भगवान् श्रीकृष्णका प्रभाव
भगवान् श्रीकृष्ण साक्षात् पूर्ण ब्रह्मके अवतार थे या यों कहिये कि साक्षात् पूर्ण ब्रह्म ही श्रीकृष्णरूपमें प्रकट हुए हैं; उनके दिव्य गुण, प्रभाव और आश्चर्यमयी उपदेशप्रद मधुर लीलाओंसे हमारे प्राचीन ग्रन्थ भरे पड़े हैं। श्रीमद्भागवत, महाभारत, जैमिनीय-अश्वमेध और अन्यान्य पुराण आदिमें भगवान्के प्रेम, प्रभाव और ऐश्वर्यकी अलौकिक बातें स्थान-स्थानपर प्रसिद्ध हैं। जन्मते ही चतुर्भुजरूपसे प्रकट होकर फिर छोटा बालक बन जाना, यशोदा मैयाको मुखके अन्दर ब्रह्माण्ड दिखलाना, गोप-बालक और बछड़ोंकी नवीन सृष्टि करना, अक्रूरजीको मार्ग और जलके अन्दर एक ही साथ दोनों जगह एक ही रूपमें दर्शन देना, कंस आदि महान् असुरोंका लीलामात्रसे विनाश कर देना, गुरु, ब्राह्मण और देवकीजीके मृत पुत्रोंको ला देना, विविधरूपसे एक ही साथ सम्पूर्ण रानियोंके महलोंमें निवास करना, द्रौपदीके स्मरण करते ही उसका चीर बढ़ा देना, दुर्वासाजीके आतिथ्यके समय संकटापन्न द्रौपदीके स्मरण करते ही अचानक वहाँ प्रकट हो जाना, कौरवोंकी सभामें विराट्रूप दिखाना, प्रिय भक्त अर्जुनको भक्ति और ज्ञानका रहस्य समझाते हुए उसे विश्वरूप और चतुर्भुजरूपसे दर्शन देना, अर्जुनकी रक्षाके लिये जयद्रथवधके समय सूर्यको अस्त दिखाकर फिर सूर्यको प्रकट कर देना, युद्धके अन्तमें अर्जुनको पहले रथसे नीचे उतारकर फिर स्वयं उतरते ही रथका जलकर भस्म होते दिखलाना और यह कहना कि यह रथ तो भीष्म, द्रोणादिके बाणोंसे पहले ही दग्ध हो चुका था, परन्तु मैंने अपने संकल्पसे इसे टिका रखा था; शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मकी सारी पीड़ाओंको हरकर उन्हें अतुल बल, तेज और ज्ञान प्रदान करना, ऋषि उत्तंकको अपना अलौकिक प्रभाव और ऐश्वर्ययुक्त रूप दिखलाना, मृत परीक्षित् को जीवित करना, अश्वमेधयज्ञके समय पाण्डवोंके स्मरण करते ही द्वारिकासे अचानक रातके समय आ जाना, सुधन्वासे लड़ते हुए अर्जुनके द्वारा याद करनेपर तुरन्त उपस्थित होकर रथकी लगाम हाथमें ले लेना और शरीरसहित ही परमधाम पधारना आदि अनेकों अद्भुत कर्मोंकी कथाओंके पढ़नेसे यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि ऐसे कर्म मनुष्यके लिये तो असम्भव हैं ही, देवताओं और योगियोंकी शक्तिसे भी अतीत हैं। इस छोटे-से लेखमें अति संक्षेपके साथ भगवान्के कुछ अद्भुत कर्मोंका दिग्दर्शन कराया जाता है।
भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी प्रेम और आनन्दकी तो मूर्ति ही थे। उनका अवतार प्रेम और धर्मके संस्थापन और प्रचारके लिये ही हुआ था। भगवान्ने विशुद्ध प्रेमका जो विशाल प्रवाह बहा दिया उसे एक बार समझ लेनेपर ऐसा कौन है जिसका हृदय द्रवित और आनन्दसे पुलकित न हो जाय। परन्तु उनकी प्रेममयी लीला और उनके गहन प्रेमके तत्त्वका ज्ञान उनके अनुग्रहसे ही हो सकता है। श्रीमद्भागवत आदि पुराणोंमें गोपियोंके साथ भगवान्के प्रेमके