मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामके गुण और चरित्र
जिन मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके नाम, रूप, गुण, लीला, प्रेम और प्रभावकी अमृतमयी कथाओंका श्रवण, पठन और मनन ही परम कल्याण करनेवाला है, उन प्रभुके स्वरूपको लक्ष्यमें रखकर, उनके गुण और चरित्रोंको सर्वथा आदर्श मानकर और उनके वचनोंको परमधर्म समझकर जो मनुष्य तदनुसार आचरण करता है उसकी तो बात ही क्या है! ऐसे पुरुषके दर्शन, स्पर्श, भाषण आदिका सौभाग्य जिस मनुष्यको प्राप्त है, वह भी अत्यन्त धन्य है।
कुछ भाई कहा करते हैं कि हम भगवान्के नामका जप बहुत दिनोंसे करते हैं, परन्तु जितना लाभ बतलाया जाता है, उतना हमें नहीं हुआ। इसका उत्तर यह है कि भगवान्के नामकी महिमा तो इतनी अपार है कि उसका जितना गान किया जाय उतना ही थोड़ा है। नाम-जप करनेवालोंको लाभ नहीं दीखता, इसमें प्रधान कारण है दस नामापराधोंको छोड़कर जप न करना। दस* अपराधोंका त्याग करके जप करनेपर नाम-जपका शास्त्रवर्णित फल अवश्य प्राप्त हो सकता है। इन अपराधोंको सर्वथा त्यागकर नाम-जप करनेवालेको प्रत्यक्ष महान् फल प्राप्त होनेमें तो सन्देह ही क्या है; केवल श्रद्धा और प्रेम—इन दो बातोंपर ध्यान रखकर जो अर्थसहित नामका जप करता है, उसे भी प्रत्यक्ष परमानन्दकी प्राप्ति बहुत शीघ्र हो सकती है। नाम-जपके साथ-साथ परमात्माके अमृतमय स्वरूपका ध्यान होते रहनेसे क्षण-क्षणमें उनके दिव्य गुण और प्रभावोंकी स्मृति होती है और वह स्मृति अपूर्व प्रेम और आनन्दको उत्पन्न करती है। यदि यह कहा जाय कि रामचरितमानसमें नाम-महिमामें यह कहा गया है—
भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
(रा०च०मा०,बाल०२७।१)
—फिर श्रद्धासहित नाम जपनेसे ही फल हो, ऐसे ही जपनेसे फल न हो, यह बात कैसे हो सकती है? तो इसका उत्तर यह है कि ‘भाव-कुभाव’ किसी प्रकार भी नाम-जपसे दसों दिशाओंमें कल्याण होता है, इस बातपर तो श्रद्धा होनी ही चाहिये। इसपर भी श्रद्धा न हो तब वैसा फल कैसे हो सकता है? इसपर यदि कोई कहे कि ‘विचारद्वारा तो हम श्रद्धा करना चाहते हैं, परन्तु मन इसे स्वीकार नहीं करता; इसके लिये क्या करें?’ तो इसका उत्तर यह है कि बुद्धिके विचारसे विश्वास करके ही नाम-जप करते रहना चाहिये। भगवान्पर विश्वास होनेके कारण तथा नाम-जपके प्रभावसे आगे चलकर पूर्ण श्रद्धा और प्रेम आप ही प्राप्त हो सकते हैं। परन्तु यदि अर्थसहित जप किया जाय तो और भी शीघ्र परमानन्दकी प्राप्ति हो सकती है।
* १. सत्पुरुषोंकी निन्दा, २.अश्रद्धालुओंमें नाम-महिमा कहना, ३. विष्णु और शंकरमें भेदबुद्धि, ४. वेदोंमें अश्रद्धा, ५. शास्त्रोंमें अश्रद्धा, ६. गुरुमें अश्रद्धा ७. नाम-माहात्म्यमें अर्थवादकी कल्पना, ८. शास्त्रनिषिद्ध कर्मका आचरण, ९. नामके बलपर शास्त्रविहित कर्मका त्याग तथा १०. अन्य धर्मोंसे नामकी तुलना—ये दस नामापराध हैं।
बहुत-से भाई कहते हैं कि ‘हमलोग वर्षोंसे मन्दिरोंमें भगवान्के दर्शन करने जाते हैं, परन्तु हमें विशेष कोई लाभ नहीं हुआ—इसका क्या कारण है?’ तो इसका उत्तर यह है कि विशेष लाभ न होनेमें एक कारण तो है श्रद्धा और प्रेमकी कमी तथा दूसरा कारण है भगवान्के विग्रह-दर्शनका रहस्य न जानना। मन्दिरमें भगवान्के दर्शनका रहस्य है—उनके रूप, लावण्य, गुण, प्रभाव और चरित्रका स्मरण-मनन करके उनके चरणोंमें अपनेको अर्पित कर देना। परन्तु ऐसा नहीं होता, इसका कारण रहस्य और प्रभाव जाननेकी त्रुटि ही है। मन्दिरमें जाकर भगवान्के स्वरूप और गुणोंका स्मरण करना चाहिये और भगवान्से प्रार्थना करनी चाहिये, जिससे उनके मधुर स्वरूपका चिन्तन सदा बना रहे और उनकी आदर्श लीला तथा आज्ञाके अनुसार आचरण होता रहे। जो ऐसा करते हैं, उन्हें भगवत्कृपासे बहुत ही शीघ्र प्रत्यक्ष शान्तिकी प्राप्ति होती है। देह-त्यागके बाद परमगति मिलनेमें तो संदेह ही क्या है।
श्रीभगवान्के अनन्त गुण हैं, उनका वर्णन कोई नहीं कर सकता। वे भगवान् जीवोंपर दया करके अवतार ग्रहण करते हैं और ऐसी लीला करते हैं जिसके श्रवण, गायन और अनुकरणसे जीवोंका परम कल्याण होता है। मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामचन्द्रजी ऐसे ही परम दयालु अवतार हैं। इनके गुण, प्रभाव, आचरण, लीला आदिकी महिमा शेष, महेश, गणेश और सरस्वती भी नहीं गा सकते; तब मुझ-सरीखा एक साधारण मनुष्य तो क्या कह सकता है। तथापि जिन सज्जन महापुरुषोंने अपनी वाणीको पवित्र करनेके लिये महाराजके कुछ गुण शास्त्रोंमें गाये हैं, उन्हींके आधार-बलपर बालककी भाँति मैं भी कुछ कहनेकी चेष्टा करता हूँ।
भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके गुण और चरित्र परम आदर्श थे और उनका इतना प्रभाव था कि जिसकी तुलना नहीं हो सकती। उनकी अपनी तो बात ही क्या है, उनके गुणों और चरित्रोंका प्रभाव उनके शासनकालमें सारी प्रजापर ऐसा विलक्षण पड़ा कि रामराज्यमें त्रेतायुग सत्ययुगसे भी बढ़कर हो गया। रामराज्यके वर्णनमें आता है—
सब लोग अपने-अपने वर्णाश्रमके अनुकूल वेदमार्गपर चलते हैं और सुख पाते हैं। भय, शोक, रोग तथा दैहिक, दैविक और भौतिक ताप कहीं नहीं हैं। राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ-मोह, झूठ-कपट, प्रमाद-आलस्य आदि दुुर्गुण देखनेको भी नहीं मिलते। सब लोग परस्पर प्रेम करते हैं और स्वधर्ममें दृढ़ हैं। धर्मके चारों चरणों—सत्य, शौच, दया और दानसे जगत् परिपूर्ण है। स्वप्नमें भी कहीं पाप नहीं है। स्त्री-पुरुष सभी रामभक्त हैं और सभी परमगतिके अधिकारी हैं। प्रजामें न छोटी उम्रमें किसीकी मृत्यु होती है, न कोई पीड़ा है; सभी सुन्दर और नीरोग हैं। दरिद्र, दु:खी, दीन और मूर्ख कोई भी नहीं है। सभी नर-नारी दम्भरहित धर्मपरायण, अहिंसापरायण, पुण्यात्मा, चतुर, गुणवान्, गुणोंका आदर करनेवाले, पण्डित, ज्ञानी और कृतज्ञ हैं—
बरनाश्रम निज निज धरम निरत बेद पथ लोग।
चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग॥
