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सन्त-महात्मा (दे० जीवन्मुक्त)

प्रश्न—साधु, सन्त और महात्मा—तीनोंमें क्या अन्तर है?

उत्तर—जो साधनमें तत्पर है, वह ‘साधु’ है। जिसने साधन करके अनुभव कर लिया है और जिसकी वाणी, आचरण आदि सबमें सत्-तत्त्व उद्भासित होता है, वह ‘सन्त’ है। जिसकी दृष्टिमें मैं-मेरे,तू-तेरेका भेद नहीं रहा, जिसका सब प्राणियोंके प्रति समान भाव हो गया, वह ‘महात्मा’ है।

गृहस्थ, संन्यासी आदि सभी वर्ण, आश्रम, देश, वेश आदिके व्यक्ति साधु, सन्त या महात्मा हो सकते हैं। गेरुआ वस्त्रधारियोंके वेशमें ज्यादा साधु, सन्त, महात्मा हो चुके हैं, इसलिये इस वेशको लेकर भी लोग साधु, सन्त, महात्मा कह देते हैं॥ ३०६॥

प्रश्न—महात्मा शरीर छूटनेपर सर्वव्यापी होता है या पहले?

उत्तर—वह सर्वव्यापी तो मुक्त होते ही हो जाता है। केवल लोगोंकी दृष्टिमें देहका आवरण दीखता है॥ ३०७॥

प्रश्न—फिर शरीर छूटनेके बाद उनका प्रचार अधिक क्यों होता है?

उत्तर—शरीरके रहते हुए उनका मत एक व्यक्तिका दीखता है। परन्तु शरीर छूटनेके बाद व्यक्तिका मत न दीखकर केवल सिद्धान्त दीखता है। मतकी अपेक्षा सिद्धान्तका लोगोंमें अधिक प्रचार होता है। व्यक्तिको लेकर मत होता है और तत्त्वको लेकर सिद्धान्त होता है॥ ३०८॥

प्रश्न—सन्त-महात्माको कोई आदेश देना हो तो स्वप्नमें क्यों देते हैं?

उत्तर—जाग्रत् में वे आज्ञा दें और वह उसको न माने तो पाप लगेगा, इसलिये वे स्वप्नमें आज्ञा देते हैं। स्वप्नमें दी गयी आज्ञा अगर न माने तो पाप नहीं लगेगा और माने तो लाभ होगा॥ ३०९॥

प्रश्न—भगवान‍्की लीलाको देखनेसे जो मोह होता है, वह तो लीलाके श्रवणसे दूर हो जाता है। परन्तु सन्तोंकी लीला (आचरण) देखनेसे जो मोह होता है, वह किस उपायसे दूर होता है?

उत्तर—सन्तोंकी लीला देखनेसे जो मोह होता है, उसके नाशका उपाय है—उनकी तात्त्विक बातोंकी तरफ ध्यान दे, उनके आचरणोंकी तरफ नहीं। कारण कि उनके आचरण देश, काल, परिस्थिति आदिके अनुसार तथा सामनेवाले व्यक्तिके भावके अनुसार होते हैं, जिनको हम पूरा नहीं समझ सकते॥ ३१०॥

प्रश्न—तेज बुखारमें भी सन्तोंको आनन्द क्यों होता है?

उत्तर—कारण कि उनकी दृष्टि लाभपर रहती है कि हमारे पाप कट रहे हैं! जैसे, कॉँटा निकालते समय पीड़ा होती है तो वह बुरी नहीं लगती। स्त्री प्रसवकी पीड़ाको भी प्रसन्नतापूर्वक सहन कर लेती है कि पुत्र हुआ है!॥ ३११॥

प्रश्न—सन्तोंको राजनीतिमें आना चाहिये या नहीं?

उत्तर—यदि शासकलोग अपने पदका दुरुपयोग करते हों तो सन्तोंको राजनीतिमें आना ही चाहिये। अगर स्वार्थभाव न हो और केवल परहितका भाव हो तो राजनीति बाधक नहीं है॥ ३१२॥

प्रश्न—सन्तोंमें परस्पर संगठन कैसे हो?

उत्तर—सन्तोंमें संगठन तभी होगा, जब सबका उद्देश्य एक ही हो। यदि उनमें बाहरसे एकता करना चाहें तो वह नहीं हो सकती; क्योंकि बाहरसे सब अलग-अलग विधियोंका पालन करते हैं। अत: सन्तोंको चाहिये कि वे अपने सिद्धान्तपर, अपने उद्देश्यपर दृढ़ रहें॥ ३१३॥

प्रश्न—सन्त-महात्मा उपदेश देते हैं तो उनकी क्या दृष्टि रहती है?

उत्तर—वे लोगोंकी दृष्टिमें उनको उपदेश देते हैं, उनको भगवान‍्में लगाते हैं। परन्तु उनकी अपनी दृष्टिमें एक भगवान‍्के सिवाय और कुछ है ही नहीं—‘वासुदेव: सर्वम्’। जिस स्थितिमें सामान्य लोग हैं, उसी स्थितिमें उतरकर वे उपदेश देते हैं॥ ३१४॥

प्रश्न—एक बात आती है कि सन्त दूसरोंके दु:खसे दु:खी होते हैं और एक बात आती है कि सन्त वास्तवमें न अपने दु:खसे दु:खी होते हैं, न दूसरोंके दु:खसे—इसका तात्पर्य क्या है?

