मृत्यु
प्रश्न—जैसे मृत्युका समय निश्चित है, ऐसे ही मृत्युके समय होनेवाला कष्ट भी क्या निश्चित है?
उत्तर—नहीं। सब अपने पाप-पुण्यका फल भोगते हैं। किसीको पापका फल भोगना हो तो उसको अधिक कष्ट होता है। परन्तु दु:ख उसीको होता है, जिसके भीतर जीनेकी इच्छा है॥ २७३॥
प्रश्न—जीवनमें जो पुण्यात्मा रहे, साधन-भजन करनेवाले रहे, वे भी अन्तसमयमें कष्ट पायें तो क्या कारण है?
उत्तर—भगवान् उनके पूर्वजन्मोंके सब पापोंको नष्ट करके शुद्ध करना चाहते हैं, जिससे उनका कल्याण हो जाय॥ २७४॥
प्रश्न—शास्त्रमें आया है कि मृत्युके समय मनुष्यको हजारों बिच्छू काटनेके समान कष्ट होता है, पर सन्तोंकी वाणीमें आया है कि मृत्युसे कष्ट नहीं होता, प्रयुत जीनेकी इच्छासे कष्ट होता है। वास्तवमें क्या बात है?
उत्तर—जैसे बालकसे जवान और जवानसे बूढ़ा होनेमें कोई कष्ट नहीं होता, ऐसे ही मृत्युके समय भी वास्तवमें कोई कष्ट नहीं होता*।
* देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति॥
(गीता२।१३)
‘देहधारीके इस मनुष्यशरीरमें जैसे बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, ऐसे ही दूसरे शरीरकी प्राप्ति होती है। उस विषयमें धीर मनुष्य मोहित नहीं होता।’
राम चरन दृढ़ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग।
सुमन माल जिमि कंठ ते गिरत न जानइ नाग॥
(मानस,किष्किं० १०)
कष्ट उसीको होता है, जिसमें यह इच्छा है कि मैं जीता रहूँ। तात्पर्य है कि जिसका शरीरमें मोह है, उसीको मृत्युके समय हजारों बिच्छू एक साथ काटनेके समान कष्ट होता है। शरीरमें जितना मोह,आसक्ति, ममता होगी तथा जीनेकी इच्छा जितनी अधिक होगी, उतना ही शरीर छूटनेपर अधिक दु:ख होगा॥ २७५॥
प्रश्न—किसीकी मृत्युका शोक जितना यहाँ किया जाता है, उतना विदेशोंमें नहीं किया जाता तो क्या यहाँके लोगोंमें मोह ज्यादा है?
उत्तर—यह बात नहीं है। जहाँ व्यक्तिगत मोह ज्यादा होता है, वहाँ शोक कम होता है। व्यक्तिगत मोहमें अज्ञता, मूढ़ता ज्यादा होती है। व्यक्तिगत मोह पशुता है। बँदरीका अपने बच्चेमें इतना मोह होता है कि मरे हुए बच्चेको भी साथ लिये घूमती है, पर खाते समय यदि बच्चा पासमें आ जाय तो ऐसे घुड़की देती है कि वह चीं-चीं करते हुए भाग जाता है!
