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स्वरूप (स्वयं)

प्रश्न—स्वरूपका बोध तत्काल कैसे हो?

उत्तर—वास्तवमें स्वरूपका बोध सबको तत्काल ही हो रहा है! जैसे—सबको यह अनुभव होता है कि ‘मैं हूँ’। इसमें यदि ‘मैं’ को छोड़कर ‘हूँ’ में रहें तो स्वरूपका बोध हो जायगा; क्योंकि ‘मैं’ के हटते ही ‘हूँ’ ‘है’ हो जायगा। खास बाधा ‘मैं’ की ही है॥ ४०३॥

प्रश्न—कुछ भी करें, ‘मैं’ आ ही जाता है?

उत्तर—वास्तवमें ‘मैं’ है ही नहीं। ‘मैं’ आ जाता है—इस धारणासे ही ‘मैं’ आता है!॥ ४०४॥

प्रश्न—दूधमें घीकी तरह शरीरसे मिले हुए आत्माका अलग अनुभव कैसे हो?

उत्तर—दृष्टान्त केवल एक अंशमें घटता है, सर्वथा नहीं घटता। वास्तवमें दूध, घीकी तरह शरीरसे आत्मा मिला हुआ नहीं है*; मिल सकता ही नहीं, केवल हमने मिला हुआ मान लिया है—‘कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३। २७)। शरीर और आत्माका तादात्म्य हुआ नहीं है, प्रत्युत माना हुआ है। कुछ-न-कुछ क्रिया करनेसे ही शरीरके साथ सम्बन्ध दीखता है। कुछ भी न करें तो शरीरका क्या सम्बन्ध?

* अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्यय:।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति च लिप्यते॥
(गीता १३। ३१)
‘हे कुन्तीनन्दन! यह पुरुष स्वयं अनादि होनेसे और गुणोंसे रहित होनेसे अविनाशी परमात्मस्वरूप ही है। यह शरीरमें रहता हुआ भी न करता है और न लिप्त होता है।’

जैसे सूर्य और अंधकारका मिलन नहीं हो सकता, ऐसे ही आत्मा और शरीरका मिलन नहीं हो सकता। चेतन जड़से, सत् असत् से, अविनाशी नाशवान‍्से कैसे मिल सकता है? परन्तु अनादिकालके संस्कारके कारण झूठी मान्यता भी सत्यकी तरह दीखती है। यह मान्यता उद्योगसे, अभ्याससे नहीं मिटती, प्रत्युत विवेक-विचारसे मिटती है॥ ४०५॥

प्रश्न—सत्ता सर्वव्यापक है, फिर अपनेमें एकदेशीयताका अनुभव क्यों होता है?

उत्तर—एकदेशीयताका अनुभव वास्तवमें अहंकारका अनुभव है। परमात्माकी अनन्त सत्ता ही अहंकारके कारण एकदेशीय दीखती है। तात्पर्य है कि सर्वव्यापक सत्ताको मन-बुद्धिसे पकड़नेपर अथवा मन, बुद्धि और अहम‍्के संस्कार होनेसे ही एकदेशीयता दीखती है। बुद्धिका भी जो प्रकाशक है, वह अहम‍्के अधीन नहीं है। वही हमारा स्वरूप है। हमारा होनापन और परमात्माका होनापन एक ही है। वही उत्पत्तिका आधार और प्रतीतिका प्रकाशक है। प्रतीतिकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। व्यवहारके समय तो मन, बुद्धि और अहम‍्की प्रतीति होती है, पर व्यवहाररहित अवस्थामें न मन है, न बुद्धि है, न अहम‍् है। चाहे व्यवहारकी अवस्था हो, चाहे व्यवहाररहित अवस्था हो, ‘है’ में क्या फर्क पड़ता है!॥ ४०६॥

प्रश्न—मन, बुद्धि और अहम‍्के संस्कार कैसे दूर हों?

उत्तर—मन, बुद्धि और अहम‍्को छेड़ो मत। उनको मत देखो, प्रत्युत एक ‘है’ को देखो। एकदेशीयपना मिट जाय—यह भी मत देखो। कुछ भी मत देखो, चुप हो जाओ, फिर सब स्वत: ठीक हो जायगा। समुद्रमें बर्फके ढेले तैरते हों तो उनको न गलाना है, न रखना है। इसीको सहजावस्था कहते हैं॥ ४०७॥

प्रश्न—अपनी सत्तामें जो एकदेशीयपना दीखता है, वह कैसे छूटे?

