प्रेम
प्रश्न—जीवका तो भगवान्में आकर्षण (प्रेम) है, पर भगवान्का जीवमें आकर्षण कैसे है?
उत्तर—आकर्षण तो भगवान् और जीव—दोनोंमें है, पर भूल जीवमें है, भगवान्में नहीं। जैसे बच्चेको मॉँका प्रेम नहीं दीखता, ऐसे ही संसारमें आकर्षण होनेके कारण मनुष्यको भगवान्का प्रेम (आकर्षण) नहीं दीखता। यदि भगवान्का प्रेम दीखे (पहचानमें आये) तो उसका संसारमें आकर्षण हो ही नहीं।
भगवान् कहते हैं—‘सब मम प्रिय सब मम उपजाए’ (मानस, उत्तर० ८६। २)। भगवान्का प्रेम ही जीवको खींचता है, जिससे कोई भी परिस्थिति निरन्तर नहीं रहती॥ १५९॥
प्रश्न—क्या परम प्रेमकी प्राप्तिसे पहले मुक्त होना आवश्यक है?
उत्तर—ज्ञानमार्गमें मुक्ति के बाद प्रेम प्राप्त होता है और भक्तिमार्गमें प्रेम-प्राप्तिके बाद मुक्ति होती है।
प्रेम तो जीवमात्रमें पहलेसे ही विद्यमान है, पर संसारमें राग होनेके कारण वह प्रेम प्रकट नहीं होता। सत्संगसे जितना राग मिटता है, उतना ही प्रेम प्रकट होता है और जितना प्रेम प्रकट होता है, उतना ही राग मिटता है।
वास्तवमें प्रेमके अधिकारी मुक्त महापुरुष ही होते हैं। मुक्तिसे पहले भी प्रेम हो सकता है, पर वह असली नहीं होता। हॉँ, साधकके लिये वह बहुत सहायक होता है। असली प्रेम मुक्तिके बाद ही होता है। मुक्तिसे पहले ‘मैं भगवान्का हूॅँ’—ऐसी मान्यता रहती है, पर मुक्तिके बाद मान्यता नहीं रहती, प्रत्युत अनुभव होता है॥ १६०॥
प्रश्न—भगवान्ने प्रेमलीलाके लिये स्त्री-पुरुष (राधा-कृष्ण)-का रूप क्यों धारण किया? दो मित्रोंमें भी तो प्रेम हो सकता है!
उत्तर—संसारमें सबसे अधिक आकर्षण स्त्री-पुरुषके बीच ही होता है। इसलिये आकर्षण तो स्त्री-पुरुषकी तरह हो, पर अपनी सुखबुद्धि किंचिन्मात्र भी न हो—यह बात संसारी लोगोंको समझानेके लिये ही भगवान्ने राधा-कृष्णका रूप धारण किया। जिसकी दृष्टिमें स्त्री-पुरुषका भेद हो, वह राधा-कृष्णकी प्रेम-लीलाको नहीं समझ सकता। इसको ठीक समझनेके लिये साधकको चाहिये कि वह स्त्री-पुरुषका भाव न रखे। अपनेमें सुखबुद्धि होनेके कारण इसको समझनेमें कठिनता पड़ती है। जिसके भीतर किंचिन्मात्र भी अपने सुखकी आसक्ति है, वह प्रेम-तत्त्वको नहीं समझ सकता। इसलिये जीवन्मुक्त ही इस भावको ठीक समझ सकता है॥ १६१॥
प्रश्न—क्या श्रीजीकी रागात्मिका भक्ति जीवको प्राप्त हो सकती है?
उत्तर—हाँ, हो सकती है। कारण कि भगवान्ने श्रीजीको भी अपनेमेंसे प्रकट किया है और जीवोंको भी। अत: श्रीजी और जीवमें कोई अन्तर नहीं है। अन्तर इतना ही है कि जीवने मिली हुई स्वतन्त्रताका दुरुपयोग किया, पर श्रीजीने दुरुपयोग नहीं किया। अत: श्रीजीकी रागात्मिका भक्ति (प्रेम) सब जीवोंको प्राप्त हो सकती है॥ १६२॥
प्रश्न—प्रेममें एकसे दो होनेपर दोनों समान रहते हैं, फिर दास्यभाव (एक स्वामी, एक सेवक) कैसे होता है?
उत्तर—दास्य आदि कोई भाव हो, प्रेममें अपनी अलग सत्ता नहीं है; क्योंकि प्रेममें एक होकर दो हुए हैं। इसलिये कभी सेवक स्वामी हो जाता है, कभी स्वामी सेवक हो जाता है। कभी राधा कृष्ण बन जाती हैं, कभी कृष्ण राधा बन जाते हैं। शंकरजीके लिये कहा भी है—‘सेवक स्वामि सखा सिय पी के’ (मानस,बाल० १५। २)! दक्षिणके एक मन्दिरमें शंकरजीने नन्दीको उठा रखा है! कभी नन्दी शंकरजीको उठाता है, कभी शंकरजी नन्दीको उठाते हैं! कभी भगवान् कृष्ण इष्ट हैं, कभी अर्जुन इष्ट हैं—‘इष्टोऽसि मे दृढमिति’ (गीता १८। ६४)। इसलिये प्रेमको प्रतिक्षण वर्धमान कहा है॥ १६३॥
प्रश्न—जब साधक भगवान्में अपनापन करता है, तब उसको प्रेम प्राप्त होता है, पर सिद्ध (जीवन्मुक्त)-को प्रेम कैसे प्राप्त होता है?
