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वासुदेव:सर्वम्

प्रश्न—गोपिकाओंको सब जगह कृष्ण-ही-कृष्ण किस प्रकारसे दीखते थे? क्या यही गीताका ‘वासुदेव: सर्वम्’ है?

उत्तर—गीताके ‘वासुदेव: सर्वम्’ में सब जगह भगवान‍्को तत्त्वसे देखना है और गोपिकाओंका सब जगह भगवान‍्को देखना दृष्टिसे देखना है। गोपिकाओंकी आँखकी कनीनिकामें भगवान् कृष्णका चित्र अंकित हो गया था, इसलिये उनको सब जगह कृष्ण ही दीखते थे। जैसे कोई लाल रंगका चश्मा लगा ले तो उसको सब जगह लाल-ही-लाल दीखता है, ऐसे ही गोपिकाओंको सब जगह कृष्ण-ही-कृष्ण दीखते थे॥ २८१॥

प्रश्न—जब सब कुछ परमात्मा ही हैं—‘वासुदेव: सर्वम्’ तो फिर जड़ता किसमें है?

उत्तर—जड़ता जीवकी दृष्टिमें है—‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७। ५)। जड़ताका कारण है—अज्ञान॥ २८२॥

प्रश्न—राग छोड़नेसे ‘वासुदेव: सर्वम्’ का अनुभव होगा या अनुभव होनेपर राग छूटेगा?

उत्तर—राग छोड़ना भी साधन है और सबमें परमात्माको देखना भी साधन है। कर्मयोगी रागका त्याग करता है और भक्तियोगी सबमें परमात्माको देखता है। एककी सिद्धि होनेसे दोनोंकी सिद्धि हो जाती है॥ २८३॥

प्रश्न—रागके कारण प्राणी-पदार्थ भगवत्स्वरूप नहीं दीखते तो फिर जिन प्राणी-पदार्थोंमें हमारी आसक्ति नहीं है, वे भगवत्स्वरूप क्यों नहीं दीखते?

उत्तर—जबतक भीतरमें आसक्ति है, राग-द्वेष हैं, तबतक संसार ही दीखेगा। जब भीतरमें समता आ जायगी, तब ‘वासुदेव: सर्वम्’ दीखेगा।

राग मूलमें अपनेमें है, प्राणी-पदार्थोंमें नहीं। गीताने रागके रहनेके पाँच स्थान बताये है—पदार्थ (३। ३४), इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि (३। ४०) और अहम‍् (२। ५९)। वास्तवमें राग खुद (अहम‍्)-में ही है, पर वह पाँच स्थानोंमें दीखता है। खुदमें होनेसे ही राग प्राणी-पदार्थोंमें दीखता है। जब खुदमें राग नहीं रहेगा, तब सब जगह भगवान् ही दीखेंगे॥ २८४॥

प्रश्न—संसार विकृति है या भगवान‍्का स्वरूप है?

उत्तर—राग-द्वेषके कारण संसार विकृति है। यदि राग-द्वेष न हों तो यह भगवत्स्वरूप ही है। राग हटानेके लिये ही संसारको विकृति कहा गया है॥ २८५॥

प्रश्न—जड़ता बुद्धिमें है, अन्यथा सब संसार चिन्मय है—यदि ऐसी बात है तो फिर भगवान‍्के धाममें और संसारमें क्या फर्क रहा?

उत्तर—जैसे रामायणमें भगवान‍्ने कहा है—‘सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा॥ ’ (अरण्य० ३६। २)। ऐसे ही संसार चिन्मय है, पर भगवान् उससे भी विलक्षण अर्थात् चिन्मयताके भी सार हैं। इसलिये उनको ‘आनन्दकन्द’ भी कहा जाता है॥ २८६॥

प्रश्न—‘वासुदेव: सर्वम्’ के विषयमें दो प्रकारकी बातें सुनी जाती हैं—एक तो भगवान् हमारे सामने जिस रूपमें आयें, उसी रूपके अनुसार उनसे व्यवहार करना और दूसरी, भगवान् किसी भी रूपमें आयें, उनसे साक्षात् भगवान‍्की तरह ही व्यवहार करना; जैसे मीराबाईने सिंहकी आरती उतारी, नामदेवजी कुत्तेके पीछे घी लेकर भागे, आदि। हम किस बातको मानें?