व्यवहारका जो वर्णन आता है, उसे पढ़नेपर मनुष्यके हृदयमें अनेक प्रकारकी शंकाएँ उत्पन्न होती हैं। अक्षरोंके अर्थसे तो उस प्रेममें विषय-विकार ही टपकता है, परन्तु यह प्रसंग विचारणीय है। यदि गोपियोंके साथ भगवान्का विषयजन्य अनुचित प्रेम होता तो उद्धव-सरीखे महात्मा और गौरांग महाप्रभु-सदृश त्यागी भक्त और सन्तजन उनकी कभी प्रशंसा नहीं करते। गोपियोंका प्रेम मूर्खतापूर्ण नहीं था, वे श्रीकृष्णको साक्षात् भगवान् समझती थीं। स्वयं गोपियोंके वाक्य हैं—
न खलु गोपिकानन्दनो भवा-
नखिलदेहिनामन्तरात्मदृक्।
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये
सख उदेयिवान् सात्वतां कुले॥
(श्रीमद्भा० १०। ३१। ४)
‘हे सखे! ब्रह्माकी प्रार्थनापर आपने विश्वके पालनके लिये सात्वत (यदु) कुलमें अवतार लिया है। आप केवल यशोदाके ही पुत्र नहीं हैं, वास्तवमें आप समस्त प्राणियोंके अन्तरात्माके साक्षी हैं।’ इससे सिद्ध होता है कि उनका प्रेम विशुद्ध और ज्ञानपूर्ण था। उनके प्रेमकी सभी सन्त-पुरुषोंने सराहना की है। इतना ही नहीं, स्वयं भगवान्ने भी उनके प्रेमकी महिमा गायी है और अर्जुनसे कहा है—
निजाङ्गमपि या गोप्यो ममेति समुपासते।
ताभ्य: परं न मे पार्थ निगूढप्रेमभाजनम्॥
(आदिपुराण)
‘हे पार्थ! जो गोपियाँ अपने शरीरकी ‘मेरा (कृष्णका) है’ ऐसा समझकर ही सँभाल रखती हैं उनसे बढ़कर मेरे निगूढ़ प्रेमका पात्र और कोई नहीं है।’
इसके अतिरिक्त भगवान् स्वयं ज्ञानस्वरूप हैं, उनमें तो विषय-विकारकी आशंका ही नहीं की जा सकती। कोई यह पूछे कि फिर भागवत आदि पुराणोंमें वर्णित वैषयिक प्रसंगोंका क्या अर्थ है। मेरी साधारण बुद्धिके अनुसार तो इसका यही उत्तर है कि उन शब्दोंका मतलब समझनेकी कुछ भी आवश्यकता नहीं है; इतिहास, स्मृति, पुराण आदि ग्रन्थोंमें जहाँ कहीं भी ईश्वरपर, झूठ, कपट, व्यभिचार आदि दोषोंका आरोप प्रतीत हो और मद्य, मांस आदिके सेवन तथा असत्य, दम्भ, व्यभिचार आदि दोषोंका विधान मिले, उन पंक्तियोंको छोड़कर ही शेष सदुपदेशको ग्रहण करना और तदनुसार आचरण करना चाहिये।
संसार परिवर्तनशील है। देश, काल, वस्तु आदिका प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। पुरानी घटनाओंमें समयका बहुत व्यवधान पड़ जानेके कारण समयके परिवर्तनसे शास्त्रोंके वर्णनकी सारी बातोंका पूरा मतलब ठीक-ठीक समझमें नहीं आता। इसके सिवा दीर्घकालतक देशपर विधर्मियोंका आधिपत्य रहनेके कारण हमारे शास्त्रोंमें धर्मके विपरीत झूठ, कपट, चोरी आदि कुभाव घुसेड़ दिये गये हों तो भी कोई आश्चर्य नहीं है। अतएव पुराणोंकी सभी बातोंको अक्षरश: समझाने और उनकी पूर्वापर पूरी शृंखला बैठाकर उन्हें मिथ्या या सत्य सिद्ध करनेका दायित्व हम साधारण लोगोंको अपने ऊपर नहीं लेना चाहिये। क्योंकि हमलोग सर्वज्ञ नहीं हैं। इसके सिवा भगवान् संसारमें अवतार ग्रहण करके जो लीला करते हैं उसमें कहीं शास्त्रकी मर्यादाके विपरीत दोषका आभास दिखलायी दे तो इस विषयमें मनमें यही निश्चय रखना चाहिये कि भगवान्में कोई दोष कभी हो नहीं सकता। भगवान् और उनके कर्म सर्वथा दिव्य हैं। साथ ही पुराण-इतिहास आदिको भी असत्य नहीं कहा जा सकता।
