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प्रारब्ध

प्रश्न—मनुष्यकी जन्म-कुण्डलीमें जो लिखा रहता है, वही होता है तो फिर मनुष्य कर्म करनेमें स्वतन्त्र कैसे हुआ?

उत्तर—एक ‘करने’ का विभाग है और एक ‘होने’ का। जन्म-कुण्डलीमें ‘होने’ की बात लिखी रहती है, ‘करने’ की नहीं। पारमार्थिक उन्नतिकी बात जन्म-कुण्डलीमें न होनेपर भी मनुष्य पारमार्थिक उन्नति कर सकता है। मनुष्य कर्म करनेमें स्वतन्त्र है। अगर जन्म-कुण्डलीके अनुसार ही सब कार्य हों तो गुरु, शास्त्र, सत्संग, शिक्षा आदि सब व्यर्थ हो जायॅँगे॥ १४४॥

प्रश्न—जन्म-कुण्डलीमें यह निर्देश रहता है कि बालक दुराचारी होगा या सदाचारी; अत: मनुष्य कर्मोंके अधीन हुआ?

उत्तर—जन्मके समय प्रारब्धके अनुसार जैसे ग्रह-नक्षत्र होते हैं, वैसे लिख दिया जाता है। परन्तु भविष्यमें मनुष्य जैसा चाहे, वैसा बननेमें स्वतन्त्र है।

ग्रह-नक्षत्र आदिकी एक सीमा होती है। मनुष्यके अन्त:करणमें ग्रहोंके अनुसार समय-समयपर अच्छी या बुरी वृत्तियॉँ तो पैदा हो सकती हैं, पर उनके अनुसार क्रिया करनेमें वह परवश नहीं है। वह चाहे तो अपने विवेकका उपयोग करके निषिद्ध क्रियाका त्याग कर सकता है। जैसे, हमें प्रारब्धके अनुसार धन मिलनेवाला है तो समयपर धन मिल जायगा, पर उस धनको ग्रहण करनेमें अथवा उसका त्याग करनेमें तथा सदुपयोग अथवा दुरुपयोग करनेमें हम स्वतन्त्र हैं॥ १४५॥

प्रश्न—भृगुसंहिता आदिसे मालूम हो जाता है कि यह मनुष्य अमुक-अमुक कार्य करेगा, फिर मनुष्य कर्म करनेमें स्वतन्त्र कैसे?

उत्तर—ज्योतिषमें करनेकी बात उतनी ही आती है, जितनेसे फलभोग हो सके। जैसे, व्यापारमें नफा या नुकसान होनेवाला हो तो मनुष्यसे ऐसी क्रिया हो जायगी, जिससे फलका भोग (नफा या नुकसान) हो सके। सब क्रियाएँ जन्म-कुण्डली (प्रारब्ध)-के अनुसार हो ही नहीं सकतीं। केवल एक दिनमें ही मनुष्य इतनी क्रियाएँ करता है कि उनको लिखनेसे पुस्तक बन जाय!॥ १४६॥

प्रश्न—फल भुगतानेके लिये प्रारब्ध जो कर्म करवाता है, उसका पता कैसे चले कि यह कर्म प्रारब्धसे है या क्रियमाणसे?

उत्तर—इसका निर्णय, विश्लेषण करना बड़ा कठिन है! हॉँ, इस विषयमें यह बात समझनेकी है कि फलभोगके लिये प्रारब्ध जो कर्म करवाता है, वह शास्त्रनिषिद्ध नहीं होता। शास्त्रनिषिद्ध कर्म प्रारब्धसे नहीं होता, प्रत्युत कामनासे होता है—‘काम एष:’ (गीता ३। ३७) अत: प्रारब्धके अनुसार कर्म करनेकी वृत्ति तो हो जायगी, पर निषिद्ध आचरण नहीं होगा; क्योंकि फलभोगके लिये निषिद्ध आचरणकी जरूरत है ही नहीं। निषिद्ध आचरण तो नया कर्म होता है॥ १४७॥

प्रश्न—वाल्मीकिजीने पहले ही रामायण लिख दी, फिर उसके अनुसार ही सब क्रियाएँ हुईं फिर मनुष्य स्वतन्त्र कैसे?

