Hindu text bookगीता गंगा
होम > प्रश्नोत्तर मणिमाला > संकल्प

संकल्प

प्रश्न—संकल्प किये बिना कोई भी कार्य कैसे किया जायगा?

उत्तर—वास्तवमें कर्म करनेकी स्फुरणा अथवा विचार होता है, संकल्प नहीं होता। संकल्प वह होता है, जिसमें अपनी आसक्ति, ममता और आग्रह रहता है। कार्य करनेकी स्फुरणा अथवा विचार बाँधनेवाला नहीं होता, पर संकल्प बाँधनेवाला होता है॥ ३०२॥

प्रश्न—भगवान् भी जब संकल्प करते हैं, तभी सृष्टि पैदा होती है तो क्या यह संकल्प बाँधनेवाला नहीं होता?

उत्तर—भगवान‍्के संकल्पमें न आसक्ति है,न आग्रह है, न अपने लिये कुछ पानेकी इच्छा है। अत: वास्तवमें यह संकल्प नहीं है, प्रत्युत स्फुरणा है। स्फुरणामात्रको ही संकल्प नामसे कहा गया है॥ ३०३॥

प्रश्न—क्रियामात्र प्रकृतिमें होती है, पर कुछ क्रियाएँ हम संकल्पपूर्वक करते हैं; जैसे—भोजन स्वत: पचता है, पर हम भोजन करनेका संकल्प करते हैं, तब भोजन करते हैं। यह संकल्प अपनेमें हुआ?

उत्तर—वास्तवमें संकल्प भी प्रकृतिमें ही होता है, स्वयंमें नहीं। संकल्पका आधार है—अज्ञान, अविवेक। विवेक स्पष्ट न होनेसे मनुष्य अपनेमें संकल्प मानता है, अपनेको कर्ता मानता है। संकल्पसे फिर कामना पैदा होती है। मन-बुद्धिके साथ अपनी एकता माननेसे ही संकल्प-विकल्प अपनेमें दीखते हैं।

भूख प्राणोंका धर्म है, स्वयंका नहीं। प्राणोंके साथ तादात्म्य होनेसे ऐसा मालूम होता है कि भूख मेरेको लगी है और ‘मैं भोजन करूँ’—ऐसा संकल्प होता है। भोजन प्राणोंके पोषणके लिये होता है, स्वयंके पोषणके लिये नहीं। यदि प्राणोंके साथ तादात्म्य न करें तो स्फुरणा होगी, संकल्प नहीं होगा॥ ३०४॥

प्रश्न—सन्तोंकी वाणीमें आता है कि भगवान् सत्य संकल्पको पूरा करते हैं, इसका क्या तात्पर्य है?

उत्तर—सत्य-तत्त्व (परमात्मा)-की प्राप्तिका संकल्प ही सत्य संकल्प है, जिसको भगवान् पूरा करते हैं। असत् (संसार)-का संकल्प पूरा होने अथवा न होनेमें प्रारब्ध कारण है॥ ३०५॥

अगला लेख  > सन्त-महात्मा (दे० जीवन्मुक्त)