उत्तर—जैसे समुद्रके ऊपर लहरें उठती हैं, पर समुद्रके भीतर लहरें नहीं हैं, ऐसे ही सन्त व्यवहारमें सुखी-दु:खी होते दीखते हैं, पर भीतर (तत्त्व)-से वे न सुखी होते हैं, न दु:खी। वे दूसरोंके दु:खसे दु:खी नहीं होते, प्रत्युत उनका दु:ख दूर करनेकी चेष्टा करते हैं॥ ३१५॥

प्रश्न—किसी सन्तसे उनके अनुभवकी बात पूछनी चाहिये या नहीं?

उत्तर—पारमार्थिक विषयमें अनुभवकी बात पूछना और अनुभवकी बात कहना—दोनों ही उचित नहीं हैं। लौकिक विषयमें भी यह पूछना कि ‘तुम्हारे पास कुल कितने रुपये हैं’ असभ्य माना जाता है। मेरे पास बैंकमें इतने रुपये हैं—यह भी कोई नहीं बताता। यह पूछने-कहनेकी बात ही नहीं है। क्या भगवान् रुपयेसे भी रद्दी हैं?

दूसरी बात, जो अनुभवकी बात पूछता है, उसमें उस सन्तके प्रति अश्रद्धा रहती है। अगर कुछ अश्रद्धा, अविश्वास, सन्देह न हो तो वह पूछता ही क्यों? सन्त उत्तर दे कि हॉँ, मेरेको परमात्मतत्त्वका अनुभव हुआ है तो उससे पूछनेवालेके मनमें अश्रद्धा ही पैदा होगी कि ये आत्मश्लाघा करते हैं। अगर सन्त कहे कि अनुभव नहीं हुआ तो भी अश्रद्धा ही होगी।* अत: अनुभवकी बात पूछनेसे पूछनेवालेकी हानि (अश्रद्धा) ही होती है, लाभ नहीं होता।

* उपनिषद्‍में शिष्य अपने गुरुके प्रति कहता है—
नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च।
यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च॥
(केन० २। २)
‘मैं तत्त्वको भलीभॉँति जान गया हूँ—ऐसा मैं नहीं मानता और न ऐसा ही मानता हूँ कि मैं तत्त्वको नहीं जानता; क्योंकि जानता भी हूँ। मैं तत्त्वको जानता हूँ अथवा नहीं जानता हूँ—ऐसा सन्देह भी नहीं है। हममेंसे जो कोई भी उस तत्त्वको जानता है, वही मेरे उक्त वचनके तात्पर्यको जानता है।’

तीसरी बात, अनुभवी महापुरुषकी दृष्टिमें कोई भी व्यक्ति अज्ञानी नहीं होता। उनकी दृष्टिमें ज्ञानी-अज्ञानीका भेद होता ही नहीं। उनकी दृष्टिमें ज्ञान सबमें है,पर बेचारे समझते नहीं। मैं हूँ—ऐसे अपनी सत्ताको सभी मानते हैं, पर भूलसे शरीरको लेकर सत्ता मानते हैं। वास्तवमें ज्ञान नहीं होता, प्रत्युत अज्ञानका नाश होता है। ज्ञान तो स्वत:-सिद्ध है। इसलिये अनुभव होनेपर ऐसा नहीं दीखता कि पहले नहीं था, अब अनुभव हुआ है, प्रत्युत स्वत:-स्वाभाविक दीखता है कि यह तो पहलेसे ही है, नया क्या हुआ?

पूछनेवाला तो अनुभवकी बात पूछ लेता है, पर अनुभवी सन्त इसका उत्तर कैसे दे? अगर वह कहे कि मेरेको अनुभव हो गया तो असत्यका दोष लगेगा; क्योंकि वह ऐसा मानता ही नहीं कि मेरेको अनुभव हुआ है, दूसरोंको नहीं। उपनिषद्‍में आया है कि जब राजा जनकने कहा कि ये एक हजार गायें हैं, जो ब्रह्मज्ञानी हो, वह इनको ले जाय, तब याज्ञवल्क्यजी खड़े हो गये और अपने शिष्यसे बोले कि इन गायोंको ले चलो। राजा जनकके होता अश्वलने पूछा कि क्या सबमें तुम ही ब्रह्मज्ञानी हो? तब याज्ञवल्क्यजीने कहा कि ब्रह्मज्ञानीको तो हम नमस्कार करते हैं, हमें तो गायोंकी जरूरत है, इसलिये उनको ले जाता हूँ, अगर तुम्हें कोई शंका हो तो प्रश्न करो॥ ३१६॥

प्रश्न—सच्चा सन्त कौन है?

उत्तर—जो अपना उद्धार कर चुका है और दूसरेका उद्धार करनेके सिवाय जिसमें दूसरी कोई इच्छा नहीं है। जिसमें स्वार्थकी गंध भी नहीं है। जिसको सिवाय उद्धारके संसारसे और कोई मतलब नहीं, कुछ लेना नहीं॥ ३१७॥

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