॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
प्राक्कथन
कृष्णो रक्षतु नो जगत्त्रयगुरु:
कृष्णं नमस्याम्यहं
कृष्णेनामरशत्रवो विनिहता:
कृष्णाय तस्मै नम:।
कृष्णादेव समुत्थितं जगदिदं
कृष्णस्य दासोस्म्यहं
कृष्णे तिष्ठति सर्वमेतदखिलं
हे कृष्ण संरक्ष माम्॥
(मुकुन्दमालास्तोत्र)
प्रश्नोत्तरकी परम्परा सृष्टिके आरम्भसे ही चली आ रही है। सृष्टिके आदिकालमें जब ब्रह्माजी उत्पन्न हुए तो उनके भीतर भी सर्वप्रथम यह प्रश्न प्रस्फुटित हुआ—‘क एष योऽसावहमब्जपृष्ठ एतत्कुतो वाब्जमनन्यदप्सु’ (श्रीमद्भा० ३। ८। १८) ‘इस कमलकी कर्णिकापर बैठा हुआ मैं कौन हूँ? यह कमल भी बिना किसी अन्य आधारके जलमें कहाँसे उत्पन्न हो गया?’ (‘मैं’ कौन हूँ और ‘यह’ क्या है?) इसे सृष्टिका आदिप्रश्न कहें तो अत्युक्ति न होगी! प्रबुद्ध जिज्ञासुओंके प्रश्नोंके उत्तरमें अबतक न जाने कितने ग्रन्थोंकी रचना हो चुकी है! जगन्माता पार्वतीके प्रश्न और आशुतोष भगवान् शंकरके उत्तरके फलस्वरूप जगत्में विविध लौकिक एवं अलौकिक विद्याओंका प्राकटॺ हुआ है, विविध शास्त्रोंकी रचना हुई है। शौनकादि ऋषियोंके प्रश्न और सूतजीके उत्तरसे अठारह पुराण बन गये! केनोपनिषद् और प्रश्नोपनिषद्—इन दो उपनिषदोंकी रचना प्रश्नोंको लेकर ही हुई है। श्रीमदाद्यशंकराचार्यजीके द्वारा रचित ‘प्रश्नोत्तरी’ प्रसिद्ध ही है।
सामान्यत: बाल्यावस्थासे ही बालकके जिज्ञासु हृदयमें प्रश्न प्रस्फुटित होने लगते हैं। परन्तु जब मनुष्य पारमार्थिक पथपर अपने पग रखता है, तब उसके भीतर प्रश्नोंका एक विशेष सिलसिला शुरू हो जाता है और वह ढूँढ़ने लगता है ऐसे सन्त या गुरुको, जो उसके प्रश्नोंका समुचित उत्तर देकर उसका सही मार्गदर्शन कर सके। भगवान्ने गीतामें कहा भी है—
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन:॥
(गीता ४। ३४)
‘उस तत्त्वज्ञानको तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुषोंके पास जाकर समझ। उनको साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करनेसे, उनकी सेवा करनेसे और सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे वे तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुष तुझे उस तत्त्वज्ञानका उपदेश करेंगे।’
‘ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन:’ कहनेका तात्पर्य है कि साधकके प्रश्नोंका समुचित उत्तर वही महापुरुष दे सकता है, जिसे शास्त्रोंका ज्ञान भी हो और तत्त्वका अनुभव भी हो। कारण कि केवल शास्त्रज्ञान हो, तत्त्वका अनुभव न हो तो उसकी बातें वैसी ठोस नहीं होंगी, जिससे साधकको बोध हो जाय। अगर तत्त्वका अनुभव हो, पर शास्त्रज्ञान न हो तो वह साधककी विविध शंकाओंका सप्रमाण समाधान नहीं कर पायेगा। परन्तु ऐसा महापुरुष बहुत दुर्लभ होता है। इसीलिये अखिलसौन्दर्यमाधुर्यरसामृतसिन्धु भगवान् श्रीकृष्ण युधिष्ठिरको यह कहकर भीष्मपितामहके पास ले गये कि ज्ञानका सूर्य अस्ताचलको जा रहा है अर्थात् पितामह अपना शरीर छोड़कर जानेकी तैयारी में हैं, इसलिये तुम्हें कोई बात पूछनी हो तो शीघ्र पूछ लो—
तस्मिन्नस्तमिते भीष्मे कौरवाणां धुरन्धरे।
ज्ञानान्यस्तं गमिष्यन्ति तस्मात् त्वां चोदयाम्यहम्॥
(महा० शान्ति० ४६। २३)
साधनमार्गमें प्रश्नोत्तरका बहुत महत्त्व है। बिना प्रश्न किये कोई बात साधकको मिलती है तो उसपर उसका विशेष ध्यान नहीं जाता। पर जब साधक स्वयं प्रश्न करता है, तब उसके उत्तररूपमें जो बात मिलती है, वह साधकके हृदयमें बैठ जाती है। कठिन-से-कठिन आध्यात्मिक विषय भी प्रश्नोत्तरके द्वारा सरल हो जाता है। कोई सच्चा जिज्ञासु हो तो उसके द्वारा प्रश्न करनेपर सन्तोंके हृदयमें नये-नये विलक्षण भाव प्रकट होने लगते हैं। वे भाव केवल प्रश्नकर्ताके लिये ही नहीं, प्रत्युत संसारमात्रके लिये हितकारक होते हैं।
