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संसार (दे० सुखासक्ति)

प्रश्न—सूक्ष्म जगत् और कारण जगत् क्या है?

उत्तर—प्राणिमात्रके (समष्टि) सूक्ष्मशरीर मिलकर सूक्ष्म जगत् और कारणशरीर मिलकर कारण जगत् कहलाता है॥ ३१८॥

प्रश्न—संसारका असर न पड़े—इसके लिये क्या करें?

उत्तर—संसारका असर मन-बुद्धि-इन्द्रियोंपर पड़ता है, अपनेपर नहीं—इस तरफ खयाल रखें। संसारका असर सदा रहेगा नहीं, मिट जायगा, इसलिये इसकी परवाह न करें। मैं उससे अलग हूँ—इस तरफ दृष्टि रखें तो उसकी जड़ कट जायगी।

हम परमात्माके अंश हैं, इसलिये हमारा सम्बन्ध परमात्माके साथ है। संसारमें कोई भी वस्तु व्यक्तिगत नहीं है। शरीर-इन्द्रियॉँ-मन-बुद्धि प्रकृतिके अंश हैं, इसलिये उनका सम्बन्ध प्रकृतिके साथ है, हमारे साथ नहीं॥ ३१९॥

प्रश्न—नाशवान‍्में आकर्षण होनेका कारण क्या है?

उत्तर—इसका कारण है—अज्ञान, मूर्खता। अज्ञान यह है कि संसारके सम्बन्धसे होनेवाले दु:खको संसारके सम्बन्धसे ही मिटाना चाहते हैं॥ ३२०॥

प्रश्न—सांसारिक रुचिका नाश कैसे हो?

उत्तर—जितना सुख लिया है, उससे कुछ अधिक दु:ख हो जाय तो रुचि नष्ट हो जायगी। यह दु:ख होगा विचारसे अथवा सत्संगसे। इनसे भी न हो तो भगवान‍्से प्रार्थना करे। विचारसे यह रुचि उतनी जल्दी नहीं छूटती, जितनी जल्दी दूसरोंको सुख देनेसे अथवा भगवान‍्के शरण होकर उनको पुकारनेसे छूटती है। जिनकी भगवान‍्में रुचि है, भोगोंमें रुचि नहीं है, उनके पास बैठनेसे भी रुचि मिटती है॥ ३२१॥

प्रश्न—भगवान् सांसारिक रुचि क्यों नहीं छुड़ाते?

उत्तर—भगवान् अपनी तरफसे किसीके सुखको नहीं छुड़ाते। यह काम चोर-डाकुओंका है!॥ ३२२॥

प्रश्न—हम रुचि छोड़ना चाहते ही हैं, फिर भगवान् क्यों नहीं छुड़ाते?

उत्तर—सांसारिक रुचि तो अधिक है, पर उसको छोड़नेकी चाहना कमजोर है, तभी भगवान् नहीं छुड़ाते॥ ३२३॥

प्रश्न—संसारका खिंचाव मिटानेका बढ़िया उपाय क्या है?

उत्तर—विषयोंका सेवन रागपूर्वक न करे, पर भजन रागपूर्वक (प्रेमपूर्वक) करे। विषयोंका सेवन करते समय, भोग भोगते समय हृदयको कठोर रखे अर्थात् भोगोंमें रस न ले, उनसे निर्लिप्त रहे। कारण कि जैसे पिघले हुए मोममें रंग डालनेसे रंग उसके भीतर बैठ जाता है, ऐसे ही हृदय द्रवित होनेपर वे विषय भीतर बैठ जाते हैं॥ ३२४॥

प्रश्न—जो प्रत्यक्ष दीख रहा है, उस संसारका सर्वथा अभाव कैसे मानें?

उत्तर—जो दीखता है, उसकी सत्ता होती है—यह आवश्यक नहीं है। मृगतृष्णाका जल दीखता है, दर्पणमें मुख दीखता है, रस्सीमें सॉँप दीखता है तो क्या उसकी सत्ता है?

