सुख-दु:ख
प्रश्न—सुख-दु:खका अनुभव स्वयं करता है। दु:खका कारण अज्ञान है। तो फिर यह अज्ञान स्वयंमें है या कारणशरीरमें?
उत्तर—स्वयं सुख-दु:खका अनुभव नहीं करता, प्रत्युत सुखी-दु:खी हो जाता है। अज्ञान कारणशरीरमें है, पर स्वयं उससे तादात्म्य कर लेता है, घुल-मिल जाता है और सुखी-दु:खी हो जाता है।
शरीरके साथ एकता मान ली—यही अज्ञान है। इस अज्ञानके कारण ही शरीरमें होनेवाले परिवर्तनको अपनेमें मान लेते हैं अर्थात् अनुकूलतासे एक होकर सुखी और प्रतिकूलतासे एक होकर दु:खी हो जाते हैं। वास्तवमें स्वयं सुखी-दु:खी भी होता नहीं, प्रत्युत सुखी-दु:खी मान लेता है।
सुख-दु:ख आते-जाते हैं, पर स्वयं आता-जाता नहीं। सुख-दु:ख नहीं रहते,पर स्वयं रहता हैै। अत: स्वयं सुख-दु:खसे अलग है। सुख-दु:खके आने-जानेका और स्वयंके रहनेका अनुभव सबको है॥ ३७०॥
प्रश्न—फिर हम सुख-दु:खसे मिल क्यों जाते हैं?
उत्तर—मैं अलग हूॅँ और सुख-दु:ख अलग हैं—इसका हम आदर नहीं करते, इसको महत्त्व नहीं देते। हम सुख-दु:खके आनेको, उनके स्वरूपको और उनके जानेको जानते हैं—यह विवेक है। इस विवेकपर हम कायम नहीं रहते—यह गलती है॥ ३७१॥
प्रश्न—विवेकपर कायम रहनेमें असमर्थता क्यों प्रतीत होती है?
उत्तर—हमने सुखके भोगको और दु:खके भयको पकड़ लिया, इसलिये असमर्थता दीखती है। परन्तु सुखका भोग और दु:खका भय रहनेवाला नहीं है, जबकि हम रहनेवाले हैं—इस अनुभवको महत्त्व देना चाहिये। सुखके लालच और दु:खके भयको महत्त्व नहीं देना चाहिये, प्रत्युत उनकी उपेक्षा करनी चाहिये, उनसे तटस्थ रहना चाहिये, उनसे घुलना-मिलना नहीं चाहिये। फिर असमर्थता नहीं रहेगी॥ ३७२॥
प्रश्न—सुख-दु:खका रहना सिद्ध नहीं होता—यह तो ठीक है, पर आना कैसे सिद्ध नहीं होता; क्योंकि वह आता हुआ दीखता है?
उत्तर—वह तो बहता है, आना हमने मान लिया! वह बहता है—यह कहना भी तभी है, जब हम उसकी सत्ता मानते हैं। सत्ता न मानें तो वह है ही नहीं! उसके आने-जानेकी मान्यता स्वयंने की है। इस मान्यताका कारण है—विवेककी कमी, अज्ञान, बेसमझी, मूर्खता॥ ३७३॥
प्रश्न—एक बात है कि सुखके भोगीको दु:ख भोगना ही पड़ता है और दूसरी बात है कि दु:खका कारण भोग नहीं है, प्रत्युत भोगकी इच्छा है—दोनों बातोंका तात्पर्य क्या है?
उत्तर—सुखभोगके संस्कार सुखभोगकी इच्छा पैदा करते हैं। रागपूर्वक भोग भोगनेसे भोगोंका प्रबल संस्कार पड़ता है, जो अन्त:करणमें भोगोंका महत्त्व अंकित करता है और पुन: भोगोंमें प्रवृत्त करता है। भोगोंका महत्त्व अंकित होनेसे ‘सुखका कारण भोग है’—ऐसा भाव पैदा होता है, जिससे हम सुखभोगके बिना नहीं रह पाते।
भोग दुर्गतिका कारण है और भोगोंकी इच्छा दु:खका कारण है॥ ३७४॥
प्रश्न—सुख मिलेगा, तभी दु:ख मिटेगा। सुख मिले बिना दु:ख कैसे मिटेगा?
उत्तर—दु:खसे बचनेका उपाय सुख नहीं है, प्रत्युत त्याग है। इसी तरह रुपयोंका अभाव भी कभी रुपयोंसे नहीं मिट सकता—यह नियम है। रुपयोंके अभावको हम रुपयोंसे मिटा लेंगे—इसके समान कोई मूर्खता नहीं है। ज्यों-ज्यों रुपये मिलते हैं, त्यों-त्यों अभाव बढ़ता है—‘जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई’॥ ३७५॥
प्रश्न—कई व्यक्ति तो दु:ख आनेपर अधिक भजन करते हैं, पर कई दु:ख आनेपर भजन छोड़ देते हैं, इसका कारण?
उत्तर—जो भजनके लिये भजन करता है, उसका भजन दु:ख आनेपर भी नहीं छूटता। परन्तु जो सुखकी कामनासे (सकामभावसे) भजन करता है, उसका भजन दु:ख आनेपर छूट जाता है। तात्पर्य है कि ‘भजन करनेसे सुख मिलेगा’—यह प्रलोभन ज्यादा होनेसे दु:ख आनेपर भजन छूट जाता है। इसीलिये कामना-त्यागकी बात कही जाती है॥ ३७६॥
प्रश्न—दु:खका असर न पड़े, इसके लिये क्या करें?
उत्तर—दु:खका असर अपनेमें पड़ता ही नहीं; क्योंकि दु:ख तो आता-जाता है, पर हम ज्यों-के-त्यों रहते हैं। हम जबर्दस्ती दु:खके असरको स्वीकार कर लेते हैं॥ ३७७॥