साधन
प्रश्न—मनुष्यजीवनमें साधनका आरम्भ कबसे होता है?
उत्तर—जब मनुष्य संसारसे संतप्त हो जाता है और विचार करता है, तब साधन आरम्भ होता है। तात्पर्य है कि जब मनुष्यको संसारसे सुख नहीं मिलता, शान्ति नहीं मिलती, तब वह संसारसे निराश हो जाता है। उसके भीतर उथल-पुथल मचती है और यह विचार होता है कि मुझे वह सुख चाहिये, जिसमें दु:ख न हो। वह जीवन चाहिये, जिसमें मृत्यु न हो। वह पद चाहिये, जिसमें पतन न हो। मैं नित्य सुखके बिना नहीं रह सकता। ऐसा विचार होनेपर वह साधनमें लग जाता है॥ ३५५॥
प्रश्न—हमारा साधन आगे बढ़ रहा है या नहीं, इसकी पहचान कैसे करें?
उत्तर—जितना संसारमें आकर्षण कम हुआ है और भगवान्में आकर्षण अधिक हुआ है, उतना ही हम साधनमें आगे बढ़े हैं। साधनमें आगे बढ़नेपर व्यवहारमें राग-द्वेष कम होते हैं। चित्तमें शान्ति, प्रसन्नता रहती है। सांसारिक लाभ-हानिमें हर्ष-शोक कम होते हैं॥ ३५६॥
प्रश्न—कुछ लोग कहते हैं कि भजन, सत्संग आदि तो वे करें, जो पाप करते हैं। हम पाप करते ही नहीं, फिर भजन क्यों करें?
मन साफ होना चाहिये—‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’, पाठ-पूजा करनेसे क्या लाभ?
उत्तर—उनको यह कहना चाहिये कि सम्पूर्ण पापोंका मूल ‘कामना’ तो आपके भीतर है ही—‘काम एष क्रोध एष:’ (गीता ३। ३७), फिर आप पापोंसे रहित कैसे हुए? भोग भोगना और संग्रह करना असली पाप है। इन दोनोंके सिवाय आप क्या करते हो? सिवाय कामनाके और मनमें क्या है? कामना मनमें है तो फिर मन चंगा कैसे? जो पाठ-पूजन, सन्ध्या-वन्दन आदि कुछ नहीं करता, उसमें और पशुओंमें फर्क क्या हुआ? पशु मुँह भी नहीं धोते!
अशुद्धि रोज आती है। इसलिये रोज शौच-स्नान करना पड़ता है। रोज बर्तन माँजने पड़ते हैं। मनुष्य प्रतिदिन जो क्रियाएँ करता है, उनसे दोष आता ही है—‘सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता:’ (गीता १८। ४८)। इस दोषकी शुद्धिके लिये प्रतिदिन पाठ-पूजा, भजन-ध्यान आदि करना आवश्यक है।
मन साफ होना चाहिये, पूजा-पाठ करनेसे क्या लाभ—ऐसी बातें तभी पैदा होती हैं, जब मन मैला होता है। अगर मन साफ हो तो शास्त्रविरुद्ध कार्य हो ही नहीं सकता। अगर मनमें शास्त्रविरुद्ध बात पैदा होती है तो यह मनकी मलिनताका प्रमाण है॥ ३५७॥
प्रश्न—जप, ध्यान आदि साधन स्वयंतक तो पहुॅँचते नहीं,फिर उनको करनेकी सार्थकता क्या है?
उत्तर—जप, ध्यान आदिसे विवेकका विकास होता है, भगवान्की सम्मुखता होती है, अन्त:करणमें पारमार्थिक रुचि पैदा होती है और संसारका महत्त्व कम होता है। ऐसा होनेपर संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद और भगवान्में प्रेम हो जाता है।॥ ३५८॥
प्रश्न—भजन करना क्या है?
उत्तर—भगवत्प्राप्तिके उद्देश्यसे जो जप, चिन्तन, स्वाध्याय, विचार आदि किया जाय—यह ‘भजन’ है। भगवान्में प्रियता होना, भगवान्के सम्मुख होना भी भजन है और संसारसे विमुख होना भी भजन है। केवल क्रियासे भजन नहीं होता, प्रत्युत उसमें भगवान्का सम्बन्ध होनेसे भजन होता है॥ ३५९॥
प्रश्न—साधनका स्वरूप क्या है?
उत्तर—साधनका स्वरूप है—परमात्माकी प्राप्तिमें तत्परता॥ ३६०॥
प्रश्न—असाधन क्या है?
उत्तर—जो मिला है और बिछुड़ जायगा, उसको अपना मानना और जो मिलने-बिछुड़नेवाला नहीं है, उसको अपना न मानना असाधन है॥ ३६१॥
प्रश्न—साधनजन्य सात्त्विक सुखका भोग करना क्या है?