उत्तर—मीरा, नामदेव आदिकी तरह व्यवहार करना सिद्धावस्थाकी बात है। साधकको तो मर्यादाके अनुसार यथायोग्य व्यवहार करना चाहिये। साधकको चाहिये कि बाहरसे यथायोग्य व्यवहार करते हुए भी हृदयसे किसीको बुरा न समझे, किसीका अपमान-तिरस्कार न करे॥ २८७॥

प्रश्न—संसारमें तो निरन्तर परिवर्तन होता है, फिर वह परमात्माका स्वरूप कैसे?

उत्तर—जैसे गिरगिट कई रंग बदलता है, पर रंग बदलनेपर भी गिरगिट वही रहता है और वे रंग गिरगिटके ही होते हैं। रंगोंको गिरगिटसे अलग नहीं कर सकते। ऐसे ही प्रकृति भगवान‍्की ही शक्ति है और शक्तिको शक्तिमान‍्से अलग नहीं कर सकते।

जैसे समुद्रके ऊपर लहरें चलती दीखती हैं, पर भीतरमें एक सम,शान्त समुद्र है। समुद्रके भीतर कोई लहर नहीं है। ऐसे ही संसार भी उस परमात्माकी लहरें हैं। अत: परिवर्तन भी परमात्माका स्वरूप है और अपरिवर्तन भी—‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९। १९)॥ २८८॥

प्रश्न—शक्ति (प्रकृति) तो शक्तिमान् (भगवान्)-के अधीन होती है, फिर उसका स्वरूप कैसे हुई?

उत्तर—शक्ति शक्तिमान‍्से अलग नहीं होती; जैसे—नख, केश आदि निष्प्राण चीजें भी हमारेसे अलग नहीं होतीं, प्रत्युत हमारा ही स्वरूप होती हैं। अत: परमात्मासे अलग प्रकृतिकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है॥ २८९॥

प्रश्न—जब सब संसार भगवत्स्वरूप ही है तो फिर दूसरेको उपदेश क्यों दिया जाता है?

उत्तर—दूसरेको उपदेश भी अपना मानकर ही दिया जाता है कि जैसे अपनेमें भूल है, वैसे ही दूसरेमें भी है। जैसे अपनेमें कमी दीखनेपर उसका सुधार करते हैं, ऐसे ही दूसरेकी कमीको भी अपनी ही कमी मानकर उसका सुधार करते हैं। अत: वास्तवमें उपदेश अपनेको ही दिया जाता है—‘उद्धरेदात्मनात्मानम्’ (गीता ६। ५)। दूसरेको उपदेश उसकी दृष्टिसे दिया जाता है; क्योंकि वह हमसे उपदेश चाहता है।

राग दो प्रकारसे मिटाया जाता है—विचारके द्वारा मिटाना अथवा करके मिटाना। अगर हमारी वासना उपदेश देनेकी, व्याख्यान देनेकी है तो उस वासनाको मिटानेके लिये भगवान् हमारे सामने अज्ञानी बनकर, श्रोता बनकर आते हैं। राजा बनकर शासन करनेकी वासना है तो भगवान् प्रजा बनकर आते हैं॥ २९०॥

प्रश्न—समता और ‘वासुदेव: सर्वम्’—दोनोंमें क्या अन्तर है?

उत्तर—समतामें अपने मतका संस्कार (सूक्ष्म अहम‍्) रहता है, पर ‘वासुदेव: सर्वम्’ में कोई मतभेद नहीं रहता; क्योंकि इसमें सब मत-मतान्तर भी वासुदेव ही हैं। समतामें तो स्वरूपकी मुख्यता है,पर ‘वासुदेव: सर्वम्’ में भगवान‍्की मुख्यता है॥ २९१॥

प्रश्न—एक बात यह कही जाती है कि संसार (जड़) भी परमात्माका ही स्वरूप है और एक बात यह कही जाती है कि संसार तो हमारी दृष्टिमें है, वास्तवमें संसार है ही नहीं, प्रत्युत सत्तारूपसे एक परमात्मा ही हैं। दोनोंमें कौन-सी बात मानें?