दैहिक दैविक भौतिक तापा।
राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥
सब नर करहिं परस्पर प्रीती।
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥
चारिउ चरन धर्म जग माहीं।
पूरि रहा सपनेहुँ अघ नाहीं॥
राम भगति रत नर अरु नारी।
सकल परम गति के अधिकारी॥
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा।
सब सुंदर सब बिरुज सरीरा॥
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना।
नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना॥
सब निर्दंभ धर्मरत पुनी।
नर अरु नारि चतुर सब गुनी॥
सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी।
सब कृतग्य नहिं कपट सयानी॥
(रा०च०मा०,उत्तर० २०; २०।१—४)
सभी उदार, परोपकारी, ब्राह्मणोंके सेवक और तन, मन, वचनसे एकपत्नीव्रती हैं। स्त्रियाँ सभी पतिव्रता हैं। ईश्वरकी भक्ति और धर्ममें सभी नर-नारी ऐसे संलग्न हैं मानो भक्ति और धर्म साक्षात् मूर्तिमान् होकर उनमें निवास कर रहे हों। पशु-पक्षी सभी सुखी और सुन्दर हैं। भूमि सदा हरी-भरी और वृक्षादि सदा फूले-फले रहते हैं। सूर्य-चन्द्रमादि देवता बिना ही माँगे समस्त सुखदायी वस्तुएँ प्रदान करते हैं। सारे देशमें सुख-सम्पत्तिका साम्राज्य छाया हुआ है। श्रीसीताजी और तीनों भाई तथा सारी प्रजा श्रीरामकी सेवामें ही अपना सौभाग्य मानते हैं और श्रीरामजी सदा उनके हितमें लगे रहते हैं। रामराज्यकी यह व्यवस्था महान् आदर्श है। आज भी संसारमें जब कोई किसी राज्यकी प्रशंसा करता है या महान् आदर्श राज्यकी बात कहता है तो सबसे ऊँची प्रशंसामें वह यही कहता है कि बस, वहाँ तो ‘रामराज्य’ है।
जिनके गुणोंसे प्रभावित राज्यमें प्रजा ऐसी हो, उनके गुण और चरित्र कैसे होंगे, इसका अनुमान करते ही हृदय भक्तिसे गद्गद हो उठता है। भगवान्के अनन्त गुणों और चरित्रोंका जरा-सा भी स्मरण-मनन महान् कल्याणकारी और परम पावन है, इसी खयालसे यहाँ उनके कुछ गुणोंको बहुत ही संक्षेपमें वर्णन किया जाता है—
गुरुभक्ति
भगवान् श्रीरामचन्द्रजीकी गुरुभक्ति आदर्श है। गुरुके प्रति कितनी आदरबुद्धि, कितना विश्वास, उनकी सेवामें कैसी प्रसन्नता और उनके साथ बोल-चालमें कैसी विनय होनी चाहिये, इन बातोंका आदर्श श्रीरामकी गुरुभक्तिमें मिलता है। मुनि विश्वामित्रजी आपके शिक्षागुरु हैं, ‘विद्यानिधि भगवान्’ ने उनसे विद्या ग्रहण की है। मुनिके साथ श्रीराम-लक्ष्मण दोनों भाई जनकपुरमें पधारते हैं और गुरुकी आज्ञासे नगरकी शोभा देखनेके बहाने नगरनिवासी नर-नारियोंको नेत्रोंका परम लाभ प्रदान करनेके लिये जनकपुरमें जाते हैं। वहाँ कुछ देर हो जाती है, तब मनमें संकोच करते हैं कि गुरुजी कहीं नाराज तो न होंगे। इस प्रसंगमें श्रीतुलसीदासजी कहते हैं—
कौतुक देखि चले गुरु पाहीं।
जानि बिलंबु त्रास मन माहीं॥
जासु त्रास डर कहुँ डर होई।
भजन प्रभाउ देखावत सोई॥
***
सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ।
गुर पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ॥
(रा०च०मा०, बाल० २२४।३-४;२२५)
रातको दोनों भाई नियमपूर्वक मानो प्रेमसे जीते हुए प्रेमपूर्वक श्रीगुरुजीके चरणकमल दबाते हैं—
तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते।
गुर पद कमल पलोटत प्रीते॥
(रा०च०मा०, बाल० २२५।३)
मुनि श्रीवसिष्ठजी आपके कुलगुरु हैं। आप सब प्रकारसे गुरुकी सेवा करनेमें मानो अपना सौभाग्य समझते हैं। वनमें जब वसिष्ठजी भरतजीका पक्ष लेकर भगवान्से कहते हैं—
सब के उर अंतर बसहु जानहु भाउ कुभाउ।
पुरजन जननी भरत हित होइ सो कहिअ उपाउ॥
(रा०च०मा०, अयोध्या० २५७)
—तब भगवान् श्रीभरतजीपर गुरुका स्नेह देखकर भरतजीके भाग्यकी सराहना करते हुए कहते हैं—
जे गुर पद अंबुज अनुरागी।
ते लोकहुँ बेदहुँ बड़भागी॥
राउर जा पर अस अनुरागू।
को कहि सकइ भरत कर भागू॥
(रा०च०मा०, अयोध्या० २५८।३)
‘जो मनुष्य गुरुके चरणकमलोंके प्रेमी हैं, वे लोक और वेद दोनोंमें बड़भागी हैं। फिर जिसपर आपका ऐसा स्नेह है, उस भरतके भाग्यको तो कौन बखान कर सकता है?’ और इसी प्रसंगमें वसिष्ठजीसे कहते हैं—
.............................................।
नाथ तुम्हारेहि हाथ उपाऊ॥
सब कर हित रुख राउरि राखें।
आयसु किएँ मुदित फुर भाषें॥
प्रथम जो आयसु मो कहुँ होई।
माथें मानि करौं सिख सोई॥
(रा०च०मा०, अयोध्या० २५७।१-२)
‘हे नाथ! उपाय तो आपके ही हाथ है। आपका रुख रखनेमें और आपकी आज्ञाको सत्य कहकर प्रसन्नतापूर्वक पालन करनेमें ही सबका हित है। पहले तो मुझे जो आज्ञा हो, मैं उसी शिक्षाको सिर चढ़ा कर करूँ।’
एक बार वसिष्ठजी भगवान्से उनके चरणकमलोंमें जन्म-जन्मान्तरतक प्रेम बना रहे, यह वर माँगने आते हैं और भगवान्से एकान्तमें मिलते हैं, उस समय भी मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् गुरुभक्तिका आदर्श स्थापित करनेके लिये—
अति आदर रघुनायक कीन्हा।
पद पखारि पादोदक लीन्हा॥
(रा०च०मा०,उत्तर० ४७।१)
—उनका अत्यन्त आदर करते हैं और चरण धोकर चरणामृत लेते हैं। धन्य!
पितृभक्ति
मर्यादापुरुषोत्तमकी पितृभक्ति भी अनूठी है। पिताकी स्पष्ट आज्ञाके पालन करनेकी तो बात ही क्या, पिताका संकेत पाकर आपने प्रसन्नतापूर्वक चौदह वर्षके लिये अयोध्याके राज्यका त्याग कर दिया। श्रीदशरथजीने वनगमनके लिये इन्हें स्पष्ट शब्दोंमें आज्ञा नहीं दी थी। कैकेयी माताके द्वारा ही आपको पिता दशरथकी मौन सम्मतिका पता लगा था, उसको आपने स्वीकार किया। भारी-से-भारी विपत्तिको सम्पत्ति मानकर उसे सिर चढ़ा लिया। जब माता कैकेयीने बड़ी कठोरताके साथ सब बातें सुनायीं, तब आपने बड़े हर्षके साथ विनयपूर्ण शब्दोंमें उत्साह दिखलाते हुए कहा—
अहं हि वचनाद् राज्ञ: पतेयमपि पावके॥
भक्षयेयं विषं तीक्ष्णं पतेयमपि चार्णवे।
(वा० रा०, अयोध्या० १८। २८-२९)
‘हे माता! मैं महाराज पिताजीकी आज्ञासे आगमें भी कूद सकता हूँ, तीक्ष्ण विष भी खा सकता हूँ और समुद्रमें भी कूद सकता हूँ!’
सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी।
जो पितु मातु बचन अनुरागी॥
तनय मातु पितु तोषनिहारा।
दुर्लभ जननि सकल संसारा॥
मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर।
तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर॥
भरतु प्रानप्रिय पावहिं राजू।
बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजू॥
जौं न जाउँ बन ऐसेहु काजा।
प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा॥
(रा०च०मा०, अयोध्या० ४०।४;४१;४१।१)
माता कौसल्याजीके पास जब आप विदा माँगने गये, तब उन्हें बड़ा दु:ख हुआ। उन्होंने अपना दु:ख सुनाकर इन्हें रोकना चाहा, तब आपने कहा—
नास्ति शक्ति: पितुर्वाक्यं समतिक्रमितुं मम।
प्रसादये त्वां शिरसा गन्तुमिच्छाम्यहं वनम्॥
(वा०रा०,अयोध्या० २१।३०)
‘हे माता! पिताजीकी आज्ञा उल्लंघन करनेकी शक्ति मुझमें नहीं है। मैं सिरसे प्रणाम करता हूँ, तुम प्रसन्न होओ; मैं वनको जाना चाहता हूँ।’
इसी प्रकार आपने लक्ष्मणजीको धर्मकी महिमा और बड़ोंकी आज्ञाके पालनका महत्त्व समझाते हुए कहा—
धर्मो हि परमो लोके धर्मे सत्यं प्रतिष्ठितम्।
धर्मसंश्रितमप्येतत् पितुर्वचनमुत्तमम्॥
सोऽहं न शक्ष्यामि पुनर्नियोगमतिवर्तितुम्।
पितुर्हि वचनाद् वीर कैकेय्याहं प्रचोदित:॥
(वा०रा०, अयोध्या० २१।४१,४३)
‘लोकमें धर्म ही श्रेष्ठ है, धर्ममें ही सत्य (सत्यस्वरूप परमात्मा) प्रतिष्ठित है। पिताजीका यह वचन भी धर्मसे युक्त है, इसलिये श्रेष्ठ है। अत: मैं पिताजीकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं कर सकूँगा। हे भाई! पिताजीके कथनानुसार माता कैकेयीने मुझे वन जानेकी आज्ञा दी है।’
सत्य: सत्याभिसन्धश्च नित्यं सत्यपराक्रम:।
परलोकभयाद् भीतो निर्भयोऽस्तु पिता मम॥
(वा०रा०, अयोध्या० २२।९)
‘हे भाई! मेरे पिताजी नित्य सत्यवादी, सत्यप्रतिज्ञ और सत्यपराक्रमी हैं। वे सत्यच्युत होनेके भयसे परलोकके डरसे डर रहे हैं। मेरे द्वारा उनका यह भय दूर हो, वे निर्भय हो जायँ। अर्थात् मैं वनको चला जाऊँ, जिससे उनके वचन मिथ्या न हों।’
आप अपने शोकमग्न पिताजीसे कहते हैं—‘महाराज! इस बहुत ही छोटी-सी बातके लिये आपने इतना दु:ख पाया। मुझे पहले किसीने यह बात नहीं जनायी। महाराजको इस दशामें देखकर मैंने माता कैकेयीसे पूछा और उनसे सब प्रसंग सुनकर हर्षके मारे मेरे सब अंग शीतल हो गये। अर्थात् मुझे बड़ी शान्ति मिली। हे पिताजी! इस मंगलके समय स्नेहवश सोच करना त्याग दीजिये और हृदयमें हर्षित होकर मुझे आज्ञा दीजिये।’ इतना कहते-कहते प्रभु श्रीरामचन्द्रजीके सब अंग पुलकित हो गये।
अति लघु बात लागि दुखु पावा।
काहुँ न मोहि कहि प्रथम जनावा॥
देखि गोसाइँहि पूँछिउँ माता।
सुनि प्रसंगु भए सीतल गाता॥
मंगल समय सनेह बस सोच परिहरिअ तात।
आयसु देइअ हरषि हियँ कहि पुलके प्रभु गात॥
(रा०च०मा०, अयोध्या० ४४।४;४५)
धन्य है आपकी पितृभक्तिको, जिसके कारण स्नेहवश होकर सत्यसन्ध दशरथजीने आपका स्मरण करते हुए ही शरीरका त्याग कर दिया।
मातृभक्ति
आपकी मातृभक्ति बड़ी ही ऊँची है। जन्म देनेवाली माता कौसल्याके प्रति तो आपका महान् आदरभाव है ही। विशेष बात तो यह है कि उनसे भी बढ़कर आदर आप उन माता कैकेयीजीका करते हैं, जिन्होंने आपको कठोर वचन कहे तथा वनमें भेजा। माता कौसल्याने जब कहा कि पितासे माताकी आज्ञा बढ़कर होती है, इससे तुम वनमें न जाओ, तब आपने माता कैकेयीकी आज्ञा बतलायी। माता कौसल्याने उसे स्वीकार किया और कहा—
जौं पितु मातु कहेउ बन जाना।
तौ कानन सत अवध समाना।
(रा०च०मा०, अयोध्या० ५५।१)
श्रीभरतजीके साथ जब कैकेयीजी वनमें पहुँचती हैं तब श्रीरामचन्द्रजी सबसे पहले उन्हींसे मिलते हैं और उन्हें समझा-बुझाकर उनका संकोच दूर करते हैं—
प्रथम राम भेंटी कैकेई।
सरल सुभायँ भगति मति भेई॥
पग परि कीन्ह प्रबोध बहोरी।
काल करम बिधि सिर धरि खोरी॥
(रा०च०मा०, अयोध्या० २४३।४)
‘सबसे पहले रामजी कैकेयी मातासे मिले और अपने सरल स्वभाव तथा भक्तिसे उनकी [तपती हुई] बुद्धिको तर (शीतल)- कर दिया। फिर चरणोंमें गिरकर काल, कर्म और विधाताके सिर दोष मढ़कर उनको सान्त्वना दी।’
पंचवटीमें एक दिन बात-ही-बातमें लक्ष्मणजीने भरतजीकी बड़ाई करते हुए माता कैकेयीकी निन्दा कर दी। उन्होंने कहा—
भर्ता दशरथो यस्या: साधुश्च भरत: सुत:।
कथं नु साम्बा कैकेयी तादृशी क्रूरदर्शिनी॥
(वा०रा०, अरण्य० १६।३५)
‘जिसके पति महाराज दशरथजी और पुत्र साधुस्वभाव भरतजी हैं, वह माता कैकेयी ऐसी निर्दय स्वभाववाली कैसे हुई?’
यह सुनते ही भगवान् श्रीरामजीने कहा—
न तेऽम्बा मध्यमा तात गर्हितव्या कदाचन।
तामेवेक्ष्वाकुनाथस्य भरतस्य कथां कुरु॥
(वा०रा०, अरण्य० १६।३७)
‘हे तात! तुमको मझली माता कैकेयीकी निन्दा कभी नहीं करनी चाहिये। इक्ष्वाकुकुलनाथ भरतकी ही बात करो।’
और तो क्या, लंका-विजयके पश्चात् जब दिव्यधामसे महाराज दशरथजी आये तब उनसे भी आप हाथ जोड़कर यह प्रार्थना करते हैं कि ‘हे धर्मज्ञ! आप मेरी माता कैकेयी और भाई भरतपर प्रसन्न हों। आपने जो कैकेयीको यह शाप दिया था कि मैं तुम्हारा पुत्रसहित त्याग करता हूँ—यह भयंकर शाप, हे प्रभो! पुत्रसहित माता कैकेयीको स्पर्श भी न करे।’
इति ब्रुवाणं राजानं राम: प्राञ्जलिरब्रवीत्।
कुरु प्रसादं धर्मज्ञ कैकेय्या भरतस्य च॥
सपुत्रां त्वां त्यजामीति यदुक्ता केकयी त्वया।
स शाप: केकयीं घोर: सुपुत्रां न स्पृशेत् प्रभो॥
(वा०रा०, युद्ध० ११९।२५-२६)
जब अयोध्या लौटते हैं, तब भी पहले माता कैकेयीसे मिलते हैं और समझा-बुझाकर उन्हें सुखी करते हैं। इससे बढ़कर मातृभक्तिका और क्या उदाहरण होगा?
भ्रातृप्रेम
मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामका भ्रातृप्रेम भी अतुलनीय है। रामके भ्रातृप्रेमका आदर्श जगत् मान ले तो सारी कलह मिटकर सब भाइयोंमें शान्ति हो जाय। आप लड़कपनसे ही अपने तीनों भाइयोंसे अत्यन्त प्रेम करते थे। सदा उनकी देखभाल करते और उन्हें सुख पहुँचाने तथा प्रसन्न करनेकी चेष्टा करते। समय-समयपर खेलमें स्वयं हार मानकर उन्हें जिता देते थे। तीनों भाइयोंको एक साथ लेकर ही भोजन करते। विवाह भी चारोंके साथ ही हुए।
जब महाराज दशरथजीने रामजीके राज्याभिषेकका आयोजन किया, तब यह सुनकर आपके मनमें बड़ा ही खेद हुआ। आपने पश्चात्ताप करते हुए कहा—हमारे निर्मल कुलमें यह एक प्रथा बड़ी अनुचित है जो दूसरे भाइयोंको छोड़कर अकेले बड़े भाईको राज्य दिया जाता है। अरे, हम सब जन्मे एक साथ, खाना-पीना, सोना-जागना, लड़कपनके खेल, कर्णवेध और उपनयन-संस्कार सब एक साथ हुए और विवाहोत्सव भी सबके एक साथ हुए, अब यह राज्य मुझ अकेलेको क्यों मिलता है?