उत्तर—साधकके लिये अपनापन है और मुक्तके लिये असन्तोष है। तात्पर्य है कि जब भगवान्की कृपा मुक्तिके रसको भी फीका कर देती है, तब उसको मुक्तिसे असन्तोष हो जाता है कि ‘आप’ (स्वयं) तो मिल गया, पर ‘अपना’ (स्वकीय) नहीं मिला! मुक्तिसे असन्तोष होनेपर उसको परम प्रेमकी प्राप्ति हो जाती है॥ १६४॥
प्रश्न—भगवान् मीठे कैसे लगें?
उत्तर—भगवान् मीठे लगेंगे संसार खारा लगनेसे!॥ १६५॥
प्रश्न—मुक्तिमें तो सूक्ष्म अहंकार रहता है, पर प्रेममें वह नहीं रहता, इसका क्या कारण है?
उत्तर—कारण यह है कि जीव परमात्माका अंश है। अत: यह परमात्मासे ज्यों-ज्यों दूर जाता है, त्यों-त्यों अहंकार दृढ़ होता जाता है और ज्यों-ज्यों परमात्माकी तरफ जाता है, त्यों-त्यों अहंकार मिटता जाता है। इसलिये स्वरूपमें स्थित होनेपर भी सूक्ष्म अहंकार रहता है और प्रेममें भगवान्के साथ अभिन्न होनेपर अहंकार सर्वथा मिट जाता है॥ १६६॥
प्रश्न—भगवान्में प्रेम कैसे बढ़े?
उत्तर—हम केवल भगवान्के ही अंश हैं; अत: वे ही अपने हैं। उनके सिवाय और कोई भी अपना नहीं है। इस प्रकार भगवान्में अपनापन होनेसे प्रेम स्वत: बढ़ेगा। इसके सिवाय भगवान्से प्रार्थना करनी चाहिये कि ‘हे नाथ! आप मीठे लगो, प्यारे लगो!’ भगवान्का गुणगान करनेसे, उनका चरित्र पढ़नेसे, उनके नामका कीर्तन करनेसे उनमें प्रेम हो जाता है। भगवान्के चरित्रसे भी भक्त-चरित्र पढ़नेका अधिक माहात्म्य है॥ १६७॥
प्रश्न—प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान कैसे होता है?
उत्तर—प्रेममें योग और वियोग, मिलन और विरह दोनों होते हैं। जब भक्तकी वृत्ति भगवान्की तरफ जाती है, तब ‘नित्ययोग’ होता है और जब अपनी तरफ जाती है, तब ‘नित्यवियोग’ होता है। भगवान्की तरफ वृत्ति जानेपर एक भगवान्के सिवाय कुछ नहीं दीखता और अपनी तरफ वृत्ति जानेपर स्वयं अलग दीखता है। ‘भगवान् ही हैं’—यह नित्ययोग है और ‘मैं भगवान्का हूँ’—यह नित्यवियोग है। नित्ययोगमें प्रेमका आस्वादन होता है और नित्यवियोगमें प्रेमकी वृद्धि होती है॥ १६८॥
प्रश्न—यदि हम निष्कामभावसे किसी व्यक्तिसे प्रेम करें तो उसका क्या परिणाम होगा?
उत्तर—कामनाके कारण ही संसार है। कामना न हो तो सब कुछ परमात्मा ही हैं, संसार है ही नहीं। निष्काम प्रेम होनेपर संसार नहीं रहेगा। कामना गयी तो संसार गया! इसलिये निष्कामभावसे किसीके साथ भी प्रेम करें तो वह भगवान्में ही हो जायगा॥ १६९॥
प्रश्न—भगवान्में प्रेमकी भूख क्यों है?
उत्तर—भगवान्में अपार प्रेम है, इसलिये उनमें प्रेमकी भूख है। जैसे, मनुष्यके पास जितना ज्यादा धन होता है, उतनी ही ज्यादा धनकी भूख होती है। भगवान्में प्रेमकी कमी नहीं है, पर भूख है॥ १७०॥
प्रश्न—प्रेमसे रोना और मोह (शोक)-से रोना—दोनोंमें क्या अन्तर है?
उत्तर—प्रेमके आँसू ठण्डे और मोहके आँसू गरम होते हैं। मोहके आँसू तो नेत्रोंके बीचसे निकलते हैं, पर प्रेमके आँसू नेत्रके भीतरी (नासिकाकी तरफ) कोनेसे निकलते हैं। अधिक प्रेम होनेपर आँसू पिचकारीकी तरह तेजीसे निकलते हैं॥ १७१॥