भगवान्के लीलामय दिव्य जन्म-कर्मका रहस्य सम्पूर्णरूपसे तो देवता और महर्षियोंकी भी समझमें नहीं आ सकता। भगवान्ने स्वयं ही कहा है—
न मे विदु: सुरगणा: प्रभवं न महर्षय:।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वश:॥
(गीता १०। २)
‘मेरी उत्पत्तिको अर्थात् विभूतिसहित लीलासे प्रकट होनेको न देवतालोग जानते हैं और न महर्षिगण ही जानते हैं, क्योंकि मैं सब प्रकारसे देवताओं और महर्षियोंका भी आदिकारण हूँ।’ यद्यपि इतिहास-पुराण आदि शास्त्रोंके रचयिता ऋषि तत्त्वको जाननेवाले सिद्ध महापुरुष और योगी थे, तथापि वे भी भगवान् श्रीराम और श्रीकृष्णकी लीला और उनके प्रभावको सम्पूर्णरूपसे वर्णन करनेमें असमर्थ थे। फिर भी उन महात्माओंने कृपा-परवश हो जो कुछ लिखा है सो सत्य ही है, अल्पबुद्धि होनेके कारण हमलोग उनके भावोंको ठीक-ठीक समझ नहीं सकते और अपनी अल्पज्ञताका दोष उन महात्माओंके मत्थे मढ़ते हैं।
महाभारत आदिसे यह स्पष्ट सिद्ध है कि अवताररूपमें प्रकट हुए भगवान्को सब ऋषिगण नहीं पहचान सकते थे। उनमेंसे कोई-कोई तत्त्ववेत्ता महात्मा महर्षि ही भगवान्की कृपासे उनको जानते थे—श्रीरामचरितमानसमें भी यह बात आती है—
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन।
जानहिं भगत भगत उर चंदन॥
(रा० च० मा०, अयोध्या० १२६। २)
क्योंकि भगवान् जिस शरीरमें जन्म ग्रहण करते हैं उसी शरीरके समान सब चेष्टा करते हैं। जब भगवान् मनुष्य-शरीरमें अवतीर्ण होते हैं तब मनुष्यके अनुसार चेष्टा करते हैं। उस समय उनके मनुष्योचित कर्मोंको देखकर मुनिगणोंको भी भ्रम हो जाता है, फिर मनुष्योंकी तो बात ही क्या है? श्रीवसिष्ठजीने कहा है—
देखि देखि आचरन तुम्हारा।
होत मोह मम हृदयँ अपारा॥
(रा० च० मा०, उत्तर० ४७। २)
महाभारतके आश्वमेधिकपर्वके ५३वें अध्यायमें कथा है कि कौरव-पाण्डवोंके युद्धकी समाप्तिके बाद युधिष्ठिर महाराजसे आज्ञा लेकर भगवान् श्रीकृष्ण हस्तिनापुरसे जा रहे थे। मार्गमें मरुस्थलमें निवास करनेवाले गुरु-भक्त तपस्वी ऋषि उत्तंकसे उनकी भेंट हुई। पाँच पाण्डवोंके सिवा अन्य सारे कौरवोंके विनाशकी बात भगवान् श्रीकृष्णके मुखसे सुनकर ऋषि उत्तंकको बड़ा क्रोध आ गया और वे उनसे बोले कि ‘आपने सब प्रकारसे शक्तिसम्पन्न होनेपर भी युद्धका निवारण नहीं किया, इसलिये मैं आपको शाप दूँगा।’ भगवान् बड़े दयालु थे, उन्होंने मुनिको शाप देनेसे रोककर कहा कि ‘हे तपस्विश्रेष्ठ! तुमने अपने गुरुको सेवा करके प्रसन्न किया है, जिससे तुम्हारे तपका बड़ा तेज है,मैं उस तपका नाश कराना नहीं चाहता, मुझपर तुम्हारे शापका कोई असर नहीं होगा, शाप देनेसे तुम्हारे तपका नाश हो जायगा। इसलिये तुम मेरे अध्यात्मविषयक आत्मतत्त्व और प्रभावकी बातें सुनो।’ तदनन्तर ५४वें अध्यायमें ऋषि उत्तंकके पूछनेपर भगवान्ने अपने अवतार लेनेका कारण तथा प्रभाव और स्वरूपका वर्णन किया—