उत्तर—एकदेशीयपना छोड़नेके लिये ‘है’ को पकड़ना चाहिये। वस्तुएँ अलग-अलग और एकदेशीय होती हैं, पर उन सबमें ‘है’ एक ही होता है। कल्पित वस्तुएँ मिट जाती हैं और ‘है’ रह जाता है। उस ‘है’ के ऊपर सब वस्तुएँ दीखती हैं; जैसे—है मनुष्य, है वस्तु आदि परन्तु वस्तुओंके ऊपर ‘है’ माननेसे ‘है’ समझमें नहीं आता; जैसे—मनुष्य है, वस्तु है आदि।

सत्ता एक ही है। वही एक सत्ता एकदेशीय होनेसे हमारा स्वरूप है और सर्वदेशीय होनेसे परमात्मा है। शरीरके सम्बन्धसे अपनी सत्ता दीखती है और संसारके सम्बन्धसे परमात्माकी सत्ता दीखती है। शरीर-संसारका सम्बन्ध न रहे तो एक ही चिन्मय सत्ता रह जाती है और शरीर-संसारकी सत्ता लुप्त हो जाती है। कारण कि शरीर-संसार असत् हैं।

स्वयं परमात्माका ही अंश है। अत: जैसे पानीका लोटा समुद्रमें मिला दें, ऐसे ही स्वयंको परमात्माके अर्पित करके चुप हो जायँ तो वह एकदेशीयता अपने-आप मिट जायगी॥ ४०८॥

प्रश्न—हमारा स्वरूप ‘सहज सुखराशि’ है—‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुखरासी॥ ’ (मानस,उत्तर०११७। १)। यह सहज सुख लुप्त कैसे हुआ?

उत्तर—इसका मुख्य कारण है—अपनेको शरीर मानना। अपनेको शरीर मानना अपने विवेकका अनादर है। विवेकका आदर करनेके लिये ही भगवान‍्ने गीताके आरम्भमें शरीर-शरीरीका विवेचन किया है॥ ४०९॥

प्रश्न—‘मैं हूँ’—इस अपने होनेपन (स्वरूप)-का अनुभव तो सबको होता है, फिर तत्त्वज्ञानीको अपने होनेपनका अनुभव कैसे होता है?

उत्तर—सबको अपने होनेपनका जो अनुभव होता है, उसमें जड़ (बुद्धि या अहम‍्) साथमें मिला हुआ रहता है। अत: वह वास्तवमें ‘असत् का अनुभव’ है। परन्तु तत्त्वज्ञानीको शुद्ध स्वरूपका अनुभव होता है, जिसके साथ जड़ मिला हुआ नहीं है॥ ४१०॥

प्रश्न—संसारपर विश्वास करना तो महान् घातक है, पर कोई अपने-आपपर विश्वास करे तो?

उत्तर—वह अपने-आपको क्या मानता है—यह देखना होगा। अगर वह अपनेको ‘शरीर’ मानता है तो उसका वही फल होगा, जो संसारपर विश्वास करनेका होता है। अगर वह अपनेको ‘चिन्मय सत्ता’ मानता है तो उसका वही फल होगा जो (ज्ञानमार्गमें) परमात्मतत्त्वपर विश्वास करनेका होता है। कारण कि शरीर तथा संसार एक हैं और स्वरूप तथा परमात्मा एक हैं॥ ४११॥

प्रश्न—हरेक व्यक्तिमें कोई-न-कोई विशेषता रहती ही है। फिर दूसरेकी अपेक्षा अपनेमें विशेषता देखनेसे बन्धन कैसे?

उत्तर—विशेषता व्यक्तियोंमें है, अपनेमें अर्थात् स्वरूपमें नहीं। व्यक्तिभेद तो रहेगा ही, पर स्वरूपभेद होता ही नहीं। व्यक्तित्व रहनेसे अर्थात् जड़, नाशवान् शरीरके साथ सम्बन्ध होनेसे ही अपनेमें विशेषता दीखती है। अपनेमें विशेषता देखनेसे व्यक्तित्व पुष्ट होता है। अत: जबतक अपनेमें दूसरेकी अपेक्षा विशेषता दीखती है, तबतक बन्धन है॥ ४१२॥

प्रश्न—स्वरूपमें भी विशेषता तो है ही, फिर स्वरूपमें विशेषता नहीं—ऐसा कहनेका तात्पर्य?

उत्तर—स्वरूपकी विशेषता निरपेक्ष है, सापेक्ष नहीं। यह विशेषता स्वतन्त्र है। स्वरूपकी विशेषता व्यक्तिमें नहीं आ सकती और व्यक्तिकी विशेषता स्वरूपमें नहीं आ सकती। विशेषता देखते ही प्रकृतिकी सत्ता आती है; क्योंकि प्रकृतिके बिना विशेषता आ नहीं सकती। अत: वास्तवमें स्वरूपमें विशेषता नहीं है, प्रत्युत स्वरूप ही विशेष है! सूर्यमें प्रकाश नहीं है, प्रत्युत सूर्य प्रकाशस्वरूप ही है॥ ४१३॥

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