जनमे एक संग सब भाई।
भोजन सयन केलि लरिकाई॥
करनबेध उपबीत बिआहा।
संग संग सब भए उछाहा॥
बिमल बंस यहु अनुचित एकू।
बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू॥
(रा० च० मा०,अयोध्या० ९।३-४)
श्रीरामजीको अपने राज्याभिषेकका प्रस्ताव बहुत ही अनुचित जँचा; केवल पिताजीकी आज्ञा, प्रजाके हित और भाइयोंकी प्रसन्नताके लिये ही उन्होंने अपना राज्याभिषेक स्वीकार किया था। इसीसे वन जानेके समय भरतको राज्य मिलनेकी बातसे आपको बड़ी प्रसन्नता हुई। वनमें आपने लक्ष्मणजीसे स्पष्ट शब्दोंमें कहा—
‘हे लक्ष्मण! मैं सत्यपूर्वक और आयुधको छूकर प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ कि मैं धर्म, अर्थ, काम और समस्त पृथ्वी तथा और जो कुछ भी चाहता हूँ, सब तुम्हीं लोगोंके लिये। मैं भाइयों (तुम्हीं लोगों)-के संग्रह और सुखके लिये राज्यकी इच्छा करता हूँ। हे लक्ष्मण! भरत, तुम और शत्रुघ्नको छोड़कर यदि मुझे कोई सुख मिले तो उसको आग जला दे!’
धर्ममर्थं च कामं च पृथिवीं चापि लक्ष्मण।
इच्छामि भवतामर्थे एतत् प्रतिशृणोमि ते॥
भ्रातॄणां संग्रहार्थं च सुखार्थं चापि लक्ष्मण।
राज्यमप्यहमिच्छामि सत्येनायुधमालभे॥
यद्विना भरतं त्वां च शत्रुघ्नं वापि मानद।
भवेन्मम सुखं किञ्चिद् भस्म तत् कुरुतां शिखी॥
(वा०रा०, अयोध्या० ९७।५,६,८)
लक्ष्मणजीके सामने आप भरतजीकी प्रशंसा करते-करते नहीं अघाते और भरतका गुण, शील, स्वभाव कहते-कहते प्रेमार्णवमें डूब जाते हैं—
कहत भरत गुन सीलु सुभाऊ।
पेम पयोधि मगन रघुराऊ॥
(रा०च० मा०,अयोध्या० २३१।४)
चित्रकूटमें भरतने जब श्रीरामजीको लौटानेके लिये बहुत ही अनुरोध किया तब आपने कह दिया, ‘भरत! सुनो, पिताजीने मेरे प्रेमका प्रण निबाहनेके लिये प्राण त्याग दिये, परन्तु सत्यके रक्षार्थ उन्होंने मुझको वनमें भेजा। ऐसे सत्यवादी पिताके वचन टालनेमें मुझको बड़ा संकोच है, परन्तु उससे भी बढ़कर संकोच मुझे तुम्हारा है। तुम संकोच छोड़कर जो कह दो मैं वही करनेको तैयार हूँ। प्रसन्न होकर कहो’—
मनु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहु करौं सोइ आजु।
सत्यसंध रघुबर बचन सुनि भा सुखी समाजु॥
(रा०च०मा०, अयोध्या०२६४)
श्रीभरतजी भी तो आपके ही भाई थे। उन्होंने स्वामीको संकोचमें डालना अनुचित समझा और उन्हींको संकोच छोड़कर आज्ञा देनेको कहा। परन्तु श्रीरामजीका भ्रातृप्रेम यहाँपर पराकाष्ठाको पहुँच गया। वे जन्म देनेवाली माताके वचनोंको न मानकर वनमें चले आये थे, परन्तु आज भरतको कह रहे हैं कि तुम जो कहो सो करनेको तैयार हूँ।
श्रीरामचन्द्रजीने पिताजीकी आज्ञाको निमित्त बनाकर, वसिष्ठ-जनकादि गुरुजनोंको तथा भरतको समझा-बुझाकर सन्तोष प्रदान किया और अन्तमें जिस किसी प्रकारसे भी राज्यका पालन भरतजीके जिम्मे लगाया। राज्य और भोग तुच्छ वस्तु हैं—यहाँ आपने इस बातको अपने व्यवहारसे प्रत्यक्ष सिद्ध करके त्यागका एक महान् आदर्श उपस्थित कर दिया। भरतजी भी त्यागमूर्ति थे, उन्होंने प्रभुकी आज्ञा मानकर केवल राज्यका पालन ही स्वीकार किया, राज्य नहीं। वे चौदह वर्षकी अवधितक अयोध्याके राज्यमें वैसे ही निर्लिप्त रहे जैसे चम्पाके बागमें भ्रमर रहता है—‘चंचरीक जिमि चंपक बागा।’
श्रीलक्ष्मणजीको शक्ति लगती है और वे बेहोश हो जाते हैं। उस समयकी रामकी दशा तो भ्रातृप्रेमका बहुत ही सुन्दर आदर्श है। वे कहते हैं—
परित्यक्ष्याम्यहं प्राणान् वानराणां तु पश्यताम्।
यदि पञ्चत्वमापन्न: सुमित्रानन्दवर्धन:॥
(वा०रा०,युद्ध० ४९।७)
‘यदि सुमित्राका आनन्द बढ़ानेवाले लक्ष्मणके प्राण चले जायँगे, तो मैं भी वानरोंके देखते-देखते ही अपने प्राणोंको त्याग दूँगा।’
गोस्वामी तुलसीदासजीने यहाँपर श्रीरामजीके प्रलापका जो वर्णन किया है, उससे भ्रातृप्रेमकी बड़ी सुन्दर शिक्षा मिलती है।
लंका-विजयके पश्चात् जब विभीषण एक बार लंकामें पधारनेके लिये आपसे प्रार्थना करते हैं, तब आप कहते हैं—‘भाई! तुम्हारा खजाना और घर सब मेरा ही है, यह तुम सत्य जानो, परन्तु भाई भरतकी दशाका स्मरण करके मुझे एक-एक निमेष कल्पके समान बीत रहा है। वह शरीर सुखाये तपस्वीके वेषमें निरन्तर मुझे ही याद कर रहा है, हे मित्र! अब तो वह यत्न करो जिससे मैं उसे जल्दी देख सकूँ। हे भाई! यदि मैं अवधि बीतनेपर जाऊँगा तो प्यारे भाईको जीता न पाऊँगा।’ यों कहकर भरतजीके प्रेमका स्मरण करके प्रभुका शरीर बार-बार पुलकित होने लगा।
बीतें अवधि जाउँ जौं जिअत न पावउँ बीर।
सुमिरत अनुज प्रीति प्रभु पुनि पुनि पुलक सरीर॥
(रा०च०मा०,लंका ११६ग)
जब अयोध्यामें पहुँचते हैं, तब तो प्रेमका समुद्र उमड़ पड़ता है। जमीनपर पड़े हुए भरतजीको जबर्दस्ती उठाकर आप हृदयसे लगा लेते हैं, शरीर रोमांचित हो जाता है और कमलके समान नेत्रोंसे प्रेमाश्रुओंकी धारा बहने लगती है।
फिर जब राज्याभिषेककी तैयारी होती है। सबका स्नान-मार्जन होता है तब प्रभु स्वयं अपने हाथोंसे भरतजीकी जटाको सुलझाते हैं और तीनों भाइयोंको स्वयं भलीभाँति नहलाते हैं। धन्य भ्रातृप्रेम!
