषताका भान होता है, पर तत्त्वज्ञानमें (ज्ञानी अर्थात् अहंभाव न रहनेसे) अपनेमें विशेषता नहीं दीखती॥ ९४॥
प्रश्न—क्या तपस्यासे ब्रह्मज्ञान हो सकता है?
उत्तर—तपस्यासे ब्रह्मज्ञान परम्परासे हो सकता है, साक्षात् नहीं। वेदान्तमें ज्ञानप्राप्तिके आठ अंतरंग साधन बताये हैं—विवेक, वैराग्य, शमादि षट्सम्पत्ति, मुमुक्षुता, श्रवण, मनन, निदिध्यासन और तत्त्वपदार्थसंशोधन। तपस्या ज्ञानप्राप्तिका अन्तरंग साधन नहीं है, प्रत्युत बहिरंग साधन है।
गीतामें ज्ञानको भी तप माना गया है—‘बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागता:’ (४। १०)। शारीरिक तप साधनमें सहायक तो हो सकता है, पर उससे ब्रह्मज्ञान नहीं हो सकता। शारीरिक तपसे अभिमान भी पैदा हो सकता है॥ ९५॥
प्रश्न—ज्ञान तो अनन्त है, फिर ‘तत्त्वज्ञान होनेपर जानना बाकी नहीं रहता’—यह कहनेका क्या तात्पर्य है?
उत्तर—वास्तवमें ज्ञान अनन्त है। अत: ‘तत्त्वज्ञान होनेपर जानना बाकी नहीं रहता’—ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि हमारी जिज्ञासा पूरी हो गयी। जैसे, हम कहते हैं कि मैंने पानी पी लिया तो इसका यह अर्थ नहीं है कि संसारमें पानी नहीं रहा, प्रत्युत यह अर्थ है कि हमारी प्यास बुझ गयी॥ ९६॥
प्रश्न—क्या तत्त्वज्ञान होनेके बाद भी ज्ञान बढ़ता रहता है?
उत्तर—तत्त्वज्ञान होनेपर बोधमें तो कोई फर्क नहीं पड़ता, पर जबतक तत्त्वज्ञ महापुरुषका शरीर रहता है, तबतक पहलेके अभ्यास अथवा स्वभावके कारण उसका विवेक (व्यवहारमें) बढ़ता रहता है। विवेक बढ़नेसे उसका विवेचन भी स्पष्ट तथा बढ़िया होता है और उसमें नये-नये दृष्टान्त, युक्तियाँ आती हैं। जैसे गैसबत्तीका मेण्टल जलनेके बाद विशेष प्रकाश देता है, ऐसे ही तत्त्वबोध होनेके बाद उस महापुरुषका विवेक विशेष प्रकाशित होता है। यह विशेषता चेतन (स्वरूप)-में नहीं आती, प्रत्युत जड़ (व्यवहार)-में आती है। कारण कि तत्त्वबोध होनेपर जड़-चेतनका सर्वथा विभाग हो जाता है अर्थात् जड़-चेतनकी ग्रन्थि टूट जाती है॥ ९७॥