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पाप-पुण्य

प्रश्न—पाप-पुण्यरूप कर्मोंका संग्रह कहाँ होता है?

उत्तर—अन्त:करणमें होता है। जैसे, बिजली कितनी खर्च हुई—इसका पता मीटरसे लग जाता है। कोई व्यक्ति कभी भी, किसी भी समय बिजली खर्च करे और कितना ही छिपकर बिजली खर्च करे,पर मीटरमें सब अंकित हो जाता है। ऐसे ही पाप-पुण्यको अंकित करनेवाला विलक्षण मीटर अन्त:करणमें है॥ १३१॥

प्रश्न—क्या अपनी अथवा दूसरेकी रक्षाके लिये दुष्ट व्यक्तिको मारनेसे पाप लगता है?

उत्तर—यद्यपि यह कार्य क्षत्रियका है, तथापि जब देशमें अराजकता फैल जाय,राजा (शासक) हमारी पुकार न सुने, हम न्यायपूर्वक चलते हों तो भी हमपर अन्यायपूर्वक आक्रमण होते हों तो ऐसी स्थितिमें चारों वर्णोंका क्षात्रधर्म हो जाता है अर्थात् स्त्री, गाय, सम्पत्ति, प्राण आदिकी रक्षाके लिये चारों वर्ण शस्त्र धारण कर सकते हैं*।

* गवार्थे ब्राह्मणार्थे वा वर्णानां वाऽपि सङ्करे।
गृह्णीयातां विप्रविशौ शस्त्रं धर्मव्यपेक्षया॥
(बोधायनस्मृति २। २। ८०)

परन्तु उद्देश्य केवल अपनी तथा स्त्री आदिकी रक्षाका ही होना चाहिये, दूसरेको मारनेका नहीं। रक्षा करते हुए वह दुष्ट व्यक्ति मर भी जाय तो पाप नहीं लगता। उसके मरनेसे दुनियाका भी भला होगा और उसका भी भला होगा; क्योंकि वह और नये पाप करनेसे बच जायगा।

वास्तवमें हिंसा भावसे होती है, क्रियासे नहीं। डॉक्टर आपरेशन करते समय रोगीका अंग काट देता है, सैनिक सीमापर शत्रुको मार देता है तो यह हिंसा नहीं मानी जाती; क्योंकि डॉक्टर और सैनिकका भाव लोगोंके हितका है॥ १३२॥

प्रश्न—क्या पुण्यकर्म करनेसे पाप कट जाते हैं?

उत्तर—पापकर्म ‘फौजदारी’ की तरह हैं और पुण्यकर्म ‘दीवानी’ की तरह हैं। दोनोंका विभाग अलग-अलग है। पापोंका और पुण्योंका अलग-अलग संग्रह होता है। इसलिये स्वाभाविक रूपसे ये दोनों एक-दूसरेसे कटते नहीं अर्थात् पापोंसे पुण्य नहीं कटते और पुण्योंसे पाप नहीं कटते। परन्तु मनुष्य पाप काटनेके उद्देश्यसे प्रायश्चित्त-कर्म करे तो उससे पाप कट सकते हैं; जैसे—जुर्माना देकर मनुष्य कैदसे छूट सकता है॥ १३३॥

प्रश्न—जब पाप-पुण्य एक-दूसरेसे नहीं कटते तो फिर ऋषियोंकी तपस्या कैसे भंग हुई?

उत्तर—तपस्या भंग नहीं होती, प्रत्युत उसमें बाधा लग जाती है। जितनी तपस्या हो गयी, वह नष्ट नहीं होती। खुद विचलित होनेसे ही तपस्यामें बाधा लगती है। खुद विचलित न हो तो उसको कोई विचलित नहीं कर सकता—‘कामी बचन सती मनु जैसें’ (मानस, बाल० २५१। १)॥ १३४॥

प्रश्न—वर्तमानमें उग्र पाप और उग्र पुण्यका फल तत्काल देखनेमें नहीं आता, इसमें क्या कारण है?

उत्तर—इसमें कलियुग कारण है; क्योंकि कलियुग अधर्मका मित्र है—‘कलिनाधर्ममित्रेण’ (पद्मपुराण, उत्तर० १९३। ३१)। हाँ, जमा होते-होते बादमें इसका भयंकर फल अवश्य मिलता है; जैसे—फोड़ा धीरे-धीरे बढ़ता है और पककर फूटता है!॥ १३५॥

प्रश्न—कुछ व्यक्तियोंके किये पापका फल पूरे समाजको क्यों भोगना पड़ता है?

उत्तर—सृष्टि एक इकाई है। अत: व्यक्तिके पाप या पुण्यका प्रभाव सृष्टिमात्रपर पड़ता है। परन्तु उसके फलभोगमें अन्तर रहेगा ही अर्थात् पापात्मापर जैसी आफत आयेगी, वैसी आफत पुण्यात्मापर नहीं आयेगी। पुण्यात्मा पुरुष भी पहले किये अपने पापका ही फल भोगते हैं। कभी आफत आनेपर वे बच भी जाते हैं; जैसे—दुर्घटना होनेपर एक ही गाड़ीमें बैठे आदमियोंमेंसे कोई मर जाता है, कोई बच जाता है॥ १३६॥

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