मुक्ति (कल्याण)
प्रश्न—मुक्त होनेपर अपनेमें क्या विशेषता आती है?
उत्तर—मुक्त होनेपर कोई विशेषता नहीं आती, प्रत्युत अपनेमें जो कुछ विशेषता दीखती है, वह मिट जाती है! तात्पर्य है कि मुक्त होनेपर विशेषता देखनेवाला (व्यक्तित्व) नहीं रहता। एकदेशीयता मिट जाती है। किसी भी जगह अपना अभाव नहीं दीखता।
मुक्त होनेपर ‘ मैं एक शरीरमें हूॅँ’—यह भी नहीं होता और ‘मैं सब जगह हूँ’—यह भी नहीं होता,प्रत्युत ‘मैं’ ही नहीं रहता। विशेषता प्रेमसे आती है*। ज्ञानमें तो विशेषता मिटती है और एक समता रहती है॥ २६२॥
* मुक्तिमें तो छूटना है, पर प्रेममें प्राप्ति है।
प्रश्न—मुक्त होनेपर फिर बन्धन क्यों नहीं होता?
उत्तर—कारण कि बन्धन वास्तवमें है नहीं, प्रत्युत हमारा बनाया हुआ है। बन्धन कृत्रिम (बनावटी) है, मुक्ति स्वत:सिद्ध है॥ २६३॥
प्रश्न—वेदान्तमें चार प्रतिबन्धक माने गये हैं—संशय (प्रमाणगत और प्रमेयगत), विपरीत भावना, असम्भावना और विषयासक्ति। इन प्रतिबन्धकोंके रहते हुए कोई जीवन्मुक्त हो सकता है क्या?
उत्तर—हॉँ, हो सकता है। तीव्र जिज्ञासा होनेपर प्रतिबन्धक मिट जाते हैं॥ २६४॥
प्रश्न—परमात्मा कर्ता-निरपेक्ष है, पर मुक्तिकी इच्छा तो कर्तामें ही होती है, फिर मुक्ति कैसे होगी?
उत्तर—यद्यपि साधकके लिये मुक्तिकी इच्छा करना अच्छा है, तथापि वास्तवमें बात यह है कि मुक्तिकी इच्छा करनेसे क्रियाके साथ सम्बन्ध हो जाता है, जिससे साधन करण-सापेक्ष हो जाता है। तात्पर्य है कि दूसरी इच्छाएँ मिटानेके लिये साधक मुक्तिकी इच्छा करे। दूसरी कोई इच्छा न रहे तो फिर मुक्तिकी भी इच्छा न करे। कारण कि मुक्ति नित्य तथा स्वत:सिद्ध है। सब कुछ बदलता है, पर सत्ता ज्यों-की-त्यों रहती है। इसलिये मुक्ति होती नहीं है, प्रत्युत मुक्ति है। केवल बन्धनकी मान्यता मिटती है। अगर मुक्ति होती है—ऐसा मानें तो पुन: बन्धन भी हो सकता है॥ २६५॥
प्रश्न—अधिक धनी, अधिक विद्वान्, अधिक दरिद्र और अधिक रोगी—इनका कल्याण होना कठिन क्यों है?
उत्तर—अधिक धनीमें धनकी अधिक आसक्ति रहती है, अधिक विद्वान्में विद्याकी अधिक आसक्ति रहती है, अधिक दरिद्रमें धनकी अधिक आसक्ति रहती है और अधिक रोगीमें शरीरकी अधिक आसक्ति रहती है। यह आसक्ति ही उनके कल्याणमें बाधक होती है। आसक्ति अधिक होनेके कारण ये जल्दी भगवान्में नहीं लगते। यदि आसक्ति न रहे तो इनका भी कल्याण हो सकता है॥ २६६॥
प्रश्न—भीष्मपितामह जीवन्मुक्त महापुरुष थे, फिर शरीर छोड़कर वे आजानदेवताओंके लोक (वसुलोक) क्यों गये?