पुनि करुनानिधि भरतु हँकारे।
निज कर राम जटा निरुआरे॥
अन्हवाए प्रभु तीनिउ भाई।
भगत बछल कृपाल रघुराई॥
(रा०च०मा०,उत्तर० १०।२-३)
श्रीरामका राज्यग्रहण वास्तवमें भाइयोंको सुख पहुँचानेके लिये ही था। वे समय-समयपर जो उपदेश-आदेश दिया करते थे, वह भी भाइयोंके हितके लिये ही। उनका बर्ताव ऐसा होता था कि जिसमें भाइयोंको कोई संकोच न हो। एक बार जब भरतजी कुछ पूछना चाहते थे और संकोचवश स्वयं न पूछकर उन्होंने हनुमान्जीके द्वारा पुछवाया तब आपने कहा था—
तुम्ह जानहु कपि मोर सुभाऊ।
भरतहि मोहि कछु अंतर काऊ॥
(रा०च० मा०,उत्तर० ३५।४)
अधिक क्या, आप अपने भाइयोंके गुण-गान और उनके स्मरणमें ही सुखी रहते थे—
भरत सरिस को राम सनेही।
जगु जप राम रामु जप जेही॥
(रा०च०मा०, अयोध्या० २१७।४)
हनुमान्जीने कहा है—
रघुबीर निज मुख जासु गुन गन कहत अग जग नाथ जो।
काहे न होइ बिनीत परम पुनीत सदगुन सिंधु सो॥
(रा०च० मा०,उत्तर १। छन्द)
इस प्रकार भ्रातृप्रेमका आदर्श उपस्थित करके आपने परमधामकी यात्रा भी अपने भाइयोंके साथ ही की थी। आज भी इन चारों भाइयोंका आदर्श प्रेम जगत् में सबके लिये महान् शिक्षाप्रद बना है और सदा बना रहेगा।
पत्नीप्रेम और एकपत्नीव्रत
भगवान् श्रीरामका सीताजीके प्रति जो आदर्श प्रेम था वह उनके महान् एकपत्नीव्रतका साक्षात् उदाहरण है। सीताजीकी प्रसन्नताके लिये ही आप उनको वनमें साथ ले जाते हैं और वहाँ नाना प्रकारके इतिहास, धर्मशास्त्र आदि सुनाकर उनको सुख पहुँचाते हैं। जब रावणद्वारा सीताजीका हरण हो जाता है, तब साधारण मानवकी तरह ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (जो मुझे जैसे भजता है उसको मैं वैसे ही भजता हूँ) इस नीतिके अनुसार भाँति-भाँतिसे विलाप करते हुए अपनी विरह-वेदना प्रकट करते हैं। यहाँतक कि उनकी उस विरहदशाको देखकर जगज्जननी सतीतकको मोह हो जाता है। श्रीरामजी उन्मत्तकी भाँति—
हा गुन खानि जानकी सीता।
रूप सील ब्रत नेम पुनीता॥
(रा०च० मा०,अरण्य० २९।४)
—आदि पुकारते हुए लताओं, वृक्षों, पक्षियों, पशुओं और भ्रमरोंकी पंक्तियोंसे सीताजीका पता पूछते हैं। आकाशपथसे गिराये हुए सीताजीके वस्त्राभूषण जब सुग्रीवजी आपको देते हैं तब आप उन्हें हृदयसे लगाकर चिन्ता करने लगते हैं—‘पट उर लाइ सोच अति कीन्हा।’ जब हनुमान्जी लंका जाते हैं तब उनके द्वारा आप जो सन्देश भेजते हैं, वह तो इतना सुन्दर और इतना ऊँचा है कि उसमें प्रेमका समस्त स्वरूप ही आ जाता है। वे कहते हैं—‘हे प्रिये! मेरे और तुम्हारे प्रेमका तत्त्व जानता है केवल एक मेरा मन, और वह मन सदा रहता है तुम्हारे पास। बस, इतनेमें ही मेरे प्रेमका सार समझ लो।’
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा।
जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं।
जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं॥
(रा०च० मा०, सुन्दर० १४।३-४)
महारानी जानकीजीके पातिव्रत-धर्मके गौरवको और भी उज्ज्वल करनेके लिये प्रजारंजनके व्याजसे जब उन्हें वनमें भेज देते हैं, तब पीछेसे अश्वमेधयज्ञमें सीताजीकी स्वर्ण-प्रतिमा बनवाकर आप अपने एकपत्नीव्रतका बड़ा ही पवित्र आदर्श उपस्थित करते हैं। धन्य!
भक्तवत्सलता
भक्तवत्सलता तो भगवान्का विख्यात बाना ही है। ऐसा कोई काम नहीं जो भगवान् अपने भक्त या सेवकके लिये नहीं कर सकते। वस्तुत: भगवान्के अवतारका प्रधान हेतु भक्तोंपर अनुग्रह करना ही होता है—‘परित्राणाय साधूनाम्।’ जब भक्त भगवान्से मिलनेके लिये व्याकुल होकर उन्हें पुकारता है, तब भगवान्को स्वयं पधारना पड़ता है। दण्डकारण्यमें सुतीक्ष्ण नामक अगस्त्यजीके शिष्य एक मुनि रहते थे। वे श्रीरामजीके बड़े ही अनन्य भक्त थे। उन्हें समाचार मिला कि भगवान् श्रीराम दण्डकवनमें आये हैं। वे दर्शनके लिये व्याकुल हो गये और पागलकी भाँति उठ दौड़े। वे प्रेममें ऐसे मग्न हो गये कि शरीरकी सुधितक भूल गये। श्रीशिवजी कहते हैं—
निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी।
कहि न जाइ सो दसा भवानी॥
दिसि अरु बिदिसि पंथ नहिं सूझा।
को मैं चलेउँ कहाँ नहिं बूझा॥
कबहुँक फिरि पाछें पुनि जाई।
कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई॥
(रा०च० मा०, अरण्य० ९।५-६)
भक्तवत्सल भगवान् अपने प्रिय भक्तकी यह दशा वृक्षकी ओटसे देख-देखकर मुग्ध हो रहे थे। मुनिका अत्यन्त प्रेम देखकर भगवान् उनके हृदयमें प्रकट हो गये। मुनि हृदयमें भगवान् अवधनाथके दर्शन पाकर पुलकित हो गये और रास्तेमें ही बैठ गये। भगवान् समीप आकर मुनिको ध्यानसे जगाते हैं, परन्तु ध्यानानन्दमें मतवाले मुनि जागते ही नहीं; तब श्रीरामजीने उनके हृदयसे अपना श्रीरामरूप हटा लिया, तब मुनिने व्याकुल होकर आँखें खोलीं। देखते हैं—नेत्रोंके सामने सुखधाम राम उपस्थित हैं। मुनि कृतार्थ हो गये और प्रेममग्न होकर चरणोंपर गिर पड़े—
आगें देखि राम तन स्यामा।
सीता अनुज सहित सुख धामा॥
परेउ लकुट इव चरनन्हि लागी।
प्रेम मगन मुनिबर बड़भागी॥
(रा०च०मा०, अरण्य० ९।१०-११)
इसी प्रकार भगवान्ने शबरीजीके यहाँ स्वयं पधारकर उनकी अभिलाषा पूर्ण की। और—
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई।
धन बल परिजन गुन चतुराई॥
भगति हीन नर सोहइ कैसा।
बिनु जल बारिद देखिअ जैसा॥
(रा०च०मा०, अरण्य० ३४।३)
—कहकर उन्हें बड़ाई दी। उनके प्रेमभरे फलोंको खा-खाकर आप अघाये ही नहीं। काकभुशुण्डिजीको तो प्रत्येक अवतारमें ही अपनी परम मधुर बाललीलाका आनन्द प्रदान करते हैं। धन्य हैं!
श्रीहनुमान्जीके तो आप अपनेको ऋणी मानते हैं। कहते हैं—
सुनु कपि तोहि समान उपकारी।
नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी॥
प्रति उपकार करौं का तोरा।
सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥
सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं।
देखेउँ करि बिचार मन माहीं॥
(रा० च० मा०, सुन्दर० ३१।३-४)
वाल्मीकिरामायणमें भगवान्जीने हनुमान्जीसे कहा है—
चरिष्यति कथा यावदेषा लोके च मामिका॥
तावत् ते भविता कीर्ति: शरीरेऽप्यसवस्तथा।
लोका हि यावत्स्थास्यन्ति तावत्स्थास्यन्ति मे कथा:॥
एकैकस्योपकारस्य प्राणान् दास्यामि ते कपे।
शेषस्येहोपकाराणां भवाम ऋणिनो वयम्॥
मदङ्गे जीर्णतां यातु यत्त्वयोपकृतं कपे।
नर: प्रत्युपकाराणामापत्स्वायाति पात्रताम्॥
(वा०रा०,उत्तर० ४०।२१—२४)
‘हे हनुमान्! इस लोकमें जबतक मेरी यह कथा चालू रहेगी, तबतक तेरी कीर्ति और तेरे शरीरमें प्राण रहेंगे और जबतक जगत् रहेगा तबतक मेरी कथा रहेगी। तेरे एक-एक उपकारके बदलेमें मैं अपने प्राण दे दूँ तो भी तेरे शेष उपकारोंके लिये तो मैं ऋणी ही बना रहूँगा। हे हनुमान्! तूने मेरा जो कुछ उपकार किया है वह मेरे शरीरमें ही जीर्ण हो जाय, ऐसा अवसर ही न आवे जब तुझे उपकारोंका बदला पानेयोग्य पात्र बनना पड़े; क्योंकि आपत्ति पड़नेपर ही मनुष्य प्रत्युपकारका पात्र होता है।’
शरणागतवत्सलता
भगवान्की शरणागतवत्सलता प्रसिद्ध है। उनकी घोषणा है—
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम॥
(वा०रा०,युद्ध० १८।३३)
