Hindu text bookगीता गंगा
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परहित

प्रश्न—परहितका भाव होनेमें बाधा क्या है?

उत्तर—व्यक्तिगत स्वार्थ ही बाधक है। वास्तवमें व्यक्तिगत स्वार्थका भाव रखनेसे स्वार्थ सिद्ध नहीं होता, पर सबके हितका भाव रखनेसे (व्यक्तिगत स्वार्थ छोड़नेसे) व्यक्तिगत स्वार्थ भी सिद्ध हो जाता है! सबके हितका भाव रखनेवालेकी सेवा पशु भी करते हैं॥ १२७॥

प्रश्न—भजन-ध्यान आदि साधन सबके हितके लिये करने चाहिये—यह बात यदि सत्य है तो यह मानना पड़ेगा कि अभीतक किसीका साधन सिद्ध नहीं हुआ; क्योंकि अभीतक सबका हित नहीं हुआ?

उत्तर—इसमें सबके हितका तात्पर्य नहीं है, प्रत्युत अपने स्वार्थके त्यागका तात्पर्य है। सबके हितकी बात तो दूर रही, एक व्यक्ति दूसरे व्यक्तिका भी हित (कल्याण) नहीं कर सकता, पर अपने स्वार्थका त्याग कर सकता है। सबके हितका भाव साधन है, साध्य नहीं॥ १२८॥

प्रश्न—अपना हित न सोचकर दूसरेका हित क्यों सोचें?

उत्तर—हमारा हित हो—यह स्वार्थवृत्ति ही हमारे हितमें बाधक है। जितना दूसरेके हितके लिये करेंगे, उतना ही अपना स्वार्थ मिटेगा। जितना स्वार्थ मिटेगा, उतना हमारा हित होगा॥ १२९॥

प्रश्न—दु:खी व्यक्तिको देखकर दु:ख होगा तो उससे सम्बन्ध जुड़ जायगा, फिर बन्धन कैसे छूटेगा?

उत्तर—यह सम्बन्ध बाँधनेवाला नहीं है। दु:खीको देखकर दु:ख होता है तो इससे सिद्ध हुआ कि उसके अधिकारवाली कोई वस्तु हमारे पास है। वह वस्तु उसकी सेवामें लगा दो॥ १३०॥

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