उत्तर—भगवान‍्की बात न्यारी है; क्योंकि वे कर्मोंके अधीन नहीं हैं। उनकी लीलामें सहायक अन्य पात्र (मन्थरा, कैकयी आदि) भी विलक्षण होते हैं, साधारण नहीं। रामायणमें भी खास-खास बातें ही लिखी गयी थीं। भगवान् राम तथा अन्य पात्रोंके द्वारा प्रतिदिन अनेक क्रियाएँ होती थीं, पर वे सब क्रियाएँ रामायणमें कहाँ लिखी हैं?॥ १४८॥

प्रश्न—मनुष्यको जितनी आवश्यकता है, उतनी ही वस्तु मिलती है या अधिक भी मिल सकती है?

उत्तर—सदा आवश्यकतासे अधिक ही वस्तु मिला करती है। मानव-जीवनका समय इतना अधिक मिला है कि मनुष्य कई बार अपना कल्याण कर ले!* वीर्यमें लाखों शुक्राणु रहते हैं, पर जीव एक ही शुक्राणुसे बनता है। संसारमें भी देखते हैं कि मोटरमें चार-पॉँच आदमियोंके बैठनेकी जगह बनायी जाती है, पर आठ-नौ आदमी भी बैठ जाते हैं। आवश्यकताके अनुसार वस्तु तो काममें आ जाती है, पर आवश्यकतासे अधिक वस्तुका संग्रह ही होता है॥ १४९॥

* वास्तवमें कल्याण, मुक्ति, तत्त्वज्ञान, भगवत्प्राप्ति एक ही बार होती है और सदाके लिये होती है—‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहम्’ (गीता ४। ३५)

प्रश्न—शास्त्रमें आया है कि पिताके किये कर्मका फल पुत्र-पौत्रोंको भी भोगना पड़ता है। ऐसा देखा भी जाता है कि पिताको कोई रोग हो तो वह पुत्र-पौत्रोंको भी हो जाता है। ऐसा क्यों?

उत्तर—जैसे रेडियो-स्टेशनसे ध्वनिका प्रसारण किया जाता है और रेडियोकी सुई घुमानेसे वही नम्बर मिल जाता है अर्थात् उससे सजातीय-सम्बन्ध हो जाता है तो वह ध्वनि पकड़ी जाती है। ऐसे ही जीव उसीके यहाँ जन्म लेता है, जिसके साथ उसका कोई कर्म-सम्बन्ध (ऋणानुबन्ध) होता है। अत: पुत्र-पौत्र एक प्रकारसे अपने ही कर्मोंका भोग करते हैं अर्थात् उनको वंश-परम्परासे वही रोग मिलता है, जिसका भोग उनके प्रारब्धमें है॥ १५०॥

प्रश्न—जब धन प्रारब्धके अनुसार ही मिलेगा तो फिर उद्योग क्यों करें?

उत्तर—उद्योग करना हमारा कर्तव्य है—ऐसा मानकर करना चाहिये। मनुष्यको अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये। भगवान‍्की आज्ञा भी है—‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ (गीता २। ४७)‘कर्तव्य-कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है, फलोंमें कभी नहीं।’ अगर मनुष्य कर्तव्य-कर्म नहीं करेगा तो उसको दण्ड होगा। कर्तव्य-कर्म करनेसे तत्काल शान्ति मिलती है और न करनेसे तत्काल अशान्ति॥ १५१॥

प्रश्न—धन तो प्रारब्धके अनुसार मिलेगा, पर उसको खर्च करना नया कर्म है या प्रारब्ध?

उत्तर—धनको खर्च करना, कंजूस होना अथवा उदार होना नया कर्म है, प्रारब्ध नहीं॥ १५२॥

प्रश्न—जब प्रारब्धके अनुसार दु:ख भोगना ही पड़ता है तो फिर दान, मन्त्र, अनुष्ठान आदिका क्या उपयोग हुआ?

उत्तर—जैसे किसी व्यक्ति को कैद होती है तो वह जुर्माना (रुपये) देकर कैदकी अवधि कम करा सकता है अथवा कैदसे छूट भी सकता है, ऐसे ही मनुष्य मन्त्र आदि उपाय करके प्रारब्धके भोगको क्षीण कर सकता है॥ १५३॥

प्रश्न—क्या भगवत्कृपासे प्रारब्धका नाश हो सकता है?

