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कामना

प्रश्न—सुखभोगकी इच्छा क्यों होती है?

उत्तर—शरीरके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे अर्थात् शरीरको मैं, मेरा और मेरे लिये माननेसे ही सुखभोगकी इच्छा होती है॥ ३२॥

प्रश्न—कामना और ममता मुझमें हैं या नहीं—इसका पता कैसे चले?

उत्तर—अगर हृदयमें कभी अशान्ति या हलचल होती है तो समझना चाहिये कि भीतरमें कामना है। अपने और परायेका भेद ममताके कारण होता है। जिसमें ममता होती है, उसीका अपनेपर असर पड़ता है॥ ३३॥

प्रश्न—सुखकी कामना और आशामें क्या अन्तर है?

उत्तर—सुख मिलनेकी तथा दु:ख न मिलनेकी ‘कामना’ होती है और सुख मिलनेकी सम्भावना होनेसे ‘आशा’ होती है॥ ३४॥

प्रश्न—हमारा दु:ख मिट जाय—यह कामना करनी चाहिये या नहीं?

उत्तर—कोई भी कामना नहीं करनी चाहिये। दु:ख मिट जाय—यह कामना करेंगे तो सुखका भोग होगा। बन्धन मिट जाय—यह कामना करेंगे तो मुक्तिका भोग होगा। जड़तासे सम्बन्ध-विच्छेद भी अपने लिये नहीं हो, नहीं तो सूक्ष्म अहम‍् रह जायगा। तात्पर्य है कि हमें कुछ लेना है ही नहीं।

साधक जितना ही भगवान‍्पर निर्भर होता है, उतना ही वह आगे बढ़ता चला जाता है। वह अपनी कोई इच्छा न रखे, सब भगवान‍्पर छोड़ दे तो बड़ी विलक्षणता आ जाती है और समग्रकी प्राप्ति हो जाती है। अत: अपनी मुक्तिकी भी इच्छा न रखे—यह बढ़िया है। जैसे, नरसीजीको भगवान् शंकरके दर्शन हुए तो उन्होंने कुछ भी माँगा नहीं, प्रत्युत यही कहा कि जो आपको अच्छा लगे, वही दो। मनुष्य उतनी ही इच्छा करता है, जितना उसको अपनी दृष्टिसे दीखता है। परन्तु आगे तत्त्व अनन्त है। आगे बहुत विलक्षण ऐश्वर्य है। साधक अपना आग्रह न रखे, सन्तोष न करे तो वह स्वत: आगे बढे़गा॥ ३५॥

प्रश्न—भगवान् कल्पवृक्ष हैं और मनुष्यमात्र उसकी छायामें रहता है, फिर मनुष्यकी सब इच्छाएँ पूरी क्यों नहीं होतीं?

उत्तर—कल्पवृक्षसे तो जो माँगो, वही देता है, भले ही उसमें हमारा हित न हो, पर भगवान् वही देते हैं, जिसमें हमारा हित हो। लोग तो वह इच्छा करते हैं, जिससे परिणाममें दु:ख पाना पडे़! इसलिये भगवान् उनकी इच्छा पूरी नहीं करते कि बस, इतना ही दु:ख काफी है, और दु:ख क्यों चाहते हो! कल्पवृक्ष और देवता तो दुकानदारके समान हैं, पर भगवान् पिताके समान हैं॥ ३६॥

प्रश्न—परन्तु भगवान् सत्-विषयक इच्छा भी कहाँ पूरी करते हैं! साधक उनको चाहते हैं तो क्या वे सबको मिल जाते हैं?

उत्तर—सत्-विषयक इच्छा इसलिये पूरी नहीं होती कि साथमें असत् की इच्छा भी मिली हुई रहती है॥ ३७॥

प्रश्न—एक पुस्तकमें आया है कि मनुष्य जो भी कामना करता है, उसकी पूर्ति होना आवश्यक है; क्या यह ठीक है?

उत्तर—ऐसा होना असम्भव है। कामनाएँ अनन्त हैं; अत: सभी कामनाएँ कभी पूरी नहीं होंगी और मुक्ति भी नहीं होगी! जिस कामनाको लेकर जप-तप आदि किया जाय, उसी कामनाकी पूर्ति होती है। जैसे, ध्रुवजीने राज्य-प्राप्तिकी कामनाको लेकर तपस्या की तो वह कामना पीछे न रहनेपर भी भगवान‍्ने पूरी की। इसी तरह भगवान‍्के पास जाते समय विभीषणके मनमें राज्यकी कामना रही, जिसको भगवान‍्ने पूरा किया। तात्पर्य है कि भगवान‍्के सामने जाते समय जो कामना रहती है, वही कामना बाधक होती है, जिसको भगवान् पूरी करते हैं॥ ३८॥

प्रश्न—जो किसी कामनाको लेकर भगवान‍्का भजन करता है, उसको भगवान‍्की प्राप्ति हो सकती है क्या?

उत्तर—भगवत्प्राप्ति तो दूर रही, उसका कल्याण भी नहीं हो सकता!॥ ३९॥

प्रश्न—परन्तु भगवान‍्ने धनकी कामनावाले अर्थार्थी भक्तको भी उदार कहा है—‘उदारा: सर्व एवैते’ (गीता ७।१८)?

उत्तर—अर्थार्थी भक्तके हृदयमें भगवान् मुख्य हैं, धन गौण है। इसलिये भगवान‍्ने कहा है—‘चतुर्विधा भजन्ते माम्’ (गीता ७।१६)। वह भगवान‍्के सिवाय और किसीसे धन नहीं चाहता। परन्तु जो भक्त नहीं है, वह केवल कामनाकी पूर्तिके लिये भगवान‍्का भजन करता है, उसका कल्याण नहीं हो सकता। कारण कि उसने भगवान‍्को भगवान् (साध्य) नहीं माना है, प्रत्युत कामनापूर्तिका एक साधन माना है। उसका साध्य तो रुपये हैं और भगवान् रुपये छापनेकी मशीनकी तरह साधन हैं। ऐसा व्यक्ति कामना पूरी न होनेपर भगवान‍्को छोड़ देता है। एक स्त्रीका पति बीमार हुआ। किसीने सलाह दी कि ठाकुरजीकी पूजा करो तो पति ठीक हो जायगा। उसने वैसा ही किया। पति ठीक हो गया। दुबारा फिर पति बीमार हुआ तो उस स्त्रीने फिर ठाकुरजीकी पूजा की। पति मर गया। उसने ठाकुरजीको उठाकर बाहर पटक दिया। इस प्रकार भगवान‍्की पूजा करनेवालेका कल्याण नहीं होता॥ ४०॥

प्रश्न—भगवान् हमारे हैं और हमारे लिये हैं, फिर उनसे कुछ माँगनेमें क्या दोष है?

उत्तर—प्रभु मेरे हैं और मेरे लिये हैं—ऐसा कहनेका तात्पर्य यह नहीं है कि हमें प्रभुसे कुछ लेना है। वे मेरे लिये हैं, इसलिये अपनेको उन्हें देना है, उनके समर्पित होना है। कुछ चाहनेसे हम उनसे अलग हो जायँगे और अपनेको देनेसे उनसे अभिन्न हो जायँगे। उनसे जिस वस्तुको माँगेंगे, उस वस्तुका महत्त्व हो जायगा। जो वस्तु अपनी और अपने लिये नहीं है, उसकी कामना करनेका हमें अधिकार ही नहीं है॥ ४१॥

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