सुखासक्ति
प्रश्न—सुखासक्तिका त्याग कैसे करें?
उत्तर—मनुष्यशरीर सुख भोगनेके लिये नहीं है, प्रत्युत सुख पहुँचानेके लिये है। स्वार्थभावका त्याग करके दूसरोंको सुख पहुँचानेसे अपनी सुखासक्तिका त्याग हो जाता है। अपने विवेकका आदर करनेसे भी सुखासक्तिका त्याग हो जाता है। अगर रोकर भगवान्से प्रार्थना करें, ‘हे मेरे नाथ! हे मेरे प्रभो!’ कहकर भगवान्को पुकारें तो भगवान्की कृपासे सुखासक्तिका नाश हो जाता है। परन्तु ये उपाय तब काम आयेंगे, जब हम सच्चे हृदयसे सुखलोलुपताको छोड़ना चाहेंगे॥ ३७८॥
प्रश्न—आसक्तिका नाश करनेके लिये ‘नासतो विद्यते भाव:’ (असत् की सत्ता ही नहीं है) भाव बढ़िया है या ‘वासुदेव: सर्वम्’ (सब कुछ भगवान् ही हैं) भाव बढ़िया है?
उत्तर—जिसकी संसारमें अधिक आसक्ति है, उसके लिये ‘नासतो विद्यते भाव:’—यह भाव ठीक बैठेगा, और जिसकी कम आसक्ति है, उसके लिये ‘वासुदेव: सर्वम्’—यह भाव ठीक बैठेगा। वास्तवमें दोनों भाव एक ही हैं। दोनोंमें कोई एक होनेपर दोनों सिद्ध हो जायॅँगे।
जिसके भीतर साँपका भय अधिक है, उसके लिये कहना पड़ता है कि ‘सॉँप नहीं है, रस्सी है’। परन्तु जिसमें भय नहीं है, उसके लिये ‘रस्सी है’—यह कहना ही पर्याप्त है। तात्पर्य है कि ज्यादा आसक्तिवालेके लिये निषेध मुख्य है॥ ३७९॥
प्रश्न—महान् सुख मिले बिना अल्प सुखकी आसक्तिका त्याग कैसे होगा?
उत्तर—इसका उपाय है कि पारमार्थिक विषयमें थोड़ा भी सुख मिले तो उसका आदर करे, उसपर विश्वास करे। जैसे सत्संग, कथा-कीर्तन आदिमें एक सुख मिलता है, जबकि वहॉँ कोई भोग-पदार्थ नहीं होता, पर हम उसका आदर नहीं करते। अगर पारमार्थिक विषयमें थोड़ा भी सुख मिले और उसपर हम विश्वास करते रहें तथा सांसारिक सुखका विश्वास छोड़ते जायॅँ तो महान् सुखका अनुभव हो जायगा।
वास्तवमें हमें न अल्प सुख लेना है, न महान् सुख लेना है! लेना कुछ है ही नहीं!॥ ३८०॥
प्रश्न—यह नियम है कि सुखका भोगी दु:खसे नहीं बच सकता। किसीने मिठाई खायी और उसको स्वादका, सुखका अनुभव हुआ तो अब उसको दु:ख क्या होगा?
उत्तर—स्वाद आना और सुख लेना—दोनों अलग-अलग चीजें हैं। स्वाद आना उतना दोष नहीं; जितना सुख लेना दोष है। सुख लेनेका तात्पर्य है कि उस वस्तुका महत्त्व हृदयमें अंकित हो जाय। महत्त्व अंकित होनेसे उस वस्तुमें राग, आसक्ति हो जाती है। फिर जब वह वस्तु नहीं मिलेगी या छिन जायगी, तब दु:ख होगा। अत: स्वादका, सुखका ज्ञान होना दोषी नहीं है, प्रत्युत राग होना दोषी है॥ ३८१॥
प्रश्न—जब चेतन (स्वयं)-का संसारसे सम्बन्ध है ही नहीं तो फिर सम्बन्धजन्य सुख कैसे होता है?
उत्तर—सम्बन्धजन्य सुख वास्तवमें सुख नहीं है, प्रत्युत मान्यताका सुख है। जैसे रुपये बैंकमें पड़े हैं, पर उनसे सम्बन्ध जोड़नेसे एक सुख होता है कि मैं धनी हूँ तो यह सुख केवल माना हुआ है॥ ३८२॥
प्रश्न—भोजनमें किसी पदार्थकी रुचि होना अथवा अरुचि होना दोषी है या नहीं?
उत्तर—भोजनमें रुचि अथवा अरुचि शरीरकी स्वाभाविक आवश्यकताको लेकर भी होती है और सुखबुद्धिको लेकर भी होती है। परन्तु दोनोंका विश्लेषण करना बड़ा कठिन है। पदार्थमें रुचि है अथवा सुखबुद्धि है—इसका विश्लेषण वीतराग महापुरुष ही कर सकता है। कारण कि संसारका ज्ञान संसारसे अलग होनेपर ही होता है। भोगबुद्धि न हो तो रुचि अथवा अरुचिका होना दोषी नहीं है॥ ३८३॥
प्रश्न—भोगोंके पुराने संस्कार पुन: भोगोंमें लगाते हैं, ऐसी स्थितिमें साधक क्या करे?
उत्तर—पुराने संस्कार इतने बाधक नहीं हैं, जितनी सुखलोलुपता बाधक है। सुखलोलुपता होनेसे ही संस्कार बाधक होते हैं। हम पुराने संस्कारोंसे सुख तो लेते हैं और चाहते हैं कि संस्कार न आयें, तभी संस्कार हमें बाध्य करते हैं। अगर उनसे सुख न लें तो संस्कार मिट जायँगे, बाध्य नहीं करेंगे। कारण कि वास्तवमें संस्कारकी सत्ता ही नहीं है। उसको हम ही सत्ता देते हैं—भोगके समय भी हम ही भोगको सत्ता देते हैं। भोगोंसे सुख लेते हैं—इसीपर भोग टिके हैं। सुख न लें तो भोग हो ही नहीं सकता। सुख न लें तो बिना मिटाये भोगका संस्कार स्वत: कमजोर पड़ जायगा। सुख लेनेसे पुराना संस्कार (नया भोग भोगनेके समान) नया होता रहता है।
पुराने संस्कार आयें तो साधक उनकी उपेक्षा कर दे, न विरोध करे, न अनुमोदन करे। असत् का संस्कार भी असत् ही होता है। असत् की सत्ता है ही नहीं—‘नासतो विद्यते भाव:’ (गीता २। १६)॥ ३८४॥
प्रश्न—निषिद्ध भोगकी आसक्तिसे कैसे छूटा जाय?
उत्तर—निषिद्ध भोगकी आसक्ति खराब स्वभावके कारण होती है। स्वभाव सुधरता है—सत्संग, सद्विचार, सच्छास्त्रके द्वारा विवेक जाग्रत् होनेपर अथवा भगवान्के शरणागत होनेपर।
याद करनेसे पुराना भोग नया होता रहता है। याद करनेसे नया भोग भोगनेकी तरह ही अनर्थ होता है। कोई भोग भोगे साठ वर्ष हो गये, पर आज उसको याद किया तो आज नया भोग हो गया! मनुष्य पुराने भोगको याद करके उसको नया करता रहता है, इसीलिये उसकी आसक्ति मिटती नहीं। इसलिये अगर पुराना भोग याद आ जाय तो उसमें रस (सुख) न ले। रस लेनेसे वह नया हो जाता है, उसको सत्ता मिल जाती है॥ ३८५॥