दूसरेकी मृत्युपर शोक न होनेका कारण है कि मोह बहुत संकुचित और पतन करनेवाला हो गया। व्यापक मोह तो मिट सकता है, पर संकुचित (व्यक्तिगत) मोह जल्दी नहीं मिटता। व्यक्तिगत मोह दृढ़ होता है—‘जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि’ (मानस, अयोध्या० १४२।१)। ज्यों-ज्यों मोह छूटता है, त्यों-त्यों मनुष्यकी स्थिति व्यापक होती है*।
* अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥
(पंचतंत्र,अपरीक्षित.३८)
‘यह अपना है और पराया—इस प्रकारका विचार संकुचित भावनाके व्यक्ति करते हैं। उदार-भाववाले व्यक्तियोंके लिये तो सम्पूर्ण विश्व ही अपने कुटुम्बके समान है।’
तात्पर्य है कि मोह जितना व्यापक होता है, उतना ही वह घटता है। जैसे, पहले अपने शरीरमें मोह होता है, फिर कुटुम्बमें मोह होता है, फिर जातिमें मोह होता है, फिर मोहल्लेमें मोह होता है, फिर गॉँवमें मोह होता है, फिर प्रान्तमें मोह होता है, फिर देशमें मोह होता है, फिर मनुष्यमात्रमें मोह होता है, फिर जीवमात्रमें मोह होता है। अन्तमें किसीमें भी मोह नहीं रहता। यह सिद्धान्त है कि किसीमें मोह नहीं होता तो सबमें मोह होता है और सबमें मोह होता है तो किसीमें मोह नहीं होता। व्यापक मोह वास्तवमें मोह नहीं है, प्रत्युत आत्मीयता है॥ २७६॥
प्रश्न—शास्त्रमें आया है कि धर्मराजके पास जानेमें मृतात्माको एक वर्षका समय लगता है। क्या यह सबके लिये है?
उत्तर—यह सबके लिये नहीं है, प्रत्युत उनके लिये है, जो अत्यन्त पापी हैं। उनके लिये धर्मराजके पास जानेका मार्ग भी बड़ा कष्टदायक होता है। मृत्युके बाद अपने-अपने कर्मोंके अनुसार गति होती है। भगवान्के भक्त धर्मराजके पास नहीं जाते॥ २७७॥
प्रश्न—अन्तकालमें न भगवान्का चिन्तन हो, न संसारका तो क्या गति होगी?
उत्तर—ऐसा सम्भव नहीं है। कुछ-न-कुछ चिन्तन तो होगा ही—‘न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्’ (गीता ३। ५)॥ २७८॥
प्रश्न—अन्तसमयमें भगवान्की याद आये—इसके लिये क्या करें?
उत्तर—हर समय भगवान्का स्मरण करें; क्योंकि हर समय ही अन्तकाल है। मृत्यु कब आ जाय, इसका क्या पता! इसलिये भगवान्ने गीतामें कहा है—‘तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च’(८। ७) ‘इसलिये तू सब समयमें मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर’॥ २७९॥
प्रश्न—मनुष्य जिस-जिसका चिन्तन करते हुए शरीर छोड़ता है, उस-उसको ही प्राप्त होता है—यह नियम क्या आत्महत्या करनेवालेपर भी लागू होता है?
उत्तर—हाँ, लागू होता है। परन्तु उसके द्वारा भगवान्का चिन्तन (शुभ चिन्तन) होना बहुत कठिन है। कारण कि वह दु:खी होकर आत्महत्या करता है और उसका उद्देश्य सुखका रहता है। दूसरी बात, प्राण निकलते समय उसको अपने कियेपर बड़ा पश्चात्ताप होता है, पर वह कुछ कर सकता नहीं! तीसरी बात, प्राण निकलते समय उसको भयंकर कष्ट होता है। चौथी बात, अगर उसका भाव शुद्ध हो, भगवान्पर विश्वास हो, वह भगवान्का चिन्तन करना चाहता हो तो वह आत्महत्या-रूप महापाप करेगा ही क्यों? बुद्धि अशुद्ध होनेपर ही मनुष्य आत्महत्या करता है। इसलिये आत्महत्या करनेवालेकी दुर्गति होती है*॥ २८०॥
* अन्धं तमो विशेयुस्ते ये चैवात्महनो जना:।
भुक्त्वा निरयसाहस्रं ते च स्युर्ग्रामसूकरा:॥
आत्मघातो न कर्तव्यस्तस्मात् क्वापि विपश्चिता।
इहापि च परत्रापि न शुभान्यात्मघातिनाम्॥
(स्कन्दपुराण, काशी०१२। १२-१३)
‘आत्महत्यारे लोग घोर नरकोंमें जाते हैं और हजारों नरकयातनाएँ भोगकर फिर गाँवके सूअरोंकी योनिमें जन्म लेते हैं। इसलिये समझदार मनुष्यको कभी भूलकर भी आत्महत्या नहीं करनी चाहिये। आत्मघातियोंका न इस लोकमें और न परलोकमें ही कल्याण होता है।’