उत्तर—उसमें सन्तोष करना। पारमार्थिक उन्नति तो सहायक है, पर उस उन्नतिमें सन्तोष करना बाधक है। सन्तोष करनेसे साधन आगे नहीं बढ़ता, उसमें रुकावट आ जाती है॥ ३६२॥
प्रश्न—चेतनने भूलसे जड़के साथ तादात्म्य किया है तो इस भूलको मिटानेकी जो साधना होगी, वह भी चेतनको ही करनी पड़ेगी। जब चेतन साधन करेगा तो फिर वह अकर्ता कैसे माना जायगा?
उत्तर—भूल (अज्ञान)अनादि है, चेतनने भूल की नहीं है। साधनका कर्ता वही है, जो ‘अहंकारविमूढात्मा’ है* अर्थात् जिसने शरीरसे तादात्म्य कर रखा है। वास्तवमें भूल किसी साधनसे नहीं मिटती। मानी हुई भूल न माननेसे मिट जाती है॥ ३६३॥
*अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥ (गीता ३। २७)
प्रश्न—कई जगह ऐसा देखा जाता है कि कोई व्यक्ति पहले तो खूब भजन, नामजप आदि करता था, पर बादमें उसने सब छोड़ दिया—इसका क्या कारण है?
उत्तर—इसका कारण है—कामना। जैसा चाहते हैं, वैसा होता नहीं, तब भजन करना छोड़ देते हैं। कारण कि कामनावाले व्यक्तिके लिये भगवान् साध्य नहीं हैं, प्रत्युत केवल कामनापूर्तिका साधन हैं। इसलिये गीताने कामनाके त्यागपर विशेष जोर दिया है। ऐसे व्यक्तिको भक्तोंकी कथाएँ सुनानी चाहिये॥ ३६४॥
प्रश्न—कोई मनुष्य यह निर्णय न कर सके कि मैं किसको इष्ट मानॅूँ, कौन-सा साधन करूॅँ , तो वह क्या करे?
उत्तर—अपना आग्रह छोड़कर रात-दिन नामजप करना शुरू कर दे। इसमें कुछ देरी तो लगेगी, पर मार्ग मिल जायगा॥ ३६५॥
प्रश्न—लोगोंकी प्राय: यह दुविधा रहती है कि महिमा सुन-सुनकर वे अनेक देवी-देवताओंकी उपासना शुरू कर देते हैं, पर बादमें उसको छोड़ना चाहते हुए भी इस डरसे नहीं छोड़ पाते कि कोई देवता नाराज न हो जाय, कोई नुकसान न हो जाय! ऐसी स्थितिमें उन्हें क्या करना चाहिये?
उत्तर—उपासना छोड़नेसे देवी-देवता नाराज नहीं होते; क्योंकि उनमें हमारी तरह राग-द्वेष नहीं होते। इसका कारण यह है कि मूलमें उपास्य-तत्त्व एक ही है। जैसे शरीरके अंग अनेक होनेपर भी शरीर एक है, ऐसे ही अनेक देवी-देवता होनेपर भी तत्त्व एक ही है।
साधकका उपास्य-देव एक ही होना चाहिये। अनेक उपास्य-देव होनेसे एक निष्ठा नहीं होगी और एक निष्ठा न होनेसे सिद्धि नहीं मिलेगी॥ ३६६॥
प्रश्न—सन्तोंसे दो प्रकारकी बात सुननेको मिलती है—पहली, अपने कल्याणका उद्देश्य रखकर साधनमें लग जाय और दूसरी, सब साधन दूसरेेके कल्याणके लिये ही करे। दोनों बातोंका सामञ्जस्य कैसे बैठेगा?
उत्तर—ये दो भेद साधकके स्वभावके अनुसार हैं। खास बात है—कल्याणके उद्देश्यसे खुद भी लगे और दूसरोंको भी लगाये—‘स्मरन्त: स्मारयन्तश्च’ (श्रीमद्भा०११।३।३१)॥ ३६७॥
प्रश्न—विवाह आदि होनेपर जैसे सांसारिक सम्बन्धकी स्वीकृति सुगमतासे हो जाती है, ऐसे भगवत्सम्बन्धकी स्वीकृति सुगमतासे क्यों नहीं होती?
उत्तर—इसका कारण है कि हमने अपनेको शरीर मान रखा है। यदि अपनेको शरीर नहीं मानते तो भगवत्सम्बन्धकी स्वीकृति भी सुगमतासे हो जाती॥ ३६८॥
प्रश्न—हम साधन करते हैं, फिर जल्दी सफलता क्यों नहीं मिल रही है?
उत्तर—जल्दी सफलता चाहना भी भोग है। हमें तो बस, साधन करते रहना है। जल्दी सफलता मिल जाय—इस तरफ ध्यान ही नहीं देना है। जल्दी सिद्धि प्राप्त करके पीछे करेंगे क्या? काम तो यही करेंगे॥ ३६९॥