विचारपूर्वक देखें तो संसारका पहले भी अभाव था, पीछे भी अभाव हो जायगा और वर्तमानमें भी इसका प्रतिक्षण अभाव हो रहा है। जो प्रतिक्षण बदल रहा है, उसकी सत्ता कैसे स्वीकार करें? उत्पत्ति-विनाशका प्रवाह ही वर्तमानमें स्थिति रूपसे दीख रहा है। जैसे पहले कभी महाभारतकी घटनाएँ वर्तमानमें थीं और बड़ी ठोस दीखती थीं, पर आज वे हैं क्या? आज केवल उनकी कथा शेष रह गयी है। ऐसे ही अभी जो वर्तमानमें दीखता है, यह भी नहीं रहेगा।

बीजसे अंकुर बनता है, अंकुरसे पौधा बनता है, पौधेसे वृक्ष बनता है, फिर उसमें पुष्प और फल लगते हैं—इस प्रकार संसारमें निरन्तर परिवर्तन हो रहा है। अंकुर बना जो बीज नहीं रहा, पौधा बना तो अंकुर नहीं रहा, वृक्ष बना तो पौधा नहीं रहा! तात्पर्य है कि संसारमें स्थिति नामकी कोई चीज है ही नहीं।

संसारका तो अभाव ही है, वह दीखे तो क्या और न दीखे तो क्या! दर्पणमें मुख दीखे तो क्या और न दीखे तो क्या!॥ ३२५॥

प्रश्न—संसारकी सत्ताका अभाव करें अथवा उससे अपना सम्बन्ध न मानें?

उत्तर—एक ही बात है। सत्ताका अभाव करनेकी अपेक्षा अपना सम्बन्ध न मानना सुगम और श्रेष्ठ है। संसार सत् हो या असत्, उससे हमारा कोई मतलब नहीं। जैसे, स्वप्नकी सृष्टि है तो ठीक, नहीं है तो ठीक, उससे अपना क्या मतलब? एक-दो नहीं, चौरासी लाख योनियॉँ बीत गयीं, पर हम वही एक रहे। जब चौरासी लाख योनियोंसे हमारा सम्बन्ध नहीं रहा तो फिर इस एक शरीरसे सम्बन्ध कैसे रहेगा? सम्बन्ध रहना सम्भव ही नहीं है॥ ३२६॥

प्रश्न—हमारा स्वरूप सत्तामात्र है, सत्तामात्रमें ही हमारी स्थिति है—ऐसा जानते हुए भी संसारमें आकर्षण हो जाय तो साधक क्या करे?

उत्तर—संसारमें आकर्षण हो गया—यह नुकसान नहीं हुआ, प्रत्युत उस आकर्षणको सच्चा मान लिया—यह नुकसान हुआ है! आकर्षण तो मिट जायगा, पर सत्ता रह जायगी। वास्तवमें आकर्षण होना भी मिटनेका नाम है और आकर्षण न होना भी मिटनेका नाम है। आकर्षणको महत्त्व दे दिया—यही बीमारी है!

प्रत्येक सांसारिक भोगमें रुचि भी होती है और अरुचि भी होती है। रुचिको स्थायी रखना और अरुचिको स्थायी न रखना भूल है। इस भूलका कारण है—मूर्खता॥ ३२७॥

प्रश्न—संसारसे माना हुआ सम्बन्ध किसपर टिका हुआ है?

उत्तर—सुख-लोलुपतापर॥ ३२८॥

प्रश्न—संसारके साथ माना हुआ सम्बन्ध झूठा होते हुए भी दृढ़ कैसे हो गया?