बह्वी: संसरमाणो वै योनीर्वर्तामि सत्तम।
धर्मसंरक्षणार्थाय धर्मसंस्थापनाय च॥ १३॥
तैस्तैर्वेषैश्च रूपैश्च त्रिषु लोकेषु भार्गव।
अहं विष्णुरहं ब्रह्मा शक्रोऽथ प्रभवाप्ययः॥ १४॥
भूतग्रामस्य सर्वस्य स्रष्टा संहार एव च।
अधर्मे वर्तमानानां सर्वेषामहमच्युत:॥ १५॥
धर्मस्य सेतुं बध्नामि चलिते चलिते युगे।
तास्ता योनी: प्रविश्याहं प्रजानां हितकाम्यया॥ १६॥
‘हे द्विजवर, भार्गव! मैं धर्मकी रक्षा और स्थापना करनेके लिये बहुत-सी योनियोंमें उन-उन योनियोंके वेष और रूपोंसे युक्त हुआ तीनों लोकोंमें अवतार धारण करता हूँ। मैं ही विष्णु, ब्रह्मा और इन्द्र हूँ। मैं ही उत्पत्ति और प्रलयरूप हूँ तथा सकल भूतसमुदायका रचनेवाला और संहार करनेवाला भी मैं ही हूँ। मैं अच्युत परमात्मा परिवर्तनशील युगोंमें प्रजाके हितकी कामनासे भिन्न-भिन्न योनियोंमें प्रवेश करके अधर्ममें बर्तनेवाले समस्त प्राणियोंके लिये धर्मकी मर्यादाको दृढ़ करता हूँ।’
यदा त्वहं देवयोनौ वर्तामि भृगुनन्दन।
तदाहं देववत्सर्वमाचरामि न संशय:॥ १७॥
‘हे भृगुनन्दन! जब मैं दैवयोनिमें प्रकट होता हूँ तब नि:सन्देह देवताओंके समान ही समस्त आचरण करता हूँ।’
यदा गन्धर्वयोनौ वा वर्तामि भृगुनन्दन।
तदा गन्धर्ववत्सर्वमाचरामि न संशय:॥ १८॥
‘हे भार्गव! जब मैं गन्धर्वयोनिमें प्रकट होता हूँ तब नि:सन्देह गन्धर्वोंके समान ही समस्त आचरण करता हूँ।’
नागयोनौ यदा चैव तदा वर्तामि नागवत्।
यक्षराक्षसयोन्योस्तु यथावद्विचराम्यहम्॥ १९॥
‘जब मैं नागयोनिमें उत्पन्न होता हूँ तो नागों-जैसा बर्ताव करता हूँ और जब यक्ष-राक्षसोंकी योनियोंमें प्रकट होता हूँ तो उन्हींके अनुरूप आचरण करता हूँ।’
मानुष्ये वर्तमाने तु कृपणं याचिता मया।
न च ते जातसम्मोहा वचोऽगृह्णन्त मे हितम्॥ २०॥
‘इस समय मनुष्ययोनिमें उत्पन्न होकर मनुष्य-जैसा आचरण करते हुए मैंने कौरवोंसे सन्धिके लिये दीनतापूर्वक प्रार्थना की; परन्तु मोहग्रस्त होनेके कारण उन्होंने मेरी हितकर बात नहीं मानी।’
इस प्रकार भगवान्के प्रभाव और स्वरूपकी बात सुनकर ऋषिको भगवान् श्रीकृष्णके साक्षात् परमात्मा होनेका पूर्ण विश्वास हो गया और ऋषिने विनीत भावसे भगवान्से विश्वरूप-दर्शन करानेके लिये प्रार्थना की। ऋषिकी प्रार्थनापर भगवान्ने अनुग्रह करके उन्हें अपना विश्वरूप दिखलाया, जिसे देखकर उत्तंक-ऋषि भगवान्की स्तुति करने लगे। तदनन्तर ऋषिको वरदान देकर भगवान् द्वारिकापुरीको पधार गये।
ऋषि उत्तंकके इस दृष्टान्तसे यह सिद्ध होता है कि भगवान्की कृपा बिना यज्ञ, दान, तप और गुरु-सेवन आदि करनेवाले तपस्वी ऋषि भी भगवान्के अवतार-विग्रहको पहचान नहीं सकते। भगवान् दया करके जिनको अपना परिचय देते हैं, वे ही उन्हें पहचान सकते हैं और फिर उनकी कृपासे तद्रूप हो जाते हैं।
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई।
जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥
(रा० च० मा०, अयोध्या० १२७। २)
जबतक भगवान् स्वयं दया करके अपनेको नहीं जनाते, तबतक दूसरेके द्वारा जनाये जानेपर भी भगवान्को नहीं जाना जा सकता। संजयके बहुत कुछ समझाने और प्रभाव बतलानेपर भी धृतराष्ट्रने भगवान्को नहीं जाना। महाभारत, उद्योगपर्वके ६८वें अध्यायमें कथा है—संजय दूत बनकर पाण्डवोंके पास जाते हैं और वहाँसे लौटकर भगवान् वेदव्यासजीकी आज्ञासे भगवान् श्रीकृष्णके प्रभाव और ईश्वर-सम्बन्धी तत्त्वका वर्णन करते हैं—
यत: सत्यं यतो धर्मो यतो ह्रीरार्जवं यत:।
ततो भवति गोविन्दो यत: कृष्णस्ततो जय:॥ ९॥
‘जहाँ सत्य है, जहाँ धर्म है, जहाँ लज्जा है, जहाँ सरलता है वहीं श्रीकृष्ण हैं और जहाँ श्रीकृष्ण हैं वही जय है।’
पृथिवीं चान्तरिक्षं च दिवं च पुरुषोत्तम:।
विचेष्टयति भूतात्मा क्रीडन्निव जनार्दन:॥ १०॥
‘सब प्राणियोंके आत्मस्वरूप पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण खेल करते हुए-से पृथिवी, अन्तरिक्ष और देवलोकको चेष्टायुक्त कर रहे हैं।’
स कृत्वा पाण्डवान्सत्रं लोकं सम्मोहयन्निव।
अधर्मनिरतान्मूढान्दग्धुमिच्छति ते सुतान्॥ ११॥
‘वे ही भगवान्, लोगोंको मोहित करते हुए-से पाण्डवोंको निमित्त बनाकर अधर्मनिरत तुम्हारे मूर्ख पुत्रोंको भस्म करना चाहते हैं।’
कालचक्रं जगच्चक्रं युगचक्रं च केशव:।
आत्मयोगेन भगवान् परिवर्तयतेऽनिशम्॥ १२॥
‘भगवान् केशव कालचक्र, जगच्चक्र और युगचक्रको अपनी योगशक्तिसे निरन्तर घुमाते हैं।’
कालस्य च हि मृत्योश्च जङ्गमस्थावरस्य च।
ईशते भगवानेक: सत्यमेतद्ब्रवीमि ते॥ १३॥
‘मैं आपसे यह सत्य कहता हूँ कि वे भगवान् श्रीकृष्ण अकेले ही काल, मृत्यु और चराचर समस्त जगत्का शासन करते हैं।’
ईशन्नपि महायोगी सर्वस्य जगतो हरि:।
कर्माण्यारभते कर्तुं कीनाश इव वर्धन:॥ १४॥
‘महायोगी श्रीकृष्ण सम्पूर्ण जगत्का शासन करते हुए ही धन-धान्यादिकी वृद्धि करनेवाले किसानकी तरह कर्मोंका आरम्भ करते हैं।’
तेन वंचयते लोकान्मायायोगेन केशव:।
ये तमेव प्रपद्यन्ते न ते मुह्यन्ति मानव:॥ १५॥
‘भगवान् केशव उस अपनी योगमायासे मनुष्योंको मोहित किये रहते ठगते हैं। जो मनुष्य केवल उन्हींकी शरणमें चले जाते हैं, वे उनकी मायासे मोहित नहीं होते।’
यह सुनकर धृतराष्ट्र संजयसे पूछते हैं कि ‘माधव श्रीकृष्ण सब लोकोंके महान् ईश्वर हैं, इस बातको तू कैसे जानता है और मैं उन्हें क्यों नहीं जानता?’ संजय कहते हैं ,‘हे राजन्! जिनका ज्ञान अज्ञानके द्वारा ढँका हुआ है, वे भगवान् श्रीकृष्णको नहीं जान सकते। आपमें वह ज्ञान नहीं है, इसलिये आप नहीं जानते, मैं जानता हूँ।’ तदनन्तर उद्योगपर्वके ७०वें अध्यायमें फिर धृतराष्ट्रने संजयसे पूछा कि ‘हे संजय! श्रीकृष्णके विषयमें मैं तुझसे पूछता हूँ, तू मुझे कमलनयन श्रीकृष्णकी कथा सुना, जिससे मैं श्रीकृष्णके नाम और चरित्रोंको जानकर पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णको प्राप्त होऊँ।’ इसके बाद संजयने श्रीकृष्णके नाम, गुण और प्रभावका अनेक श्लोकोंमें वर्णन किया तो भी धृतराष्ट्र भगवान् श्रीकृष्णको भलीभाँति नहीं पहचान सके। इससे यह बात सिद्ध होती है कि जिसपर भगवान्की दया होती है, वही भगवान्को पहचान सकता है।