‘जो एक बार भी मेरी शरणमें आकर ‘मैं तुम्हारा हूँ’ ऐसा कहकर मुझसे अभय चाहता है उसको मैं सब भूतोंसे अभयदान दे देता हूँ, यह मेरा व्रत है।’
रावणको सुन्दर सीख देनेके बदलेमें चरणप्रहार पाकर विभीषण नाना प्रकारके सात्त्विक मनोरथ करते हुए भगवान्के शरण आते हैं। जब शिविरके द्वारपर पहुँचते हैं तो वानर उन्हें घेर लेते हैं। भगवान्के पास संवाद पहुँचता है। भगवान् श्रीरामजी अपने सब मन्त्रियों, सखाओं और सेनापतियोंसे सम्मति चाहते हैं। वाल्मीकीय रामायणके अनुसार वहाँ अंगद, जाम्बवान्, मैन्द, नल, हनुमान् आदि सब अपनी-अपनी सम्मति देते हैं। हनुमान्के सिवा सभीकी सम्मति विभीषणके विरुद्ध ही होती है। रामचरितमानसमें सुग्रीव कहते हैं—राक्षसोंकी माया जानी नहीं जाती; पता नहीं, यह क्यों आया है। यह रावणका भेजा हुआ दुष्ट हमारा भेद लेने आया होगा। मेरा मन तो ऐसा कहता है कि इसे कैद कर लेना चाहिये—
जानि न जाइ निसाचर माया।
कामरूप केहि कारन आया॥
भेद हमार लेन सठ आवा।
राखिअ बाँधि मोहि अस भावा॥
(रा०च० मा०,सुन्दर० ४२।३-४)
भगवान् श्रीरामजीने कहा—मित्र! तुम्हारी नीति तो ठीक है, परन्तु मेरा प्रण है शरणागतके भयको हरना—
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी।
मम पन सरनागत भयहारी॥
* * *
सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि॥
कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू।
आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू॥
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥
(रा०च०मा०,सुन्दर० ४२।४;४३;४३;।१)
अतएव हे सुग्रीव! जाओ, उसे ले आओ। सुग्रीव आदिके स्नेहवश आपत्ति करनेपर रामजीने स्पष्ट शब्दोंमें कह दिया—
जौं सभीत आवा सरनाईं।
रखिहउँ ताहि प्रान की नाईं॥
(रा०च०मा०,सुन्दर० ४३।४)
यहाँतक कि—
आनयैनं हरिश्रेष्ठ दत्तमस्याभयं मया।
विभीषणो वा सुग्रीव यदि वा रावण: स्वयम्॥
(वा० रा०, युद्ध० १८। ३४)
‘हे वानरश्रेष्ठ सुग्रीव! (तुम घबड़ाते क्यों हो?) यह व्यक्ति विभीषण अथवा स्वयं रावण भी हो, तो भी उसको लिवा लाओ। मैंने उसे भी अभयदान दे दिया।’
सुग्रीवजी आदि उन्हें ले आये। भगवान्ने उनको अपनी शरणमें रखकर कृतार्थ कर दिया।
लंकामें युद्धके समय एक बार रावणने क्रुद्ध होकर विभीषणपर शक्ति छोड़ी। शक्तिके लगते ही विभीषणका मरण हो जायगा, यह जानकर शरणागतवत्सल भगवान् श्रीरामजी तुरंत ही विभीषणको पीछे करके स्वयं सामने आ गये और भयानक शक्तिको अपने वक्ष:स्थलपर ले लिया।
आवत देखि सक्ति अति घोरा।
प्रनतारति भंजन पन मोरा॥
तुरत बिभीषन पाछें मेला।
सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला॥
(रा० च० मा०, लंका० ९३।१)
विभीषणको राज्य तो मिला ही। उन्हें भगवान्ने अपनी परम दुर्लभ भक्ति प्रदान की।
सखाओंसे प्रेम
यों तो भगवान् सभीके परम सुहृद् तथा स्वाभाविक ही मित्र हैं, परन्तु लीलामें वे मित्रोंके साथ कैसा व्यवहार करते हैं—यहाँ आज यही देखना है। मनुष्योंको तो सभी अपना मित्र बनाते हैं, भगवान्ने राक्षस और वानर-भालुओंतकको अपना सखा बनाकर उन्हें धन्य किया। हनुमान्जीकी प्रेरणासे दु:खमें डूबे हुए सुग्रीवको अग्निकी साक्षी देकर आप अपना मित्र बनाते हैं और उनका दु:ख सुनते ही आपकी भुजाएँ फड़क उठती हैं और आप कहते हैं—
सुनु सुग्रीव मारिहउँ बालिहि एकहिं बान।
ब्रह्म रुद्र सरनागत गएँ न उबरिहिं प्रान॥
(रा० च० मा०, किष्किन्धा० ६)
तदनन्तर मित्रका धर्म बतलाते हुए आप कहते हैं—
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी।
तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥
निज दुख गिरि सम रज करि जाना।
मित्रक दुख रज मेरु समाना॥
जिन्ह कें असि मति सहज न आई।
ते सठ कत हठि करत मिताई॥
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा।
गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा॥
देत लेत मन संक न धरई।
बल अनुमान सदा हित करई॥
बिपति काल कर सतगुन नेहा।
श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥
(रा० च० मा०, किष्किन्धा० ६। १—३)
मित्रके ये लक्षण सदा ध्यानमें रखने योग्य हैं। इसके बाद भगवान् सुग्रीवको आश्वासन देते हुए कहते हैं—
सखा सोच त्यागहु बल मोरें।
सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥
(रा० च० मा०, किष्किन्धा० ६। ५)
मित्र सुग्रीवके सुखके लिये बड़ा भारी उलाहना सहकर भी भगवान् उसके शत्रु भाई बालिका वध कर डालते हैं और सुग्रीवकी मैत्रीको निबाहते हैं।
निषादको सखा बनाकर इतना ऊँचा बना दिया कि स्वयं वसिष्ठजी महाराज उसे हृदयसे लगाकर मिलने लगे—
प्रेम पुलकि केवट कहि नामू।
कीन्ह दूरि तें दंड प्रनामू॥
रामसखा रिषि बरबस भेंटा।
जनु महि लुठत सनेह समेटा॥
(रा० च० मा०, अयोध्या० २४२। ३)
जब भगवान् स्वयं किसी प्रकारका विचार न करके सखाभावसे निषादको हृदयसे लगाकर मिलते हैं, तब वसिष्ठजी इस प्रकार मिलें, इसमें क्या आश्चर्य है—
हिंसारत निषाद तामस बपु, पसु-समान बनचारी।
भेंट्यो हृदय लगाइ प्रेमबस, नहिं कुल जाति बिचारी॥
(विनय-पत्रिका १६६)
लंकाविजय करके अयोध्या लौटनेपर अपने इन वानर-भालु और विभीषणादि सखाओंको बुलाकर उनसे गुरुजीके चरणोंमें प्रणाम कराते हैं और परिचय देते हुए आप कहते हैं—
ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे।
भए समर सागर कहँ बेरे॥
मम हित लागि जन्म इन्ह हारे।
भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे॥
(रा० च० मा०, उत्तर० ७। ४)
राज्याभिषेकके पश्चात् अपने इन सब मित्रोंको बुलाकर आपने कहा—
अनुज राज संपति बैदेही।
देह गेह परिवार सनेही॥
सब मम प्रिय नहिं तुम्हहि समाना।
मृषा न कहउँ मोर यह बाना॥
(रा० च० मा०, उत्तर० १५। ३-४)
फिर वस्त्राभूषण मँगवाकर तीनों भाइयोंसहित स्वयं भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने अपने हाथोंसे उनको वस्त्राभूषण पहनाकर विदा किया।
भगवान्के उन बालसखाओंकी महिमा तो कह ही कौन सकता है, जिन्होंने श्रीअवधपुरीमें चारों भाइयोंके साथ खेलने-खानेका सौभाग्य प्राप्त किया था।
दयालुता
भगवान् श्रीरामचन्द्रजीको दयाका सागर कहें, तब भी उनकी अपरिमित दयाका तिरस्कार ही होता है। जीवोंपर उनकी जो दया है, वह कल्पनातीत है। मनुष्य अपनी ऊँची-से-ऊँची कल्पनासे उनकी दयाका जहाँतक अनुमान लगाता है, भगवान्की दया उससे अनन्तगुना अधिक ही नहीं, असीम और अत्यन्त विलक्षण है। भगवान् वस्तुत: दयामय ही हैं। ‘है तुलसिहि परतीति एक प्रभु मूरति कृपामयी है।’ गीतामें भगवान् कहते हैं—‘सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति’ (५। २९) मुझको सब भूतोंका सुहृद् जानकर मनुष्य शान्तिको प्राप्त होता है।
अवश्य ही भगवान्की दया दोनों रूपोंसे सामने आती है। कहीं वह प्रेमके रूपमें दर्शन देती है, कहीं दण्डके रूपमें। राक्षसोंको भगवान्ने मारा, परन्तु मारा नहीं, वास्तवमें तार दिया। भगवान्का क्रोध भी मुक्ति देनेवाला है। ‘निर्बानदायक क्रोध जाकर’। भगवान्के हाथोंसे जितने राक्षस मरे, सबको दुर्लभ गति प्राप्त हुई। कुछ नमूने देखिये—
ताड़काको—
एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा।
दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥
(रा० च० मा०, बाल० २०८। ३)
विराधको—
तुरतहिं रुचिर रूप तेहिं पावा।
देखि दुखी निज धाम पठावा॥
(रा० च० मा०, अरण्य० ६। ४)
खर-दूषणादिको—
राम राम कहि तनु तजहिं पावहिं पद निर्बान।
(रा० च० मा०, अरण्य० २० क)
मारीचको—
अंतर प्रेम तासु पहिचाना।
मुनि दुर्लभ गति दीन्हि सुजाना॥
(रा० च० मा०, अरण्य० २६। ९)
कुम्भकर्णको—
तासु तेज प्रभु बदन समाना।
(रा० च० मा०, लंका० ७०। ४)
रावणको—
तासु तेज समान प्रभु आनन।
(रा० च० मा०, लंका० १०२। ५)
सभी राक्षसोंको—
रामाकार भए तिन्ह के मन।
मुक्त भए छूटे भव बंधन॥
(रा० च० मा०, लंका० ११३। ४)
इस प्रकार अपनेको दीन न समझनेवाले अति दीन राक्षसोंपर दया करके भगवान्ने उनको मारकर तार दिया।
प्रेमसे तो आपने अनेकोंको अपनाया है। सारे वानर-भालुओंको वह गौरव दिया जो बड़े-बड़े ऋषि-मुनियोंको भी दुर्लभ है—
प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान।
तुलसी कहूँ न राम से साहिब सीलनिधान॥
(रा० च० मा०, बाल० २९ क)
गौतम मुनिकी पत्नी अहल्या पतिके शापवश पाषाणकी शिला हो गयी थी। उस बेचारीमें यह भी शक्ति नहीं थी कि आर्त होकर भगवान्को पुकार सके। उसकी दीन दशा देखकर दयामय भगवान्ने स्वयं वहाँ पधारकर अपने चरण-स्पर्शसे उसका उद्धार किया।
केवटसे पैर धुलवाकर उसे अपना सुर-मुनि-दुर्लभ चरणोदक देकर परिवारसहित पार कर दिया।
पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार।
पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार॥
(रा० च० मा०, अयोध्या० १०१)
दण्डकवनको स्वयं पधारकर शापमुक्त किया और वहाँ एक स्थानपर ऋषियोंकी हड्डियोंका ढेर देखकर प्रभु दयापरवश हो गये।
अस्थि समूह देखि रघुराया।
पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया॥
(रा० च० मा०, अरण्य० ८। ३)
मुनियोंने दु:खी मनसे कहा—भगवन्!—
निसिचर निकर सकल मुनि खाए।
सुनि रघुबीर नयन जल छाए॥
(रा० च० मा०, अरण्य० ८। ४)
—राक्षसोंने सारे मुनियोंके समूहोंको खा डाला। यह हड्डियोंका ढेर उन्हीं मुनियोंके शरीरोंका है। यह सुनकर और उनके दु:खको देखकर श्रीरघुनाथजीके नेत्रोंमें जल छा गया और उन्होंने प्रतिज्ञा की—
निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह।
(रा० च० मा०, अरण्य०९)
दीन सुग्रीवको बालिके महान् अत्याचारसे बचाया। अंगदको दीन जानकर अपनाया और उसे युवराजपद दिलाया।
गीधराज जटायुपर जो दया हुई, वह तो सर्वथा अनूठी है। रावणके द्वारा घायल होकर जटायु दीन दशामें पड़ा है। श्रीरघुनाथजी उसके समीप पहुँचते हैं और उसकी दीन दशा देखकर दु:खी हो जाते हैं, उठाकर उसे अपनी गोदमें ले लेते हैं और नेत्रोंमें जल भरकर उसे आश्वासन देते हुए, अपने कोमल कर-कमलोंको उसके मस्तकपर फिराते हुए उसे सुखी करते हैं। किसी कविने क्या ही सुन्दर कहा है—
दीन मलीन दयालु बिहंग परॺो महि सोचत खिन्न दुखारी।
राघव दीनदयालु कृपालु को देख दुखी करुना भइ भारी॥
गीधको गोद में राखि कृपानिधि नैन सरोजन में भरि बारी।
बारहिं बार सुधारहिं पंख जटायु की धूरि जटान सों झारी॥
श्रीरघुनाथजीने कहा—‘हे तात! आप कुछ दिन और जीवन धारण कीजिये और मुझे पिताका सुख दीजिये।’ गीध बड़ा चतुर था, उसने कहा—
जा कर नाम मरत मुख आवा।
अधमउ मुकुत होइ श्रुति गावा॥
सो मम लोचन गोचर आगें।
राखौं देह नाथ केहि खाँगें॥
(रा० च० मा०, अरण्य० ३०। ३-४)
इतना कहकर भगवान्की गोदमें ही उनकी ओर निर्निमेष दृष्टिसे देखते हुए और मुखसे श्रीरामका पवित्र नाम उच्चारण करते हुए जटायुने मुनिदुर्लभ शान्ति प्राप्त की। तदनन्तर दयामय प्रभुने अपने हाथोंसे उसकी वैसे ही अन्त्येष्टि क्रिया की जैसे अपने पिताकी करते हैं—
पितु-ज्यों गीध-क्रिया करि रघुपति अपने धाम पठायो।
ऐसो प्रभु बिसारि तुलसी सठ! तू चाहत सुख पायो॥
(गीतावली, अरण्य० १६)
दयालुताका कैसा अनुपम उदाहरण है!
प्रजावत्सलता
भगवान् श्रीरामचन्द्रजी अपने सुन्दर बर्ताव और वत्सलतापूर्ण क्रियाओंसे प्रजाके कितने अधिक प्रेमभाजन हो गये थे, इसका पता तब लगता है जब उनके वनगमनकी तैयारी होती है। राज्याभिषेकके उत्सवसे तमाम प्रजामें आनन्द छा रहा है। प्रजामें हर्षका सागर उमड़ उठता है। अचानक दृश्य बदल जाता है। श्रीराम लक्ष्मण और सीताजीको साथ लेकर मुनिवेषमें वनको पधार रहे हैं। प्रजा इस दृश्यको देख न सकी। प्रजा उनके विरह-दु:खको सहनेमें अपनेको असमर्थ पाकर उनके साथ हो ली। श्रीरघुनाथजीने उन्हें बहुत प्रकारसे समझाया, परन्तु प्रेमवश कोई भी अयोध्यामें रहना नहीं चाहता।
सबहिं बिचारु कीन्ह मन माहीं।
राम लखन सिय बिनु सुखु नाहीं॥
जहाँ रामु तहँ सबुइ समाजू।
बिनु रघुबीर अवध नहिं काजू॥
(रा० च० मा०, अयोध्या० ८३। ३)
यह निश्चय करके बालक और वृद्धोंको घरोंमें छोड़कर सब लोग उनके साथ हो लिये—
बालक बृद्ध बिहाइ गृहँ लगे लोग सब साथ।
(रा० च० मा०, अयोध्या० ८४)
आखिर श्रीरामजीको उन्हें सोये छोड़कर ही आगे बढ़ना पड़ा। जब श्रीभरतजी चित्रकूट जाने लगे, तब प्रजामें श्रीरामदर्शनकी इतनी उत्सुकता बढ़ी कि घरोंकी रखवालीके लिये किसीने घर रहना स्वीकार नहीं किया। जिसको घर रहनेके लिये कहा जाता वही समझता मानो मेरी गर्दन कट रही है।
जेहि राखहिं रहु घर रखवारी।
सो जानइ जनु गरदनि मारी॥
(रा० च० मा०, अयोध्या० १८४। ३)
सब लोग भरतजीके साथ चित्रकूट गये।
जब श्रीरघुनाथजी लंका-विजय करके लौटे तब तो प्रजाके हर्षका पार न रहा। समाचार पाते ही वे सब-के-सब नर-नारी, जो जैसे बैठे थे, वैसे ही उठकर दौड़ पड़े। श्रीभगवान्को लक्ष्मणजी और जानकीजीसहित देखकर सब अयोध्यावासी हर्षित हो गये, उनकी वियोगजनित विपत्ति नष्ट हो गयी। सब लोगोंको प्रेमविह्वल तथा मिलनेके लिये अत्यन्त आतुर देखकर भगवान् श्रीरामजीने एक चमत्कार किया। उसी समय कृपालु श्रीरामजी असंख्य रूपोंमें प्रकट हो गये और सबसे एक ही साथ यथायोग्य मिले। श्रीरघुवीरजीने कृपादृष्टिसे देखकर सब नर-नारियोंको शोकरहित कर दिया। भगवान् क्षणमात्रमें इस प्रकार सबसे मिल लिये। शिवजी कहते हैं—हे उमा! यह रहस्य किसीने नहीं जाना।
प्रभु बिलोकि हरषे पुरबासी।
जनित बियोग बिपति सब नासी॥
प्रेमातुर सब लोग निहारी।
कौतुक कीन्ह कृपाल खरारी॥
अमित रूप प्रगटे तेहि काला।
जथा जोग मिले सबहि कृपाला॥
कृपादृष्टि रघुबीर बिलोकी।
किए सकल नर नारि बिसोकी॥
छन महिं सबहि मिले भगवाना।
उमा मरम यह काहुँ न जाना॥
(रा० च० मा०, उत्तर० ५। २—४)
सच पूछिये तो प्रजाके सुख और सन्तोषके लिये ही श्रीरामजीने राज्यपद स्वीकार किया और वास्तवमें यही आदर्श है। जो प्रजाके सुखके लिये ही राजा बनता है वही राजा यथार्थ राजा है। अवधवासियोंके भाग्यका तो कहना ही क्या है, जहाँ प्रेमपरवश स्वयं भगवान् राजा बने हैं। शिवजी कहते हैं—
उमा अवधबासी नर नारि कृतारथ रूप।
ब्रह्म सच्चिदानंद घन रघुनायक जहँ भूप॥
(रा० च० मा०, उत्तर० ४७)
आपकी प्रजावत्सलताका एक ऐसा उदाहरण है जिसकी तुलना जगत् में कहीं नहीं है। जिन सीताजीके लिये आप वन-वनमें विलाप करते भटके, जिनके लिये रावणसे घोर युद्ध किया—केवल प्रजारंजनके लिये हृदयको अत्यन्त कठोर बनाकर उन्हीं सीताजीको निर्दोष समझते हुए भी आपने वनमें भेज दिया। धन्य है!
भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके गुणोंकी गाथा गाकर कौन पार पा सकता है। वे परम दयालु, परम प्रेमी, परम सुहृद्, परम संयमी, परम कल्याणाश्रय, महान् वीर्यवान्, महान् बुद्धिमान्, शस्त्रविद्याविशारद, सौन्दर्य-माधुर्यके निधि, कान्तिमान्, धृतिमान्, जितेन्द्रिय, अत्यन्त गम्भीर, परम विनयी, महान् धीर, अनुपम प्रियदर्शन, मधुरभाषी, महान् क्षमाशील, परम उदार, परम ब्रह्मण्य, संगीतकलानिपुण, आदर्श सत्यवादी और सत्यव्रती, कुसुमसे भी कोमल, किन्तु कर्तव्यपालनमें वज्रसे भी कठोर, परम यशस्वी, महान् वाग्मी, सर्वशास्त्रतत्त्वज्ञ, महान् प्रतिभाशाली, आदर्श पुत्र, आदर्श शिष्य, आदर्श पति, आदर्श भाई, आदर्श स्वामी, आदर्श राजा, आदर्श मित्र, आदर्श शूरवीर, आदर्श आश्रयदाता, आदर्श गुणवान्, आदर्श सदाचारी, आदर्श धर्मव्रती, आदर्श त्यागी, नीतिपरायण, साधुजनप्रिय, परम प्रतापवान्, धर्मरक्षक, सर्वप्रिय, सर्वान्तर्यामी और सर्वशक्तिमान् हैं।
सत्यवादिताके सम्बन्धमें तो उन्होंने स्वयं घोषणा की है—‘रामो द्विर्नाभिभाषते’ (वा० रा० अयोध्या० १८।३०)—राम दो बार नहीं बोलते। अर्थात् एक बार जो कह दिया सो निश्चित हो गया।
धर्मपरायणताका क्रियात्मक उदाहरण तो उनका समस्त जीवन ही है। साक्षात् भगवान् होनेपर भी आप धर्मकी मर्यादारक्षाके लिये नियमितरूपसे सन्ध्या-अग्निहोत्रादि कर्म स्वयं करते हैं। वर्णाश्रमके अनुसार ब्राह्मणों, ऋषियों तथा गुरुजनोंका पूजन करते हैं, यज्ञ-यागादि करते हैं, मन्दिरोंकी स्थापना और मूर्तिपूजन करते हैं, श्राद्ध-तर्पणादि क्रिया सावधानीसे करते हैं।
चित्रकूटमें भरतजीके साथ गये हुए ऋषियोंमें जाबालि नामक एक ऋषि थे। वे महाराज दशरथजीकी सभाके एक प्रधान सदस्य थे। श्रीरामजीको अयोध्या लौटनेकी बात समझाते हुए उन्होंने कुछ ऐसी बातें कहीं जो नास्तिकवादका समर्थन करनेवाली थीं। उनकी बातोंको सुनकर मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् लीलासे उनपर रुष्ट हो गये और उन्होंने मुनिको फटकारकर बहुत कुछ कहा—
निन्दाम्यहं कर्म कृतं पितुस्तद्
यस्त्वामगृह्णाद् विषमस्थबुद्धिम्।
बुद्ध्यानयैवंविधया चरन्तं
सुनास्तिकं धर्मपथादपेतम्॥
(वा० रा०, अयोध्या० १०९। ३३)
‘इस प्रकारकी बुद्धिसे आचरण करनेवाले तथा परम नास्तिक एवं धर्ममार्गसे हटे हुए आपको जो मेरे पिताजीने अपना याजक बनाया मैं उनके इस कार्यकी निन्दा करता हूँ; क्योंकि आप बुरे मार्गमें स्थित बुद्धिवाले हैं।’
इन वचनोंसे पता लगता है कि महाराज श्रीरामचन्द्रजी नास्तिकवादको कितना बुरा समझते थे। नास्तिकवादकी निन्दामें अपने उन पिताके कार्यकी भी निन्दा की, जिनके वचनोंकी रक्षाके लिये आज वनमें बस रहे हैं।
अन्तमें जाबालि मुनिके यह कहनेपर कि मैं नास्तिक नहीं हूँ, मैंने तो केवल आपको लौटानेके लिये तर्कके तौरपर ये बातें कही थीं। यह मेरा मत नहीं है और गुरु वसिष्ठजीके द्वारा जाबालिजीके इस कथनका समर्थन होनेपर भगवान् श्रीरघुनाथजी शान्त हुए।
भगवान् श्रीरामजीके सभी भाव विलक्षण हैं। आपका जन्म, बालभाव, कुमारभाव, मिथिलाका मधुरभाव, वनका तापसभाव, लंकाका वीरभाव, राजभाव, प्रेमभाव सभी आदर्श महान् और अनुकरणीय हैं। आपके आदर्श जीवनसे जो लाभ नहीं उठाता, वह बड़ा ही मन्दभागी है।
श्रीरामचन्द्रजीके सभी गुण और आचरण आदर्श हैं। उनमें एक भी ऐसी बात नहीं है जो परम आदर्श और अनुकरण करने योग्य न हो। कहीं कोई बात असंगत या अपने मनके प्रतिकूल प्रतीत होती है तो उसमें प्रधान कारण है श्रद्धाकी कमी। श्रद्धा कम होनेसे भगवान्के तत्त्व, रहस्य, गुण और प्रभावका ज्ञान नहीं होता; इसी कारण उनकी लीलामें भ्रमवश मनमें शंका हो जाती है। कोई लीला न समझमें आवे तो उसके अतिरिक्त अन्यान्य आचरणोंका अनुकरण और उनके उपदेशोंका पालन अवश्य ही करना चाहिये। भगवान्ने अपने भाइयोंको तथा प्रजाको जो परम सुन्दर उपदेश दिये हैं, उनका अक्षरश: पालन करनेकी चेष्टा करनी चाहिये और प्रभुकी आज्ञा या उनके आचरणके अनुसार यत्किंचित् भी चेष्टा होने लगे तो इसमें प्रभुकी ही कृपा समझनी चाहिये तथा भगवान्की इस कृपाका बारंबार लक्ष्य और अनुभव करते हुए क्षण-क्षणमें मुग्ध होना चाहिये। महाराजकी प्रत्येक लीलामें प्रेम, दया, क्षमा, सत्य आदि गुण भरे हैं; उनका अपरिमित प्रभाव सब लीलाओंमें व्याप्त है—यह निश्चय करके प्रत्येक क्रियामें उनके आदर्श व्यवहार, उनके महान् गुण, उनके प्रभाव, तत्त्व और रहस्यका चिन्तन करते हुए तथा उनकी अमृतमय रूपलावण्ययुक्त मनोमोहिनी मूर्तिका प्रत्यक्षवत् ध्यान रखते हुए सदा प्रसन्न होना चाहिये। वे पुरुष धन्य हैं जो साक्षात् पूर्णब्रह्म परमेश्वर मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्रजी महाराजके नाम, रूप, गुण, चरित्र, प्रभाव, तत्त्व और रहस्यको समझ-समझकर प्रेम और आनन्दमें तन्मय हुए संसारमें उनका अनुकरण करते हुए विचरते हैं। वह पृथ्वी धन्य है जहाँ ऐसे पुरुष निवास करते हैं। ऐसे साक्षात् कल्याणमय पुरुषोंका जो दर्शन, भाषण, स्पर्श, स्मरण और संग लाभ करते हैं, वे भी पवित्र हो जाते हैं। ऐसे पुरुषोंके जहाँ चरण टिकते हैं, वह देश तीर्थ बन जाता है और वहाँ प्रेम, आनन्द और शान्तिका स्रोत बहने लगता है। वह कुल धन्य, जगत्पूज्य और परमपवित्र है जहाँ ऐसे भगवत्परायण पुरुषरत्न उत्पन्न होते हैं। भगवान् शिवजी महाराज कहते हैं—
सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत।
श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत॥
(रा० च० मा०, उत्तर० १२७)