उत्तर—संयोगजन्य सुखकी लोलुपताके कारण झूठी मान्यता भी दृढ़ हो गयी। कारण कि सांसारिक सुख आरम्भमें अमृतकी तरह दीखता है—‘विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्’ (गीता १८। ३८), इसलिये मनुष्य उसमें फँस जाता है, उसकी विचारशक्ति नष्ट हो जाती है, वह अन्धा हो जाता है!॥ ३२९॥

प्रश्न—इस सुखलोलुपताको छोड़नेका उपाय क्या है?

उत्तर—उपाय है—सत्संग॥ ३३०॥

प्रश्न—संसारका आश्रय छोड़नेमें निर्बलता क्यों मालूम देती है।

उत्तर—क्योंकि संसारसे सुख लेते हैं॥ ३३१॥

प्रश्न—सुख छोड़नेमें भी निर्बलता मालूम देती है, क्या करें?

उत्तर—यह निर्बलता दूसरोंको सुख देनेसे छूटेगी। मनुष्यशरीर सुख भोगनेके लिये है ही नहीं—‘एहि तन कर फल बिषय न भाई’ (मानस, उत्तर० ४४। १)॥ ३३२॥

प्रश्न—असत् की सत्ता ही नहीं है—ऐसा जानते हुए भी उसका त्याग कठिन क्यों हो रहा है?

उत्तर—हम विचारके समय तो संसारको असत् मानते हैं, पर अन्य समय असत् के संगका सुख भोगते हैं। इस सुखासक्तिके कारण ही असत् के त्यागमें कठिनता मालूम देती है। असत् में स्थायीपना है नहीं, पर सुखलोलुपता उसको स्थायी दिखाती है॥ ३३३॥

प्रश्न—संसारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है अथवा संसारकी सत्ता ही नहीं है?

उत्तर—दूसरी सत्ताको मानें तो संसारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है और दूसरी सत्ताको न मानें तो संसारकी सत्ता है ही नहीं। संसारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है—यह साधककी बात है। संसारकी सत्ता ही नहीं है—यह सिद्धकी बात है॥ ३३४॥

प्रश्न—जो जाननेमें आता है, वह सब जड़ संसार है; क्योंकि उसमें त्रिपुटी है। भगवान् या स्वयं (आत्मा) जाननेमें आते हैं तो वे भी जड़ हुए?

उत्तर—भगवान् जाननेमें नहीं आते, प्रत्युत माननेमें आते हैं। माननेमें श्रद्धा-विश्वास मुख्य हैं, त्रिपुटी मुख्य नहीं है। स्वयं (अपना होनापन) भी जाननेमें नहीं आता, प्रत्युत अनुभवमें आता है। अनुभवमें त्रिपुटी नहीं होती॥ ३३५॥

प्रश्न—संसारसे माना हुआ सम्बन्ध कब छूटेगा?

उत्तर—जब हम अचाह और अप्रयत्न हो आयॅँगे, तब छूटेगा। कारण कि संसारका स्वरूप है—पदार्थ और क्रिया। अचाह होनेसे पदार्थका सम्बन्ध छूट जायगा और अप्रयत्न होनेसे क्रियाका सम्बन्ध छूट जायगा। हम अचाह और अप्रयत्न तब होंगे, जब हम इस सत्यको स्वीकार कर लेंगे कि अनन्त ब्रह्माण्डोंमें मेरा कुछ भी नहीं है॥ ३३६॥

प्रश्न—परिवर्तनकी आसक्ति कैसे मिटे?

उत्तर—उसको मिटाना नहीं है, प्रत्युत वह तो स्वत: मिट रही है। बढ़िया उपाय है—उसकी उपेक्षा कर दें, उसको पकड़े नहीं। उसको सत्ता और महत्ता देकर मिटानेकी चेष्टा करना ही गलती है॥ ३३७॥

प्रश्न—संसार अच्छा नहीं लगता, फिर भी भोगोंमें फँस जाते हैं! क्या करें?

उत्तर—वास्तवमें संसार ही अच्छा लगता है। यदि संसार बुरा लगे तो भोगोंमें फँस सकते ही नहीं॥ ३३८॥

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