सेवा
प्रश्न—सेवाका मूल क्या है?
उत्तर—किसीको भी दु:ख न पहुॅँचाना, किसीका भी अहित न करना॥ ३८६॥
प्रश्न—देशकी सेवा बड़ी है या माता-पिताकी सेवा?
उत्तर—माता-पिताकी सेवा एक नम्बरमें है और देशकी सेवा दो नम्बरमें। कारण कि हमें माता-पिताने शरीर दिया है, उसका पालन पोषण किया है, पढ़ा-लिखाकर योग्य बनाया है, इसलिये उनका हमारेपर ऋण है। पहले ऋण चुकाना चाहिये, फिर देशसेवा, दान आदि करना चाहिये। ऋण चुकाये बिना दान आदि करनेका अधिकार ही नहीं है॥ ३८७॥
प्रश्न—जैसे हमें जो कुछ मिलता है, वह प्रारब्धके अधीन होता है, ऐसे ही दूसरे व्यक्तिको भी जो कुछ मिलेगा, वह भी प्रारब्धके अधीन होगा, फिर हम दूसरेकी सेवा क्यों करें?
उत्तर—यह बात ठीक है कि दूसरे व्यक्तिको वही मिलेगा, जो उसके प्रारब्धमें होगा। परन्तु हमें उसकी तरफ न देखकर अपने कर्तव्यका पालन करना है। कर्तव्यका विभाग अलग है। कर्तव्यका त्याग करनेसे दोष लगता है। अत: हमें अपने कर्तव्यका पालन (सेवा) कर देना है, चाहे उसको प्रारब्धके अनुसार मिले या न मिले। बालक बीमार होता है और माता उसकी बीमारी ठीक नहीं कर सकती तो क्या वह उसकी सेवा करना छोड़ देती है? ऐसे ही जो सज्जन पुरुष होते हैं, वे माँकी तरह कृपापूर्वक अपने कर्तव्यका पालन करते हैं। इससे कर्तव्यपरायणता, हितैषिता और दयालुता पैदा होती है, जो दैवी-सम्पत्तिका गुण है। दैवी-सम्पत्ति मुक्तिके लिये होती है—‘दैवी सम्पद्विमोक्षाय’ (गीता १६। ५)॥ ३८८॥
प्रश्न—दूसरेपर प्रतिकूल परिस्थिति आयी है तो वह भगवान्के विधानसे आयी है। अत: उसकी सहायता या सेवा करना क्या भगवान्के विधानसे विरुद्ध कार्य करना नहीं है?
उत्तर—भगवान् पिताके समान हैं और भक्त माताके समान। अत: भगवान्में ‘न्याय’ मुख्य है और भक्तोंमें ‘दया’ मुख्य है, जबकि यह दया भी भगवान्से ही आयी है। अत: हमारा कर्तव्य उसकी सेवा करना है। जो दूसरेके दु:खसे दु:खी नहीं होता, वह स्वार्थी और अभिमानी होता है। उसका अन्त:करण कठोर होता है। वह सात्त्विक न होकर राजसी-तामसी होता है।
एक बार चमारोंकी बस्तीमें आग लग गयी और उनके घर जलकर नष्ट हो गये। सेठजी (श्रीजयदयालजी गोयन्दका)-ने उनके नये घर बनवा दिये। दुबारा आग लग गयी और वे घर पुन: नष्ट हो गये। सेठजीने पुन: घर बनानेके लिये कहा। लोगोंने कहा कि दुबारा आग लगनेसे मालूम होता है कि भगवान्की मरजी नहीं है, वे घर जलाना चाहते हैं। सेठजीने उत्तर दिया कि भगवान्का काम जलानेका है और हमारा काम बनानेका है। सेठजीने पुन: उनके घर बनवाये॥ ३८९॥
प्रश्न—सेवाधर्मको कठोर क्यों कहा गया है—‘सब तें सेवक धरमु कठोरा’ (मानस, अयोध्या० २०३। ४)?
उत्तर—सुख-आराममें आसक्ति होनेसे ही सेवा कठिन दीखती है—‘सेवक सुख चह मान भिखारी’ (मानस, अरण्य०१७।८)। अपने सुख-आरामका त्याग करें तो सेवा कठिन नहीं है; क्योंकि सेवा करनेकी सब सामग्री संसारकी ही है, अपनी नहीं। उस सामग्रीको अपने सुखमें लगानेसे सेवा नहीं होती॥ ३९०॥
प्रश्न—दु:खीको देखकर करुणित होना उसकी सेवा है, कैसे?
उत्तर—करुणित होनेसे भगवान् उसपर कृपा करते हैं और अपना अन्त:करण भी निर्मल होता है। सुखीको देखकर प्रसन्न होना भी सेवा है, जिससे अपना अन्त:करण शुद्ध होता है। दूसरेके सुख-दु:खका असर न पड़नेसे अन्त:करण अशुद्ध एवं कठोर होता है॥ ३९१॥
प्रश्न—जड़को जड़की सेवामें लगा देनेसे जड़का प्रवाह जड़की ओर हो जायगा और चेतन असंग होकर मुक्त हो जायगा—यह कर्मयोगकी बात समझमें नहीं आयी; क्योंकि वास्तवमें जड़की सेवा नहीं होती, प्रत्युत चेतनकी सेवा होती है। जैसे, सचेतन शरीरके मुखमें अन्न-जल डालनेसे उसकी सेवा होती है, पर अचेतन मुर्देके मुखमें अन्न-जल डालनेसे उसकी सेवा नहीं होती!
उत्तर—वास्तवमें सेवा जड़के द्वारा ही होती है और जड़तक ही पहुॅँचती है। कारण कि क्रिया और उसका फल (पदार्थ)—दोनों ही आदि-अन्तवाले होनेसे जड़में ही रहते हैं, चेतनतक पहुॅँचते ही नहीं। परन्तु चेतनने शरीर (जड़)-से तादात्म्य किया है, उससे अपना सम्बन्ध माना है, इसलिये शरीरकी सेवा चेतन (शरीरके मालिक)-की मानी जाती है। ज्ञानयोगमें भी जड़ मन-बुद्धिके द्वारा ही जड़का त्याग किया जाता है—‘गुणा गुणेषु वर्तन्ते’ (गीता ३। २८)॥ ३९२॥
प्रश्न—धनादि पदार्थोंसे लेकर बुद्धिपर्यन्त सब जड़ पदार्थ सेवाके करण (साधन) हैं। इन करणोंसे सेवा करनेवाला चेतन ही हो सकता है, जड़ कैसे होगा?
उत्तर—जिसने शरीरसे अपना सम्बन्ध माना है, वही कर्ता होता है—‘अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३। २७)। तात्पर्य है कि अहंकारविमूढात्मा ही कर्ता होता है, वही सेवा करता है॥ ३९३॥
प्रश्न—सेवक सेवा होकर सेव्यमें लीन हो जाता है—इसमें ‘सेवा’ होना क्या है?
उत्तर—सेवाका अभिमान अर्थात् सेवकपना न रहना ही ‘सेवा’ होना है॥ ३९४॥
प्रश्न—सेवा करनेपर अभिमान न आये, इसका क्या उपाय है?
उत्तर—किसीकी भी सेवा करें, चाहे कुत्ते और गधेकी ही क्यों न करें, उसको अपनेसे ऊँचा मानकर, भगवान् मानकर सेवा करें। फिर अभिमान नहीं आयेगा॥ ३९५॥