भगवान्की प्रत्येक क्रियामें विलक्षण भाव भरा है। वे सर्वशक्तिसम्पन्न, बुद्धिके सागर और बड़े ही कुशल थे। उनकी कोई भी क्रिया या उनका एक भी संकल्प कभी निष्फल नहीं होता था। कहीं उनकी कोई चेष्टा निष्फल हुई है तो वह उनकी इच्छासे ही हुई है। उस निष्फलतामें बड़ा रहस्य भरा रहता है। भगवान् पाण्डवोंके दूत बनकर हस्तिनापुर गये और उनके सन्धिरूप कार्यकी सिद्धि नहीं हुई, इसमें यही कारण है कि उनकी सन्धि करानेकी इच्छा ही नहीं थी। यह बात दूत बनकर जाते समय द्रौपदीके साथ उनकी जो बातचीत हुई है, उससे स्पष्ट सिद्ध है। द्रौपदी उस समय अनेक विलाप करती हुई भगवान्से प्रार्थना करती है—
सुता द्रुपदराजस्य वेदिमध्यात् समुत्थिता।
धृष्टद्युम्नस्य भगिनी तव कृष्ण प्रिया सखी॥
आजमीढकुलं प्राप्ता स्नुषा पाण्डोर्महात्मन:।
महिषी पाण्डुपुत्राणां पञ्चेन्द्रसमवर्चसाम्॥
सुता मे पञ्चभिर्वीरै: पञ्च जाता महारथा:।
अभिमन्युर्यथा कृष्ण तथा ते तव धर्मत:॥
साहं केशग्रहं प्राप्ता परिक्लिष्टा सभां गता।
पश्यतां पाण्डुपुत्राणां त्वयि जीवति केशव॥
(महा०, उद्योग० ८२। २१—२४)
‘हे कृष्ण! यज्ञवेदीसे उत्पन्न हुई राजा द्रुपदकी पुत्री, धृष्टद्युम्नकी बहिन, आपकी प्यारी सखी, आजमीढ-कुलमें ब्याही गयी महात्मा पाण्डुकी पुत्रवधू, इन्द्रके समान तेजस्वी पाँच पाण्डुपुत्रोंकी महारानी, उन पाँच वीरोंसे उत्पन्न पाँच महारथी पुत्रों (जो कि धर्मके नाते अभिमन्युके समान ही आपको प्रिय हैं)-की माता ऐसी मैं पाण्डुपुत्रोंके देखते हुए और हे केशव! आपके जीवित रहते हुए केश पकड़कर सभामें लायी गयी और दु:खित की गयी थी।’
जीवत्सु पाण्डुपुत्रेषु पाञ्चालेष्वथ वृष्णिषु।
दासीभूतास्मि पापानां सभामध्ये व्यवस्थिता॥ २५॥
‘पाण्डुपुत्रोंके, पांचालोंके और वृष्णियोंके जीवित रहते हुए भी पापियोंकी सभामें लायी जाकर मैं दासी बना ली गयी थी।’
निरमर्षेष्वचेष्टेषु प्रेक्षमाणेषु पाण्डुषु।
पाहि मामिति गोविन्द मनसा चिन्तितोऽसि मे॥ २६॥
‘यह सब देखते हुए भी पाण्डव जब क्रोधरहित और निश्चेष्ट ही बने रहे तब ‘हे गोविन्द! मेरी रक्षा करो’ ऐसा मैंने मनसे चिन्तन किया था।’
अयं ते पुण्डरीकाक्ष दु:शासनकरोद्धृत:।
स्मर्तव्य: सर्वकार्येषु परेषां संधिमिच्छता॥ ३६॥
‘हे पुण्डरीकाक्ष! शत्रुओंके साथ सन्धि करते समय सब कामोंमें यह दु:शासनके हाथसे खींची हुई मेरी वेणी आपको याद रखनी चाहिये।’
दु:शासनभुजं श्यामं संछिन्नं पांसुगुण्ठितम्।
यद्यहं तु न पश्यामि का शान्तिर्हृदयस्य मे॥ ३९॥
‘यदि मैं दु:शासनकी श्याम भुजाको कटकर धूलिमें सनी हुई नहीं देखूँगी तो मेरे हृदयको कैसे शान्ति मिलेगी?’
