साधक
प्रश्न—साधकका कर्तव्य क्या है?
उत्तर—साधकका कर्तव्य है—साध्यसे प्रेम करना और असाधनका त्याग करना। चाह-रहित होना साधन है और किसीसे कुछ भी चाहना असाधन है॥ ३४८॥
प्रश्न—साधक अपनी लगन (भूख) कैसे बढ़ाये?
उत्तर—लगन विचारसे बढ़ती है। विचार करना चाहिये कि नाशवान् पदार्थोंके साथ हम कबतक रहेंगे? ये वस्तुएँ और व्यक्ति हमारे साथ कबतक रहेंगे? इसी चालसे साधन चलेगा तो सिद्धि कब होगी? अबतक जितने समयमें जितना लाभ हुआ है, उसी गतिसे साधन करनेपर और कितना समय लगेगा? आगे जीवनका क्या भरोसा है? आदि-आदि॥ ३४९॥
प्रश्न—साधकको विशेष ध्यान किसपर देना चाहिये, असाधनको हटानेपर अथवा जप, ध्यान आदि साधन करनेपर?
उत्तर—असाधनको हटानेपर विशेष ध्यान देना चाहिये। असाधन है—नाशवान्का सम्बन्ध। जप,ध्यान आदि साधन करनेसे साधक सन्तोष कर लेता है कि मैंने इतना जप कर लिया, इतना ध्यान कर लिया, आदि। यह सन्तोष साधकके लिये बाधक होता है॥ ३५०॥
प्रश्न—सज्जन और साधकमें क्या अन्तर है?
उत्तर—जिसमें दैवी-सम्पत्तिके गुण हैं, जिसके आचरण और विचार अच्छे हैं, वह ‘सज्जन’ है। जिसमें कल्याणकी तीव्र उत्कण्ठा है, जिसका परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य है, वह ‘साधक’ है। साधक तो सज्जन होता ही है, पर सज्जन साधक नहीं होता।
सज्जन लौकिक अहंकारवाला होता है और साधक पारमार्थिक अहंकारवाला होता है। जो दूसरे मत, सम्प्रदाय आदिकी निन्दा या खण्डन करता है, वह सज्जन तो हो सकता है, पर साधक नहीं हो सकता॥ ३५१॥
प्रश्न—ज्ञानमार्गी योगभ्रष्ट होता है कि नहीं?
उत्तर—जिस प्रणालीमें श्रवण, मनन, निदिध्यासन, ध्यान आदि है, उस प्रणालीसे चलनेवाले ज्ञानयोगीके योगभ्रष्ट होनेकी सम्भावना रहती है। परन्तु विवेककी प्रधानतासे चलनेवाले ज्ञानयोगीके योगभ्रष्ट होनेकी कम सम्भावना रहती है॥ ३५२॥
प्रश्न—क्या साधक द्रष्टा-भावसे भी रहित हो सकता है?
उत्तर—हॉँ, हो सकता है। यदि न हो सके तो द्रष्टा-भाव स्वत: नष्ट हो जायगा। भागवतमें आया है—‘परिपश्यन्नुपरमेत् सर्वतो मुक्तसंशय:’ (११। २९। १८) ‘सब प्रकारसे संशयरहित होकर सर्वत्र परमात्माको भलीभॉँति देखता हुआ उपराम हो जाय’। उपराम होनेसे द्रष्टा नहीं रहेगा, प्रत्युत केवल परमात्मा रह जायॅँगे। परमात्मामें द्रष्टा, दृश्य और दर्शन—यह त्रिपुटी नहीं है। दृश्य होनेसे द्रष्टा होता है, दृश्य नहीं तो द्रष्टा कैसे?॥ ३५३॥
प्रश्न—पारमार्थिक मार्गपर चलनेवालेपर अधिक दु:ख क्यों आता है?
उत्तर—ऐसा नियम नहीं है। वास्तवमें उनपर अधिक दु:ख नहीं आता, पर सुखकी तरफ वृत्ति होनेसे लोगोंको ज्यादा दु:ख दीखता है। साधकपर दु:खका असर नहीं पड़ता अर्थात् वह दु:खी नहीं होता। इसलिये दु:खदायी परिस्थिति आनेपर भी वह पारमार्थिक मार्गको छोड़ता नहीं।
एक सन्तसे किसीने कहा कि रामजीने सीताका त्याग करके उनको बहुत दु:ख दिया, तो वे सन्त बोले कि यह बात सीताजीसे पूछो तो पता लगे! सीताजी दु:ख मानती ही नहीं! उनकी रामजीपर दोषदृष्टि होती ही नहीं॥ ३५४॥