Hindu text bookगीता गंगा
होम > प्रश्नोत्तर मणिमाला > सृष्टि-रचना

सृष्टि-रचना

प्रश्न—परमात्मा चेतन हैं, उनसे जड़ संसार कैसे पैदा होता है?

उत्तर—जैसे प्राणीसे नख, केश आदि निष्प्राण वस्तुएँ भी पैदा होती हैं, ऐसे ही चेतन परमात्मतत्त्वसे जड़ संसार पैदा होता है॥ ३९६॥

प्रश्न—अक्रिय तत्त्वसे क्रियाएँ कैसे पैदा होती हैं?

उत्तर—जैसे हिमालयसे नदियॉँ निकलती हैं, ऐसे ही अक्रिय परमात्मतत्त्वसे सम्पूर्ण क्रियाएँ पैदा होती हैं। जैसे हिमालयमें द्रवता है, ऐसे ही निर्गुण तत्त्वमें भी एक शक्ति है, जो जगत‍्की सृष्टि-स्थिति-प्रलय करती है। यदि तत्त्वमें कोई शक्ति न होती तो सृष्टिकी रचना कैसे होती? उसी शक्तिसे सम्पूर्ण क्रियाएँ पैदा होती हैं। जैसे चुम्बककी शक्तिसे लोहा घूमता है, ऐसे ही सत्ताके द्वारा सब क्रियाएँ होती हैं॥ ३९७॥

प्रश्न—रज-वीर्यका संयोग होनेपर ही शरीरका निर्माण होता है, फिर अगस्त्य आदिकी उत्पत्ति केवल वीर्यसे (रजके संयोगके बिना) कैसे हुई?

उत्तर—वास्तवमें जीवकी उत्पत्तिमें वीर्य ही मुख्य है। रज तो खेत है, पर वीर्य बीज है। समर्थ पुरुषके वीर्यमें इतनी शक्ति होती है कि वह रजके बिना भी जीवको उत्पन्न कर सकता है। जैसे, कोई भी बीज जमीन (मिट्टी)-में डालनेसे ही अंकुरित होता है, पर चने केवल जलमें भिगोनेसे ही अंकुरित हो जाते हैं। समर्थ पुरुष तो अपने संकल्पमात्रसे ही सृष्टि पैदा कर सकते हैं॥ ३९८॥

प्रश्न—सृष्टि-रचनाका कार्य भगवान‍्के अधीन है, सन्त-महापुरुषके अधीन नहीं है—‘जगद्‍व्यापारवर्जम्’ (ब्रह्मसूत्र ४। ४। १७), फिर विश्वामित्रजीने सृष्टिकी रचना कैसे की?

उत्तर—विश्वामित्रजीने अपने तपोबलसे सृष्टिकी रचना की। तपोबलसे जो कार्य किया जाता है, वह सीमित होता है। इसलिये विश्वामित्रजीकी सृष्टि भी सीमित रही। विश्वामित्रजीका बल तपसे पैदा किया हुआ है, पर भगवान‍्का बल पैदा किया हुआ नहीं है, प्रत्युत स्वत:-स्वाभाविक है। भगवान् तो युक्त योगी हैं, पर विश्वामित्रजी युञ्जानयोगी हैं॥ ३९९॥

प्रश्न—शास्त्रोंमें अनेक प्रकारसे सृष्टि-रचनाका वर्णन आता है, इसका तात्पर्य क्या है?

उत्तर—इसका तात्पर्य है कि वास्तवमें संसार नहीं है, केवल परमात्मा ही हैं—‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:’ (गीता २। १६)। यदि संसार सत्य होता तो एक तरहका ही वर्णन होता। तरह-तरहका वर्णन होनेसे ही यह सिद्ध होता है कि संसार है नहीं। वास्तवमें परमात्मा ही हैं, जो और तरहके होते ही नहीं। सृष्टि परमात्मासे पैदा हुई अर्थात् सबके मूलमें एक परमात्मा ही हैं—यह बात सबमें एक ही है॥ ४००॥

प्रश्न—भगवान‍्ने संसार क्यों बनाया?

उत्तर—जीव भोगोंको चाहता है, इसलिये भगवान‍्ने उसके लिये संसारको बनाया। जैसे, पिता रुपये खर्च करके भी बालकको मिट्टीका खिलौना लाकर देता है; क्योंकि बालक वही चाहता है! वास्तवमें मनुष्य-शरीर भोग भोगनेके लिये है ही नहीं—‘एहि तन कर फल बिषय न भाई’ (मानस, उत्तर० ४४। १)। भगवान‍्ने वस्तुएँ दी हैं दूसरोंकी सेवाके लिये, जिससे दूसरोंकी सेवा करके जीव निर्मम-निरहंकार होकर मुक्त हो जाय। भगवान् चाहते हैं कि यह संसारकी सेवा करे और मेरेसे प्रेम करे। परन्तु जीवने मिली हुई वस्तुको तो अपना मान लिया, पर देनेवाले (भगवान्)-को अपना नहीं माना,इसीलिये मिले हुए प्राणी-पदार्थोंमें ही उलझ गया!

तात्पर्य यह हुआ कि भगवान‍्ने जीवके उद्धारके लिये ही संसार बनाया है॥ ४०१॥

प्रश्न—जगत‍्को ईश्वरने बनाया है या जीवने?

उत्तर—भगवान‍्से पैदा हुई सृष्टि वास्तवमें भगवद्रूप ही है, पर जगद्रूपसे सृष्टि जीवकृत है। जीवने ही जगत‍्को जगद्रूप दिया है—‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७। ५)। इसलिये जगत् न तो परमात्माकी दृष्टिमें है, न महात्माकी दृष्टिमें है, प्रत्युत जीवकी दृष्टिमें है। स्वार्थबुद्धिसे देखें तो जगत् है और परमार्थबुद्धिसे देखें तो परमात्मा हैं। जीवभाव अर्थात् अहम‍्के मिटनेपर जगत् नहीं मिटता, प्र्रत्युत जगत् भगवद्रूप हो जाता है॥ ४०२॥

अगला लेख  > स्वरूप (स्वयं)