सत्संग
प्रश्न—सन्तोंका संग प्रारब्धसे मिलता है या भगवत्कृपासे?
उत्तर—सन्त प्रारब्धसे भी मिलते हैं—‘पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता’ (मानस, उत्तर० ४५। ३), भगवत्कृपासे भी मिलते हैं—‘जब द्रवै दीनदयालु राघव, साधु-संगति पाइये’ (विनय० १३६। १०) और अपनी लगनसे भी मिलते हैं—‘जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥ (मानस, बाल० २५९। ३)। परन्तु उनसे लाभ उठानेमें हमारी सच्ची लगन (उत्कट अभिलाषा) ही मुख्य है अर्थात् उनसे लाभ उठाना हमारे हाथकी बात है॥ ३३९॥
प्रश्न—सत्संगका स्वरूप क्या है?
उत्तर—सत्-तत्त्व (परमात्मा)-में निष्काम प्रेम होना भी सत्संग है और जीवन्मुक्त सन्तके साथ निष्काम प्रेम भी सत्संग है। जीवन्मुक्त सन्तके पास बैठना भी सत्संग है। संसारसे विमुख होना भी सत्संग है। तात्पर्य है कि हम किसी भी प्रकारसे भगवान्के सम्मुख हो जायॅँ तो यह सत्संग है॥ ३४०॥
प्रश्न—‘तुलसी संगत साधु की, कटै कोटि अपराध’—साधुकी संगत क्या है?
उत्तर—साधुकी असली संगत है—साधुके साथ अभिन्न हो जाना। अभिन्न होनेका तात्पर्य है—उनकी बातको तत्परतासे सुनकर उसी क्षण उसमें स्थित हो जाय। उनकी बातको भविष्यके लिये, अभ्यासपर मत छोड़े। अगर उनकी बातमें कोई विकल्प, सन्देह हो तो उसी समय पूछ ले अथवा एकान्तमें विचार करके उसको दृढ़ कर ले॥ ३४१॥
प्रश्न—संसारी व्यक्ति भी सत्संगमें चले जाते हैं और साधक भी सत्संगमें नहीं जाते, प्रत्युत घरमें रहकर भजन करते हैं, इसका क्या कारण है?
उत्तर—संसारी व्यक्तिको भी सत्संग मिलता है तो यह भगवान्की कृपा है और साधक भी सत्संग नहीं करता तो यह उसकी लगनकी कमी है। परन्तु सत्संग मिलनेपर भी संसारी व्यक्ति सत्संगसे विशेष लाभ नहीं उठा सकता और साधक यदि सत्संग करे तो विशेष लाभ उठा सकता है। कारण कि साधन करना खुद कमाकर धनी बनना है और सत्संग करना धनीकी गोद जाना है। गोद जानेसे कमाया हुआ धन मिलता है!॥ ३४२॥
प्रश्न—सत्संग करनेसे किसीका तो जीवन बदल जाता है, किसीका नहीं बदलता, इसमें क्या कारण है?
उत्तर—एक सुदुराचारी होता है और एक दुर्दुराचारी होता है। सुदुराचारीपर तो सत्संगका असर पड़ता है, पर दुर्दुराचारीपर सत्संगका असर नहीं पड़ता—‘पापवंत कर सहज सुभाऊ। भजनु मोर तेहि भाव न काऊ॥ ’ (मानस, सुन्दर० ४४। २)।
ये चार लक्षण जिसमें हों, उसपर सत्संगका असर नहीं पड़ता—(१) अभिमान, (२)दूसरेकी बात न सह सकना, (३) अज्ञता और (४) कुतर्क। ऐसे व्यक्तिके सुधारका एक ही उपाय है—आफत! जब आफत आयेगी, तभी उसको चेत होगा—‘मूर्खाणां औषधं दण्ड:’॥ ३४३॥
प्रश्न—सत्संगकी महिमा वैकुण्ठकी प्राप्तिसे भी अधिक क्यों कही गयी है?
उत्तर—सत्संग वैकुण्ठकी प्राप्ति करानेवाला हैै। प्राप्य वस्तुकी अपेक्षा प्रापककी विशेष महिमा होती है। सत्संगमें उनको भी लाभ मिलता है, जो वैकुण्ठमें नहीं गये। वैकुण्ठकी प्राप्ति होनेसे सत्संग (सन्त-समागम) मिल जाय—यह नियम नहीं है, पर सत्संग मिलनेसे वैकुण्ठकी प्राप्ति हो ही जाती है॥ ३४४॥
प्रश्न—कुछ व्यक्ति सत्संग करते-करते उसे छोड़ देते हैं तो इसमें क्या प्रारब्ध कारण है?
उत्तर—प्रारब्ध कारण नहीं है। इसमें दो कारण हैं—जिसका सत्संग करते हैं, उसमें अवगुण देखना और कुसंग करना। अपने भीतर कमी (कुसंस्कार) होती है, तभी कुसंगका असर पड़ता है। जैसे, जिसके भीतर स्त्रीकी आसक्ति है, उसीपर स्त्रीके संगका असर पड़ता है। जिसके भीतर धनकी आसक्ति है, उसीपर धन और धनीका असर पड़ता है।
जिसका सत्संग करते हैं, उसमें अवगुण देखनेपर भी लोक-लाजके भयसे सम्बन्ध बनाये रखना ठीक नहीं है। इससे लाभ नहीं होता। अत: ऐसी अवस्थामें उनकी निन्दा न करके चुपचाप अलग हो जाना चाहिये। फिर किसीसे सम्बन्ध नहीं जोड़ना चाहिये॥ ३४५॥
प्रश्न—मनुष्यपर प्राय: सत्संगका असर तो कम पड़ता है, पर कुसंगका असर ज्यादा पड़ता है, इसका क्या कारण है?
उत्तर—जिसके भीतर कुसंगके संस्कार हैं, उसपर कुसंगका असर ज्यादा पड़ता है और जिसके भीतर सत्संगके संस्कार हैं, उसपर सत्संगका असर ज्यादा पड़ता है। कारण कि सजातीयता (समान जाति)-में ही खिंचाव होता है। इसलिये मनुष्यको चाहिये कि सत्संग, सत्-शास्त्र आदिके द्वारा अपने भीतर अच्छे संस्कारोंको भरे॥ ३४६॥
प्रश्न—सत्संग कैसे सुनें कि फिर उसे भूलें नहीं?
उत्तर—(१) वक्ता क्या सुनाता है और क्या सुनाना चाहता है—इसपर गहरा विचार करें (२)सुननेके साथ-साथ उसपर मनन करते जाना चाहिये, जिससे बादमें हम दूसरोंको भी सुना सकें (३) जो सुना है, उसको काममें लानेकी चेष्टा करनी चाहिये (४)सत्संग सुननेवालोंको आपसमें बैठकर सुने हुए सत्संगकी चर्चा करनी चाहिये॥ ३४७॥