उत्तर—हॉँ, हो सकता है। इसलिये आर्तभावसे प्रार्थना करनेपर परिस्थिति बदल जाती है, कष्ट दूर हो जाता है॥ १५४॥

प्रश्न—भोजन किया तो भूख मिटना फल हुआ। फिर शौच गये तो यह ‘कर्मका फल भी कर्म’ हुआ। अत: मनुष्य जो कुछ करता है, प्रारब्धके अनुसार ही करता है। पुरुषार्थसे कुछ नहीं होता, सब प्रारब्धसे ही होता हैै। क्या यह ठीक है?

उत्तर—कर्मका फल कभी कर्म होता ही नहीं, प्रत्युत भोग होता हैै। शौच जाना कर्म नहीं है; क्योंकि इसमें कर्तृत्व नहीं है। क्रियमाण कर्मके फल-अंशके दो भेद होते हैं—दृष्ट और अदृष्ट। इनमें दृष्टके भी दो भेद होते हैं—तात्कालिक और कालान्तरिक। भोजन करते समय तृप्ति होना ‘तात्कालिक फल’ है और परिणाममें शौच होना ‘कालान्तरिक फल’ है।

प्रारब्धका फल भोग है, कर्म नहीं। अगर कर्मका फल भी कर्म होगा तो कर्मोंका अन्त कभी आयेगा ही नहीं, कर्म-बन्धनसे मुक्ति होगी ही नहीं, जो ‘अनवस्था दोष’ हैै। पुरुषार्थसे प्रारब्ध बनता है, पर प्रारब्धसे पुरुषार्थ नहीं बनता। यदि सब कर्म प्रारब्धसे होंगे तो फिर प्रारब्ध कहाँसे होगा? प्रारब्ध क्रियमाण-कर्मका अंश है, फिर वह क्रियमाण कर्म कैसे करायेगा? जो प्रारब्धके अनुसार ही सब कर्म मानते हैं, उनके लिये एक ही प्रश्न पर्याप्त है कि ‘त्याग’ क्या काम आयेगा, कहॉँ काम आयेगा?

पुरुषार्थ छोड़नेसे जो काम होता है, वह भगवान‍्की कृपासे होता है। उसको प्रारब्ध मानना भूल है। अपना पुरुषार्थ सर्वथा छोड़ना शरणागति है। शरणागतका काम भगवान‍्की कृपासे होता है॥ १५५॥

प्रश्न—त्याग करनेसे जो वस्तु प्रारब्धमें नहीं हैं, वह कैसे मिल जाती है?

उत्तर—रागका त्याग करनेसे किसी भी वस्तुके साथ सम्बन्ध नहीं रहता। किसी भी वस्तुके साथ सम्बन्ध न रहनेसे सब वस्तुओंके साथ सम्बन्ध हो जाता है। सब वस्तुओंके साथ सम्बन्ध होनेसे आवश्यक वस्तुएँ स्वत: मिलती हैं। पुण्यकर्मसे जो प्रारब्ध बनता है, उससे भी बढ़िया प्रारब्ध त्यागसे बनता है॥ १५६॥

प्रश्न—एक साथ सैकड़ों मनुष्य मर जाते हैं तो सबका प्रारब्ध एक साथ कैसे?

उत्तर—जिन्होंने एक साथ पाप किया है, वे एक साथ ही मरते हैं। जैसे, लोकसभामें गौहत्या आदिका प्रस्ताव पास हुआ तो वे किसी जन्ममें मरेंगे तो एक साथ ही मरेंगे। जितनी अधिक सम्मति होगी, उतना अधिक कष्ट होगा। थोड़ी सम्मतिवाले घायल हो जायँगे॥ १५७॥

प्रश्न—भगवान‍्की मरजीके बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता, फिर मनुष्य कर्म करनेमें स्वतन्त्र कैसे?

उत्तर—‘होने’ का विभाग अलग है और ‘करने’ का विभाग अलग है। भगवान‍्की मरजीके बिना पत्ता हिलता नहीं, पर हिला सकते हैं! हिलता नहीं—यह कहा है, हिलाता नहीं—यह नहीं कहा है। हम व्यापार, खेती आदि ‘करते’ हैं और नफा-नुकसान आदि ‘होता’ है। तात्पर्य है कि ‘करना’ हमारे हाथमें है और ‘होना’ भगवान‍्के अथवा प्रारब्धके हाथमें है॥ १५८॥

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