उत्तर—जबतक हमारी दृष्टिमें संसारकी सत्ता है, तबतक यह मानना चाहिये कि संसार परमात्माका ही स्वरूप है। अगर हम संसारकी सत्ता न मानें तो एक परमात्माके सिवाय कुछ नहीं है।

संसाररूपसे भी वही है और सत्तारूपसे भी वही है; क्योंकि वास्तवमें संसार है नहीं। सत् से ही असत् का भान होता है। सत् के बिना असत् का भान ही नहीं होता। ज्ञानी और परमात्माकी दृष्टिमें संसार है ही नहीं। संसार तो जीवकी दृष्टिमें है। कारण कि संसारकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं॥ २९२॥

प्रश्न—संसार (जड़) न दीखकर केवल परमात्मा कैसे दीखें?

उत्तर—संसार दीखता है तो दीखता रहे, हर्ज क्या है? देखना सीमित होता है, तत्त्व असीम है। सूर्य थालीकी तरह दीखता है तो क्या वह ऐसा ही है? दीखना व्यक्तिगत है। जो व्यक्तिगत होता है, वह सिद्धान्त नहीं होता। दीखनेवाला और देखनेवाला—सबका अभाव हो जायगा और परमात्मतत्त्व शेष रह जायगा। दीखना और देखना उसी तत्त्वके अन्तर्गत है। अत: दीखने-देखनेका आग्रह नहीं रखना चाहिये॥ २९३॥

प्रश्न—संसारको भगवान‍्का आदि अवतार कहा गया है—‘आद्योऽवतार: पुरुष: परस्य’ (श्रीमद्भा० २। ६। ४१), फिर संसार असत्य कैसे हुआ?

उत्तर—भगवान‍्का अवतार सत्य है, संसार सत्य नहीं है॥ २९४॥

प्रश्न—क्या सभी भक्तोंको अन्तमें ‘वासुदेव: सर्वम्’ (सब कुछ भगवान् ही हैं)-का अनुभव हो जाता है?

उत्तर—सबको नहीं होता, प्रत्युत उसको होता है, जिसमें अपने मत (भक्ति)-का आग्रह नहीं है, अपनी मान्यतामें सन्तोष नहीं है। अगर वह ज्ञानको हीन दृष्टिसे देखता है तो उसको ‘वासुदेव: सर्वम्’ का अनुभव नहीं होता॥ २९५॥

प्रश्न—‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ (छान्दोग्य० ३। १४। १) और ‘वासुदेव: सर्वम् (गीता ७। १९)—दोनोंमें क्या अन्तर है?

उत्तर—‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ में निर्गुणकी मुख्यता है तथा इसमें असत् का निषेध है। परन्तु ‘वासुदेव: सर्वम्’ में सगुणकी मुख्यता है तथा इसमें असत् का निषेध नहीं है।

सगुणमें तो निर्गुण आ सकता है, पर निर्गुणमें सगुण नहीं आ सकता। निर्गुणमें गुणोंका निषेध ही कर दिया, फिर गुण कैसे आयें? सगुण सब गुणोंका आश्रय है, पर वह किसी गुणके आश्रित, गुणसे आबद्ध नहीं है। भगवान‍्ने भी सगुणको ‘समग्र’ कहा है—‘असंशयं समग्रं माम्’ (गीता ७। १)। समग्रमें सगुण-निर्गुण,साकार-निराकार और जड़-चेतन, सत्-असत् आदि सब कुछ आ जाता है॥ २९६॥

प्रश्न—एक बात है कि ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’ और एक बात है कि ‘हम भगवान‍्के हैं, भगवान् हमारे हैं’—दोनोंमें हम किस बातको मानें?

उत्तर—पहले यह मानो कि ‘हम भगवान‍्के हैं, भगवान् हमारे हैं’। इस बातको माननेसे ही यह अनुभव हो जायगा कि ‘मैं नहीं हूँ, भगवान् ही हैं’॥ २९७॥

प्रश्न—अनेकता ‘है’ में है या ‘नहीं’ में?

उत्तर—एकमें ही अनेकता है अर्थात् ‘है’ में ही अनेकता है। ‘है’ के सिवाय किसीकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। ‘है’ में सब एक हैं। ‘है’ में अनेकताका निषेध नहीं है, प्रत्युत अन्य सत्ताका निषेध है॥ २९८॥

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