जबतक साधककी दृष्टिमें अन्य (जगत् की) सत्ता रहती है, तबतक उसके भीतर प्रश्नोंकी शृंखला चलती रहती है। कारण कि अन्य सत्ता मानकर ही प्रश्नोत्तर अथवा शंका-समाधान होता है—‘चोद्यं वा परिहारो वा क्रियतां द्वैतभाषया’। जब उसकी दृष्टिमें एक चिन्मय सत्ताके सिवाय कुछ नहीं रहता, तब उसके सम्पूर्ण प्रश्न शान्त हो जाते हैं—
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशया:।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे॥
(मुण्डक० २। २। ८)
उस परमात्मतत्त्वकी ओर दृष्टि जाते ही हृदयकी ग्रन्थियाँ टूट जाती हैं, सब संशय मिट जाते हैं और सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं।’
वास्तविक तत्त्व वर्णनातीत है। वहाँ मन-बुद्धि-वाणीकी पहुँच नहीं है—‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह’ (तैत्तिरीय० २। ९), ‘मन समेत जेहि जान न बानी’ (मानस, बाल० ३४१। ४)। इसलिये सब-का-सब वर्णन (प्रश्नोत्तर आदि) प्रकृतिमें ही होता है और शाखाचन्द्रन्यायसे परमात्मतत्त्वका संकेतमात्र होता है। वर्णनसे बोध नहीं होता, प्रत्युत पढ़ाई होती है। जहाँ वर्णन है, वहाँ तत्त्व नहीं है और जहाँ तत्त्व है, वहाँ वर्णन नहीं है। जो वर्णनमें ही उलझ जाते हैं, उन मनुष्योंको तत्त्व नहीं मिलता। ऐसे मनुष्य वाचक ज्ञानी होते हैं। परन्तु जो सच्चे जिज्ञासु वर्णनमें न उलझकर उसके लक्ष्य (तत्त्व)-की ओर दृष्टि रखते हैं, उन्हें वर्णनातीत तत्त्व मिल जाता है।
प्रत्येक साधकमें अपने प्रश्नोंका उत्तर पानेकी विशेष भूख रहती है। साधन करे, पर कोई प्रश्न उत्पन्न न हो—यह असम्भव है। इसलिये जब साधकको कोई अच्छा, सन्तोषजनक उत्तर देनेवाला मिल जाता है, तब वह बहुत उत्साहित हो जाता है। श्रीमद्भागवतमें आया है, जब उद्धवजीने देखा कि क्षराक्षरातीत भगवान् श्रीकृष्ण मेरे प्रश्नोंका उत्तर बड़े विलक्षण ढंगसे देते हैं, तब उन्होंने प्रश्नोंकी झड़ी लगा दी और एक साथ पैंतीस प्रश्न कर डाले (श्रीमद्भा० ११। १९। २८—३२)! इसी तरहकी बात हमारे परमश्रद्धास्पद श्रीस्वामीजी महाराजके विषयमें भी देखनेमें आती है। आप अपने प्रवचनोंमें विविध प्रश्नोंके उत्तर इतनी विलक्षण रीतिसे देते हैं कि श्रोतागण उत्साहित होकर प्रश्नोंकी झड़ी लगा देते हैं। प्रवचनका समय समाप्त हो जाता है, पर श्रोताओंकी ओरसे प्रश्नोंका आना समाप्त नहीं होता। इसमें कारण यह है कि आप प्रश्नोंका उत्तर सिद्धान्तकी दृष्टिसे न देकर प्रश्नकर्ताके भावोंकी दृष्टिसे देते हैं। इसलिये आपकी बात पठित-अपठित प्रत्येक प्रश्नकर्ताको सहज ही हृदयंगम हो जाती है। आप प्रत्येक प्रश्नकर्ताको, चाहे वह किसी भी विषयमें कैसा ही प्रश्न क्यों न करे, अपने उत्तरसे सन्तुष्ट कर देते हैं। आपने लगभग उन्नीस वर्षकी अवस्थासे ही भगवद्भावोंका प्रचार करना तथा साधकोंकी शंकाओंका समाधान करना आरम्भ कर दिया था और अब छियानबे वर्षकी अवस्था पार करनेपर भी उसी उत्साहसे जगह-जगह जाकर अपने प्रवचनोंमें साधकोंके विविध प्रश्नोंका उत्तर देकर उनका पथ-प्रदर्शन कर रहे हैं!
परम श्रद्धेय श्रीस्वामीजी महाराजकी अन्य ऐसी कई पुस्तकें गीताप्रेससे प्रकाशित हुई हैं, जो प्रश्नोत्तर-रूपसे लिखी गयी हैं; जैसे—गृहस्थमें कैसे रहें?, हम ईश्वरको क्यों मानें?, सच्चा गुरु कौन?, नामजपकी महिमा, मूर्तिपूजा, दुर्गतिसे बचो, सन्तानका कर्तव्य, आहर-शुद्धि आदि। पाठकोंको इन पुस्तकोंका भी अवश्यमेव अध्ययन करना चाहिये।
पाठकोंसे विनम्र निवेदन है कि वे इस पुस्तकमें आयी श्रेष्ठ बातोंको परमश्रद्धेय श्रीस्वामीजी महाराजका कृपाप्रसाद मानकर अपने जीवनमें धारण करें।
श्रीरामनवमी, विक्रम-संवत् २०५७