इत्युक्त्वा वाष्परुद्धेन कण्ठेनायतलोचना।
रुरोद कृष्णा सोत्कम्पं सस्वरं वाष्पगद्गदम्॥ ४२॥
‘शोकावरुद्ध कण्ठसे इस प्रकार विलाप करके विशालनेत्रा द्रौपदी काँपती हुई गद्गद होकर उच्च स्वरसे रोने लगी।’
द्रौपदीके वचन सुनकर भगवान् दया करके कौरवोंको नष्ट करनेकी घोर प्रतिज्ञा करते हुए कहते हैं—
चलेद्धि हिमवाञ्छैलो मेदिनी शतधा फलेत्।
द्यौ: पतेच्च सनक्षत्रा न मे मोघं वचो भवेत्॥ ४८॥
‘भले ही हिमालय पर्वत विचलित हो जाय, पृथिवीके सैकड़ों टुकड़े हो जायँ, तारोंके सहित स्वर्ग गिर पड़े, पर मेरे वचन व्यर्थ नहीं हो सकते।’
सत्यं ते प्रतिजानामि कृष्णे वाष्पो निगृह्यताम्।
हतामित्राञ्श्रिया युक्तानचिराद् द्रक्ष्यसे पतीन्॥ ४९॥
‘हे द्रौपदी! अश्रुओंको रोको, मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ कि तू अपने पतियोंको शीघ्र ही राज्यश्रीसे युक्त और निहत-शत्रु अर्थात् जिनके शत्रु मर चुके हैं ऐसे देखेगी।’
इससे सिद्ध है कि भगवान्को युद्ध अवश्यमेव कराना था, केवल संसारकी मर्यादा रखनेके लिये तथा अपने प्यारे पाण्डवोंका कलंक दूर करनेके लिये ही उनका हस्तिनापुर जाकर सन्धिके लिये चेष्टा करना समझा जाता है।
युद्धमें अस्त्र ग्रहण न करनेकी प्रतिज्ञा करके प्रिय भक्त भीष्मके लिये चक्र ग्रहण करनेमें भी उनकी इच्छा ही कारण है। भीष्मपर्वका यह प्रसंग देखनेसे मालूम होता है कि यह बड़े ही रहस्य और वीर-रससे भरी हुई प्रेममयी लीला है। भीष्मपितामह बड़े ही भक्त और श्रद्धालु थे। उनकी प्रसन्नताके लिये ही भगवान्ने यह विचित्र क्रिया की। वास्तवमें भगवान्की सम्पूर्ण क्रियाएँ निर्दोष और दिव्य हैं। उनकी दिव्यताका जानना साधारण बात नहीं है।
भगवान्के अनन्त दिव्य गुणोंकी महिमा कौन गा सकता है? संसारमें क्षमा, दया, शान्ति आदि जितने गुण दीखते हैं, तेज, ऐश्वर्य आदि जितनी विभूतियाँ प्रतीत होती हैं, शक्ति और प्रताप आदि जितने उच्च भाव हैं, उन सबको भगवान् श्रीकृष्णके तेजके एक अंशका ही विस्तार समझना चाहिये। भगवान् स्वयं कहते हैं—
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्॥
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्॥
(गीता १०। ४१-४२)
‘जो-जो भी विभूतियुक्त अर्थात् ऐश्वर्ययुक्त एवं कान्तियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु है, उस-उसको तू मेरे तेजके अंशसे ही उत्पन्न हुई जान। अथवा हे अर्जुन! इस बहुत जाननेसे तेरा क्या प्रयोजन है, मैं इस सम्पूर्ण जगत्को (अपनी योगमायाके) एक अंशमात्रसे धारण करके स्थित हूँ।’