उत्तर—वे पहले आजानदेवता (वसु) ही थे और शापके कारण पृथ्वीपर आये थे। इसलिये शरीर छोड़कर वे वहीं गये, जहाँसे वे आये थे। हॉँ, आजानदेवताकी अवधि पूरी होनेपर वे मुक्त हो जायँगे॥ २६७॥
प्रश्न—निर्गुणको माननेवालोंकी ‘मुक्ति’ और सगुणको माननेवालोंको ‘सायुज्य’ की प्राप्ति—दोनोंमें अन्तर क्या है?
उत्तर—सायुज्यमें समग्रकी अर्थात् ऐश्वर्यसहित सगुण परमात्माकी प्राप्ति है। मुक्तिमें निर्गुण ब्रह्मकी प्राप्ति है, जो समग्रका ऐश्वर्य है!॥ २६८॥
प्रश्न—क्या भक्त सालोक्यके बाद क्रमश: सार्ष्टि, सामीप्य और सारूप्यको प्राप्त होते हुए अन्तमें सायुज्य-मुक्तिको प्राप्त होता है?
उत्तर—यह भक्तके भावपर निर्भर है। भक्तका भाव हो तो वह अनन्तकालतक सालोक्यमें रह सकता है। वहॉँ सन्तोष न हो तो भगवान् उसे बदल देते हैं।
गीताके अनुसार सालोक्यादि पॉँचों प्रकारकी मुक्तियाँ ‘साधर्म्य’ के अन्तर्गत हैं—‘मम साधर्म्यमागता:’ (१४। २)। यद्यपि साधर्म्यकी बात भक्तिमें कहनी चाहिये, तथापि भगवान्ने इसको ज्ञानमें कहा है। इसका तात्पर्य है कि परमात्मतत्त्व एक ही है। केवल प्रेमके लिये वह एकसे दो होता है॥ २६९॥
प्रश्न—मोक्षशास्त्रको धर्मशास्त्रसे श्रेष्ठ क्यों माना गया है? क्या धर्मशास्त्रसे कल्याण नहीं होता?
उत्तर—निष्कामभाव होनेके कारण मोक्षशास्त्रको धर्मशास्त्रसे श्रेष्ठ माना गया है। धर्मसे कल्याण तभी होता है, जब उसका पालन निष्कामभावसे किया जाय। तात्पर्य है कि कल्याण धर्मसे नहीं होता, प्रत्युत निष्कामभावसे होता है॥ २७०॥
प्रश्न—कुछ व्यक्ति मुक्तिकी निन्दा करते हैं और राधा-कृष्णके नित्यविहारमें प्रवेश करनेको ही मानव-जीवनकी पूर्णता मानते हैं, यह ठीक है क्या?
उत्तर—वे मुक्तिको समझते ही नहीं कि मुक्ति क्या होती है! मुक्ति किसी जानवरका नाम थोड़े ही है! जड़तासे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेको ही मुक्ति कहते हैं। जड़तासे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर ही राधाकृष्णके नित्यविहारमें प्रवेश, गोपीभावकी प्राप्ति अथवा परमप्रेमकी प्राप्ति होती है॥ २७१॥
प्रश्न—क्या सालोक्यादि मुक्ति प्राप्त होनेके बाद भी जीवको संसारमें वापिस आना पड़ता है?
उत्तर—सालोक्य, सामीप्य आदिकी प्राप्ति होनेपर जीवका पुनरागमन नहीं होता, इसीलिये उनकी ‘मुक्ति’ संज्ञा है। सालोक्यादिकी प्राप्तिमें पूर्णता है। अगर कोई जीव वहाँसे वापिस आता है तो वह कर्मोंके परवश होकर नहीं आता, प्रत्युत भगवान्की इच्छासे कारक पुरुषके रूपमें अवतार लेता है॥ २७२॥